वाया बनारस अर्थात् फिसल पड़े तो हर गंगे- भाग 2

बहुरंग यात्रावृत्तांत

पद्मनाभ गौतम 512 11/17/2018 12:00:00 AM

पद्मनाभ गौतम द्वारा लिखे यात्रा वृत्तांत का दूसरा और अंतिम भाग –

वाया बनारस अर्थात् फिसल पड़े तो हर गंगे- भाग 

मैं, उस नगर की कविता (संस्मरण -भाग एक)

पद्मनाभ गौतम

एक सप्ताह घर पर पर व्यतीत करने के पश्चात् मैं वापसी की यात्रा के लिए निकल पड़ा। चूँकि बनारस के लघु प्रवास में प्राप्त आनंद ने मेरे भीतर पुनः बनारस भ्रमण की इच्छा बलवती कर दी थी, अतः मैंने इस बार स्वेच्छा से बनारस मार्ग से डिब्रूगढ़ जाने वाली राजधानी गाड़ी का टिकट कटाया। मेरे बनारस पहुँचने के समय तथा रात साढ़े दस बजे मिलने वाली राजधानी एक्सप्रेस के प्रस्थान के मध्य कोई अठारह घण्टों का अंतराल था, जिसका अर्थ था एक बार पुनः बनारस भ्रमण का आनंद। छुट्टियों का समय होने के कारण मनेंद्रगढ़ से चलने वाली बनारस बस में सीटें उपलब्ध नहींं थीं, अतः मुझे बनारस जाने वाली बस पकड़ने के लिए अंबिकापुर जाना था जिसके लिए मुझे एक स्थानीय यात्री बस में यात्रा करनी पड़ी। परंतुु जिसे हिमालय तथा उत्तर-पूर्व के पहाड़ी मार्गों की यात्रा का अनुभव हो चुका हो, उसे सामान्य परिस्थितियों में देश के किसी अन्य भू-भाग में यात्रा करने में कष्ट की अनुभूति नहींं होती है। मैंने अंबिकापुर पहुँचने से पूर्व ही फोन द्वारा बनारस बस में सीट आरक्षित कर ली थी, अतः बनारस पहुँचने में कोई कष्ट नहींं हुआ तथा मैं मार्ग में रेवटी के छत्तीसगढ़ ढाबे में भोजन करने के बाद वाड्रफनगर कैम्प के दौरान बिताए दिनों की यादों के चलचित्र के साथ बनारस पहुँच गया। चूँकि बस इस बार भोर में चार बजे बनारस पहुँची थी तथा मैं अकेला था, अतः रुकने की व्यवस्था की कोई व्यग्रता नहींं थी। एक बार पुनः सस्ते के लोभ में रेलवे के विश्रामालय की ओर चल पड़ा, शायद मिल ही जाए। संयोगवश उसमें एक कक्ष उपलब्ध भी था, किंतु उसे देखते ही पसीने छूट गए। विदेशी जेलों में दिखाए जाने वाले छह गुणा बारह के सेल का दर्पण प्रतिबिंब, चैत की गर्मी से भभकता हुआ, जिसमें मात्र एक पलंग था तथा एक छोटी सी चाय की मेज। शौचालय खोलकर देखा तो आंतें मुख को आ गईं। रहने की ऐसी व्यवस्था यदि किसी जेल में हो तो उस पर अमानवीय का दोषारोपण होता है, किंतु यहाँ ढाई सौ रुपयों के साथ-साथ बख्शीश अतिरिक्त देकर रुकने के लिए हाथ भी जोड़ना था। मुझे रेलवे-स्टेशन पर बैठे विदेशी सैलानी याद आए जो नींद की झोंक में अपने पिट्ठू झोलों पर ढनगे जाते थे। इसके साथ ही याद आया पर्यटन विभाग का वह विज्ञापन जिसमें भारत घूमने के पश्चात् एक