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नए साल २०२१ का आग़ाज़ : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और इरशाद खान सिकंदर की रचनाओं से http://humrang.com/

उम्मीद एक शब्द है जिए जाने का,

वरना बीते साल ने कहाँ का छोड़ा है।

इसी उम्मीद के सहारे नए सपनों, आशाओं, प्रेम और इंसानियत से भारी दुनिया सजाने की उम्मीद के साथ आइए फिर से करते हैं इस नए वर्ष २०२१ का स्वागत॰॰॰॰॰॰

'हनीफ़ मदार' की कहानी "ईदा" लाइव विडीओ http://humrang.com/

ईदा, गांव, गांव वाले, सब कुछ बस ऐसे ही चल रहा था । इस चलने में, गांव में सब एक दूसरे को बस आदमी के रुप में पहचानते थे । अचानक उन्नीस सौ बानबै के बाद इन्सान को हिन्दू-मुस्लिम के रुप में मिलती पहचान से यह गांव भी अछूता नहीं रहा था । बुद्धू ईदा के इस गांव में कुछ विद्वान अवतरित हो गये थे । वे कहां से ओर कैसे आये ? कौन लाया ? कोई नहीं जान पाया, हां गहराती शामों में अक्सर ही गांव के मन्दिर में, हिन्दुत्व की गौरवशाली परम्परा और गढ़ी की मस्ज़िद में, दीन की हिदायतों का ज्ञान लोगों को निशुल्क बंटने लगा था । ईदा को इस ज्ञान से कोई मतलब नहीं था । वह इस सब से बेखबर शामों में निपट अकेला-सा हो जाता तो कभी वह गढ़ी के दरवाजे पर जा बैठता और उकता जाता तो गांव की गलियों के चक्कर लगाता । गलियों में या चौक में पसरा सन्नाटा उसे परेशान करता तो वह खीझकर कहीं किसी चबूतरे पर जा बैठता ।॰॰॰॰॰

उन्नीस-बीस के बदलाव की उम्मीद का जश्न॰॰॰ http://humrang.com/

  

   

दरअसल हम उम्मीदों के मुरीद हैं। यही आशाएँ हमारा साहस और सम्बल हैं । भिन्न-भिन्न आशाएँ भिन्न-भिन्न जश्न और उसके अवसर। जैसे नए साल का जश्न, जिसका हमेशा ही एक सार्थक और बेहतर मानवीय बदलाव की उम्मीद के साथ स्वागत किया जाता रहा है  किंतु कलेंडर बदलने से ज़्यादा कितना कुछ, क्या और कैसा, दृष्टिगोचर होता रहा इसे भी देखा और समझा जाता है । बावजूद इसके एक बार फिर उम्मीद है उन्नीस से बीस के बदलाव के साथ कुछ उन्नीस-बीस के बदलाव की ।

बंद कमरे की रोशनी : कहानी (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

फ़िरोज़ खान के संस्कृत पढ़ाने को लेकर उठे विवाद के वक़्त में लगभग डेढ़ दशक पहले लिखी इस कहानी को पढ़ते हुए एक ख़ास बात जो स्पष्ट रूप से सामने आती है कि बीते इन वर्षों में भले ही हम आधुनिकता और तकनीकी दृष्टि से बहुत तरक़्क़ी कर गए हैं किंतु यह बिडंबना ही है कि सामाजिक रूप से हमारी मानसिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं  आ पाया । जहाँ इधर फ़िरोज़ खान का संस्कृत पढ़ाना राजनैतिक हित-लाभ का अस्त्र बनता जा रहा है वहीं डेढ़ दशक पहले लिखी कहानी का पात्र मास्टर अल्लादीन का संस्कृत पढ़ाना भी वोट की राजनीति को इस्तेमाल होता है॰॰॰॰॰॰एक समुदाय विशेष के द्वारा किसी भी भाषा पर अपनी बपौती समझ, समाज में साम्प्रदायिक लड़ाई- झगड़े करवाकर लोगों के अन्दर अनचाहा भय पैदाकर समाज की शान्ति भंग करके अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने वाले वर्ग की नंगी दास्ताँ है "हनीफ़ मदार" की यह कहानी - अनिता चौधरी

प्रेमचंद, एक पुनर्पाठ की ज़रूरत: आलेख (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

वर्तमान औपनिवेशिक पूंजीवादी खतरों से जूझते समय के साथ साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों से रूबरू होते समय में, लगता है कि हमारा कल आधुनिकता के जाल में उलझा, हमारे आज में मौजूद है तब निश्चित ही प्रेमचंद के पुनर्पाठ की आवश्यकता है |

'मित्रो मरजानी' से अनंत यात्रा पर 'कृष्णा सोबती', स्मरण शेष http://humrang.com/

भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिन्दी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ कृष्णा सोबती अपनी संयमित अभिव्यक्ति और रचनात्मकता के लिए जानी जाती रहीं उनकी लंबी कहानी मित्रो मरजानीके लिए  कृष्णा सोबती पर हिंदी पाठकों का फ़िदा हो उठना इसलिए नहीं था कि वे साहित्य और देह के वर्जित प्रदेश की यात्रा की ओर निकल पड़ी थीं बल्कि उनकी महिलाएं ऐसी थीं जो कस्बों और शहरों में दिख तो रही थीं, लेकिन जिनका नाम लेने से लोग डरते थे.यह मजबूत और प्यार करने वाली महिलाएं थीं जिनसे आज़ादी के बाद के भारत में एक खास किस्म की नेहरूवियन नैतिकता से घिरे पढ़े-लिखे लोगों को डर लगता था. कृष्णा सोबती का कथा साहित्य उन्हें इस भय से मुक्त कर रहा था. वास्तव में कथाकार अपने विषय और उससे बर्ताव में केवल अपने आपको मुक्त करता है, बल्कि वह पाठकों की मुक्ति का भी कारण बनता है. उन्हें पढ़कर हिंदी का वह पाठक जिसने किसी हिंदी विभाग में पढ़ाई नहीं की थी लेकिन अपने चारों तरफ हो रहे बदलावों को समझना चाहता था.

 

इसके अलावा निकष’, ‘डार से बिछुड़ी’, मित्रों मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन-पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरज मुखी अँधेरे के’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘ लड़की’, ‘दिलो-दानिश’, ‘हम हशमतऔर समय सरगमसे गुज़री आपकी लम्बी साहित्यिक ज़िंदगी में अपनी हर नई रचना में आपने ख़ुद अपनी क्षमताओं का अतिक्रमण किया जो सामाजिक और नैतिक बहसों की अनुगूँज के रूप में बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, के साथ पाठकों में बराबर बनी रही

 

साहित्य अकादमी पुरस्कार और उसकी महत्तर सदस्यता के अतिरिक्त, अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती साहित्य की समग्रता में ख़ुद के असाधारण व्यक्तित्व को भी साधारणता की मर्यादा में एक छोटी-सी कलम का पर्याय ही मानती रहीं बावज़ूद आपने हिन्दी की कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी आज अपने बीच से उनका चले जाना भले ही एक जीवन चक्र का पूरा होना हो किंतु यह सम्पूर्ण हिंदी साहित्य जगत के लिए एक ऐसी अपूर्णीय रिक्तता की तरह है  जिसे भर पाना नामुमकिन है

 

उन्हीं की एक कहानी के साथ हमरंगपरिवार कृष्णा सोबती को नमन करता है

लोकोदय साहित्य संवाद, मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य में एक ऐतिहासिक हस्तक्षेप http://humrang.com/

लोकोदय साहित्य संवाद, मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य और घटती पाठकीयता, विषय पर परिचर्चा एवं पुस्तक लोकार्पण 

हमरंग परिवार की ओर से नए साल 2019 की बहुत बधाई http://humrang.com/

हमरंग परिवार की ओर से नए साल 2019 की बहुत बधाई
चित्र 'अयान मदार'

अनुप्राणित : कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

प्रेम एक खूबसूरत इंसानीय व मानवीय जीवन्तता का एहसास है जो किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय से बढ़कर होता है जिस पर किसी भी तरह की बंदिशे नहीं लगाई जा सकती क्योंकि बिना प्रेम के मानव जीवन संभव नहीं होता | प्रेम से ही जीवन को नई ऊर्जा, संघर्ष करने की क्षमता और जीवन के रंगों की पहचान होती है | ऐसा ही उदाहरण पेश करती है हनीफ मदार की कहानी ‘अनुप्राणित’ |….. अनीता चौधरी

