हाकिम कथा: कहानी (अखिलेश)

कथा-कहानी कहानी

अखिलेश 485 11/17/2018 12:00:00 AM

“रजाई के भीतर आते ही उसे पास में पुनीत की अनुभूति होने लगती थी। अचानक वह भय से सिहर गई। हमेशा ऐसा ही होता रजाई उसे मादकता की नदी में डुबोकर खौफ़ की झाड़ी में फेंक देती थी। वर्तमान का अहसास ख़ौफ की झाड़ी ही था उसके लिए। वह रजाई से डरती थी, लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहती थी। इसी सप्ताह पुनीत का जन्म दिन था। बेटियाँ जाने की ज़िद कर रही थीं, उसका भी मन था, बेटियाँ पिता से मिल आएँ। वैसे उसके न चाहने पर भी कौन रुकनेवाला था। रजाई के भीतर गायत्री का दिल डूबने लगा। बेटियाँ पुनीत की दूसरी बीवी मंदिरा को अपनी माँ बतलातीं। मंदिरा उन्हें लंबे-लंबे भावुक पत्र और क़ीमती सामान भेजकर इस रिश्ते को मजबूत बनाती, क्योंकि वह डरती थी, लड़कियाँ कहीं फिर गायत्री और पुनीत के बीच पुल न बन जाएँ। उसकी रणनीति थी कि बेटियों और गायत्री के बीच दूरी बढ़ती रहे।” कथाकार ‘अखिलेश’ की कहानी…….

हाकिम कथा 

अखिलेश

पुनीत ने तलाक़ क्या दिया, गायत्री काफ़ी कुछ बदल गई। जैसे कहाँ वह पौधों से बेहद लगाव रखती थी, पर अब उसके पास फटकती भी नहीं। उसे भ्रम होता पौधों में कोई हरा साँप हिल रहा हैं। साँप का ही भय नहीं, वह अपनी चारपाई दीवारों से एक हाथ दूर रखती, छिपकली न गिर पड़े। कभी-कभी वह सारी सीमाएं तोड़ देती, गर्मी न पड़ने पर भी आँगन में सोती कि कहीं कमरे की छत न गिर न पड़े। दिन में वह अकेली रहती और यही सब सोचती। दिन में भी चैन नहीं था।

पुनीत ने उसके दो चिढ़ाने वाले नाम रखे थे- गेंद और ग्रामोफ़ोन। ये नाम प्यार के दिनों की सर्जना थे। गायत्री उछलती कूदती ख़ूब थी, इसलिए गेंद, और बातूनी भी कम नहीं, इसलिए ग्रामोफ़ोन। लेकिन अब उछलना-कूदना और बातूनीपन, सब ग़ायब हो गए थे। सभी का ख़्याल रखने वाली गायत्री को अब किसी से, यहाँ तक कि अर्पणा और संध्या दोनों बेटियों से भी लगाव नहीं रहा। वह मकान और उसके भीतर के क़ीमती सामानों के लिए ही चिंतित थी।

तलाक़ हो जाने पर पुनीत गायत्री को इन चीज़ों से बेदखल करना चाहते थे लेकिन उस दिन गायत्री को विषाद ने इतना पवित्र, निश्छल और सुंदर बना दिया था कि पुनीत के सामने प्रेम के पुराने दृश्य कौंधने लगे और भावुकता में उन्होंने गायत्री को यह सब उपहार दे दिया। मकान, सामान और दो बेटियाँ सौंपकर वह ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गए थे।

बेटियाँ भी बाप पर गई थीं। वैसा दिमाग़ और वैसी ही आत्मा। गायत्री महसूस करती, शुरू से ही दुनिया में अँधेरा रहा है। यह सही नहीं था। दुनिया क्या, खुद उसकी ज़िंदगी में कभी उजाला था। उसने और पुनीत ने प्रेम-विवाह किया था।

पुनीत एक ज़िलाधिकारी की संतान थे। जिसने ग़ुलाम और आज़ाद दोनों ही सूरतों में भारत सरकार की सेवा अच्छे-बुरे सभी तरीकों से निष्ठापूर्वक की थी। गायत्री अपने पिता की इकलौती संतान थी। बाप ने बनियान के कारोबार में अतुल धनराशि अर्जित की थी। पुनीत ने इस धन के कारण गायत्री से प्यार नहीं किया था। धन नहीं होता। तब भी वह गायत्री से प्यार करते। इतना ज़रूर है कि धन ने उनके प्रेम को टिकाऊ बनाया था, उनमें गायत्री से विवाह करने का लालसा पैदा की थी सोलह साल की गायत्री का विवाह धूमधाम से हुआ।