विदेशी पर्यटक लिखता है -“इंडिया…….. इनक्रेडिबल”। अतुल्य व अविश्वसनीय तो हैं ही हम। जो भी हो, मैंने रुपए देकर दिन भर का कष्ट स्वीकार नहींं किया तथा अपना बैग लटकाए निकल पड़ा किसी होटल की खोज में। बाहर निकलते ही रिक्शे व आॅटो वालों ने मुझे घेर लिया व लुभावने प्रस्ताव देने लगे। मैं मन से बद्री भाई को याद कर रहा था कि उनके आ जाने से मेरी व्यवस्था हो जाती। उनका नंबर भी नहींं लिया था मैंने। अचानक दिखा कि बद्री भाई भीड़ के पीछे चुपचाप खड़े हैं। मैंने नाम लेकर पुकारा, तो वे विस्मित हुए तथा मुझे पहचान नहींं पाए। वजह थी मेरी वेशभूषा। जब पिछली बार उन्होंने मुझे देखा था तो मैंने सफेद कुर्ता-पायजामा पहना था, चश्मा लगाया था व साथ में परिवार भी था, वहीं इस बार मैंने जीन के कपड़े के शाटर््स तथा बैंगनी रंग का भड़कीला टी-शर्ट पहना था, साथ ही आंखों पर चश्मा भी नही था। कोई भी व्यक्ति मात्र एक बार मिलने के बाद हुए इस रूपांंतरण के पश्चात् मुझे नहींं पहचान पाता। हालाँकि मेरे याद दिलाने पर उन्होंने मुझे अविलम्ब पहचान लिया तथा अपनी स्मृति को कोसते हुए क्षमायाचना करने लगे। बाकी आॅटोचालकोंं ने कुछ भुनभुनाते हुए मुंँह बनाया तथा बद्री भाई साधिकार मेरा बैग लटकाकर चल पड़े ठिकाने की तलाश में ।
इस बार उन्होंने कई होटलों के चक्कर काटने के पश्चात् मुझे कमरा दिलाया रेलवे स्टेशन से कोई डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित चेतगंज मुहल्ले के होटल बसंत में। सामान्य से होटल का वातानुकूलित कमरा, उचित किराए पर। पैसे देने पर बद्री भाई ने पुनः बताया कि इसकी जरूरत नहींं, उन्हें होटल से कमीशन मिलना ही है। मुझे शिलापथार के कारेंगबील घाट के भावहीन टैक्सी वाले याद गए जो यात्रियों को गाडि़यों में ऐसे ठूँसते हैं जैसे जूट के झाल में भूसा। किंतु यही तो अतुल्य विविधता है भारत की। अंततः दबाव डालनेे पर बद्री भाई ने पैसे ले लिए परंतु जाते-जाते मुझे पटरी की चाय की दूकान पर कृतज्ञतावश चाय भी पिला गए। कुल्हड़ में बिकने वाली खूब पकाई हुई चाय, जिसे पकाते-पकाते दो हाथ की ऊँचाई से पतीली में गिराते समय दुकानदार की मुखभंगिमा कुछ ऐसी थी जैसे कोई सिद्धहस्त चित्रकार कैनवस पर कूँची चला रहा हो। विदा लेते हुए बद्री भाई ने मुझे एक मार्गदर्शक उक्ति भी बता दी कि महाराज बनारस घूमना हो तो तीन चीजों से बच कर रहना- ’रांड, सांड़ तथा सन्यासी’। उन्होंने मुझे अकेला जान कर ठिठोली की थी तथा उनका मंतव्य समझ कर मैं ठठाकर हँस पड़ा। चाय के दो कुल्हड़ पीकर व कुल्हड़ों को तड़ाक की आवाज़ के साथ तोड़ने का आनंद उठाकर मैं होटल आ गया।