जश्न-ए-आज़ादी : कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

‘हनीफ मदार’ की छोटी किन्तु बेहद मार्मिक और संवेदनशील कहानी ‘जश्न-ए-आज़ादी’ हाल ही में आउटलुक हिंदी के जनवरी २०१६ के अंक में प्रकाशित हुई जिसे देश भर के पाठकों की बेहद सराहना मिली | इस कहानी पर पाठकों के अनगिनत फ़ोन और संदेश मिलते रहे | भारतीय ‘गणतंत्र’ की 67 वीं वर्षगाँठ पर प्रसंगवश यह कहानी अति महत्वपूर्ण जान पड़ी इस लिए आज आप सब के लिए इस कहानी को हमरंग पर प्रकाशित कर रहे हैं …… आपकी प्रतिक्रियाएं अपेक्षित हैं …. गणतंत्र दिवस की अनेक बधाइयों के साथ …..| – अनीता चौधरी

रोज़ा…: कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

समाज में फ़ैली धार्मिक कट्टरता व् आडम्बरों पर तीखा प्रहार करती और ठहर कर पुनः सोचने को विवश करती, “हनीफ मदार” की छोटी एवं बेहद मार्मिक कहानी ……| – अनीता चौधरी

रसीद नं0 ग्यारह: कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

समय के बदलाव के साथ कदमताल करते हुए चलने एवं बेहतर जीवन यापन के लिए बेहतर शिक्षा व्यवस्था की जरूरत को समझने समझाने के भ्रम जाल के बीच, समय के साथ मुस्लिम समाज में भी पुरानी बंदिशें टूटने लगीं हैं| जलसे आदि में भी शिक्षा व्यवस्था में बदलाब पर बहस की शुरुआत हो चुकी है| लेकिन हनीफ मदार जैसे कलमकार इन विषयों पर कहानी लिखकर महत्वपूर्ण एवं सार्थक रचनात्मक हस्तक्षेप कर रहे हैं | – अनीता चौधरी

मैं भी आती हूं ….! : कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

वर्तमान समय की उपभोगातावादी व्यवस्था के कारण हरी भरी भूमि और पेड़ों को काटकर ईट पत्थर की चन्द दीवारों द्वारा बने मकानों के दर्द को बयाँ करती है हनीफ मदार की कहानी ‘ मैं भी आती हूँ ….. ‘ जिसमें धर्म के आगे सारे पर्यावरण को बचाए जाने की सरकारी मुहीम खोखली नजर आती है | और दूसरी तरफ यह कहानी आज के समय में एक सामंत और नौकर के बीच बनी खाई को एक अलग ढ़ंग से प्रस्तुत करती हुई नजर आती है – अनीता चौधरी

चरित्रहीन : कहानी http://humrang.com/

आज भी जिस समाज में पुरषों का इधर उधर मुहँ मारना उनकी पुरुषीय काबलियत माना जाता है और औरत के इंसान होने के हक़ की बात करना भी उसके चरित्रहीन होने का प्रमाण घोषित हो जाता हो उस समाज में औरत की अस्मिता से जुड़े सवाल शायद ही कभी ख़त्म हो सके | ऐसे समय में महिलाओं को प्रेरणा देती कहानी ‘चरित्रहीन’ समाज में उस पुरुषरुपी प्रेमी की रूढीवादी मानसिकता को उजागर करती है| जो सिर्फ एक शब्द द्वारा ही उसके इंसानी स्वरूप में जीवन जीने के सारे रास्ते बंद करना चाहता है | वहीँ दूसरी तरफ पिता जैसे पुरूष भी है जो अपनी बेटी को जिन्दगी की तमाम इच्छाओं को जानते हुए भी बार बार अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की दुहाई देते हुए सब कुछ चुपचाप सहन करने की नसीहतें देते है | इन्हीं तमाम सवालों से जूझती और स्त्री विमर्श के रूप में बेहद प्रेरणास्पद कहानी है चरित्रहीन |– अनीता चौधरी

जन कवि ‘वीरेन डंगवाल’ को आखिरी सलाम (हमरंग) http://humrang.com/

इस त्रासद समय में भी ‘उजले दिन जरूर आएंगे’ का भरोसा दिलाने वाले साथी जन कवि ‘वीरेन डंगवाल’ हमारे बीच नहीं रहे | आज सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली ….| इस जन साहित्यिक त्रासद पूर्ण घटना से दुखी सम्पूर्ण हमरंग परिवार हम सबके प्यारे कवि ‘वीरेन डंगवाल’ को आखिरी सलाम करता है …. उनको स्मरण करते हुए उन्हीं की दो कवितायें हमरंग पर ……| – हमरंग परिवार

उद्घाटन: कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

1 जनवरी 2015 को नव वर्ष के अवसर पर सफ़दर हाशमी को समर्पित कोवलेन्ट ग्रुप द्वारा आयोजित कार्यक्रम “तू ज़िंदा है, मैं ज़िंदा हूँ ” में इस कहानी ‘उद्घाटन’ का चारित्रिक पाठ हुआ था | बेहद सफलतम इस कार्यक्रम की रिपोर्ट हमरंग पर आप पहले ही पढ़ चुके हैं परन्तु इस कहानी को पढने की आपको जिज्ञासा जरूर रही होगी | हमें खेद है कि समयाभाव के कारण यह कहानी आपके सामने जल्दी नहीं आ सकी | खैर देर से ही सही- तो लीजिये आज पढ़िए हनीफ मदार की बेहद प्रासंगिक कहानी ‘उद्घाटन’ | – अनीता चौधरी

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता (हनीफ मदार) सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है | अदम गौंडवी साहब को क्या जरूरत थी इस लाइन को लिखने की | खुद तो चले गए लेकिन इस विरासत को हमें सौंप कर जिसके चंद शब्दों की सच बयानी या साहित्यिक व्याख्या आज किसी को भी देश द्रोही कहलवा सकती है | दरअसल यह लेख लिखते समय अचानक इन लाइनों ने आकर दस्तक दी है और परेशान किया है | जबकि हम सब पूरा देश स्वाधीनता दिवस की 69वीं वर्षगाँठ पर आज़ादी के जश्न की ख़ुमारी में डूबे हैं | यही समय है जब देशभक्ति हमारे रोम-रोम से फूट पड़ने को आतुर होती है | और यह होना भी चाहिए स्वाभाविक भी तो है क्योंकि आज़ादी खुद जश्न की वायस है ज़िंदगी का सर्वोत्तम है इसलिए यह लालसा न केवल इंसान को बल्कि हर जीव को होती है | फिर हमने तो इस आज़ादी के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है | हमें गर्व है कि हम दुनिया के एक मात्र ऐसे देश हिन्दुस्तान के बाशिन्दे हैं जहाँ विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग-समूह, भाषा-भूषा, कला-संस्कृति, पर्व-अनुष्ठान एक साथ सांस लेते हैं | हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस की वर्षगाँठ मनाते हुए हम समय के लिहाज़ से एक और वर्ष आगे बढ़ चुके होते हैं यानी व्यवस्थाओं और सुशासन में एक वर्ष आगे की प्रगति | वैसे भी यह दिन महज़ राष्ट्र ध्वज फहराकर इतिश्री करने का तो नहीं ही है बल्कि देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हुए हज़ारों शहीदों के अरमानों में बसने वाले आज़ाद भारत के सपने की दिशा में बढ़ने का संकल्प लेने का भी तो है |

परिवर्तनगामी चेतना की संवाहक प्रस्तुति… नाट्य समीक्षा (हनीफ मदार) http://humrang.com/

‘आशिया मदार’ के निर्देशन में भारतेंदु नाट्य अकादमी द्वारा पच्चीस दिवसीय नाट्य कार्यशाला में ‘राजेश कुमार’ द्वारा लिखत नाटक ‘सपने हर किसी को नहीं आते’ का मंचन 16 दिसम्बर को एच पी एस सभागार में किया गया | इस प्रस्तुति पर ‘हनीफ मदार का समीक्षात्मक आलेख …. | – अनीता चौधरी