पर समय ने पुनीत के साथ बड़ा मज़ाक़ किया। इधर विवाह किया और उधर गायत्री की माँ ने गर्भधारण किया। समय आने पर गोल-मटोल गोरा-चिट्टा सुपुत्र पति को सौंप दिया, पुनीत के सपनों की इमारत चूर-चूर हो गई, उन्हें लगता गायत्री ने उनके साथ धोखा किया है। उसका दिल गायत्री से उखड़ गया। लेकिन बेटी देकर गायत्री ने पुनीत से क्षमादान पा लिया था। लगभग दो घंटे शब्दकोश देखकर पुनीत ने बेटी का नाम रखा था अपर्णा। दूसरी बेटी हुई संध्या। फिर तलाक़ ही हुआ। जाड़े का मौसम था। गायत्री के आँगन से धूप का आखिरी टुकड़ा भी खिसक गया। वह बुझे मन से भीतर आई और रजाई लपेटकर आराम से लेट गई। एक अजीब-सी गंध से भरने लगी वह। रजाई के भीतर आते ही उसे पास में पुनीत की अनुभूति होने लगती थी। अचानक वह भय से सिहर गई। हमेशा ऐसा ही होता रजाई उसे मादकता की नदी में डुबोकर खौफ़ की झाड़ी में फेंक देती थी। वर्तमान का अहसास ख़ौफ की झाड़ी ही था उसके लिए। वह रजाई से डरती थी, लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहती थी। इसी सप्ताह पुनीत का जन्म दिन था। बेटियाँ जाने की ज़िद कर रही थीं, उसका भी मन था, बेटियाँ पिता से मिल आएँ। वैसे उसके न चाहने पर भी कौन रुकनेवाला था। रजाई के भीतर गायत्री का दिल डूबने लगा। बेटियाँ पुनीत की दूसरी बीवी मंदिरा को अपनी माँ बतलातीं। मंदिरा उन्हें लंबे-लंबे भावुक पत्र और क़ीमती सामान भेजकर इस रिश्ते को मजबूत बनाती, क्योंकि वह डरती थी, लड़कियाँ कहीं फिर गायत्री और पुनीत के बीच पुल न बन जाएँ। उसकी रणनीति थी कि बेटियों और गायत्री के बीच दूरी बढ़ती रहे।

गायत्री बेचैन हो गई। उसे गर्मी-सी लगने लगी। वह रज़ाई से बाहर आ गई। लेकिन बेचैनी का क्या करें ? वह आँगन में पहुँचकर चहल-कद़मी करने लगी। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पास के कमरे में आकर सोचने लगी, ”पुनीत को जन्मदिन पर क्या उपहार भेजा जाए?’ महँगा सामान भेजकर साबित कर दे कि वह किसी से कम नहीं। या कोई मामूली चीज़ भेजकर वह दिखलाए कि उसे पुनीत में कोई दिलचस्पी नहीं, या कुछ भी न भेजकर उसके गालों पर तमाचा जड़ दे। उसे वे ज़्यादतियाँ याद आने लगीं, जिसके कारण उसे पुनीत से घृणा हुई थी। और जिन्हें अस्वीकार करने पर पुनीत से उसे उसके संबंध बिगड़े थे। पुनीत उसकी शालीनता और भोलेपन पर रीझे थे और उन्हीं की वजह से उन्होंने संबंध तोड़ा। पुनीत को जल्दी-जल्दी प्रमोशन मिले थे। क्लब, पार्टीयाँ वगैरह उनके लिए हवा-पानी की तरह ज़रूरी हो गए। वह दूसरों की बीवियों पर रीझने लगे और चाहते, दूसरा भी उनकी बीवी पर रीझे। किसी सहकर्मी, अफ़सर को गायत्री का सान्निध्य देकर उसकी लिप्सा को जगाते फिर हटा लेते। इस खेल में वे असीम आनंद का अनुभव करते थे। लेकिन बड़े अफ़सरों के लिए वे उदार थे। इतना की गायत्री की अनुदारता उन्हें काट खाती थी।

गायत्री नारीसुलभ गालियाँ देते हुए थककर कुर्सी पर बैठ गई। अहसास हुआ कि अब तक कल्पना की दुनिया में थी। पर अभी उसकी घृणा खत्म नहीं हुई। उसका चेहरा लाल होने लगा और वह फिर कल्पना की दुनिया में खो गई ”मुझे डांस नहीं आता था…चिपटना-सटना नहीं आता था…..”

