भिखारी ठाकुर, उत्सुकता की अगली सीढ़ी: आलेख (अनीश अंकुर)

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अनीश अंकुर 374 11/17/2018 12:00:00 AM

बिहार के सांस्कृतिक निर्माताओं में गौरवस्तंभ माने जाने वाले ‘भिखारी ठाकुर‘ पर पिछले कुछ वर्षों कई पुस्तकें निकलीं, शोध हुए एवं कई अभी भी जारी है। इसी कड़ी में ‘विकल्प प्रकाशन’, नई दिल्ली से अश्विनी कुमार पंकज के संपादन में ‘रंग बिदेसिया’ छप कर आयी है। भिखारी ठाकुर व बिदेसिया रंगशैली पर केंद्रित यह पुस्तक लेखों का संकलन है। विभिन्न लोगों द्वारा अलग-अलग नजरिए से लिखे गए लेखों में भिखारी ठाकुर के सामाजिक व सृजनात्मक महत्व को समय और समाज की बदलती जीवन-स्थितियों के संदर्भों में देखने का प्रयास है। 10 जुलाई को भिखारी ठाकुर की पुण्य तिथि पर “रंग बिदेसिया” पर अनीश अंकुर का समीक्षात्मक आलेख | – संपादक

भिखारी ठाकुर, उत्सुकता की अगली सीढ़ी 

अनीश अंकुर

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बिहार के सांस्कृतिक निर्माताओं में गौरवस्तंभ माने जाने वाले भिखारी ठाकुर पर पिछले कुछ वर्षों कई पुस्तकें निकलीं, शोध हुए एवं कई अभी भी जारी है। इसी कड़ी में ‘विकल्प प्रकाशन’, नई दिल्ली से अष्विनी कुमार पंकज के संपादन में ‘रंग बिदेसिया’ छप कर आयी है। भिखारी ठाकुर व बिदेसिया रंगशैली पर केंद्रित यह पुस्तक लेखों का संकलन है। विभिन्न लोगों द्वारा अलग-अलग नजरिए से लिखे गए लेखों में भिखारी ठाकुर के सामाजिक व सृजनात्मक महत्व को नये संदर्भों में स्थापित करने का प्रयास किया गया है।
भिखारी ठाकुर के जन्मशताब्दी वर्ष 1987 से संपादक को भिखारी ठाकुर के संबंध में जानने-समझने की उत्सुुकता हुई। ज्ञातव्य हो कि भिखारी ठाकुर के जन्मशताब्दी वर्ष पर उन्हें लगभग भुला दिया गया था। तब संपादक ने अपने स्तर पर भिखारी ठाकुर की जन्मशताब्दी को आयोजित किया तथा एक पत्रिका ‘बिदेसिया’ भी निकाली। भिखारी ठाकुर बकौल अष्विनी कुमार पंकज ‘‘एक ऐसे सार्वकालिक कलाकार हैं जिन्होंने एक नई रंगशैली को लोकप्रिय बनाते हुए कला और कलाकार दोनों की गरिमा स्थापित की’’
पूरी किताब दो खंडों में विभाजित है ‘बिदेसिया’ और ‘बिदेसिया के बहाने’। पुस्तक का पहला ही आलेख बिहार सरकार के शिक्षासचिव रहे चुके सुप्रसिद्ध नाटककार जगदीश चंद्र माथुर का है। अपने जीवन में वे एक से बढ़कर एक कलाकारों से मिले पर आॅटोग्राफ लेने का शौक सिर्फ एक व्यक्ति से हुआ ‘‘वह व्यक्ति थे भिखारी ठाकुर।’’ जगदीश चंद्र माथुर भिखारी ठाकुर को ‘भरतमुनि के मानसवंशज’ बताते हुए उनके नाटक ‘बिदेसिया’ की महिमा का बखान करते हैं ‘‘गोरखपुर-बनारस से लेकर हावड़ा तक सारे भोजपुरी भाषा क्षेत्र में भिखारी ठाकुर की मंडली की शौहरत इस ‘बिदेसिया’ नाटक के कारण फैल गई। सोनपुर मेले में, शादी-ब्याह के अवसरों पर भिखारी ठाकुर की सर्वत्र मांग थी। नौजवान, बूढ़े, स्त्रियां-सब पर नशा-सा छा गया बिदेसिया का, सब की जबान पर इन गीतों की लडि़यां चढ़ गई। दर्षकों की नब्ज एक बार पा लेने के बाद भिखारी ठाकुर एक-के-बाद एक नये नाटक तैयार करके उन्हें प्रस्तुत करने लगे’’