वर्तमान राजनीति का माइक्रोस्कोप नाटक “साइकिल” (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

साइकिल एक साहित्यिक कृति से आगे एक जीवन की कहानी है | कहानी भी महज़ एक मुन्ना की नहीं अपितु देश दुनिया के हर गरीब मजदूर की कहानी है शायद इसीलिए दृश्य दर दृश्य देखते हुए दर्शक के रूप में यह लगने लगता है कि यह मेरी ही कहानी है | और लगे भी क्यों न भारतीय गणतंत्र को सात दशक पूरे होने को हैं सत्ता परिवर्तन होते रहे लेकिन इस गणतंत्र में गण के जीवन में कोई बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता | ऐसे में निश्चित ही यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि हमारी सरकारों को क्यों यह समझ नहीं आता कि आज भी अपने ही गणतंत्र में कोई भी आम जन या मजदूर क्यों यह सोचता है कि उसकी कोई सुनने वाला नहीं है | लगभग डेढ़ घंटे तक विभिन्न पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक घटनाक्रमों से गुजरते हुए चलने वाला यह नाटक इन्हीं सवालों से जूझता है ……

पीछे जाते समय में…. भीष्म साहनी: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

आज यूं अचानक ‘भीष्म सहनी‘ की याद आ जाने के पीछे ‘अनहद‘ के संपादक ‘संतोष कुमार चतुर्वेदी‘ का कुछ महीने पूर्व का आग्रह रहा है ज़ाहिर है यह आलेख विस्तृत रूप से ‘अनहद‘ के ताज़ा अंक फरवरी २०१६ में प्रकाशित हुआ है | तब इसका यहाँ संपादकीय आलेख के रूप में इस्तेमाल, हमरंग के साथी, पाठकों के आग्रह का नतीज़ा है | हालांकि शब्द सीमा के चलते आलेख में कुछ काट-छांट के बाद ही यहाँ लगाया जा सका है …. विस्तृत लेख अनहद के ताज़ा अंक से ही पढ़ा जा सकेगा …..| – संपादक

मई दिवस एक ऑपचारिक चिंतन…!: ”हनीफ़ मदार” http://humrang.com/

कॉल सेंटर, माल्स, प्राइवेट बैंक, प्रिंट या इलैक्ट्रोनिक मीडिया जैसी आदि अन्य निज़ी कम्पनियों, में नौकरी करने वाले लोगों के पास समय नहीं है | मित्रों, रिश्तेदारों, पत्नी और बच्चों के लिए परिणामतः न केवल दाम्पत्य में ही दरारें उत्पन्न हो रहीं हैं बल्कि व्यक्ति खुद भी असंतोष का शिकार हैं | यह तो उनकी बात रही जो कहीं न कहीं नौकरी शुदा हैं | इसके अलावा देश में चालीस करोड़ से ज्यादा असंगठित क्षेत्रों मसलन ईंट भट्टों पर काम करने वाले या चाय की दुकान पर, बंगलों के सामने खड़े रहने वाले गार्ड या फिर ठेकेदारों के नीचे काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर आदि की स्थितियां भी इससे बेहतर नहीं हैं | इन मजदूरों का समय की परवाह किये बिना दिन रात अपने काम में शारीरिक और मानसिक श्रम में जुटे रहने के बाद भी दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल जान पड़ रहा है | अच्छे पैकेज पर प्लेसमेंट पाने की आत्ममुग्धता वाले युवा या फिर वर्षों से अच्छी सैलरी की आत्ममुग्धता में नौकरी करने वाले दम्पति, शहरी या इंग्लिश स्कूलों में अपने एक बच्चे को भी पढ़ा पाने की क्षमता में नहीं हैं | बारह से चौदह घंटे की मेहनत के बाद भी आर्थिक अभावों से जूझते मजदूर को देखकर क्या यह माना जा सकता है कि हम आधुनिक विकास के तकनीकी युग में जी रहे हैं ..? काम के असीमित घंटों और मानवीय क्षमताओं से बहुत ज्यादा काम के लक्ष्य निर्धारण पूर्ती के बाद आधा पेट भरने लायक मजदूरी….. तब यह लगने लगता है जैसे हम आधुनिक विकास के भ्रम की अवधारणा के साथ पुनः लगभग तीन सौ साल पीछे जा पहुंचे हैं या फिर यह कान को घुमा कर पकड़ लेने जैसा है| मजदूर की यह हालत अमेरिका, चीन, जापान, भारत या फिर पाकिस्तान आदि में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मजदूर वित्तीय पूँजी के शोषण के शिकार हैं |

डा0 भीमराव अम्बेडकर को पढने की जरूरत है: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

डा0 भीमराव अम्बेडकर को पढने की जरूरत है हनीफ मदार दलित चिंतन के बिना साहित्य या समाज को पूर्णता न मिल पाना एक व्यावहारिक यथार्थ है कि बिना दलित समाज या उस वर्ग पर बात किये हम अपने समय समाज को गति प्रदान नहीं कर सकते | और यह इस लिए भी कि दलित वर्ग वस्तुगत रूप से श्रमिक वर्ग से सम्बद्ध रहा है | ग्रामीण भारतीय समाज में प्रारम्भ से ही दलित वर्ग की अद्धुतीय भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, कारणतः समाज को उसकी अनुपस्थिति में सामाजिक विकास की गति ही नहीं मिल सकती | लेकिन विडम्बना रही है कि सदियों से इस वर्ग की न केवल उपेक्षा की गई बल्कि उसे इंसान होने का अधिकार भी नहीं दिया गया | मानव सभ्यता के विकास का युग कोई भी रहा हो किन्तु सत्ता और शासन ने भारतीय समाज की इस वर्णवादी व्यवस्था को बदलने की कोशिश नहीं की | बीसवीं शताब्दी तक अंग्रेज शासन भी वर्णवादी व्यवस्था के कर्णधारों से परोक्षतः परस्पर हितों के लिए स्वार्थी गठबंधन ही कर रहा था |

आखिर क्या लिखूं…..?: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

आखिर क्या लिखूं…..? हनीफ मदार हनीफ मदार कितना तकलीफ़देह होता है उस स्वीकारोक्ति से खुद का साक्षात्कार, जहाँ आपको एहसास हो कि जिस चीज़ की प्राप्ति या तलाश में आप अपना पूरा जीवन और सम्पूर्ण व्यक्तित्व दाँव पर लगाए रहे, इस वक़्त में उसी चीज़ की अपनी सार्थकता ख़त्म हो रही है…| जीवन के महत्वपूर्ण पच्चीस साल इधर लगा देने के बाद आज रूककर सोचने को विवश हूँ कि मैं जो लिख रहा हूँ इसकी सार्थकता क्या है….? सिर्फ मैं ही नहीं सब लेखक इस यातना से गुज़रे हैं या गुज़र रहे होंगे और अपने लिखे की सामाजिक सार्थकता के साथ मुठभेड़ करते हुए मेरी ही तरह खुद से सवाल भी कर रहे होंगे कि मैं किसके लिए और क्यों लिख रहा हूँ….?

