पढ़ने-गुनने की जगह : संस्मरण (राजेश उत्साही)

बहुरंग संस्मरण

राजेश उत्साही 546 11/18/2018 12:00:00 AM

“1985 में जब चकमक शुरू हुई तो किताबों से बिलकुल अलग तरह का रिश्‍ता शुरू हुआ। हर महीने चकमक के लिए सामग्री जुगाड़ने, तैयार करने के लिए घंटों इस पुस्‍तकालय में लगाने होते थे। तो यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पढ़ने-लिखने ही नहीं, मेरे पूरे व्‍यक्तित्‍व को विकसित करने में वाचनालय और पुस्‍तकालयों का बहुत बड़ा हाथ रहा है |”- ‘राजेश उत्‍साही’

पढ़ने-गुनने की जगह 

स्‍कूल में हिन्‍दी की वर्णमाला सीख ली थी, लिखना भी और पढ़ना भी। यह सत्‍तर का दशक था। तब स्‍कूल की गिनी-चुनी चार-पांच किताबों के अलावा छपी हुई कोई और सामग्री आसपास नहीं होती थी। अगर कुछ थी तो वह अखबार था।
पिताजी रेल्‍वे में सहायक स्‍टेशन मास्‍टर थे। उनकी पोस्टिंग मुरैना जिले में ग्‍वालियर-श्‍योपुरकलां नैरोगेज रेल्‍वे के इकडोरी स्‍टेशन पर थी। ग्‍वालियर से रोज सुबह एक पैसेंजर गाड़ी आती थी और शाम को वापस श्‍योपुरकलां से ग्‍वालियर जाती थी। यही गाड़ी किसी एक दिन सप्‍ताह भर के अखबार एक साथ लाती थी। अखबार था हिन्‍दुस्‍तान। पिताजी तथा स्‍टेशन के अन्‍य लोग जब अखबार पढ़ लेते,तब अपना नम्‍बर आता। मैं सारे अखबार एक साथ लेकर बैठता। मैं तब तीसरी में पढ़ता था। अखबार में तीन चीजें पढ़ना मेरा शौक था। एक डैगवुड की कार्टून स्ट्रिप और दूसरी गार्थ की कॉमिक गाथा। तीसरा शौक था, अखबार के दूसरे या तीसरे पन्‍ने पर फिल्‍मों के विज्ञापन देखना। फिल्‍म के विज्ञापन के नीचे लिखा होता था कि वह दिल्‍ली के किन सिनेमाघरों में चल रही है। मुझे सिनेमाघरों के नाम और उनकी गिनती करना अच्‍छा लगता था। पक्‍के तौर पर पढ़ने और गिनने का अभ्‍यास इससे होता रहा होगा। पर तब यह उद्देश्‍य तो कतई नहीं था। खबरें पढ़ने की तब समझ नहीं थी। हां बच्‍चों के पन्‍ने पर कहानी, पहेलियां, चुटकुले और क्‍या आप जानते हैं..जैसी चीजें पढ़ लेता था। यह अखबार से परिचय की शुरुआत थी। किताबों और कॉपियों पर कवर चढ़ाने के और अलमारियों में बिछाने के काम भी वह आता ही था। अखबार के कागज और स्‍याही की गंध अब भी नथुनों में भर उठती है।
साल भर बाद ही परिवार सबलगढ़ आ गया। यहां घर पर अखबार आता था। उन दिनों किसी घर में अखबार आना उस परिवार के पढ़े-लिखे होने का सूचक होता था। साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान तथा बच्‍चों की पत्रिका नंदन भी आती थी। साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान का एक-एक पन्‍ना चाहे समझ में आए या न आए मैं चाट जाया करता था। उसमें छपने वाली कहानियां तथा उपन्‍यास भी पढ़ डालता था। शिवानी के धारावाहिक उपन्‍यास उसमें छपते थे। उसमें बच्‍चों का पन्‍ना भी होता था। पीछे के आवरण के अंदर के पृष्‍ठ पर छपने वाली रवीन्‍द्र की चित्रकथा ‘मुसीबत है..’मुझे बहुत पसंद थी। हिन्‍दुस्‍तान का आवरण और बीच में चार रंगीन पृष्‍ठ होते थे। बीच के पृष्‍ठों पर कोई कविता तथा किसी नामी व्‍यक्ति या फिल्‍मी सितारे का पोस्‍टर होता था। विभिन्‍न अंकों से इन पृष्‍ठों को निकालकर मैंने इनका एक अलबम बनाया था। उसकी हर तस्‍वीर पर अपनी और से कोई कैप्‍शन या कविता मैंने उस पर लिखी थी। जब तक दीमक ने उसे चट नहीं कर लिया तब तक वह वर्षों मेरे पास रहा। नंदन तो खैर पढ़ ही लेता था। पर शायद यह मेरे लिए काफी नहीं था।
