भगत सिंह से एक मुलाकात: आलेख (स्व० डा० कुंवरपाल सिंह)

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हनीफ मदार 208 11/16/2018 12:00:00 AM

कितने शर्म की बात है, देश के 30 करोड़ लोग आधे पेट सोते हैं। कैसी विडंबना है-दुनिया के 20 अमीर लोगों में तीन हिन्दुस्तानी हैं और दूसरी ओर योरोप के कई देशों की कुल आबादी से अधिक लेाग देश में ग़रीबी की रेखा से नीचे हैं। हाशिये के इन्हीं लोगों के लिए बिना संघर्ष किये मुक्ति की कामना व्यर्थ है। इसके लिए मध्यवर्ग के लोग अपनी खोल से बाहर निकलें और देश की वास्तविकता को पहचानें। आज फिर एक सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। भगत सिंह और उनके साथियों ने कुछ किया वह आने वाले हिन्दुस्तान के लिये था। आज जो हम करेंगे वह हमारी आने वाली संतानों के लिये विरासत होगी। यह हमें ही तय करना होगा कि हम कौन सी विरासत छोड़कर जायेंगे। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्द्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष एवं डीन रहे स्व० डा० कुंवरपाल सिंह (के० पी० सिंह) द्वारा अपने अंतिम समय में लिखा गया यह लेख बीते दस सालों में और प्रासंगिक हुआ है … आखिर क्यों …? तो आइये आज शहीदे आज़म भगत सिंह के शहादत दिवस पर उन कारणों की पड़ताल करने की कोशिश करते हैं के० पी० सिंह के साथ भगत सिंह से एक रोचक मुलाक़ात में …..| – संपादक

भगत सिंह से एक मुलाकात… 

भगत सिंह

भगत सिंह

भगतसिंह को देखते ही मैं उनकी ओर लपका और बोला एक साक्षात्कार! भगतसिंह, कुछ आज के समय के बारे में कहिये न! हमारे नौजवान हर वर्ष मार्च में आपकी जयंती मनाते हैं…

मेरी हड़बड़ाहट देखकर भगतसिंह मुस्कुराये और कहने लगे “मेरे समय के बाद देश की बहुत उन्नति हुई है। हमारे वैज्ञानिक और टैक्नीशियन बड़ा काम कर रहे हैं। विश्वविद्यालय और काॅलेजों की संख्या अब सैकड़ों में हो गयी है और निरंतर उनकी संख्या बढ़ रही है। लड़कियाँ स्कूल और काॅलेज जा रही हैं और बड़ी संख्या में आत्म निर्भर भी बन रही है। लेकिन, इस सारी प्रगति और उन्नति के इस उजाले के पीछे जो अँधेरा है, उसे देखने की ज़रूरत है। बड़े-बड़े माॅल, होटल बने हैं, लेकिन उसके लिए ग़रीबों की झौपडि़याँ मिटाई जा रही हैं। एक ओर ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है जो हवाई जहाज से नीचे नहीं चलते, दूसरी ओर अभी भी लोग बैलगाडि़यों में चल रहे हैं। छोटे-छोटे उद्योग-धंधे बंद हो रहे हैं। छोटी पूँजी, बड़ी पूँजी से हार गयी है। ये अजीब से अंतर्विरोध हैं। ये मेरे सपनों का तो क्या, गाँधी के सपनों का भी भारत नहीं है।”

मैंने पूछा- भगतसिंह जी, आपके और गांधी के बीच मतभेद हुए, ऐसा लोग कहते हैं। वास्तविकता क्या है ?
उन्होंने गंभीर होकर जवाब दिया “मैंने गांधी के खिलाफ़ कभी लिखा है? मैं उन्हें पूरी तरह देशभक्त, साम्राज्यवाद विरोधी और देश के आमजन की चिंता करने वाले व्यक्ति के रूप में देखता हूँ। उनमें ग़ज़ब का काॅमनसेन्स था। जनता की नब्ज़ पर उनका हाथ था। हमारे समय में ही वे व्यक्ति नहीं एक संस्था बन गए थे। उनके अनेक सकारात्मक बिन्दु थे तो कुछ नकारात्मक बिन्दु भी थे।”