अनुप्राणित: कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

प्रेम एक खूबसूरत इंसानीय व मानवीय जीवन्तता का एहसास है जो किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय से बढ़कर होता है जिस पर किसी भी तरह की बंदिशे नहीं लगाई जा सकती क्योंकि बिना प्रेम के मानव जीवन संभव नहीं होता | प्रेम से ही जीवन को नई ऊर्जा, संघर्ष करने की क्षमता और जीवन के रंगों की पहचान होती है | ऐसा ही उदाहरण पेश करती है हनीफ मदार की कहानी ‘अनुप्राणित’ |….. अनीता चौधरी

365 दिन के सफ़र में “हमरंग”: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

365 दिन के सफ़र में “हमरंग” (हनीफ मदार) हनीफ मदार साथियो जहाँ समय का अपनी गति से चलते रहना प्राकृतिक है, वहीँ वक्ती तौर पर चलते हुए अपने निशान छोड़ना इंसानी जूनून है | वक़्त के उन्हीं पदचापों के अनेक खट्टे-मीठे, अहसासों और घटना-परिघटनाओं से सीखते-समझते हुए ‘हमरंग’ ने आज एक वर्ष का सफ़र तय कर ही लिया | अंकों के लिहाज़ से यह “एक” भले ही सबसे छोटी इकाई हो लेकिन यह एक वर्ष 365 दिन की वह यात्रा है जिसका हर दिन कुछ नई उपलब्धियों, चुनौतियों, उर्जा और अवसाद लिए अलग-अलग रूप एवं कलेवर में प्रस्तुत होता रहा है | गोया आज हमरंग के इस एक वर्ष के सफ़र को, हम, जीवन की अविस्मर्णीय यादों की एक बेशकीमती पोटली के रूप में पा रहे हैं | समय की दृष्टि से यथा संभव हमरंग की लम्बी यात्रा के पहले पड़ाव पर पहुंचकर इस यात्रा के कुछ अनुभव मैं आपके साथ बाँट लेना चाह रहा हूँ | यह इसलिए भी कि इस सफ़र के हर दिन से जूझने, संघर्ष करने और दिशा देने की जिम्मेदारी भले ही हमारी थी लेकिन उन चुनौतियों पर काबिज़ होने की ताक़त और समझ आपके साथ होने, आपकी हौसला अफज़ाई और आपके अटूट विश्वास से ही मिली है |

ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…?: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…? हनीफ मदार हनीफ मदार इधर हम छियासठवें गणतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं | अंकों के लिहाज़ से इस गणतंत्र वर्ष के शुरूआत 1 जनवरी २०१६ से पूरे हफ्ते हमरंग पर एक भी पोस्ट या रचना प्रकाशित नहीं हो सकी | जबकि न लेखकों की कमी थी और न ही उनकी बेहतर रचनाओं की | तब ज़ाहिरन उनके ताने-उलाहने और शिकायतें सुननी ही थीं और मैं सुन भी रहा था ‘संपादक जी मेरी कविता, कहानी, व्यंग्य, आलेख, नाटक, रपट या अन्य विधाओं की रचनाएं जो रहीं कब तक प्रकाशित करेंगे | मेरी रचना तो नए साल के लिए ही थी और आपने पढ़ी होगी बेहद प्रासंगिक भी थी’ | और यकीन मानिए निश्चित ही वे सभी रचनाएं सामाजिक, राजनैतिक और खासकर साहित्यिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थीं जो इस पूरे हफ्ते में निरंतर प्रकाशित होनी थीं | किन्तु हमारी बिडम्बना कि हमारे पास इन तमाम लेखक साथियों के सामने अफ़सोस ज़ाहिर करने, खुद में खिन्न होने और खीझने के अलावा कुछ नहीं था |

पुस्तक मेले से लौटकर…: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

पुस्तक मेले से लौटकर… हनीफ मदार हनीफ मदार एक दिन कटता है तो लगता है एक साल कट गया | भले ही यह एक किम्बदंती ही सही लेकिन वर्तमान में सच साबित हो रही है | आधुनिकता के साथ समय जिस तेज गति से आगे बढ़ रहा है उस गति से आधुनिक वैचारिक रूप में सामाजिक और राजनैतिक बदलाब दृष्टिगोचर नहीं हो रहे बल्कि इसके बरअक्श यह कहना कहीं ज्यादा उचित होगा कि वैचारिक दृष्टि से हम अपने समय को कहीं पीछे और बहुत पीछे धकेल रहे हैं | निश्चित ही यह बात एक बड़ा विरोधाभाष पैदा करती है लेकिन वर्तमान के इस सच से आँखें भी नहीं चुराई जा सकतीं | एक लेखक के रूप में यह सोचते हुए लगातार परेशान हूँ कि आखिर इस समय में क्या लिखूं , किस समाज, व्यक्ति या विचार की कहानी जिससे किसी की भावनाओं और संभावनाओं को ठेस न पहुंचे | इन शंका आशंकाओं से घिरा सोचता हूँ कि क्या विरोध, विद्रोह जैसे शब्द अपनी लेखनी से बाहर निकाल फैंकने चाहिए …, फिर वह लेखन ही क्यों ….? खासकर रचना का संकट तब और बढ़ जाता है जब, आर्थिक संकटों के अलावा शोषण की पराकाष्ठा के साथ कॉरपोरेट लूट युवाशक्ति की हताशा के रूप में नजर आ रही है | फासीवादी शक्तियों का खेल अब खुले आम होने लगा है फलस्वरूप साम्प्रदायिकता वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित हुई है | इन तमाम साम्राज्यवादी कारकों के प्रभाव में भारतीय सांस्कृतिकता और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल हासिये पर हैं | फिर लेखक सोचने को विवश है कि, ऐसे में हमारी रचनात्मक उदासीनता साम्प्रदायिक शक्तियों को अपनी सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक जीवन को और अधिक विखंडित करने का मौक़ा देती है | अतः वर्तमान की इन ज्वलंत समस्याओं से मुक्ति पाने के रचनात्मक रास्ते खोजने की जरूरत है |

नहीं टूटेगा आपका भरोसा….: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

नहीं टूटेगा आपका भरोसा…. हनीफ मदार हनीफ मदार किसी भी लेखक की पूँजी उसका रचनाकर्म होता है | अपनी रचनाओं को संजोने के लिए लेखक अपनी जिंदगी के उन क्षणों को अपने लेखन के लिए आहूत करता है जो आम तौर पर अपने निजत्व या अपनों की छोटी-छोटी खुशियों के बायस होते हैं | बावजूद इसके अनेक अलिखित और श्रमसाध्य मुश्किलों से गुज़रकर लिखा जाने वाला साहित्य या रचनाएं लेखक की अपनी नहीं होतीं क्योंकि वह खुद ही अपनी संवेदनाओं के वशीभूत, सामाजिक और मानवीय उत्तरदायित्व समझते हुए अपना सम्पूर्ण रचनाकर्म समाज को सौंप देता है | लेखक पास रहता है तो बस अदृश्य आशाओं का एक किला जिसे वह अपने प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया और सामाजिक बदलाव के रूप में देखता है | सामाजिक बदलाव की दिशा में उसकी यही आंशिक भागीदारी उसकी संतुष्टि की वाहक होती है |

अप्रभावी होता ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ (हनीफ मदार) http://humrang.com/

अप्रभावी होता ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ हनीफ मदार हनीफ मदार आज जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका पर सोचते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक दूसरे के पूरक दो शब्दों के निहितार्थाें के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस होने लगी है। क्याेंकि आज सांस्कृतिकता का पूरक आंदोलन शब्द ही हाशिये पर जा पहुंचा है। तब इस पड़ताल की आवश्यकता इस लिए और बड़ जाती है जब इन दोनों शब्दों के बीच रिक्तता की खाई को बड़ी संजीदगी से,े वे बाजारू ताकतें अपनी चमकीली हलचलों को, सांस्कृतिक आंदोलन बताकर, पूरे वर्गीय संघर्ष को भरमाने और पलीता लगाने में जुटी हैं। जब देश के बड़े मध्य वर्ग के बीच नवजागरण का स्थान दैवीय जागरण ने ले लिया है और पूरा मध्य वर्ग आंखें मूंदे किसी समतामूलक समाज की कामना में तल्लीन है। ठीक उसी समय सांप्रदायिकता का खतरनाक खेल, बाज़ारबाद, निजीकरण और सबसे ऊपर विकास का नाम देकर अपने संसाधनों को, कॉर्पोरेट के लिए जमकर लूटने की खुली छूट देने के उभार बेचैन करते हैं।

