क्यों अखरती हैं मुखर स्त्रियाँ…: आलेख (अनीता मिश्रा)

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अनीता 319 11/17/2018 12:00:00 AM

“शायद दुनिया में अधिकतर जगह ऐसा है कि ज्यादा तर्क – वितर्क करती स्त्री को उस तरह से सम्मान नहीं मिल पाता है जिस तरह पुरुष को मिलता है । ऐसा करने वाला पुरुष जहाँ सबकी नज़रों में महान बन जाता है ,बुद्धिमान समझा जाता है । वहीं ऐसी स्त्री हठी और कुतर्की का दर्जा पाती है ।

समाज को उन स्त्रियों से कभी ज्यादा समस्या नहीं आयी जिन्होंने आधुनिक बनने के नाम पर कपडे छोटे किये या नए –नए फैशन अपनाए । समाज को हमेशा दिक्कत आधुनिक सोच से होती है । अपने हक़ के लिए लड़ने वाली स्त्री से होती है । घिसी – पिटी परंपरा तोड़ने वाली स्त्री से होती है । फिर वो चाहे छोटी सी बालिका मलाला ही क्यों ना हो । या फिर अपना देश छोड़कर दर –दर भटकती तसलीमा नसरीन हों । 
जब भी कोई स्त्री इस तरह का कुछ भी सोचती है जाहिर है उसे समाज की तमाम आलोचना भी बर्दाशत करनी होती है । अगर स्त्री कोई बहुतसमर्थ है , सेलेब्रिटी है तो फिर भी कुछ लोग मिल जायेंगे जो उसके फैसले में उसको साथ हों । अगर कोई लडकी साधारण है और उसने कुछ भी हिम्मत की तो उसका परिवार भी बहुत दफा उसका साथ नहीं देता है ।”  

साहित्य में खासकर स्त्रीलेखन में निरंतर सक्रीय और चर्चित ‘अनीता मिश्रा’ का दुनिया की सामाजिक बुनाबट में स्त्री और उसके अस्तित्व को समझने का प्रयास करता महत्वपूर्ण आलेख…..| – संपादक 

क्यों अखरती हैं मुखर स्त्रियाँ… 

अनीता मिश्रा

अनीता मिश्रा

गार्गी याज्ञवल्क्य संवाद में एक क्षण ऐसा आता है जब गार्गी के प्रश्न याग्वल्क्य को कठिन  प्रतीत होने लगते हैं। विद्वान श्रेष्ठ याग्वल्क्य कहते हैं कि गार्गी इतने प्रश्न मत करो कि तुम्हारा भेजा फट जाए । गार्गी विदुषी थी वो इतने श्रेष्ठ विद्वान् को भरी सभा में लज्जित नहीं करना चाहती थी इसलिए उन्होंने शास्त्रार्थ को रोक दिया। ये विजयी होकर भी याग्वल्क्य की पराजय थी। लेकिन उपनिषद की इस कहानी में एक सन्देश तो निहित ही है कि बहुत तर्क करने वाली या बुद्धिमती स्त्रियाँ हमेशा समाज को अखरती रही हैं। उनसे कभी उम्मीद नहीं कि गई कि वो उन विषयों पर अपनी राय रखेंगी जिन पर राय रखने का अधिकार सिर्फ पुरुष ही समझता है ।

                 ऐसा ही कुछ हिपेशिया के साथ भी हुआ था। अलेक्सेड्रिया की हिपेशिया जो गणित , दर्शन सहित कई विषयों की विद्वान् थी। प्रकांड विद्वान् थीयेन की  बेटी थी। वो अपने पिता  की विरासत को और आगे ले जा रही थी । विषयों की  नए तरीके से ( पारंपरिक से भिन्न ) व्याख्या  करने वाली हिपेशिया एथेंस वालों की  आँख की जल्द ही किरकिरी बन गई। उससे नफरत करने वाले लोगों ने उसके बारे में तमाम तरह के भ्रम फैला दिए । एक दिन मौका लगने पर उससे चिढने वाले लोगों ने उसे घेर कर मार डाला । ये हत्या उन्होंने बहुत ही वीभत्स तरह से की । इससे उनकी हिपेशिया के प्रति बेहिसाब नफरत का पता चलता  है । उसके कपडे फाड़ कर शरीर की खाल खीच ली और जला दिया गया।  एक औरत जिसके पास तर्क का ज्ञान का अस्त्र था सबको इतना खटकने लगी कि उसकी हत्या करके चैन मिला । हिपेशिया की गलती थी कि वो स्त्री होकर तमाम शास्त्रों की विवेचना कर रही थी । उनकी अलग तरह से व्याख्या कर रही थी । वो उन तमाम क्षेत्रों में दखल दे रही थी जिनपर अब तक पुरुष का वर्चस्व था ।

google से साभार

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 शायद दुनिया में अधिकतर जगह ऐसा है कि ज्यादा तर्क – वितर्क करती स्त्री को उस तरह से सम्मान नहीं मिल पाता है जिस तरह पुरुष को मिलता है । ऐसा करने वाला पुरुष जहाँ सबकी नज़रों में महान बन जाता है ,बुद्धिमान समझा जाता है । वहीं ऐसी स्त्री हठी और कुतर्की का दर्जा पाती है ।