फोटो- अनीता चौधरी

फोटो- अनीता चौधरी

प्रातःकाल के पाँच बजे थे। कुछ समय तक होटल में आराम करने के पश्चात् विचार आया कि यदि इस समय सो गया तो फिर दिन चढ़े ही आँख खुलेगी। अतः मैंने यह तय किया कि बाहर निकल कर घूमने-फिरने के पश्चात् ही आराम करना उत्तम होगा। वैसे भी कुछ नींद तो बस में ही पूरी हो गई थी। अतः प्रातः के सात बजे के आस-पास मैं बाहर निकल पड़ा। किसी ने बताया कि दशाश्वमेघ घाट यहाँ से कुछ डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है, साथ ही मणिकर्णिका घाट भी है। अब तक मार्ग के दोनों ओर जलपान की दूकानें खुलने लगीं थीं अर्थात् ‘स्ट्रीट फूड‘ मेरी प्रतीक्षा में था। जलेबियाँ, कचौरियाँ, पूरियाँ तथा मिठाइयाँ, सब कुछ स्तरीय, साफ-सुथरा तथा सस्ता। दक्षिण भारतीय जलपान तैयार करने में बनारसियों की योग्यता देखकर ऐसा लगा जैसे दोसे व उथप्पम उत्तर से चलकर दक्षिण पहुँचे हों। किसी भी अच्छे रेस्टोरेंट के स्तर की खाद्य सामग्री, उसकेे चौथाई से भी कम दाम पर। दस रुपए में शुद्ध घी की दो कचौरियाँ, आठ रुपए में औसत से दोगुने आकार का रसगुल्ला, बीस रुपए में भरपेट लिट्टी-चोखा अन्यत्र कहाँ मिलेगा। खाने के बाद दस रुपए में लस्सी, बेल या नींबू का स्वादिष्ट शरबत। बनारस की गलियों में मिलने वाला यह जलपान सभी के लिए है- रिक्शेवाले, भिखारी, गाँव-देहात से आए गरीब तीर्थयात्रियों से लेकर स्वादलोलुप मध्यमवर्गीय भोजनभटटें तक, सभी के लिए जेब की पहुँच के भीतर स्वादिष्ट खाद्य सामग्री। खाते हुए पेट तो भर जाता है, पर जी नहींं अघाता। तो अपने भरे पेट व बिन अघाए जी के साथ मैं चल पड़ा दशाश्वमेध घाट को। रास्ते में पटरी पर लकड़ी के पीढ़े बिछाए नाइयोंं की कतार दिखी। मुझे बैकुण्ठपुर का नाई भैयालाल मामा याद आ गया जो बचपन में जूट के बारदाने पर बैठाकर हमारे बाल काटा करता था। मैंने खुंटियाई हुई दाढ़ी पर हाथ फेरा तथा मन में तीव्र आकांक्षा हुई कि पीढ़े पर बैठ कर दाढ़ी बनवाने का आनंद लूँ। परंतु मुझे प्रातः के सुखद वातावरण का समय इस कार्य में व्यर्थ करने के स्थान पर घाट भ्रमण का आनंद उठाना ज्यादा श्रेयस्कर प्रतीत हुआ। मैंने एक रिक्शा भी कर लिया था। इस हेतु कि दस-पंद्रह रूपए में रिक्शे के साथ-साथ एक गाइड भी मिल जाता है जो आपको पैडल मारते हुए ढेर सारी जानकारी दे देता है। इस रिक्शेवाले ने भी मुझे समस्त दिशा ज्ञान देकर दशाश्वमेध घाट से कोई सौ मीटर पहले उतार दिया। घाट की सीढि़याँ उतरते हुए देखा कि सीढि़यों पर दोनों ओर भिखारियों तथा दूसरे दर्जे के साधुओं अर्थात् जोगियों की कतारें लगी हुईं हैं। सभी अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने में व्यस्त थे व आश्चर्यजनक रूप से किसी ने भी मुझे आता देख कर हाथ नहींं फैलाया।