भिखारी ठाकुर के प्रथम शोधार्थी माने जाने वाले तैयब हुसैन ने ‘‘भिखारी ठाकुर के संग ः तीन रंग” में उनके तीन पहलुओं को रेखांकित किया है ‘‘एक – भक्त का, दो-समाज सुधारक का और तीन-रंगकर्मी और नाटककार का ।’’
जिन लोगों ने भिखारी ठाकुर का जीवंत प्रदर्शन देखा है उन पर उनकी कला का जादू आज भी बरकरार है। ऐसे ही लोगों में हैं उमापति पांडे। भिखारी ठाकुर के प्रभाव का जिक्र वे इन शब्दों में करते हैं ‘‘ वृद्धावस्था में भी जब वह मंच पर आते उनमें वही रौनक, वही अभिनय की सजीवता, वही तेज-तर्रार आवाज, वही विद्युत धारा-सी प्रवाहमान पैरों में गति देखने में आती, जो दर्शकों को विमुग्ध कर देती। मरने के बाद भी उनके नाम पर उस मंडली ने बहुत दिनों तक अपनी साख जमाए रखी, और बहुतेरों में उनके जिंदा रहने का भी भ्रम बना रहा। यह था उनकी लोकप्रियता का अंतिम छोर’’
लेकिन लोकप्रियता ही सार्थकता का एकमात्र पैमाना नहीं माना जा सकता। विद्याभूषण अपने लेख ‘ भिखारी ठाकुरः एक मिथ, एक सच’ में यह प्रश्न उठाते हैं। ‘‘ भिखारी ठाकुर अपार लोकप्रियता के बावजूद इतिहास-पुरूष नहीं बन सके।’’ उनकी टिप्पणी थोड़ी तल्ख भी हो जाती हैं ‘‘अपने समय और समाज की बदलती जीवन-स्थितियों और मूल्यों पर उनकी पकड़ बेहद कमजोर थी। वे न तो गुलाम भारत की वेदना से द्रवीभूत हुए, न ही स्वाधीन भारत की कठिनाईयों से प्रभावित। दरअसल, उनकी एक अपनी दुनिया थी – अयथार्थ भावालोक जैसी। अपने विशाल दर्शक और श्रोता वर्ग को वे निपट मनोरंजन ही परोसते आए ।”
‘रंग बिदेसिया’ में सबसे अलग ध्यान खींचती है प्रो रामसुहाग सिंह द्वारा भिखारी ठाकुर का लिया गया साक्षात्कार। 1965 के इस साक्षात्कार में भिखारी ठाकुर ने कुछ सवालों के गूढ़ उत्तर दिए हैं। मसलन रामसुभग सिंह के सवाल ‘‘आप तो जनता के कवि हैं, इसीलिए स्वतंत्रता के पहले और बाद में आप क्या अंतर पाते हैं?’’ भिखारी ठाकुर कहते हैं ‘‘ मैं कुछ कहना नहीं चाहता’’ फिर अगला प्रश्न कि ‘‘वर्तमान शासन से आप खुश हैं?’’ जवाब है ‘‘उत्तर देना संभव नहीं।’’
चंद्रशेखर ; सीवान के रहने वाले जे.एन.यू छात्रसंघ के अध्यक्ष जिनकी 31 मार्च 1997 को सीवान में हत्या कर दी गयी थी के भिखारी ठाकुर पर लिखे दो बहुचर्चित शोधपरक आलेख है। ‘भिखारी ठाकुर ः एक सबाल्टर्न स्वर’ और ‘बिदेसिया का इतिहास’। चंद्रशेखर ने बिदेसिया की परिघटना के पूरे ऐतिहासिक संदर्भ को सामने रखा है। ‘‘ सारण के निम्न वर्गों की भौतिक खुशहाली का आधार प्रवास और दूर देश से आने वाली नियमित आमदनी थी, तो इस प्रवास से पैदा भावानात्मक उथलपुथल ने बिदेसिया नामक नई सांस्कृतिक विधा के लिए माहौल मुहैया कराया ’’ लेकिन चंद्रशेखर के अनुसार प्रवास के परिघटना की जड़ में सारण के किसानों की ‘प्रतिरोध से बचने’ की रणनीति है। चंद्रशेखर की अंतर्दृष्टि संपन्न टिप्पणी ध्यातव्य है ‘‘ बिदेसिया केवल अनजानी दुनिया में अपनी पहचान उभारने की प्रवासियों के आकांक्षा की ही अभिव्यक्ति नहीं है, यह अपने देश की ‘पुरानी’ व्यवस्था की ओलाचना का प्रयास भी है’’ लेकिन वे यह भी जोड़ना नहीं भूलते ‘‘ बिदेसिया संस्कृति के क्षेत्र में ऐसी गतिविधि थी जो क्रांतिकारी नहीं थी क्योंकि इसमें स्थानीय सत्तासंरचना के विरोध का सचेतन प्रयास नहीं दिखाई देता ’’