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं …? संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं …? हनीफ मदार हनीफ मदार ऐसे समय में जब पूंजीवादी व्यवस्थाओं के दमन से आर्थिक व सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है जो सामाजिक राष्ट्रीय विघटन को तो जन्म दे ही रहा है साथ ही स्वार्थ और संकीर्णता जैसी विकृतियां पैदा कर मानव मूल्यों का संकट भी पैदा कर रहा है | क्यों हो रहा है यह सब..? क्या इसे बदलने का कोई रास्ता नहीं…? यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है उतना ही मुश्किल भी | सामाजिक और राजनैतिक रूप से यह सवाल वस्तुगत तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ गहन विश्लेषण की दरकार रखता है | ऐसे में हमेशा ही भगत सिंह की आवश्यकता जान पड़ती रही है | कि हम भगत सिंह से मिलें, जानें, और समझ सकें कि आखिर क्यों आज़ादी के बाद से भी अभी तक हमने कभी यह नहीं सोचा कि एक आदमी जो खेतों में अन्न उगाता है वही भूखा क्यों सोता है…? कपडे बुनने वाला नंगा और घर बनाने वाला बेघर यानी उत्पादन करने वाले हाथ ही उन तमाम भौतिक संसाधनों से दूर क्यों हैं …? हालांकि इधर भगत सिंह को, उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘राष्ट्रवादी’ ‘सरदार’ भगत सिंह’ को विशुद्ध रूप से एक ‘राष्ट्रभक्त’ के रूप में पुनर्स्थापित किये जाने की पुरजोर कोशिश जारी हैं | यूं तो इसे सुखद अनुभूति माना जा सकता है | किन्तु बिडम्बना है कि यह सब ऐसे वक़्त में हो रहा है जब युवाओं का एक बड़ा वर्ग भगत सिंह से या तो परिचित ही नहीं है या उसे महज़ एक क्रांतिकारी के रूप में ही जानता है, कि उसने देश के लिए अपनी जान दे दी | तब महज़ राजनैतिक स्वार्थों के लिए भगत सिंह को एक ‘आक्रान्ता’ ‘राष्ट्रवादी’ योद्धा के रूप में व्याख्यायित और पुनर्परिभाषित किया जाना युवा पीढ़ी को तो भ्रम के गलियारों में भटकाने जैसा है ही साथ ही भगत सिंह जैसे महान विचारवान व्यक्तित्व के प्रति भी अन्याय ही है |

जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो…. : नाट्य समीक्षा (हनीफ मदार) http://humrang.com/

जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो…. हनीफ मदार हनीफ मदार “हमारे युग की कला क्‍या है ? न्‍याय की घोषणा, समाज का विश्‍लेषण, परिमाणत: आलोचना, विचारतत्‍व अब कलातत्‍व तक में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्‍मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्‍याप्‍त भावना से नि:सृत होती है, यदि वह पीड़ि‍त ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्‍लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल नहीं या किसी सवाल का जवाब नहीं तो वह निर्जीव है।” – बेलिंस्‍की ( 19वीं शताब्‍दी में रूस के जनवादी कवि)

मैं भी आती हूं ….! कहानी (हनीफ मदार) http://humrang.com/

वर्तमान समय की उपभोगातावादी व्यवस्था के कारण हरी भरी भूमि और पेड़ों को काटकर ईट पत्थर की चन्द दीवारों द्वारा बने मकानों के दर्द को बयाँ करती है हनीफ मदार की कहानी ‘ मैं भी आती हूँ ….. ‘ जिसमें धर्म के आगे सारे पर्यावरण को बचाए जाने की सरकारी मुहीम खोखली नजर आती है | और दूसरी तरफ यह कहानी आज के समय में एक सामंत और नौकर के बीच बनी खाई को एक अलग ढ़ंग से प्रस्तुत करती हुई नजर आती है …| – अनीता चौधरी

वह किसान नहीं है….?: (हनीफ मदार) http://humrang.com/

किसान और किसानी पर बातें तो खूब होती रहीं हैं उसी तादाद में होती रही हैं किसानों की आत्महत्याएं | बावजूद इसके कोई ठोस नीति किसानों के हक़ में अब तक नहीं बन पाई | हालांकि ऐसा भी नहीं कि भारतीय राजनैतिक पार्टियों के एजंडे में किसान शामिल न हो बल्कि किसान प्राथमिकता में दर्ज है | भारतीय विकास की अवधारणा हो या फिर कारपोरेट विस्तार की, बात बिना किसान के अधूरी है | फिर क्यों किसान आज तक महज़ बात-चीत, भाषण और कथित किसान आन्दोलन के लिए विषय भर बना हुआ है ? इधर मौसम की मार ने किसान को इस कदर हलकान किया है कि अब उस पर न केवल राजनैतिक पार्टिया ही चर्चा और वहस कर रही हैं बल्कि आम आदमी भी किसान की ही बात कर रहा है | तब फिर से वही सवाल मुंह बाए आ खडा होता कि क्यों किसान को सिवाय आत्महत्या के कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा |

बंद ए सी कमरों में झांकते होरी, धनियाँ…, संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

“ऐसा नहीं कि वर्तमान यथास्थिति का विरोध या प्रतिकार आज नहीं है, बल्कि ज्यादा है | एकदम राजनीतिज्ञों की तरह | कुछ हो न हो, बदले न बदले लेकिन व्यवस्थाई यथास्थिति का विरोध करके व्यक्ति सुर्ख़ियों में तो रहता ही है | शायद यही प्रजातांत्रिक तकनीक है | हमने भी शायद इसी सरल तरीके को अपना लिया है | रचना महत्वपूर्ण हो न हो व्यक्ति को महत्वपूर्ण बनना है तो विरोध करना है | और यह विरोध किसी ‘श्री’ या ‘अकादमी’ के अलंकरण में ही समाप्त हो लेता है | दरअसल लेखक और उसके बाद ‘बुद्धिजीवी’ शब्द ही किसी ‘आम’ से ख़ास या शायद इससे भी बहुत ऊपर हो जाता है | उस दर्जे को विशेष सुविधा, सम्मान की दरकार भी होती है | इतिहास गवाह है कि विशेष सुविधा-सम्मान सत्ता व्यवस्थाओं से ही प्राप्त हुए हैं, नंगे वदन भूखे पेट रात काटते घीसू, माधव या भगत से नहीं | फिर इस तर्क से कैसे मुंह फेरा जा सकता है कि “मुंह खाता है तो आँख झपती है |” इन आयोजनों में प्रेमचंद के चरित्रों की हिस्सेदारी शायद यूं भी उचित नहीं है कि आलीशान सुविधाओं को भोगते हुए उन पर चर्चा करें तो वे दोगला या बिका हुआ न समझ लें | या कहें गरीब का कोई इतिहास भी तो नहीं होता फिर उनके साथ खड़े होकर लाभ क्या है …? क्योंकि हमारी जद्दो-ज़हद खुद को इतिहास में शामिल करने की भी तो है | और इतिहास इन्हीं सत्ताओं ने लिखवाया है , जो तय कर रहीं हैं कि बच्चे किताबों में किसे पढेंगे और किसे नहीं |” (आलेख से)

ये है मथुरा मेरी जान….: सम्पादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

ऐसे बहुत से वाक़यात और क्षण हैं अपने इस शहर को व्यक्त करने के, बावजूद इसके, दूर शहरों और प्रदेशों के लोग इसे एक प्राचीन शहर की छवि में वही घिसी पिटी औसत मिथकीय धारणाओं के साथ इसके इकहरे मृत खोल को ही देखते या जानते हैं | दरअसल इसमें रहकर ही आप यह जान पाते हैं कि इसके अन्दर एक दूसरा ही ठोस और जीवित शहर है, जिसकी कई-कई परतें हैं, जिन पर अलग अलग वक्तों के गहरे और हलके आड़े तिरछे कई निशान हैं | वैसे भी आपका शहर तो वही होता है जिसे आप अपनी आँखों से देखते हैं और अपने अनुभव से पहचानते हैं या जैसा अपना अक्स वह आपके अन्दर डाल देता है | देश भर के तमाम दोस्तों के साथ बात-चीतों में अक्सर ही मैं सुनता हूँ कि मथुरा तो फलां पार्टी के एजंडे में शामिल है या साम्प्रदायिक रूप से बेहद संवेदनशील शहर है आदि आदि, हालांकि मैं देर तक अपने शहर की एक सही, सच्ची और मुकम्मल तस्वीर उनके सामने रखने की कोशिश करता हूँ बावजूद इसके ऐसी कथित धारणाएं मुझे बेहद क्षुब्ध और व्यथित करती हैं | इसी क्षुब्धता के कारण अपने जीवनानुभवों के अक्सों जो यादों के रूप में तहा कर रखे थे को आपके साथ बांटने को विवश हुआ हूँ |