घाट पहुँच कर देखा तो सबसे पहले गीता प्रेस की ’कल्याण‘ पत्रिका के अंकों में बचपन से देखा हुआ काशी का रंगीन चित्र ध्यान में आ गया। वास्तव में मेरे मन में बनारस की जो कल्पना थी वह इन्ही चित्रों ने उकेरी थी। चारों ओर पण्डे घाट की सीढि़यों पर रखे लकड़ी के तख्तों पर बांस की छतरियाँ लगाए बैठे दिखे। पंडों के अतिरिक्त नौकाओं पर भ्रमण कराने वाले मल्लाह अलग शोर मचा रहे थे तथा विदेशी पर्यटकों को देखते ही तत्काल ‘प्लीज सर, वेरी नाइस बोट सर, दिस साईड कम प्लीज’ का रटारटाया वाक्य बोल रहे थे। विदेशी इस रेलमपेल के बीच से कुछ इस भाव के साथ गुजर रहे थे जैसे सब के सब जन्मजात बहरे हों। किंतु मल्लाह बिना उत्साह गँवाए अगले पर्यटक को वही आमंत्रण देने में जुट जाते थे। जब कोई विदेशी पर्यटक न दिखे तब वह देशी पर्यटकों की ओर उन्मुख होकर कुछ अनमने भाव से पूछ लेते, गो कि उन्हें पहले से उत्तर मालूम हो। घाट पर गहमा-गहमी कुछ अधिक ही थी। कारण था दक्षिण भारतीयों का मेला पुष्कर, जैसा कि मुझे उस रिक्शे वाले ने बताया था। संपूर्ण घाट दक्षिण भारतीय परिवारों से भरा हुआ था तथा उत्तर भारतीयों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। लाल बलुआ पत्थर की सुंदर सीढि़यों पर बने अपने नियत स्थानों पर पण्डे व्यावसायिक दक्षता के साथ धार्मिक कर्मकाण्ड कराने में लीन थे। दक्षिण भारतीय परिवार पूर्ण श्रद्धा व तन्मयता के साथ कतारों में बैठ कर पितर तृप्ति के लिए पिण्डदान में लगे थे। एक तमिल भाषी पंडित उच्च स्वर में तमिल भाषा में श्राद्ध कर्म करा रहे थे। बहुत सारा समय इन्हीं गतिविधियों के अवलोकन में गुजरा। इस सारे वातावरण में एक बात जो मुझे निरंतर चुभ रही थी वह यह कि समस्त पुरोहितीय संस्कारों के साथ लालन-पालन होने पर भी मेरे अंदर से वह श्रद्धा भाव कहाँ लुप्त हो गया जो इन सभी में दिखाई पड़ रहा था। दशाश्वमेघ घाट पर मुझे ऐसी अनुभूति हो रही थी कि जैसे मैं अपनी जड़ों से कटता जा रहा हूँ, देह से भी तथा मन से भी।
कुछ पण्डों ने यहाँ-वहाँ घूमता देख कर मुझे भी घेरने का प्रयास किया, किंतु मेरे मन के भावों को ताड़कर वे शीघ्र ही मुझे उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। वस्तुतः, धर्म-कर्म से मेरा मन उचाट होने का एक कारण भी यह पण्डे भी हैं। अपनी भाभी की मृत्यु उपरांत अस्थिविसर्जन के लिए इलाहाबाद जाने पर वहाँ पण्डो ने मुक्ति के नाम पर जो मानसिक प्रताड़ना दी थी, उसके पश्चात् मुझे पण्डों के नाम से घृणा सी हो गई है। वस्तुतः घृणा ही वह एकमात्र शब्द है, जो पण्डों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को सबसे प्रभावी ढंग से परिभाषित कर सकता है। इलाहाबाद में हमारे आधिकारिक पण्डे ने तो हमें खसोटा ही, उसके उपरांत घाट पर ठेेकेदारों ने जो संभवतः डोम रहे होंगे, हाथों से अस्थियाें का झोला छीन कर एक कठौती में उलट दिया व टटोल-टटोल कर हर उस गले हुए घातु के टुकड़े को अलग कर लिया जिसके स्वर्ण होने की संभावना थी। तत्पश्चात् ’अस्थी देखवाई’ के पैसे अलग से देने पर मृतात्मा को त्राण मिल पाया। इस घटना के पश्चात् मेरे मन में पण्डों के लिए सहानुभूति सदा के लिये समाप्त हो गई तथा मेरे लिए पण्डा शब्द का केवल एक ही अर्थ शेष रह गया- गीधराज जटायु मुझे क्षमा करें, मेरा तात्पर्य उनके अपमान से कतई नहींं था।