इस खंड में अन्य लेखकों में प्रमुख हैं बालेन्दू शेखर तिवारी, अंकुरश्री, ब्रज कुमार पांडे, डा सिद्धेष्वर आदि। भिखारी ठाकुर के कटु आलोचक रहे रघुवंश नारायण के 1968 में भोजपुरी में लिखे आलेख का हिंदी अनुवाद संपादक ने पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है। रघुवंश नारायण ने भिखारी ठाकुर को नाटककार तो नहीं ही माना है, उन्हें ‘बिना नाच और भाड़ा के वे कहीं नहीं जा सकने’ वाला भी बताया है।
‘बिदेसिया के बहाने’ खंड में भी कई महत्वपूर्ण आलेख हैं। गजेंद्र नारायण सिंह ने 1954 में हार्डिंग पार्क स्थित आम्रकानन में ‘तृतीय बिहार सांस्कृतिक समारोह’ में भिखारी ठाकुर के प्रदर्शन अविस्मरणीय अनुभव को साझा किया है। प्रख्यात कवि केदार नाथ सिंह ने भिखारी ठाकुर की अनुपस्थिति में भोजपुरी समाज को ‘रूचिभ्रष्ट और अष्लील गीतों द्वारा भरने के षडयंत्र’ के ‘सांस्कृतिक विघटन’ को रेखांकित किया है।
इस खंड में सुभाषचंद्र कुषवाह का एक महत्वपूर्ण आलेख पूर्व गुमनाम लोकधर्मी कलाकार रसूल मियां पर है ‘जिनसे बिदेसिया परंपरा की शुरूआत होती है। रसूल मियां को बिदेसिया की परंपरा के प्रारंभ का श्रेय देते हुए सुभाषचंद्र कुषवाह ने रसूल मियां के संबंध में बुजुर्गों से सुनी गयी इस दिलचस्प बात को साझा किया ‘‘भिखारी ठाकुर के नाटक बिदेसिया पर फिल्म बनाने के पूर्व निर्माता-निर्देशक, ‘रसूल’ के नाटक ‘गंगा-नहान’ पर फिल्म बनाना चाहते थे परंतु जयप्रकाश नारायण ने अपने क्षेत्र के भिखारी ठाकुर के बिदेसिया नाटक की ओर उन्हें आकर्षित कर लिया’’।
चर्चित पत्रकार निराला ने ‘लौंडा’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के संदर्भ में यह मौजूं प्रश्न उठाया है ‘‘भिखारी और उनका बिदेसिया भोजपुरी का ही नहीं वरन् भारतीय समाज का लोक महाकाव्य है। लौंडा रचित इस महाकाव्य को आधी सदी पहले अपने समाज ने जो अर्थ दिया था क्या हम उसे आज के संदर्भ में विस्तार देने की दृष्टि विकसित कर कर सकते हैं?’’
वैसे तो पुस्तक में अधिकांशतः पुराने आलेख, टिप्पणियाँ है पर ज्यादातर सामग्री दस्तावेजी महत्व की है। पुस्तक इस अहसास को और गहरा बनाती है कि भिखारी ठाकुर को अब तक ठीक से समझा नहीं गया है। भिखारी ठाकुर के प्रति और अधिक उत्सुकता जगाने वाली किताब है ‘रंग बिदेसिया’।

अनीश अंकुर द्वारा लिखित

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लेखक जानेमाने संस्कृतिकर्मी और स्वतन्त्र पत्रकार हैं।

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 पष्चिम लोहानीपुर

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