पोस्टमैन की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। बेटियों के आने का वक़्त हो गया था। वह उठ खड़ी हुई। अर्पणा के कमरे का चादर ठीक करने लगी। उसे लगा पायल बज रही है। उसने अपने को पायल की रुनझुन को पकड़ने में व्यस्त कर लिया। इस पायल पर वह विशेष ध्यान देती थी। गोया यह बताना चाहती थी कि पुनीत का स्थान अब उसके पैरों में है। उसका दिल थोड़ी देर पायल की आवाज़ पकड़ने में लगा रहा, फिर वह पानी लाने के लिए बोली। नौकरानी पानी लेकर आई, तो वह अलमारी में लगी किताबें गिन रही थी। घूँट भर पानी मुँह में रखकर चबाने लगी जैसे बच्चे खेल-खेल में करते हैं। इस काम में मन लगाने की कोशिश कर रही थी कि पानी गले के नीचे उतर गया। वह नाखून कुतरने लगी। कुछ देर कुतरा होगा कि बाहर से लेटरबाक्स खुलने की आवाज़ सुनाई पड़ी। अपर्णा थी।

छोटे क़द, अच्छे-नाक-नक्श की अपर्णा गोरी, कुलीन और होशियार थी। वह भाँति-भाँति के कपड़े पहनती थी। डाक टिकटों का संग्रह करना उसकी हॉबी थी। युनिवर्सिटी से आकर घर में घुसने के पहले उसने लेटर बाक्स का ताला खोला। एक साइंस की पत्रिका थी, जिनका चंदा उसके पापा ने जमा किया था और जिसे वह कभी नहीं पढ़ती थी। उसने डाक लेकर ताला लगाया। वह चाहती थी, माँ को उसकी चिट्ठियाँ कभी न मिलें और माँ की हर चिट्ठी की जानकारी उसे हो। इस प्रबंध के लिए वह डाकिया को प्रतिमाह पंद्रह रुपए देती थी। घर में आकर उसने किताबें फेंक दीं और बिस्तर पर गिर पड़ी। उसकी भवें सिकुड़ गईं,” चादर महक रहा है,” आवाज़ में व्यंग्य था। उसकी बात को अनसुनी करते हुए गायत्री कमरे के बाहर आ गई। उसके जाते ही संध्या पहुँची। वह युनिवर्सिटी से जल्दी लौटती थी। संध्या की इच्छा हुई कि वह भी बिस्तर पर गिर पड़े लेकिन यह अपर्णा का बिस्तर था। उसे अपनी इच्छा दबानी बड़ी। दोनों बहनों के बीच विशेष यह था कि अपर्णा संध्या को तुच्छ समझती और संध्या अपने को वैसा महसूस भी करती, क्यों क़द में छोटी होने के बावजूद अपर्णा उससे अधिक सुंदर थी।

क़द की कमी से भी कभी-कभी अपर्णा को बहुत दुख होता था। लेकिन अपने को यह दिलासा देकर संतोष कर लेती कि नई फ़िल्मी नायिकाएं भी कुछ ख़ास लंबी नहीं। फिर रामबाण ऊँची हीलवाली चप्पलें तो कहीं गई नहीं थीं। नौकरानी दोनों के लिए काफ़ी रख गई अपर्णा ने संध्या से कहा तू अपनी काफ़ी उठाकर अपने कमरे में जा।”

एकांत पाकर अपर्णा ने अलमारी से परीक्षित की तसवीर निकाली और ग़ौर से देखने लगी। परीक्षित कुछ दिन पहले तक उससे मूक प्रेम करता था और उसे कभी पसंद नहीं आया था। लेकिन समय की ताकत, वह आई.पी.एस. अफ़सर बनने वाली परीक्षा में पास हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अपर्णा को उसका प्रेम अर्थवान लगने लगा। अपर्णा ने यह भी गणित लगाया कि सुंदरता की दृष्टि से उसकी लंबाई परीक्षित से बहुत ज्यादा है, इसलिए वह दबेगा। आई.पी.एस. पति दबेगा। वह अपने सामने दरोग़ाओं को एड़ियाँ उठाकर जयहिंद बोलते हुए देखने लगी। उसने परीक्षित की तसवीर अलमारी में उछाल दी और खुद मंसूबों के कुलाबे भरने लगी। वह देर तक बेखुदी में रहती लेकिन गायत्री की आवाज़ ने दिक्कत पैदा कर दी। वह नौकरानी से कह रही थी कि अपर्णा के मन की सब्जी पूछ ले, तब बाज़ार जाए। नौकरानी आई, तो अपर्णा झुंझला उठी। मगर वह फ़ैशन को जड़ से जज्ब कर चुकी थी। वह जानती थी कि झुँझलाहट में चेहरा ख़राब हो जाता है इसलिए उसको ज़बान पर रख लेना चाहिए, ”सभी मम्मी लोग अपने बच्चों की पसंद जानती हैं लेकिन मेरी मम्मी- भई वाह! क्या कहने हैं…”