फोटो- अनीता चौधरी

फोटो- अनीता चौधरी

मैं बहुत देर तक इधर-उधर घूमते हुए घाट की गतिविधियों का आनंद लेता रहा। लोगों को गंगा स्नान करते देख मन में उहापोह हो रही थी कि क्या मुझे भी स्नान करना चाहिए। किंतु घाट के थोड़ा समीप जाते ही जल की दुर्दशा देख कर मेरा साहस समाप्त हो गया। काले-हरे रंग के जल से सड़ांध सी उठ रही थी। उस पर सूर्य की उष्मा से उमस अतिरिक्त उत्पन्न हो रही थी। दशाश्वमेध घाट की सीढि़यों के नीचे से ही सीवर की गंदगी के विसर्जन की भी व्यवस्था है। यद्यपि घाट पर ही एक प्रदूषित जल शोधन संयंत्र लगा है किंतु ज्ञात हुआ कि वह कार्य नहींं कर रहा। असमंजस की इस मनःस्थिति में देखा कि एक मल्लाह गंगा के दूसरे तट पर जाने के लिए पुकार लगा रहा है। दूसरा तट अपेक्षाकृत कम भीड़-भाड़ वाला दिखा जहां सीढि़यां नहींं थीं अपितु बाढ़ में आई तलछट ठोस होकर घाट का कार्य कर रही थी। यह प्रतीत हुआ कि वहाँ स्नान करना उपयुक्त होगा, साथ ही वस्त्र भी सुरक्षित रहेंगे। मल्लाह से भाव-ताव करके तथा किराया उचित पा कर मैं नाव पर सवार हो गया। चप्पू से चलने वाली नाव में कुछ अन्य भी सहयात्री थे। एक परिवार था डाल्टेनगंज से आए हुए पंडित हरिद्वार नारायण तिवारी का जो अपनी बीमार पत्नी, बेटे-बहू व पोते-पोती के साथ आए थे। उनकी पत्नी चल-फिर पाने में पूर्ण रूप से असमर्थ थीं। दूसरा समूह था दो संभ्रांत दिखने वाले व्यापारी बंधुओं का जो जयपुर से व्यावसायिक कार्यों हेतु वाराणसी आए थे व मुझ जैसे ही भटकते हुए स्नान करने भी आ पहुँचे थे। सभी के नाव पर सवार होने के पश्चात् भी मल्लाह बहुत समय तक अन्य सवारियों की आशा में घाट पर ही डटा रहा। पंडित जी तथा व्यापारी बन्धु व्यग्र हो कर चलने के लिए निरंतर बहस कर रहे थे, परंतु मल्लाह पूर्ण व्यावसायिक दक्षता के साथ सबकी उपेक्षा किए जा रहा था। वास्तव में उद्विग्न तो वह होता है जिसे कहीं जाना होता है, परंतु जिसका कोई गंतव्य नहीं उसे कैसी उद्विग्नता। यही विरोधाभास था वहाँ पर। ऊपर धूप सिर पर चढ़ रही थी। अंततः किसी अन्य यात्री के आने की आशा नहींं दिखने पर हार कर मल्लाह ने नाव को दूसरे किनारे की ओर खेना प्रारंभ कर दिया।
नाव पर सवार सहयात्री आपस में बातें कर रहे थे। पंडित हरिद्वार जी मल्लाह को संयत भाषा में व्यंग्यबाण मारने के साथ-साथ पंडों की भी खबर लेते हुए उन्हें निरंतर कोसते जा रहे थे। वहीं व्यापारी बंधुओं में से छोटा व्यापारी बनारस की अव्यवस्था व नगर निगम की अकर्मण्यता को कोसते हुए सूची बना रहा था कि यहाँ क्या-क्या होना चाहिए, कैसा नहींं है, कैसा हो सकता है इत्यादि। पता नही क्यों इन दिनों मैं ‘ऐसा होना चाहिये’ इत्यादि वाक्यों पर कोई प्रतिक्रिया नहींं दे पाता। यदि ऐसी कोई चर्चा हो तो मुझे एक अरब इक्कीस करोड़ का आंकड़ा याद आ आता है, आंखों में हमारे ठसाठस भरे गांव-नगर घूम जाते हैं तथा धर्म, जाति इत्यादि के नाम पर बंटी-कटी तथाकथित पढ़ी-लिखी व अनपढ़ जनता की स्मृति हो आती है। बस फिर यह अपेक्षा ही सोडे की बोतल से उठे बुलबुले की तरह ‘फिज़ल आउट’ हो जाती है कि यहाँ कैसा होना था-कैसा नहींं होना था आदि-आदि। आप मुझे थेंथर की संज्ञा दे सकते हैं, किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जो है, उसी में से पार होकर निकल जाओ, पर्याप्त है। यदि हो सके तो शिक्षा-दीक्षा बढ़ाई जाए, धर्म-जाति के नाम पर भरी-उकेरी संकीर्ण मानसिकता को समाप्त किया जाए तथा बच्चे कम पैदा किए जाएँ। अभी तो संभवतः इतना ही किया जा सकता है।