मैंने पूछा शहीदे आज़म ! आपको बंधन मुक्त कराने के लिए पूरे देश ने अपील की, परंतु गांधी ने कोई विचार नहीं किया।
वे बोले “यह अर्ध-सत्य है। अर्ध सत्य के परिणाम बहुत बुरे होते हैं। अर्ध-सत्य से किसी घटना या व्यक्ति का मूल्यांकन नहीं हो सकता।”

मैंने कहा- मूल प्रश्न पर आऐं। क्यों गोलमेज़ काॅन्फ्रेंस में उन्होंने आपकी प्राण रक्षा के लिए कुछ नहीं कहा?
भगत सिंह बोले ‘‘असल बात ये है कि वाॅयसराय से उन्होंने कई बार मेरे बारे में बात की। मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदलने की बात कही। किन्तु, वायसराॅय ने कहा कि भगतसिंह के बारे में कोई बात नहीं होगी। गांधी जी की अपनी वैचारिक सीमा थी। वे क्रांतिकारियों के तरीकों से सहमत नहीं थे। लक्ष्य के प्रति वे क्रांतिकारियों के साथ थे। गांधी का सही मूल्यांकन करके उचित बात कहनी चाहिए। वे राष्ट्रीय बुर्जुआवाद के उदारचेता व्यक्तित्व थे।”

मैंने कहा-  बात तो समझ में आती है लेकिन आपको लोग आतंकवादी क्यों कहते हैं।
विचार मग्न हो वे बोले ‘‘आतंकवाद किसी समस्या का हल नहीं। मैं अंतिम नतीजे पर पहुँचा कि जब तक जनता का संगठन नहीं होगा, तब तक कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता। जनता के संगठन का अर्थ है, वर्ग-संगठन। मजदूरों-किसानों का, नौजवानों का संगठन। इनको संगठित करके इनकी चेतना का विकास किया जाय। यह जनता का दर्शन है। जनतांत्रिक पद्धति का दर्शन ही साधारण जनता की मुक्ति का साधन है।”

मैंने-फिर आशंका प्रकट की – यह धर्म-प्राण देश है। धर्म और जातियों में बंटा है….।

मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा “मेरी पुस्तक, ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’, पढ़ी है? मैं समझता हूँ धर्म की व्यक्तिगत भूमिका हो सकती है, राजनीतिक-सामाजिक नहीं। धर्म का जो अनुचित प्रयोग राजनीति और सामाजिक जीवन में हुआ है उससे धार्मिक-विद्वेष, सांप्रदायिकता में बदल गया है। अविश्वास, संदेह और भय किसी भी सभ्य-समाज के लिए विष है। रही बात भारत की तो जहाँ ग़रीबी, अन्याय, अत्याचार और शोषण का लंबा इतिहास है, वहाँ संगठन ही आमजन की मुक्ति का मार्ग हो सकता है। देश की जनता पर भरोसा रखो। शासक या पूँजीपतियों या उनके दलालों का कोई भरोसा नहीं। वे देश को बेच देंगे। आज क्या देश में सही अर्थों में जनतंत्र है ? यह जनता का जनतंत्र नहीं, बुर्जुआ समाज का जनतंत्र है, जिसका आधार सामंती संस्कृति हैं। इस संस्कृति में दलित और नारी सबसे अधिक पीडि़त होते है। इस स्थिति को बदलने के लिए केवल सामूहिक संगठन और संघर्ष करके ही लक्ष्य पाया जा सकता है। हमारे समय के मुकाबले, आज दलित और स्त्रिायाँ बहुत बेहतर स्थिति में है। सामंतवाद की जड़ें खोदनी होगीं, तभी हम जातिवाद और संप्रदाय की लड़ाई जीत सकते हैं।”

