जन-गण-मन एवं अन्य कवितायें, स्मरण शेष (रमाशंकर यादव ‘विद्रोही)

बहुरंग स्मरण-शेष

रमाशंकर विद्रोही 710 11/16/2018 12:00:00 AM

3 जनवरी 1957 को फिरोज़पुर (सुल्तानपुर) उत्तरप्रदेश में जन्मे, रमाशंकर यादव ‘विद्रोही‘ हमारे बीच नहीं रहे … जैसे जे एन यू खाली हो गया है… जैसे फक्कड़ बादशाहों की दिल्ली खाली हो गयी है !! उनका बेपरवाह अंदाज़, फक्कडपन, और कविता में उनकी बुलंद आवाज़ की गूँज बहुत याद की जायेगी| ऐसा कोई कवि जो कहे मैं जनता का कवि हूँ, मैं तुम्हारा कवि हूँ, आज तो वाकई दुर्लभ है| उनका इतनी जल्दी जाना बहुत अखर रहा है| ऐसे समय में जब उनकी ज़रूरत सबसे ज्यादा है, वे चले गए हैं| हाँ लेकिन वे खुद को जीवित छोड़ गए हैं हमारे बीच, अपनी ख़ास कविताओं के रूप में जो गाई और सुनाई जायेंगीं हर शोषण के खिलाफ ‘विद्रोह, के रूप में …. | उनको याद करते हुए, उनकी कुछ कवितायें……. एवं फेसबुक पर उनके लिए त्वरित लिखी गईं ‘अनवर सुहैल‘ और ‘संध्या नवोदिता‘ द्वारा उनको याद करते हुए लिखी गई अभिव्यक्ति …..

जन-गण-मन 

उमाशंकर विद्रोही

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा॥

नई खेती 

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

औरतें

कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है

मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है

मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा

मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.

मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?

क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह

औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक

मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.

वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.

मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं

कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता

औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.

नूर मियाँ

आज तो चाहे कोई विक्टोरिया छाप काजल लगाये
या साध्वी ऋतंभरा छाप अंजन
लेकिन असली गाय के घी का सुरमा
तो नूर मियां ही बनाते थे
कम से कम मेरी दादी का तो यही मानना था

नूर मियां जब भी आते
मेरी दादी सुरमा जरूर खरीदती
एक सींक सुरमा आँखों मे डालो
आँखें बादल की तरह भर्रा जाएँ
गंगा जमुना कि तरह लहरा जाएँ
सागर हो जाएँ बुढिया कि आँखें
जिनमे कि हम बच्चे झांके
तो पूरा का पूरा दिखें

बड़ी दुआएं देती थी मेरी दादी नूर मियां को
और उनके सुरमे को
कहती थी कि
नूर मियां के सुरमे कि बदौलत ही तो
बुढौती में बितौनी बनी घूम रही हूँ
सुई मे डोरा दाल लेती हूँ
और मेरा जी कहे कि कहूँ
कि ओ री बुढिया
तू तो है सुकन्या
और तेरा नूर मियां है च्यवन ऋषि
नूर मियां का सुरमा
तेरी आँखों का च्यवनप्राश है
तेरी आँखें , आँखें नहीं दीदा हैं
नूर मियां का सुरमा सिन्नी है मलीदा है

और वही नूर मियां पाकिस्तान चले गए
क्यूं चले गए पाकिस्तान नूर मियां
कहते हैं कि नूर मियां का कोई था नहीं
तब , तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के ?
नूर मियां क्यूं चले गए पकिस्तान ?
बिना हमको बताये
बिना हमारी दादी को बताये
नूर मियां क्यूं चले गए पकिस्तान?

अब न वो आँखें रहीं और न वो सुरमे
मेरी दादी जिस घाट से आयी थी
उसी घाट गई
नदी पार से ब्याह कर आई थी मेरी दादी
और नदी पार ही चली गई
जब मैं उनकी राखी को नदी में फेंक रहा था
तो लगा कि ये नदी, नदी नहीं मेरी दादी कि आँखें हैं
और ये राखी, राखी नहीं
नूर मियां का सुरमा है
जो मेरी दादी कि आँखों मे पड़ रहा है
इस तरह मैंने अंतिम बार
अपनी दादी की आँखों में
नूर मियां का सुरमा लगाया.

कविता और लाठी

तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुह में आंटा गेर दूं।
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी।
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी।
कविता और लाठी में यही अंतर है।

त्वरित टिप्पणियों में फेसबुक वाल पर लिखा …

विद्रोही जी की स्मृति में :