अंततः धीरे-धीरे नाव पार लगी। हमने स्नान करने का साहस किया तथा सामान नाव में रखकर उतर पड़े गंगा मैया की गोद में। एक डुबकी लगाने पर ही कलेजा मुँह को आ गया तथा उबकाई सी आई। गंगा मैया मुझे क्षमा करें। मैंने अलकनंदा तथा मंदाकिनी के दर्शन किए हैं। हरिद्वार में भी स्नान किया है, किंतु बनारस में तो पूछिए मत। मुझे परिवार के सभी सदस्यों के नाम से डुबकी लगानी थी परंतु अगली डुबकी में मैंने मन में उद्घोष किया-‘सभी के हेतु यह एक’। मुख कस कर बंद रखा था कि कहीं गंगाजल मुख के अन्दर न चला जाए। जिसने भी दशाश्वमेघ घाट का सीवर देखा है, वह मेरे कथन का मंतव्य समझ सकता है। झटपट काक-स्नान कर मैं नाव में आ बैठा। शीघ्रता का दूसरा कारण यह भी था कि कोई पतलून में रखे रुपए न चुरा ले। अन्य सहयात्री भी स्नान कर रहे थे। पंडित हरिद्वार की पत्नी के स्नान का दृश्य बड़ा मार्मिक था। उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी सर्वथा अपंग हैं। पहले पेट के कैंसर तत्पश्चात् ब्रेनट्यूमर की चिकित्सा के कारण उनकी समस्त कार्यक्षमता जाती रही। वह एक कदम भी अपने आप नहींं चल सकतीं। उनके बेटा-बहू व पोता-पोती, सभी बड़े प्रेम तथा आनंद के साथ उन्हें स्नान करा रहे थे। स्नान के पश्चात् सभी ने मिल कर उन्हें वस्त्र पहनाए। पंडित हरिद्वार के स्वयं अशक्त होने के कारण उनसे कुछ नहींं हो रहा था। परंतु जिस प्रेम के साथ उन्होंने अपनी कंपकंपाती दुर्बल हथेलियों से पत्नी के माथे पर धूप के कारण छिटक आई पसीने की बूंदों को पोंछा, वह मेरी स्मृति में सदा के लिए अंकित हो गया। साथ ही वे पत्नी को बात मान कर कपड़े पहनने के लिए प्रेम से डांटते भी जा रहे थे। पारिवारिक प्रेम का अद्भुत दृश्य था। बड़ा व्यापारी जो कम बोलता था, वह भी सर हिलाते हुए अपना मत प्रकट कर रहा था कि भई बच्चे हाें तो ऐसे। आज के बच्चे तो स्वस्थ्य माता-पिता को भी तीर्थ यात्रा हेतु सहमति नहींं देते- ’कहाँ जाओगे भीड़-भाड़ में’ कह कर, और एक यह परिवार है कि अपंग माता को डाल्टेनगंज से गंगा स्नान कराने हेतु बनारस ले आया है।
नाव के समीप कुछ मंगतू किस्म के पंडित व साधु भी आ गए थे जो टोकरियों में रखी ईश्वर प्रतिमाओं के माध्यम से धर्म का भय दिखा कर कुछ दान-दक्षिणा ऐंठना चाहते थे। पंडित हरिद्वार उन्हें निरंतर गालियाँ निकाल रहे थे। बडे़ व्यापारी ने धीमी आवाज में टोक कर कहा कि पंडित जी यदि आपको दान नहींं करना है तो मत कीजिए पर इस तरह गालियाँ मत दीजिए। ठेठ देहाती पंडित जी का उत्तर था- ‘अरे साहब, आपको पता नहींं है, पुरखों के उद्धार के नाम पर ये लोग आपके कपड़े तक उतार लेंगे। कुछ न बचने पर देह के बाल तक नाेंच लेंगे- तावीज बना कर बेचने को।‘ उन्होंने एक भद्दा सा इशारा किया तथा सभी सहयात्री मंद-मंद मुस्कुरा पड़े। फिर सबको ले कर नाव वापस चल पड़ी। छोटा व्यापारी अभी तक अव्यवस्था पर कुपित हो रहा था। ’भला यह लगता है कि मुरली मनोहर जोशी यहाँ के सांसद हैं। वह सीवर देखिये तो’, उसने सीवर की ओर इंगित किया। मैंने भी मुस्कुराकर सहमति दी। पंडित हरिद्वार नारायण ने मुझे डाल्टेनगंज के समीप का जानकर मेरे समक्ष अपना संपूर्ण इतिहास खोल दिया था। वन विभाग में किस सन् में किस स्थान पर सेवारत रहे, कब किस स्थान का काष्ठागार स्थापित किया, न जाने क्या कुछ। मेरा मौन सभी को मुझसे वार्तालाप करने को प्रेरित कर रहा था व मैं सहमति में सिर हिलाता जा रहा था। मौन व्यक्ति दूसरों का सबसे प्रिय होता है, तथा उनका तो सर्वाधिक जो शांत रहना नही जानते। अंततः कहते-सुनते नाव फिर जा लगी दशाश्वमेध घाट पर।