मैं आज जो भी हूं, उसके होने में स्‍कूल या कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई का उतना हाथ नहीं है जितना स्‍कूल के बाहर अनजाने में हुए प्रयासों का है। मेरी स्‍कूल और कॉलेज की पढ़ाई इस कदर अव्‍यवस्थित थी कि उसके होने न होने का कोई अर्थ नहीं है। अनजाने में ही मुझमें पढ़ने की रुचि पैदा करने में पहले अखबार और फिर पुस्‍तकालयों का बहुत हाथ रहा। पढ़ते-पढ़ते ही लिखने की ललक भी पैदा हुई। और वह इतनी तीव्र थी कि आठवीं में ही मैंने नाम के साथ उत्‍साही उपनाम जोड़ लिया था।
पढ़ने की ललक मुझे खींचकर ले गई कस्‍बे के एक वाचनालय में। यह बड़ों के लिए था। वहां एक बरामदे और उसके सामने बने चबूतरे पर शाम को एक दरी पर आठ-दस अखबार फैले रहते थे। मैं उन सबमें बस वैसी ही तीन-चार चीजें देखता था जैसी हिन्‍दुस्‍तान में देखा करता था। मुझे रोज-रोज अखबार के पन्‍ने पलटते हुए और उनमें कुछ गिनते हुए देखकर वहां देखरेख करने वाले ने समझा कि मुझे पढ़ना तो आता नहीं है, सो उसने मुझे वहां बैठने से मना कर दिया। पर मैं नहीं माना। तब एक दिन उसने मेरी परीक्षा ले डाली। उसने एक अखबार से एक पैरा पढ़ने के लिए दिया। मैंने वह पढ़कर उसे बता दिया। उसके बाद वह संतुष्‍ट हो गया। इसके बाद मैं नियमित रूप से वहां जाने लगा और अब अखबार में विभिन्‍न खबरें भी पढ़ने लगा।
सबलगढ़ में घर किराये का था। रेल के डिब्‍बे की तरह। बाहर की तरफ जो कमरा था, उसकी बाहरी दीवार तीन दरवाजों से बनी थी और दरवाजे थे पटियों से बने। उनमें संध होती थी। एक दोपहर मैंने दरवाजे की संध में फंसा हुआ एक अखबार देखा। यह रोज सुबह आने वाले अखबार के अलावा था। यह शायद कोई स्‍थानीय अखबार था। मैंने अगले आधा-पौने घंटे में चार पन्‍ने का वह अखबार पूरा पढ़ डाला। अगली दोपहर दरवाजा बंद करके मैं अखबार की प्रतीक्षा करने लगा। पर अखबार नहीं आया। मैं रोज प्रतीक्षा करता, पर अखबार नहीं आता। और फिर एक दोपहर अखबार आया। तब मुझे समझ आया कि वह रोज का नहीं साप्‍ताहिक अखबार था। अब तक पढ़ने की अच्‍छी-खासी ‘लत’ लग चुकी।
घर में खड़ी बोली में राधेश्‍याम कृत रामायण थी। गाहे-बगाहे उसे पढ़ डालता था। मां हरतालिका तीज का उपवास करती थीं, जिसमें पूरी रात उन्‍हें जागना होता था। तब यह राधेश्‍याम कृत रामायण बहुत काम आती थी। रामचरित मानस से पहला परिचय इसी रूप में हुआ था। मंदिरों में अखण्‍ड रामायण के आयोजन होते थे। वहां लगातार पढ़ने वालों की जरूरत होती थी। लगातार पढ़ने का कौतुहल एक-दो बार वहां भी खींचकर ले गया। घर में शाम को आरती होती थी, उस बहाने आरती संग्रह को उलटने-पलटने का मौका मिलता था। बाजार से किराना अक्‍सर अखबार से बने लिफाफों में आता। जब वे खाली हो जाते तो फेंके जाने से पहले खोलकर पढ़े जाते थे।
यह जमाना था रानू और गुलशन नंदा के रोमांटिक और कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्‍यासों का। रामकुमार भ्रमर और मनमोहन कुमार तमन्‍ना द्वारा डाकुओं की पृष्‍ठभूमि पर लिखे उपन्‍यास भी उन दिनों खूब लोकप्रिय थे। पिताजी को इनका शौक था। जब वे घर में नहीं होते तो इनके पाठक अपन होते। इन्‍हें पढ़ने का ऐसा चस्‍का लगा कि दसवीं तक पहुंचते-पहुंचते लगभग छह-सात सौ उपन्‍यास पढ़ डाले होंगे। उपन्‍यास पढ़ने का तरीका भी अलग था। मैं अंत के दस-पंद्रह पेज पहले पढ़ता, अगर उसमें कोई रोचकता नजर आती तो फिर उसे आरंभ से पढ़ता था। गर्मियों में जब स्‍कूल की छुट्टियां लग जातीं तो दोपहरी काटने के लिए आसपड़ोस के घरों से किताबें मांगने का सिलसिला शुरू होता। फिर जिसके घर से जो मिलता,वह अपन पढ़ ही डालते। इनमें उपन्‍यासों के अलावा गोरखपुर की गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्‍याण भी होती थी और दिल्‍ली प्रेस की पत्रिकाएं भी। शिवानी,गुरुदत्‍त के उपन्‍यास भी मौजूद थे। लोटपोट, मायापुरी,धर्मयुग,माधुरी,रंगभूमि जैसी पत्रिकाएं भी।

