सदियों के रूप में गुजरते समय और देशों के रूप में धरती के हर हिस्से याने दुनिया भर में लेखकों कलाकारों ने सच बयानी की कीमत न केवल शारीरिक, मानसिक संत्रास झेलकर बल्कि अपनी जान देकर भी चुकाई है …. इनकी गवाहियों से दुनिया का इतिहास रंगा पड़ा है | नहीं तो क्या कारण है कि किसी भी काल या दौर में और दुनिया के किसी भी भूभाग पर लिखी गई कोई भी रचना आज भी ताज़ा और प्रासंगिक नज़र आती है | मसलन 24 मार्च १९२८ में होशियारपुर पंजाब में जन्मे ‘हबीब जालिब‘ की इन नज्मों को पढ़ देखिये ….| फ़ैज़ साहब ने हबीब जालिब के लिए कहा था “ वली दकनी के बाद अगर किसी शायर ने अवाम को छुआ था तो वो जालिब थे. वे दरअसल लोगों के शायर थे.” ज़िया उल हक़ की तानाशाही के दौर में पुलिस की लाठियां खाई हबीब जालिब ने …… ऐसा क्या लिखते थे ‘हबीब जालिब‘ …… आइये पढ़ते हैं ……
ख़तरे में इस्लाम नहीं
हबीब जालिब
ख़तरा है जरदारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
सारी जमीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों
ख़तरा है खूंखारों को
रंग बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में
बिक न सकेंगे हसरतों अमों ऊँची सजी दुकानों में
ख़तरा है बटमारों को
मग़रिब के बाज़ारों को
चोरों को मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
अम्न का परचम लेकर उठो हर इंसाँ से प्यार करो
अपना तो मंशूर1 है ‘जालिब’ सारे जहाँ से प्यार करो
ख़तरा है दरबारों को
शाहों के ग़मख़ारों को
नव्वाबों ग़द्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
मौलाना
बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना
खुदारा सब्र की तलकीन1 अपने पास ही रखें
ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना
नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्जा ढिठाई से
यही है जुर्म मेरा और यही तक़सीर2 मौलाना
हक़ीक़त क्या है ये तो आप जानें और खुदा जाने
सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना
ज़मीनें हो वडेरों की, मशीनें हों लुटेरों की
खुदा ने लिख के दी है आपको तहरीर मौलाना
करोड़ों क्यों नहीं मिलकर फ़िलिस्तीं के लिए लड़ते
दुआ ही से फ़क़त कटती नहीं जंजीर मौलाना
भए कबीर उदास
इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा जुल्फ़ों की छाओं में सुख की सेज पे सोए
राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास
भए कबीर उदास
ऊँचे ऊँचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएं
क़दम क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएं
धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास
भए कबीर उदास
गीत लिखाएं पैसे ना दे फिल्म नगर के लोग
उनके घर बाजे शहनाई लेखक के घर सोग
गायक सुर में क्योंकर गाए क्यों ना काटे घास
भए कबीर उदास
कल तक जो था हाल हमारा हाल वही हैं आज
‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज
फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास
भए कबीर उदास
मुस्तक़बिल
साभार google से
तेरे लिए मैं क्या – क्या सदमे सहता हूँ
संगीनों के राज में भी सच कहता हूँ
मेरी राह में मस्लहतों के फूल भी हैं
तेरी ख़ातिर कांटे चुनता रहता हूँ
तू आएगा इसी आस में झूम रहा है दिल
देख ऐ मुस्तक़बिल
इक – इक करके सारे साथी छोड़ गए
मुझसे मेरे रहबर भी मुँह मोड़ गए
सोचता हूँ बेकार गिला है ग़ैरों का
अपने ही जब प्यार का नाता तोड़ गए
तेरे दुश्मन हैं मेरे ख़्वाबों के क़ातिल
देख ऐ मुस्तक़बिल
जेहल के आगे सर न झुकाया मैंने कभी
सिफ़्लों2 को अपना न बनाया मैंने कभी
दौलत और ओहदों के बल पर जो ऐंठें
उन लोगों को मुँह न लगाया मैंने कभी
मैंने चोर कहा चोरों को खुलके सरे महफ़िल
देख ऐ मुस्तक़बिल
दस्तूर
दीप जिसका महल्लात2 ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त – ए – दार3 से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ4 की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
वतन को कुछ नहीं ख़तरा
वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ामेज़र है ख़तरे में
हक़ीक़त में जो रहज़न है, वही रहबर है ख़तरे में
जो बैठा है सफ़े मातम बिछाए मर्गे ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में, वो दानिशवर है ख़तरे में
अगर तश्वीश लाह़क है तो सुल्तानों को लाह़क है
न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में
जो भड़काते हैं फिर्क़ावारियत की आग को पैहम
उन्हीं शैताँ सिफ़त मुल्लाओं का लश्कर है ख़तरे में
जहाँ ‘इकबाल’ भी नज़रे ख़तेतंसीख हो ‘जालिब’
वहाँ तुझको शिकायत है, तेरा जौहर है ख़तरे में
गज़ल-
कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फासले भी साथ चलते हैं
बहुत कमजर्फ़ था जो महफिलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साये ढलते हैं
वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं
कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल1 निकलते हैं
हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुल वक्त2 होते हैं हवा के साथ चलते हैं
हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं
काम चले अमरीका का
नाम चले हरनामदास का काम चले अमरीका का
मूरख इस कोशिश में हैं सूरज न ढले अमरीका का
निर्धन की आंखों में आंसू आज भी है और कल भी थे
बिरला के घर दीवाली है तेल जले अमरीका का
दुनिया भर के मज़लूमों ने भेद ये सारा जान लिया
आज है डेरा ज़रदारों के साए तले अमरीका का
काम है उसका सौदेबाज़ी सारा ज़माना जाने है
इसीलिए तो मुझको प्यारे नाम खले अमरीका का
ग़ैर के बलबूते पर जीना मर्दों वाली बात नहीं
बात तो जब है ऐ ‘जालिब’ एहसान तले अमरीका का
बीस घराने
बीस घराने हैं आबाद
और करोड़ों हैं नाशाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
आज भी हम पर जारी है
काली सदियों की बेदाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
बीस रूपय्या मन आटा
इस पर भी है सन्नाटा
गौहर, सहगल, आदमजी
बने हैं बिरला और टाटा
मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं
जब हम करते हैं फ़रियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
लाइसेंसों का मौसम है
कंवेंशन को क्या ग़म है
आज हुकूमत के दर पर
हर शाही का सर ख़म है
दर्से ख़ुदी देने वालों को
भूल गई इक़बाल की याद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
आज हुई गुंडागर्दी
चुप हैं सिपाही बावर्दी
शम्मे नवाये अहले सुख़न
काले बाग़ ने गुल कर दी
अहले क़फ़स की कैद बढ़ाकर
कम कर ली अपनी मीयाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
ये मुश्ताके इसतम्बूल
क्या खोलूं मैं इनका पोल
बजता रहेगा महलों में
कब तक ये बेहंगम ढोल
सारे अरब नाराज़ हुए हैं
सीटो और सेंटों हैं शाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
गली गली में जंग हुई
ख़िल्क़त देख के दंग हुई
अहले नज़र की हर बस्ती
जेहल के हाथों तंग हुई
वो दस्तूर1 हमें बख़्शा है
नफ़रत है जिसकी बुनियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
(बिजूका इंदौर से साभार )