फोटो- अनीता चौधरी

फोटो- अनीता चौधरी

यहाँ से निवृत्त होकर मणिकर्णिका व हरिश्चन्द्र घाट भ्रमण की इच्छा थी, किंतु स्नान के पश्चात् निद्रा का प्रकोप सताने लगा। रात्रिकालीन यात्रा का प्रभाव अब प्रकट हो रहा था। अतः मैंने होटल पहुँच कर सोने का निर्णय लिया। सीढि़याँ चढ़ कर ऊपर आया तो देखा कि सीढि़यों पर बैठे याचकों ने अब भी हाथ नहींं पसारे। मैंने सोचा कि संभवतः यह बनारस के याचकों की प्रथा होगी। सीढि़यों से ऊपर पहुँचने पर विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करवाने का ठेका लेने वाले पंडितों ने घेरना प्रारंभ किया परंतु उनसे पिंड छुड़ाकर मैं होटल आ गया।
होटल पहुँच कर पहले तो ठंडे पानी से जी भर कर स्नान किया, साबुन मल-मल कर। फिर नीचे उतर कर भोजन का आनंद उठाया। चालीस से साठ रूपए में उसी स्तर का भोजन जो किसी वातानुकूलित रेस्टोरेंट में वर्दी पहने बेयरे, नींबू-पानी से हाथ धोने के सुख तथा डिजिटल बिल के बदले दो सौ रूपए की विशिष्ट अर्थात् ’स्पेशल थाली‘ में परिवर्तित हो जाता है। अतिरिक्त टिप देना है तो आपकी इच्छा। भारत का खाना इंडिया में खाने पर चार सौ प्रतिशत का अधिभार। भोजन करके बनारस की प्रसिद्ध कुल्हड़ वाली लस्सी पी। एक बार पुनः जी नहींं भरा परंतु पेट भर चुका था। कमरे में वापस आकर लंबी तान कर सोने के पश्चात् जब आँख खुली तो देखा कि अपरान्ह के चार बज रहे थे। वातावरण में उमस थी व धूप में कहीं दूर जाकर भ्रमण का आनंद लेना संभव न था। यह देखकर मैंने निश्चय किया कि अब अन्यत्र कहीं न जाकर होटल के आस-पास की गलियों में घूमूँगा। बनारस की गलियाँ भी तो प्रसिद्ध ही हैं। बहुत समय तक मैं गलियों में टहलता रहा। संकरी तंग गलियों में क्या कुछ नहींं है। एक मूर्तिकार मूर्ति बनाने में व्यस्त था, कारीगर हाथ ठेलों में लगने वाले बॉल-बेयरिंग बना रहे थे, मिठाइयों की भट्ठियाँ लगी हुई थीं, मुद्रणालय थे, कोचिंग की कक्षाएँ थीं। थोड़े से स्थान में लोगाें के चार-पाँच मंजिलों वाले निवास स्थान थे। संकरी गलियों में बच्चे क्रिकेट भी खेल रहे थे। मुख्यमार्ग से इस तिलिस्मी संसार का आभास भी नहींं होता। गलियों में घूमते-फिरते कई बार वहीं पहुँच गया, जहाँ से चला था। ध्यान आया कि मेरे प्रिय कवि विष्णु चंद्र शर्मा भी इन दिनों बनारस में ही हैं, किंतु कोई औपचारिक परिचय नहींं होने के कारण मैं संकोचवश चाहकर भी उनसे मिलने न जा पाया। चेतगंज में एक वाचनालय भी था, संभवतः ‘सरस्वती वाचनालय’ नाम था। इस तरह के वाचनालय अब बनारस जैसे नगरों में ही मिलते हैं। उस दुमंजिले वाचनालय में ढेर सारी पुस्तकें थींं। चूँकि मैं वाचनालय बन्द होने के समय पहुँचा था अतएव वहाँ कोई पाठक नहींं था। मुझे वाचनालय के व्यवस्थापक दुर्गा प्रसाद जी ने अपने पास बुलाकर बैठा लिया। परिचय के आदान-प्रदान के पश्चात् जानकारी हुई कि वे बनारस के नहींं है तथा छत्तीसगढ़ के मेरे निवास के समीप ही उनके मामा का गाँव है। वो यहाँ सिन्नी पंखे की फैक्टरी में कार्य करते थे तथा फैक्टरी बन्द होने पर अब वाचनालय संभालते हैं। दुर्गा प्रसाद जी बहुत समय तक मुझसे अपने अतीत की बातें करते रहे। उनसे देर