     समाज को उन स्त्रियों से कभी ज्यादा समस्या नहीं आयी जिन्होंने आधुनिक बनने के नाम पर कपडे छोटे किये या नए –नए फैशन अपनाए  । समाज को हमेशा दिक्कत आधुनिक सोच से होती है  । अपने हक़ के लिए लड़ने वाली स्त्री से होती है  । घिसी – पिटी परंपरा तोड़ने वाली स्त्री से होती है  । फिर वो चाहे छोटी सी बालिका मलाला ही क्यों ना हो । या फिर अपना देश छोड़कर दर –दर भटकती तसलीमा नसरीन हों ।

 अभी हाल में ही एक घटना हुई है जिससे पता चलता है कि किसी स्त्री की खुली सोच भी समाज को किस कदर घातक लग सकती हैं । ये घटना पाकिस्तान की है जिसमे कंदील बलोच नाम की जानी मानी मॉडल को उसके ही भाई ने गला दबा कर मार डाला । कंदील का कसूर था कि वो रवायतों और मजहब के हिसाब से नहीं चल रही थी । वो अपनी मर्जी के हिसाब से चल रही थी और वैसा ही जीवन जीना चाहती थी । भाई को लगा कि इससे उसके परिवार की इज्ज़त मिट्टी  में मिल रही है और उसी तथाकथित इज्ज़त को बचाने के लिए भाई ने बहन की हत्या कर दी । ऐसी घटनाएं पकिस्तान नहीं भारत में भी होती हैं ।

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आनर किलिंग के नाम पर ना जाने कितनी स्त्रियों को मार डाला जाता है । सारे समाज और परिवार की इज्ज़त की जिम्मेदारी स्त्रियों के कंधो पर ही होती है । स्त्री जब भी अपनी मर्जी का जीवन जीना चाहती है तो उसे उन तमाम नियमों का भी ख्याल रखना पड़ता है जो धर्म ग्रंथों में उसके लिए बनाये गए हैं । साथ ही उन नियमों का भी ख्याल रखना पड़ता है जो समाज ने उसके ऊपर थोप दिए हैं । उससे अपेक्षा की जाते है कि वो अनिवार्यता इन नियमों का पालन करे । जबकि उसके घर के पुरुष सदस्य आसानी से अपनी मर्जी का जीवन जी रहें होते हैं । उन्हें इज्ज़त जैसा कोई बोझ भी अपने सर पर नहीं ढोना पड़ता है ।

कुल मिलाकर एक पुरुष को समाज में जो कुछ बहुत सहज रूप से हासिल है एक स्त्री को वो सब हासिल करने के लिए तमाम जतन  करने पड़ते हैं । तमाम लड़ाईयां लडनी पड़ती हैं अपने परिवार से ,समाज से तब जाकर वो अपना मनचाहा जीवन जी पाती है ।

समाज स्त्री के साथ ब्लेंम टू विक्टिम का सिद्दांत लागू करता है । यानि की पीड़ित पर ही दोषारोपण करना। इस सिद्दांत के हिसाब से किसी पीड़ित को ही इतना दोष दे दो कि वो अपने हालात की शिकायत ना कर पाए । इसके तमाम उदाहरण आसपास रोजमर्रा के जीवन में देखने को मिल जायेंगे । अगर कोई शादी टूटे या परिवार टूटे तो इसका ठीकरा भी अक्सर स्त्री के सर फोड़ दिया जाता है कि ठीक से निभा नहीं पायी । हद तो ये है कि अगर पति का किसी अन्य स्त्री से संबंध है तो इसका दोष भी स्त्री के माथे कि कैसे अपने पति को खुद से बाँध कर नहीं रख पायी।

अपनी मर्जी से अपना करियर बनाने वाली स्त्रियों को तमाम असहज करने वाले प्रश्नों से भी जूझना पड़ता है । अभी हाल में राजदीप सरदेसाई जैसे बड़े पत्रकार ने टेनिस की एक नंबर की खिलाड़ी से माँ बनने की बात कहकर उन्हें असहज कर दिया । सानिया ने बहुत ही बुद्धिमानी पूर्ण जवाब देकर उन्हें निरुत्तर कर दिया कि ‘’मैंने नंबर एक बनने को महत्व दिया ।‘’ मतलब एक स्त्री कुछ भी हासिल कर ले लेकिन माँ बने बिना पूर्ण नहीं है । राजदीप को अपनी गलती समझ में आयी और उन्होंने माफी माँगी ये कहकर कि शायद मैंने अपनी बात सही तरीके से नहीं पूछी । कोई पुरुष एथलीट होता तब मैं ये सवाल ना करता ।