भगवान् भरोसे…: व्यंग्य (हनीफ मदार) http://humrang.com/

किसी भी व्यंग्य रचना की सार्थकता वक्ती तौर पर उसकी प्रासंगिकता में अंतर्निहित होती है | यही कारण है कि हरिशंकर परसाई, शरद जोशी आदि को पढ़ते हुए हम उसमें अपने वर्तमान के सामाजिक, राजनैतिक अक्स देखते हैं | हालांकि तकनीकी रूप से निरंतर बदलते समय में यह अक्स किसी रिक्त स्थान से सहज ही नजर आते हैं जिसकी पूर्ती पाठकीय मानसिक चेतना रचना से गुज़रते हुए स्वयं करती है तब लेखकीय दृष्टि वर्तमान को रेखांकित करती गुदगुदाते हुए चिंतन को विवश करती है | लगभग डेढ़ दशक पूर्व लिखा गया ‘हनीफ मदार’ का प्रस्तुत व्यंग्य छद्म परिवर्तन के साथ वर्तमान में भी पठनीय और प्रासंगिक है…..|

मासूम से राही मासूम रज़ा तक…: साक्षात्कार (हनीफ मदार) http://humrang.com/

राही मासूम रजा का नाम वर्तमान युवा वर्ग के बीच से उसी तरह गुमनाम होता जा रहा है जिस तरह प्रेमचन्द, त्रिलोचन शास्त्री, यशपाल, रांगेय राघव, नागार्जुन, मुक्तिबोध जैसे अनेक नामों से वर्तमान बाजार में भटकी युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है जबकि इन लेखकों को कमोबेश कोर्सों में भी पढ़ाया जाता रहा है फिर भी लोग इनसे या इनके रचनाकर्म से अंजान हैं, वहीं राही मासूम रजा के साथ तो यह सकारात्मक पहलू भी नहीं रहा है तब तो वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह नाम और भी अजनबी हो जाता है। कहना न होगा कि राही मासूम रजा हिन्दी साहित्य का एक ऐसा नाम है जो केवल साहित्य लेखन तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि उनके लेखकीय रचना कर्म को किसी गद्य या काव्य के विशेष खाँचे में या फिर हिन्दी या उर्दू किसी एक भाषा के साथ जोड़कर समायोजित करना आसान नहीं है। जहाँ उन्होंने आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, असंतोष के दिन, कटरा बी आर्जू, नीम का पेड़ और सीन-७५ उपन्यास हिन्दी में लिखे। वहीं मुहब्बत के सिवा उर्दू में लिखा गया उपन्यास है। मैं एक फेरीवाला’कविता-संग्रह हिन्दी में रचा जबकि ‘नया साल मौजे गुल, मैजे सबा, रक्सेमय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते’ जैसे कविता संग्रहों की रचना उर्दू में की इतना ही नहीं उनका बहुचर्चित महाकाव्य १८५७’ समान रूप से हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में रचा गया। मुम्बई जाकर फ़िल्मी लेखन की शुरुआत के साथ ‘नीम का पेड़’ एवं लोक प्रचलित महाकाव्य “महाभारत” का संवाद लेखन कर इतिहास बना डालने वाले राही मासूम रजा के व्यक्तित्व के विषय में जानने एवं ‘आधा गाँव’ का वह दब्बू-सा मासूम अपनी कलम की धार पर चलकर कैसे राही मासूम रजा बन गया इन्हीं तमाम उत्सुकताओं पर ‘राही मासूम रजा’ की सबसे लाडली और प्यारी बहन ‘सुरैया बेगम’ से इलाहाबाद में उनके आबास पर हुई मेरी बात-चीत का संक्षिप्त रूप आप सब के सामने, “राही मासूम रज़ा” के 90 वें जन्मदिवस पर ।

हिंदी को जरूरत है एक “क्यों” की: संपादकीय (हनीफ मदार) http://humrang.com/

हिंदी को जरूरत है एक “क्यों” की (हनीफ मदार) हनीफ मदार फिर से हिंदी दिवस पर मैं असमंजस में हूँ हर साल की तरह, ठीक वैसे ही जैसे हर वर्ष मदर्स डे, फादर्स डे…….लम्बी सी लिस्ट है (कुछ और का आविष्कार और हो गया होगा, उसकी जानकारी मुझे नहीं है) इस पर भी इसी तरह असमंजस में रहता हूँ | क्योंकि हिंदी के पैरोकारी, रक्षक, संस्कारी शिक्षकों से तो हमने जो सीखा उसके अनुसार तो मां हमेशा ही मां है, रही है और रहेगी | फिर चाहे मां जीवित न भी हो तब भी हम उसके आंचल के नर्म कोमल एहसास से कभी दूर नहीं होते | मां हमारे लिए जो करती है उसे हम कई जन्म लेकर भी नहीं चुका सकते |” ऐसे ही तो पढ़ाया जाता रहा ….? इस हिसाब से मदर या फादर डे तो रोजाना ही है | फिर यह ख़ास ‘डे’ की जरूरत आखिर क्यों ? क्या यह माँ-बाप के प्रति हमारे मन में सम्मान आदर और प्रेम बढाने के प्रचार प्रसार का नतीज़ा है ….? तब क्या इससे पहले माँ बाप के प्रति आदर सम्मान या प्रेम नहीं था, जब यह ख़ास ‘डे’ नहीं थे…..? यह मैंने कुछ नई या अनूठी बात नहीं कह दी है, सब जानते हैं इस बात….को ! सच मानिए, मैं भी जानता हूँ कि आप इतनी छोटी सी बात से भला अनभिज्ञ कैसे रह सकते हैं ! किन्तु आपके संज्ञान में है यह सब, तभी तो मेरे भीतर कुछ कुलबुलाता है और एक ‘क्यों’ पैदा करता है | क्योंकि यकीनन यही हमारी भाषा के साथ भी हो रहा है | क्या तब भी ‘’क्यों’’ पैदा न किया जाय….?

विचलन भी है जरूरी: ‘हमरंग’ संपादकीय (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

विचलन भी है जरूरी हनीफ मदार कल चाय की एक गुमटी पर दो युवाओं से मुलाक़ात हुई दोनों ही किन्ही मल्टीनेशनल कम्पनियों में कार्यरत हैं | इत्तेफाक से दोनों ही कभी मेरे स्टूडेंट रहे हैं | उन्होंने मुझे पहचान लिया और बातें शुरू गई | रोजगार होने के बावजूद भी वे दोनों मुझे खुश नहीं दिख रहे थे | बात-चीतों में पता चला कि दोनों ही इस महंगे समय और प्राइवेट कम्पनियों की न्यूनतम तनख्वाह में पारिवारिक जीविकोपार्जन की समस्या से ग्रसित थे | इन नौकरियों को पाने की योग्यता लेने के लिए उनमे से एक के पिता को जहाँ एक बीघा खेत बेचना पडा वहीँ दूसरे पर पढ़ाई के लिए लिया गया कर्जा था, जिसे चुका पाने की नाउम्मीदी से निराशा भी थी | मैंने कहा तुमने सरकारी नौकरी क्यों नहीं तलाशी | वे बोले कैसी बात करते सर ? अभी आपने नहीं देखा अकेले उत्तर प्रदेश में ही ३६५ चपरासियों की नौकरी के लिए २३ लाख फार्म पहुंचे | जिसकी आहर्ता पांचवीं पास थी उसके लिए बड़ी संख्या में पी. एच. डी., एम्. बी. ए., और अन्य स्नातकों के फार्म थे |

प्रेमचंद, एक पुनर्पाठ: संपादकीय आलेख (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

प्रेमचंद, एक पुनर्पाठ हनीफ मदार प्रेमचंद की साहित्य धारा को जिस तरह ‘यशपाल’, रांगेय राघव’ और राहुल सांकृत्यायन ने जिस मुकाम तक पहुंचाने में अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल किया वह साहित्यिक दृष्टि और ऊर्जा बाद की पीढी के साहित्य में कम ही नज़र आती है | वर्तमान तक आते-आते प्रेमचंद महज़ एक साहित्य संदर्भ बन कर रह गये हैं | साहित्य की गंभीर चर्चाओं में इस प्रश्न का उठना भी अकारण नहीं लगता कि ‘आज हिंदी साहित्य से भारतीय गाँव नदारद हैं |’ अब इसके मुकाबले पर इस बात को लाख कहा जाय कि वर्तमान समय भी तो मुंशी प्रेमचंद से भिन्न है, तो ऐसे में तात्कालिक साहित्य धारा आज के साहित्यिक सामाजिक सरोकारों की आवश्यकता पूर्ती में सक्षम होगी…? या यह कह देना कि ‘आज की कहानियों में भी गाँव या किसान मौजूद है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों के साथ, क्योंकि गाँव भी आज प्रेमचंद वाले गाँव नहीं रह गए हैं |’