तक वार्तालाप करने के पश्चात् जब मेरा ध्यान घड़ी पर गया तो देखा कि आठ बज रहे हैं। गाड़ी का समय हो रहा था, अतः मैंने दुर्गा प्रसाद जी से विदा ली तथा शीघ्रता से होटल पहुँच कमरे का हिसाब कर नीचे आ गया। दिन के भोजन के बाद कुछ विशेष खाने की इच्छा नहींं थी अतः हल्का-फुल्का दक्षिण भारतीय जलपान करके लस्सी पी तथा स्टेशन चल पड़ा। स्टेशन पर पहुँच कर मैंने सर्वोदय के स्टाल से कुछ पुस्तकें खरीदी व समय से पूर्व आ पहुँची राजधानी एक्सप्रेस में सवार हो गया।
आगे की यात्रा सुखद रही। तत्काल व्यवस्था में किसी अन्य दर्जे का टिकट न मिल पाने के कारण मुझे प्रथम श्रेणी का टिकट लेना पड़ा था। कूपे में तीन अन्य सहयात्री थे। एक बुजुर्ग दंपति व एक नौजवान जो संभवतः सेना में अफ़सर था। रात के दस बज रहे थेे व सभी सहयात्री निद्रालीन थे। प्रातःकाल जलपान के पश्चात् बुजुर्ग दंपति कुछ समय तक मुझसे वार्तालाप करते रहे परंतु उन्हें न्यू-जलपाईगुड़ी तक ही यात्रा करनी थी। तत्पश्चात्, दीमापुर तक की पन्द्रह घण्टे की यात्रा में वह नौजवान ही मेरा सहयात्री था। इस पूरी यात्रा में उस भले मानस ने एक बार भी मुझसे बात करने की उत्सुकता नहींं दिखाई। किसी प्रकार का सौजन्य दिखाने पर वह यांत्रिक मुस्कान के साथ ढाई आखर ‘थैंक्स’ के बोल देता। कभी-कभी सेलफोन पर अवश्य किसी से अंग्रेजी में बात कर लिया करता था। उसने एक मोटा सा अंग्रेजी उपन्यास भी रख रखा था, किंतु रह-रह कर उसके पन्ने पलटने के पश्चात् वह उससे भी उचाट हो जाता था। मुझ जैसे सहयात्री से विरत होने का एक कारण संभवतः मेरे हाथों में पड़ा ‘तद्भव’ का अंक था जो मेरे हिंदी के पक्षधर होने का प्रमाण था। वह नौजवान यह भाँप गया था कि मैं भारतीय हूँ तथा वह एक इंडियन। मेरा पहले दर्जे का टिकट भी उसे प्रभावित न कर पाया। उसे देख कर अनायास ही मुझे पंडित हरिद्वार नारायण तिवारी याद आ गए जिन्होंने एक घंटे के साथ में अपनी पत्नी के कैंसर से लेकर अपनी सेवानिवृत्ति तक का पूरा इतिहास बता दिया। सरस्वती वाचनालय के दुर्गा प्रसाद जी याद आ रहे थे जिन्होंने आधे घंटे के परिचय में छत्तीसगढ़ के सिंदुरगढ़ तथा रतनपुर की सैर करा दी। रात्रि के भोजन के पश्चात् खुशवंत सिंह के पात्र ’सर मोहनलाल‘ में डूबते-उतराते मेरी आँख लग गई। प्रातः चार बजे अटेंडेंट ने मुझे जगाया व डिब्रूगढ़ पहुँचने की सूचना दी। मैंने सामने की शायिका की ओर देखा तो ध्यान आया कि ’सर मोहनलाल‘ तो दीमापुर ही उतर गए होंगे। डिब्रगढ़ पहुँचने के पश्चात् यात्रा सामान्य रही। उसी दिन ब्रह्मपुत्र पार करने के उपरांत शिलापथार ट्रांजिट कैम्प में दो दिवसों की प्रतीक्षा कर मैं अलांग पहुँच गया।
इस गृहयात्रा में बनारस भ्रमण का जो आनंद मिला, वह अभी अधूरा ही प्रतीत होता है। अभी संकट मोचन, हरिश्चन्द्र घाट, मणिकर्णिका घाट व असी घाट घूमना शेष है। पीढ़े पर बैठकर बाल कटाने का आनंद उठाना शेष है, साथ ही ’स्ट्रीट फूड’ तो है ही। आगामी यात्रा पुनः वाया बनारस ही होगी, मन में यह संकल्प कर लिया है।

पद्मनाभ गौतम द्वारा लिखित

पद्मनाभ गौतम बायोग्राफी !

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