(अनवर सुहैल)

anwar-suhail

अनवर सुहैल

और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है…जब इतनी रात बीत गई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग रहा हूँ? सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं हैं वे ही व्यवस्था के संचालक हो सकते हैं…
क्या नित्यानंद गायेन की सूचना ने मुझमें पागलपन के लक्षण डाल दिए हैं? नित्यानंद गायेन ने तो सिर्फ इतनी बात कही कि विद्रोही जी नहीं रहे….कैसी खबर थी ये जिसे नित्यानंद ने मुझे सुनाना ज़रूरी समझा और ये विद्रोही जी ऐसी कौन सी शख्सियत थे कि जिनके लिए व्यथित हुआ जाए. फिर हमरंग के संपादक हनीफ मदार का फोन आया कि विद्रोही जी के बारे में पोस्ट डालनी है, फ़िल्मकार इमरान का पता या फोन नम्बर खोजा जाए जिसने विद्रोही पर डाक्यूमेंट्री बनाई है. मैंने देखा कि फेसबुक में स्वतः स्फूर्त लोगों ने विद्रोही के निधन पर पोस्ट लगानी शुरू कर दी हैं…और सबसे आश्चर्य तब हुआ जब बारहवीं की गणित की तैयारी करती बिटिया सबा मेरे साथ विद्रोही को यू-ट्यूब पर सुनने लगी…क्या था उस कवि विद्रोही की वाणी में कि आदेल के अंग्रेजी गाने सुनने वाली बिटिया भी मन्त्र-मुग्ध होकर विद्रोही को सुनने लगी…
“और ईश्वर मर गया
फिर राजा भी मर गया
राजा मरा लड़ाई में
रानी मरी कढ़ाई में
और बेटा मरा पढाई में…”
जबकि देश के आइआइटीयन तो कुमार विश्वास को ही हिंदी का कवि समझते हैं, चेतन भगत को उपन्यासकार फिर ये विद्रोही ऐसा कौन सा कवि हुआ जिसके न रहने से लोगों को इतनी व्यथा हो रही है, कि जिसके रहने से कोई विचलित नहीं होता था..वो न सम्मानित कवि थे कि उनके पास सम्मान लौटाने का विकल्प होता…वे न सत्ता से प्रताड़ित कवि थे कि कभी पक्षधर सरकार बनती तो उनका सम्मान होता…फिर क्यों लोग रमाशंकर यादव उर्फ़ कवि विद्रोही जी के निधन पर इतने दुखी हैं….लेकिन एक बात तो है पार्टनर कि भले से हमें कुंवर नारायण, नरेश सक्सेना या केदारनाथ सिंह की कविता-पंक्ति याद हों या न हों लेकिन विद्रोही की पंक्तियाँ अवचेतन में जगह क्यों बना लेती हैं और बार-बार उद्धृत होने को बेचैन करती हैं जैसे ग़ालिब के अशआर हों या कोई चिर-परिचित मुहावरे…
“अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है”
या
“मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को
एक ही साथ औरतों की अदालत में तलब कर दूंगा ”
या
” मेरी नानी की देह ,देह नहीं आर्मीनिया की गांठ थी”
वही विद्रोही कहते हैं तो लगता है कि ये पागल व्यक्ति का कथन नहीं हो सकता लेकिन सभ्य समाज ऐसे व्यक्ति को पागल ही कहता है जो ये कहे—“मैं ऐसी कवितायेँ लिखता हूँ कि मुझे पुरूस्कार मिले या फिर सज़ा मिले…लेकिन देखो ये कैसी व्यवस्था है जो मुझे न पुरस्कार देती है न सज़ा…अब मैं क्या करूँ…जबकि मैंने लिखा ये सोचकर कि मुझे सज़ा मिलेगी—
“मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें.”
मैं जानता हूँ कि ये किसी नेता की मृत्यु का मामला नहीं है, और नहीं है किसी ओहदेदार या संत की मृत्यु कि जिसे चाह कर भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता है. आप भले से इन मृत्युओं को भूल जाएँ, लेकिन राष्ट्रीय शोक की घोषणाएं और शासकीय अवकाश भरसक आपको मृत्यु के उत्सव की तरफ घसीट ले जाएँगी. सत्ता-नियोजित भव्य शोभा-यात्रायें मौत को भी एक इवेंट की तरह सेलेब्रेट करती हैं.. ऐसी मौतों से मैं क्या कोई भी व्यथित नहीं होता…भले से मौत स्वाभाविक न होकर हत्या ही क्यों न हो! उस मौत का हत्यारा सज़ा पाए या न पाए लेकिन उस हत्या के बाद होने वाले नरसंहार के हत्यारे कभी सज़ा नहीं पाते…कई पीढियां मुक़दमे लडती जाती हैं…मौत का मुआवजा मिल जाना ही जैसे अभीष्ट होता है और सदियों तक मरने से बच गये लोग हर रात स्वप्न में डरते हुए कत्ल होते हैं…विद्रोही जी की मृत्यु ऐसी मृत्यु नहीं है कि इवेंट की तरह मैनेज हो…भले से कवि को अपने होने और न होने के बारे में जानकारी थी, तभी तो कितनी बुलंदी से वे कह गये—
“कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा….”
उनके लेखन पर, लेखनी पर, जीवनी पर और भी लोग बेशक लिक्खेंगे लेकिन मैं जो उनसे कभी नहीं मिला, मैं जो जेएनयू में नहीं पढ़ा…मैं जो खुद को एक चेतना संपन्न जागरूक नागरिक होने का दम्भ जीता हूँ आज बहुत व्यथित हूँ कि हम विद्रोही के लिए एक मुहाफ़िज़ क्यों नहीं बन पाए…क्या हम पागल नहीं थे..?
हममे पागलपन है लेकिन हम उसे छुपाते हैं और विद्रोही जी पागलपन को शान से जीते थे…