ईदा : कहानी (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

हनीफ़ मदार की कहानी “ईदा” आजकल ख़ूब चर्चा में है । २०१५ में ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई कहानी पर ‘प्रतिलिपि’ मंच से शुरू हुई चर्चा लगातार जारी है । पाठकों द्वारा इस कहानी को पढ़ने की लगातार मिल रहीं जिज्ञासाओं को ध्यान में रखकर पाठकों को सहज उपलब्धता के लिए, मंच प्रतिलिपि एवं अन्य माध्यमों से कहानी पर मिलीं कुछ टिप्पणियों के साथ कहानी को हमरंग पर भी प्रकाशित किया है ।- अनीता

सुबह होने तक: कहानी (हनीफ़ मदार) http://humrang.com/

“गुड़िया खेलने की उम्र में ब्याह दिया था मुझे । मैं रानी ही तो थी उस घर की । दिन में कई-कई बार सजती-सँवरती, घर भर में किसी ऐसे फूल की तरह थी जिसके मुरझाने पर सब चिंतित हो जाते । मोटी-मोटी कच्ची मिट्टी की बनी दीवारों वाले कमरों में गर्मियों में भी ख़ूब ठंडक रहती थी । सर्दियों में ठंडे भी उतने ही ज़्यादा होते । पर सर्द रातों में जिस्मों की जुंबिश से जैसे गर्म ज्वालामुखी फूट पड़ता था । किसी सख़्त तने से लिपटी नाज़ुक बेल सी, मैं भयंकर शीत के ऐहसास से भी मुक्त रहती थी । मैं उम्र की अल्हड़ता में बहुत बातों के बिना अर्थ जाने ही मस्त थी । कि अचानक सब बदलने लगा था । मिस्त्रानी छत पर जाकर देखने की कोशिश में हैं । चारों तरफ़ भखुआए अंधेरे में कोहरा अपने लिए जगह खोजने को मँढ़रा रहा है । हरीसिंह के बड़े आँगन की रोशनी ने, कोहरे के साथ मिलकर धुँधला किंतु विशाल रूप धारण कर लिया है । हरिसिंह को सब नेताजी बुलाते है । उसका ख़ुद का घर तो अलग है । जिसकी मुंढेर पर पार्टी का झंडा हमेशा लगा रहता है । सरकार बदलते ही घर पर लगे झंडे का रंग भी बदल जाता है । यहाँ तो बाड़े नुमा परकोटे में, बड़ा सा आँगन छोड़ कर, चारों तरफ़ कई कमरे बनवा दिए हैं । उनमें सलीम की तरह गाँव छोड़कर शहर में मज़दूरी करने आए लोग किराए पर रहते हैं ।” ‘दुनिया इन दिनों’ में प्रकाशन के बाद अब यहाँ हमरंग के स्नेहिल पाठकों के समक्ष ‘हनीफ़ मदार’ की मार्मिक कहानी सिर्फ़ आपके लिए॰॰॰॰॰ । – अनीता चौधरी

‘मंटो का टाइपराइटर’ रोचक प्रसंग http://humrang.com/

कृशन चंदर जब दिल्‍ली रेडियो में थे, तभी पहले मंटो और फिर अश्‍क भी रेडियो में आ गये थे। तीनों में गाढ़ी छनती थी। चुहलबाजी और छेड़छाड़ उनकी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्‍सा थे। रूठना मनाना चलता रहता था। कृशन चन्दर की एक किताब से एक बेहद रोचक प्रसंग जो मंटो के जर्बदस्‍त सेंस हॅाफ ह्यूमर का परिचय देता है।

ग़ज़लें: (दिलशाद ‘सैदानपुरी’) http://humrang.com/

रंग मंच कि दुनिया में प्रवेश करने से पहले आपने ‘दिलशाद सैदानपुरी’ के नाम से गज़लें लिखना शुरू किया और यह लेखन का सफ़र आज भी जारी है | हमरंग के मंच से कुछ गज़लें आप सभी पाठकों के लिए, हमरंग पर आगे भी यह सफ़र जारी रहेगा ….| – संपादक

लकी सिंह ‘बल’ की लघुकथाएं http://humrang.com/

लकी सिंह ‘बल’ की छोटी कहानियां बड़ी बात कहती हैं जो उन्हें लघुकथा के उभरते हस्ताक्षर के रूप में एक संभावनाशील लेखक होने का परिचय देतीं हैं | इनकी कलम और धारदार रूप में चलती रहे इस अपेक्षा के साथ | -संपादक

राहुल गुप्ता की दो ग़ज़लें http://humrang.com/

राहुल गुप्ता की दो ग़ज़लें

मेरा जूता है जापानी… (लघुकथा) http://humrang.com/

धर्मेन्द्र कृष्ण तिवारी पेशे से भले ही पत्रकार हैं लेकिन उनकी सामाजिक और जनवादी सोच उन्हें बाजारवाद के दौर में प्रचलित पत्रकारिता की परिभाषा से अलग करती है | उनकी यह छोटी सी कहानी उनकी इसी खासियत को दर्शाती है | : संपादक लघुकथा-

सहमा शहर: ग़ज़लें (सतेन्द्र कुमार सादिल) http://humrang.com/

सतेन्द्र कुमार यूं तो भौतिकी के शोध छात्र हैं लेकिन खुशफहमी है कि वर्तमान में जहाँ युवाओं दृष्टि समाज सापेक्ष कम ही नज़र आती है ऐसे में भी सतेन्द्र की रचनाएं वक़्त की नब्ज़ को टटोलने की कोशिश में हैं | – संपादक

गांव में हम कितनी हस्तियां छोड़ आये (दो ग़ज़ल: माहीमीत) http://humrang.com/

गांव में हम कितनी हस्तियां छोड़ आये (दो ग़ज़ल: माहीमीत)

एक था चिका एक थी चिकी: कहानी (सत्यनारायण पटेल) http://humrang.com/

आज रूपा का काम जल्दी समेटा गया। रोज़ रात ग्यारह के आसपास बिस्तर लगाती। आज खाना-बासन से क़रीब नौ बजे ही फारिग़ हो गयी। बिस्तर पर बैठी और रिमोट से टी.वी. चालू किया। टी. वी. की आवाज़ दूसरे कमरे तक पहुँची। पूजा रोहित खेल रहे थे। वे खिलोनों से खेलते हुए बोर हो गये थे। सो वे भी रूपा के पास टी.वी. वाले कमरे में चले आये।

कैसा है इंतिज़ार हुसैन का भारत: स्मरण शेष http://humrang.com/

७ दिसंबर १९२३ को डिवाई बुलंदशहर, भारत में जन्मे इंतज़ार हुसैन पाकिस्तान के अग्रणी कथाकारों में से थे | वे भारत पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में मंटो, कृश्नचंदर और बेदी की पीढ़ी के बाद वाली पीढ़ी के प्रमुख कथाकारों में से एक थे । उनकी स्कूली शिक्षा हापुड़ में हुई और १९४६ में मेरठ से उर्दू में एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद विभाजन के कारण वे सपरिवार पाकिस्तान में बस गए। वैसे तो इंतजार हुसैन १९४४ से उर्दू में कहानियाँ लेखते रहे हैं किंतु विभाजन के बाद १९५० के आसपास इनका रचना संसार एकदम बदल गया और पाकिस्तान के उर्दू कथा साहित्य में एक चमकते सितारे की तरह इनका प्रवेश हुआ। इंतजार हुसैन ने अनेक अहम कहानियों के अलावा तीन उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास बस्ती है। इसे पाकिस्तान के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार आदमजी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। बाद में इंतजार हुसैन ने यह पुरस्कार वापस कर दिया था । उनके निधन पर श्रृद्धांजलि स्वरूप, 2008 में ‘बी बी सी’ हिंदी के लिए ‘मिर्ज़ा ए. बी. बेग’ द्वारा किया गया उनका साक्षात्कार (‘बी बी सी हिंदी’ से साभार) ….