मैंने फिर पूछा-  आज की परिस्थितियों में भारत का विकास किस दिशा में हो रहा है? ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव हमारी आर्थिक स्थितियों पर पड़ रहा है।
बहुत गंभीर होकर वह बोले “आज पूँजीवादी व्यवस्था गहरे संकट में फंसी है। उसे उद्धार का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की तमाम वित्तीय संस्थाएँ, दिवालिया हो गयी हैं या दिवालिया होने के कगार पर हैं। फोर्ड जैसी दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी भी दिवालिया होने के कगार पर है। भारत की स्थिति इतनी गंभीर नहीं है, क्योंकि यहाँ के वामपंथियों और टेªड यूनियनों ने एल.आई.सी. और बैंकों का निजीकरण अपने आंदोलनों और संघर्ष के द्वारा रोका। हर साल करोड़ों का मुनाफा देेने वाले ‘नव-रत्न’ संस्थानों को बिकने नहीं दिया। यह वर्तमान व्यवस्था तो हर चीज़ बेचने को तैयार है। इन संस्थाओं में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश भी हमारी ट्रेड यूनियनों ने नहीं होने दिया। जिन संस्थानों में विश्व बैंक और अन्य विदेशी संस्थानों की पूँजी लगी थी, उनमें छँटनी हो रही है। पूँजीपति मनमानी करके मजदूरों को निकाल रहे हैं, जिन्होंने सौ साल संघर्ष करके अपने जनतांत्रिक अधिकार प्राप्त किये थे। हर पूंजीवादी और शोषण आधारित व्यवस्था जब संकट में होती है तो सारे जनतांत्रिक मूल्य भूल जाती है। देश में इसी तरह की हवा चल रही है…।’’ इतना कह कर भगतसिंह थोड़ा रुके और फिर कुछ सोचते हुये बोले-“देश की आम जनता पर भरोसा करो, वही इन सब संकटों से मुक्ति दिलाएगी।”

अंतिम सवाल- साथी भगत सिंह, धर्म की राजनीति का आज के भारत में क्या भविष्य है मैंने पूछा..?
उन्होंने उत्तर दिया- “बहुत सीमित उद्देश्य है इसका। सत्ता और धन प्राप्त करना इनका मुख्य उद्देश्य है। हिन्दुस्तान के शासकों को अपने अनुभवों से सीखना चाहिए। पाकिस्तान धर्म के आधार पर बना। उसका क्या हश्र हुआ ? आज़ादी के 25 साल बाद दो हिस्सों में बंट गया। बिल्लोच और पठान सत्ता के खिलाफ़ स्वायत्तता के लिए लड़ रहे हैं। शिया सुन्नियों में दंगा जारी है। अपने देश में देखिए-शिव सेना ने पहले प्रांतीयता का नारा लगाया। मुसलमानों-ईसाइयों के खिलाफ़ मोर्चा खोला। फिर, उत्तर-भारतीयों को ‘मराठी-अस्मिता’ नाम पर उखाड़ने का प्रयास किया। यह व्यवस्था का संकट है। वे इसका हल धर्म और प्रान्तीयता में ढूंँढते हैं। इसी को अंध राष्ट्रीयता कहते हैं। हमारे संतों, भक्तों और सूफियों का संदेश है-प्रेम। प्रेम जोड़ता है। घृणा तोड़ती है। अतः घृणा का व्यापार मत करो।”  भगत सिंह यह कहकर मौन हो गए।

मैंने फिर डरते-डरते पूछा-  मार्च का महीना महिलाओं और आपके नाम है। होली की मस्ती भी इसी महीने में होती है। लिहाज़ा भारत के लिए यह महीना बड़ा शुभ है। हर साल लोग आपकी जयंती मनाते हैं। फिर…
मुझे बीच में ही वे रोककर बोले- “जयंती मनाने और मूत्र्तियाँ लगाने से समाज नहीं बदलता। सही विचारधारा के बिना न कोई संगठन चलता है, न लक्ष्य मिलता है।”