शॉकिंग दिसम्बर ……

(संध्या नवोदिता ) 

संध्या नवोदिता

विद्रोही चले गए हैं… जैसे जे एन यू खाली हो गया है… जैसे फक्कड़ बादशाहों की दिल्ली खाली हो गयी है !!
उनकी तो जाने की उम्र नहीं थी| उनका बेपरवाह अंदाज़, फक्कडपन, और कविता में उनकी बुलंद आवाज़ की गूँज बहुत याद की जायेगी|
ऐसा कोई कवि जो कहे मैं जनता का कवि हूँ, मैं तुम्हारा कवि हूँ, आज तो वाकई दुर्लभ है|
विद्रोही अच्छा जीवन जिए या बुरा जीवन जिए यह नहीं पता, लेकिन यह हर कोई मानेगा कि वे जैसे जीना चाहते थे वैसे जिए| जीवन के हर पल पर उनका अधिकार था| जे एन यू ही उनका घर था, वही उनकी कर्मस्थली| जे एन यू में वे हमेशा रहना चाहते थे और रहे भी|
पहली बार जब मैंने उन्हें देखा तो ऐसे कवि को देखकर बड़ा अजीब लगा| न अपनी कोई परवाह, न कोई कमरा, न ठिकाना| लेकिन जे एन यू के छात्रों ने इस कवि को अपना मान लिया| और कवि ने इन रहवासियों को ही अपना परिवार माना| उनकी कविता उनकी आवाज़ तो जैसे छा गयी| वे कहते थे यह विद्रोही भी बड़ा कवि है, बड़ों बड़ों को मार कर मरा |
उनका इतनी जल्दी जाना बहुत अखर रहा है| ऐसे समय में जब उनकी ज़रूरत सबसे ज्यादा है, वे चले गए हैं| पिछली मुलाक़ात उनसे मई में हुई थी, जब वे कविता सोलह मई के बाद में कविता पढ़ कर हमारे साथ एक ही ऑटो ले लौटे थे | वे खूब उत्साह में थे, अपनी कविताओं को खूब हुलस कर कहते जा रहे थे, और यह भी कि कैसे जे एन यू से उन्हें निकाला गया, यह भी कि कैसे फिर भी आज तक जे एन यू से उन्हें निकाला नहीं जा सका| फिर खूब ठहाका लगाते रहे| सोचा भी नहीं था कि कवि से यह अंतिम मुलाक़ात होगी|
विद्रोही की आवाज़ उतनी ही बुलन्द, जितनी कविता में उनकी नानी की, विद्रोही की बुलंदी भी कंचनजंघा सी, विद्रोही का रूतबा भी सूरज और चाँद सा, विद्रोही भी करोड़ों में एक… गया तो सबको छलनी सा कर गया|
विद्रोही सा होना मुश्किल.. विद्रोही सा रचना मुश्किल.. विद्रोही सा जीवन मुश्किल.. और विद्रोही की तरह यूँ आन्दोलन में लड़ते लड़ते सबकी लड़ाइयों में साझा होना भी मुश्किल..
विद्रोही चले गए हैं… जैसे जे एन यू खाली हो गया है… जैसे फक्कड़ बादशाहों की दिल्ली खाली हो गयी है !!-

कि अभी मैं आपको बताऊंगा नहीं
बताऊंगा तो आप डर जायेंगे
कि मेरी सामने वाली इस जेब में
एक बाघ सो रहा है

लेकिन आप डरे नहीं
ये बाघ
इस कदर से मैंने ट्रेंड कर रखा है
कि अब आप देखें
कि मेरी सामने वाली जेब में एक बाघ सो रहा है
लेकिन आपको पता नहीं चल सकता
कि बाघ है
सामने वाली जेब में एक आध बाघ पड़े हों
तो कविता सुनाने में सुभीता रहता है
लेकिन एक बात बताऊँ?
आज मैं आप दोस्तों के बीच में
कविता सुना रहा हूँ
इसलिए मेरी जेब में एक ही बाघ है
लेकिन जब मैं कविता सुनाता हूँ -‘उधर’
उधर- जिस तरफ रहते हैं मेरे दुश्मन
अकेले अपने ही बूते पर
तो मेरी जेब में एक नहीं दो बाघ रहते हैं
और तब मैं अपनी वो लाल वाली कमीज पहनता हूँ
जिसकी कि आप दोस्त लोग बड़ी तारीफ़ करते हैं
जिसमें सामने दो जेबें हैं
मैं कविता पढता जाता हूँ
और मेरे बाघ सोते नहीं हैं
बीडी पीते होते हैं
और बीच बीच में
धुएं के छल्ले छोड़ते जाते हैं …
— विद्रोह

रमाशंकर विद्रोही द्वारा लिखित

रमाशंकर विद्रोही बायोग्राफी !

नाम : रमाशंकर विद्रोही
निक नाम :
ईमेल आईडी :
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.