इन दिनों एक फिल्म आयी है सलमान खान की ‘सुल्तान’  जिसकी काफी चर्चा है। फिल्म की चर्चा खेल में हार कर फिर से खड़े हुए झुझारू हीरो की वजह से है जो अपना मुकाम अपनी पत्नी की सहायता से हासिल कर लेता है । इसी फिल्म में हीरोइन है जो अपने सपने को ताक पर रख देती है बच्चा पैदा करने के लिए । फिल्म में दिखाते हैं कि वो भी बहुत उम्दा खिलाड़ी थी लेकिन सब कुछ उसका पति और बच्चे के इर्द गिर्द सिमट कर रह जाता है । समाज जिस तरह की स्त्री की कल्पना करता है उस स्त्री के तौर पर वो नाईका सफल है । जाहिर है लोगों के मन में ऐसी ही स्त्री है जो त्याग की देवी है ,कुर्बानी की मिसाल है । उम्मीद की जाती  है ऐसी लडकी बाकी लड़कियों का आदर्श बनेगी । शुक्र है रील लाइफ के विपरीत रियल लाइफ में सानिया मिर्जा जैसी लडकी है जो कहती है कि मैंने नंबर वन बनना चुना । हमारी असली नाईका ऐसी ही लड़कियां होनी चाहिए जो सपने पूरा करने का हौसला रखती हैं । ना कि दूसरों के सपने पूरे करने की सीढी बनती हैं ।  दरअसल हमारी कंडीशनिंग इस तरह की है हम ये मानकर चलते हैं कि शादी हो गई , एक सीमा तक करियर बन गया अब बच्चे पैदा करने का टाइम है । ये बिलकुल भी नहीं सोचते कि बच्चे पैदा करना या ना करना एक स्त्री का चुनाव भी हो सकता है । हो सकता है पूरी ज़िन्दगी स्त्री ने अपने करियर ,अपने सपने को दे दिया हो । पर हमने यही सीखा , समझा है समाज से कि एक स्त्री के ये सब फ़र्ज़ हैं इसलिए हमे उसी से ही अपेक्षा होती है । एक पुरुष से उसके सपने ,करियर के बारे में ही पूछते हैं जबकि एक स्त्री से ज्यादातर शादी और बच्चे जैसे प्रश्न ही पूछे जाते हैं ।

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ऐसा ही कुछ फिल्म अभिनेत्री सुष्मिता सेन ने किया । बिना शादी किये दो बेटियों को गोद लिया। उन बेटियों को अपनाने के लिए बाकायदा कानूनी लड़ाई भी लड़ी लेकिन उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला । उनका कहना है कि मुझे अपने जीवन में वही आदमी स्वीकार होगा जो मेरी बेटियों को भी अपनाएगा । सुष्मिता सेन से बहुत पहले नीना गुप्ता ने भी बिना शादी किये बेटी को जन्म देने का निर्णय लिया था । उस वक़्त बहुत हाय तौबा मची थी उनके इस निर्णय पर लेकिन उनकी हिम्मत के आगे सारी आलोचनाएँ पस्त हो गई । उनकी बेटी अब बड़ी हो गई है और समाज ने स्वीकार भी कर लिया है ।

     जब भी कोई स्त्री इस तरह का कुछ भी सोचती है जाहिर है उसे समाज की तमाम आलोचना भी बर्दाशत करनी होती है । अगर स्त्री कोई बहुतसमर्थ है , सेलेब्रिटी है तो फिर भी कुछ लोग मिल जायेंगे जो उसके फैसले में उसको साथ हों । अगर कोई लडकी साधारण है और उसने कुछ भी हिम्मत की तो उसका परिवार भी बहुत दफा उसका साथ नहीं देता है ।

 विकास नारायण राय की एक कविता है —

“जैसे ही लडकी
कुछ नया करना चाहती है
अकेली पड़ जाती है
वर्ना लोग साथ देते ही हैं
सती का, देवी का, रंडी का‘’

समाज को स्त्री वेश्या या देवी के रूप में ही आसानी से स्वीकार होती है । देवी को बहुत ऊंचे आसन में बैठाकर उससे मुहं मोड लेना आसान है । देवी बताकर ढेर सारे नैतिक नियम और आदर्श थोप दो जिससे वो अपनी नियति उन्ही पर चलना मान ले । और वेश्या बताकर उससे इतना नीचा गिरा दो कि उसके हक़ मारना आसान हो जाए । उस पर आराम से तोहमत लगाकर उसे सामान्य जीवन जीने से आसानी से वंचित किया जा सकता है ।

यही वजह है सपने देखने वाली स्त्रियों को  , अपने नियम खुद बनाने वाले स्त्रियों को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है । वो हर वक़्त समाज के लिए जवाबदेह होती हैं ।

अनीता द्वारा लिखित

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