मैंने अधीर होकर पूछा- फिर हम क्या करें ?
वे बोले- “जो लोग, नौजवान मुझे पसंद करते हैं, वे मेरी विचारधारा को आत्मसात् करें, स्वयं को उसके अनुरूप ढालें। इसी से देश और साधारण-जन का कल्याण होगा। कितने शर्म की बात है, देश के 30 करोड़ लोग आधे पेट सोते हैं। कैसी विडंबना है-दुनिया के 20 अमीर लोगों में तीन हिन्दुस्तानी हैं और दूसरी ओर योरोप के कई देशों की कुल आबादी से अधिक लेाग देश में ग़रीबी की रेखा से नीचे हैं। हाशिये के इन्हीं लोगों के लिए बिना संघर्ष किये मुक्ति की कामना व्यर्थ है। इसके लिए मध्यवर्ग के लोग अपनी खोल से बाहर निकलें और देश की वास्तविकता को पहचानें। आज फिर एक सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। हमने और हमारे साथियों ने कुछ किया वह आने वाले हिन्दुस्तान के लिये था। आज जो हम करेंगे वह हमारी आने वाली संतानों के लिये विरासत होगी। यह हमें ही तय करना होगा कि हम कौन सी विरासत छोड़कर जायेंगे।”

मैंने कहा- इस देश में यह कैसे संभव है ?
वे नाराज़गी के स्वर में बोले- “ये निराशा और नकारात्मक विचार कहीं का नहीं छोड़ते। इनसे बचें। आत्म संघर्ष करें। हमारे समय में भी ऐसा था। किन्तु, हमने मेहनत और लगन से वातावरण को बदला। कोई काम मुश्किल नहीं है। दृढ़ संकल्प और निष्ठा हो बस। देश को एक और मुक्ति आंदोलन की आवश्यकता है |”.

इतना कहकर उन्होंने ‘इंकलाब-जि़ंदाबाद’ का नारा लगाया। मैं भी उनके साथ जोर से चिल्लाया और मेरी आँख खुल गयी। नमिता ने पूछा क्या हुआ ? क्यों चिल्ला रहे थे। क्या कोई सपना देखा?
मैंने बताया- “भगत सिंह से मुलाक़ात हो गयी है आज!”

(‘समय संवाद‘ से साभार)

हनीफ मदार द्वारा लिखित

हनीफ मदार बायोग्राफी !

नाम : हनीफ मदार
निक नाम : हनीफ
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ऑथर के बारे में :

जन्म -  1 मार्च १९७२ को उत्तर प्रदेश के 'एटा' जिले के एक छोटे गावं 'डोर्रा' में 

- 'सहारा समय' के लिए निरंतर तीन वर्ष विश्लेष्णात्मक आलेख | नाट्य समीक्षाएं, व्यंग्य, साक्षात्कार एवं अन्य आलेख मथुरा, आगरा से प्रकाशित अमर उजाला, दैनिक जागरण, आज, डी एल ए आदि में |

कहानियां, समीक्षाएं, कविता, व्यंग्य- हंस, परिकथा, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, समर लोक, वागर्थ, अभिव्यक्ति, वांग्मय के अलावा देश भर  की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 

कहानी संग्रह -  "बंद कमरे की रोशनी", "रसीद नम्बर ग्यारह"

सम्पादन- प्रस्फुरण पत्रिका, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग १, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ३,

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ४
फिल्म - जन सिनेमा की फिल्म 'कैद' के लिए पटकथा, संवाद लेखन 

अवार्ड - सविता भार्गव स्मृति सम्मान २०१३, विशम्भर नाथ चतुर्वेदी स्मृति सम्मान २०१४ 

- पूर्व सचिव - संकेत रंग टोली 

सह सचिव - जनवादी लेखक संघ,  मथुरा 

कार्यकारिणी सदस्य - जनवादी लेखक संघ राज्य कमेटी (उत्तर प्रदेश)

संपर्क- 56/56 शहजादपुर सोनई टप्पा, यमुनापार मथुरा २८१००१ 

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