नौकरानी के चेहरे पर खीझ की रेखाएँ उभर आईं। वह झोला झुलाती हुई चली गई। गायत्री अकेली हो गई। अपर्णा के व्यंग्य से पैदा हुई तिलमिलाहट से भरी थी वह। यकायक उसमें प्रश्न कौंधा, वह किसलिए जीवित है? उसे लगा इस संसार में कोई नहीं है। और वह बड़ी गहराई तक डर गई।

अजीब बात थी एक तरफ उसमें अकेलापन का ज्वार-भाटा तेज़ हो रहा था, दूसरी तरफ़ भीतर पुनीत और बेटियों के साथ बीते हुए सुखद दृश्यों की बरसात भी ज़ोरों पर थी। बादलों में बिजली की तरह माँ-बाप की स्मृतियाँ चमकती-बुझती थीं। पुनीत नायक और खलनायक दोनों की तरह याद आ रहे थे, कभी-कभी चेहरे का एक हिस्सा नायक और दूसरा खलनायक की तरह लगता। धीरे-धीरे सब कुछ गड्‍मड हो गया। उसे लगने लगा, पुनीत उसके लिए सिर्फ़ पति हैं। वह गिड़गिड़ा उठी, “पुनीत, मैं आपको तोहफा दूँगी। आपके जन्म-दिन पर मैं आ नहीं सकती लेकिन मेरा तोहफा पहुँचेगा। मेरा प्रेजेंटेशन ज़रुर पहुँचेगा पुनीत।”

पुनीत की कनपटी के बाल पकने शुरु हो गए थे। उन्होंने सुबह के वक़्त घूमना भी शुरु कर दिया था।

वह ग्यारह दिसंबर को पैदा हुए थे। इस बार उन्होंने अपना जन्म-दिन नौ दिसंबर को मनाना तय किया। क्योंकि उनके चीफ़ दस को बाहर जाकर चौदह को लौटने वाले थे।

चीफ़ अपनी पत्नी के साथ आए थे। पार्टी अब ढलान पर थी। लोगों ने दूसरों की बीवियों से बात करने की गति बढ़ा दी थी। दो-चार लोग बाहर लॉन में उल्टियाँ करके ढुनक गए थे। संगीत की हल्की ध्वनि गूँज रही थी लेकिन अब किसी के कान उस तरफ़ नहीं थे…

अर्दली पुनीत के पास आया और का़गज़ का टुकड़ा सामने कर दिया। अपर्णा और संध्या आई थीं। पुनीत के चेहरे पर प्यार और आंनद का गुलाबीपन छा गया। उसने चीफ़ से दो मिनटों की मोहलत माँगी।

बाहर आकर पुनीत ने दोनों बेटियों को गले से लगा लिया। हँसते हुए वह आने लगे। पुनीत दोनों को पीछे के दरवाज़े से भीतर लाए बोले, “देखो बेटा लोगो, तुम अपने सबसे अच्छे कपड़ों में तैयार हो जाओ। और हाँ, मम्मी के टेबल की नीचेवाली ड्रार में परफ्‍यूम्‍स रखे हैं। जल्दी करो। हरिअप्‌।” “पर पापा, पार्टी तो एलैवेंथ को थी?” “अँ हाँ…हम अपने बच्चों को सरप्राइज देना चाहते थे।” “ओ पापा…ऽ..ऽ…” दोनों शेखी बघारने लगीं। “अच्छा तुम लोग जल्दी से तैयार होकर आओ।” कहकर वह चीफ़ के पास चले गए। मौका पाकर मंदिरा पुनीत के एक दोस्त के पास खिसक आई थी। पुनीत को देखते ही चीफ़ के पास चली गई। पुनीत ने फुसफुसाकर बेटियों के आने की ख़बर दी।

वह उल्लास और ममता को उभारने की कोशिश करने लगी। इसके अलावा वह जूड़ा वगै़रह भी ठीक करने लगी। उसकी तैयारी देखकर लोगों को लगा, कोई वी.आई.पी. आनेवाला है। पुरुषों के नशे हिरन होने लगे। महिलाओं को मेकअप ताजा़ करने के लिए बाथरुम जाने की तलब महसूस हुई।

अखिलेश द्वारा लिखित

अखिलेश बायोग्राफी !

नाम : अखिलेश
निक नाम :
ईमेल आईडी :
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.