‘पंकज सिंह’ वे हमारी आवाजें थे…: आलेख (कौशल किशोर) http://humrang.com/

वे हमारी आवाजें थे… हम उन्हें पा लेंगे क्योंकि हमें उनकी जरूरत है | कवि-पत्रकार पंकज सिंह को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि…’राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य जन संस्कृति मंच, ‘कौशल किशोर’ की कलम से ……

अंतिम विदाई… ग़ज़लकार “आर॰ पी॰ शर्मा ‘महरिष” को http://humrang.com/

ग़ज़ल विधा में बहुत बड़ा नाम रखने वाले आर॰ पी॰ शर्मा ‘महरिष’ का कल रात 93 बरस की उम्र में मुंबई में निधन हो गया। वे ग़ज़ल के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम थे। उन्होंने ग़ज़ल लेखन का मार्ग सुगम और प्रशस्त करने के लिए ग़ज़ल और बहर पर कई उपयोगी पुस्तकें लिखीं। श्री महरिष को माननीय श्री विष्णु प्रभाकर और श्री कमलेश्वर के हाथों “पिंगलाचार्य” की उपाधि से विभूषित किया गया था। उन्‍हें पिछले वर्ष महाराष्‍ट्र राज्‍य हिंदी अकादमी द्वारा ग़जल विधा में उल्‍लेखनीय योगदान के लिए राज्‍य स्‍तरीय सम्‍मान दिया गया था।

नवउदारवादी भूमण्‍डलीकरण के दौर में मज़दूर संगठन के नये रूप: (प्रो. इमैनुएल नेस ) http://humrang.com/

लखनऊ, 19 जुलाई। यूपी प्रेस क्‍लब में प्रो. एमैनुएल नेस ने ‘नवउदारवादी भूमण्‍डलीकरण के दौर में मज़दूर वर्ग के संगठन के नये रूप‘ विषय पर एक व्‍याख्‍यान दिया। यह कार्यक्रम अरविन्‍द मार्क्‍सवादी अध्‍ययन संस्‍थान द्वारा आयोजित किया गया |कार्यक्रम में प्रो. इमैनुएल नेस के व्‍याख्‍यान ‘आनंद‘ की एक संक्षिप्‍त रिपोर्ट…….. ‘इमैनुएल नेस‘ सिटी युनिवर्सिटी आॅफ़ न्यूयार्क में राजनीति शास्त्र के प्रोफे़सर और युनिवर्सिटी आॅफ़ जोहान्सबर्ग, सेंटर फ़ॉर सोशल चेंज में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं। उनका शोधकार्य मज़दूर वर्ग की गोलबन्दी, वैश्विक मज़दूर आन्दोलनों, प्रवासन, प्रतिरोध, सामाजिक और क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साम्राज्यवाद-विरोध और समाजवाद से जुड़े विषयों पर केन्द्रित रहा है। वे नवउदारवादी भूमण्‍डलीकरण के दौर में साम्राज्‍यवाद में आये बदलावों, ‘पोस्‍ट-फोर्डिज्‍़म’, वैश्विक असेंबली लाइन के उभार, अनौपचारीकरण की प्रक्रियाओं, मज़दूर वर्ग के परिधिकरण और नारीकरण, एवं ‘ग्‍लोबल साउथ’ में औद्योगिक मज़दूर वर्ग के नये रैडिकल व जुझारू आन्‍दोलनों का अध्‍ययन करते रहे हैं। उन्‍होंने तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की कई बार यात्राएँ की हैं और भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील जैसे देशों में मज़दूरों, मज़दूर कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों से संवाद करने में विचारणीय समय बिताया है। उन्‍होंने इस विषय पर प्रकाशन भी किए हैं। उनकी हालिया किताब ‘सदर्न इनसर्जेन्सीः दि कमिंग ऑफ़ दि ग्लोबल वर्किंग क्लास’ (प्लूटो प्रेस) को श्रम इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के क्षेत्र में नवोन्‍मेषी कहा जा रहा है। वे न सिर्फ़ एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं, बल्कि एक रैडिकल एक्टिविस्‍ट भी हैं जो यूएसए में एक क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के निर्माण के प्रयास में लगे हुए हैं।

भगत सिंह से एक मुलाकात: आलेख (स्व० डा० कुंवरपाल सिंह) http://humrang.com/

कितने शर्म की बात है, देश के 30 करोड़ लोग आधे पेट सोते हैं। कैसी विडंबना है-दुनिया के 20 अमीर लोगों में तीन हिन्दुस्तानी हैं और दूसरी ओर योरोप के कई देशों की कुल आबादी से अधिक लेाग देश में ग़रीबी की रेखा से नीचे हैं। हाशिये के इन्हीं लोगों के लिए बिना संघर्ष किये मुक्ति की कामना व्यर्थ है। इसके लिए मध्यवर्ग के लोग अपनी खोल से बाहर निकलें और देश की वास्तविकता को पहचानें। आज फिर एक सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। भगत सिंह और उनके साथियों ने कुछ किया वह आने वाले हिन्दुस्तान के लिये था। आज जो हम करेंगे वह हमारी आने वाली संतानों के लिये विरासत होगी। यह हमें ही तय करना होगा कि हम कौन सी विरासत छोड़कर जायेंगे। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्द्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष एवं डीन रहे स्व० डा० कुंवरपाल सिंह (के० पी० सिंह) द्वारा अपने अंतिम समय में लिखा गया यह लेख बीते दस सालों में और प्रासंगिक हुआ है … आखिर क्यों …? तो आइये आज शहीदे आज़म भगत सिंह के शहादत दिवस पर उन कारणों की पड़ताल करने की कोशिश करते हैं के० पी० सिंह के साथ भगत सिंह से एक रोचक मुलाक़ात में …..| – संपादक

कैसा है इंतिज़ार हुसैन का भारत: साक्षात्कार (मिर्ज़ा ए. बी. बेग) http://humrang.com/

७ दिसंबर १९२३ को डिवाई बुलंदशहर, भारत में जन्मे इंतज़ार हुसैन पाकिस्तान के अग्रणी कथाकारों में से थे | वे भारत पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में मंटो, कृश्नचंदर और बेदी की पीढ़ी के बाद वाली पीढ़ी के प्रमुख कथाकारों में से एक थे । उनकी स्कूली शिक्षा हापुड़ में हुई और १९४६ में मेरठ से उर्दू में एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद विभाजन के कारण वे सपरिवार पाकिस्तान में बस गए। वैसे तो इंतजार हुसैन १९४४ से उर्दू में कहानियाँ लेखते रहे हैं किंतु विभाजन के बाद १९५० के आसपास इनका रचना संसार एकदम बदल गया और पाकिस्तान के उर्दू कथा साहित्य में एक चमकते सितारे की तरह इनका प्रवेश हुआ। इंतजार हुसैन ने अनेक अहम कहानियों के अलावा तीन उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास बस्ती है। इसे पाकिस्तान के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार आदमजी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। बाद में इंतजार हुसैन ने यह पुरस्कार वापस कर दिया था । उनके निधन पर श्रृद्धांजलि स्वरूप, 2008 में ‘बी बी सी‘ हिंदी के लिए ‘मिर्ज़ा ए. बी. बेग‘ द्वारा किया गया उनका साक्षात्कार (‘बी बी सी हिंदी‘ से साभार) ….

एक संक्षिप्त परिचय और कवितायें : स्मरण-शेष, वीरेन डंगवाल http://humrang.com/

इस त्रासद समय में भी ‘उजले दिन जरूर आएंगे‘ का भरोसा दिलाने वाले साथी जन कवि ‘वीरेन डंगवाल‘ हमारे बीच नहीं रहे | आज सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली ….| इस जन साहित्यिक त्रासद पूर्ण घटना से दुखी सम्पूर्ण हमरंग परिवार हम सबके प्यारे कवि ‘वीरेन डंगवाल‘ को आखिरी सलाम करता है …. उनको स्मरण करते हुए उन्हीं की दो कवितायें हमरंग पर ……| – हमरंग परिवार

हाल ही में प्रकाशित

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