पड़ती गई आदत पढ़ने की…

1974 में परिवार इटारसी आ गया। मैं ग्‍यारहवीं में था। यहां पढ़ने के लिए आसपास जो मिला, वह था मनोहर कहानियां और सत्‍य कथाएं। इस दौरान वे किताबें भी हाथ आईं, जिन्‍हें पढ़ना हमारे लिए निषेध था, पर फिर भी हमने पढ़ डालीं। पराग भी मैंने यहीं देखी। अपनी पहली कहानी लिखकर पराग में यहीं से भेजी। हालांकि वह प्रकाशित नहीं हुई।
साल भर बाद मैंने खण्‍डवा के एक कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां के बाम्‍बे बाजार में प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार के पैतृक घर के बगल में माणिक्‍य वाचनालय एवं पुस्‍तकालय है। माणिक्‍य वाचनालय बहुत बड़ा है, दो मंजिला। उन दिनों उसमें हिन्‍दी, अंग्रेजी,मराठी, गुजराती के दैनिक अखबार आते थे। हिन्‍दी की तमाम पत्रिकाएं जिनमें साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर फिल्‍मी पत्रिकाएं भी थीं। कॉलेज के बाद लगभग हर शाम मेरी इस पुस्‍तकालय में बीतती थी। दिल्‍ली प्रेस की सरिता,मुक्‍ता, टाइम्‍स प्रकाशन के दिनमान, धर्मयुग, माधुरी,सारिका और हिन्‍दुस्‍तान प्रकाशन का साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान, कादम्बिनी, भारतीय विद्याभवन की नवनीत,जागरण की कंचनप्रभा और माया प्रेस इलाहाबाद की माया, मनोहर कहानियां और तमाम अन्‍य पत्रिकाएं। मैं अपने साथ एक कॉपी रखता था, जो जरूरी लगता उसे कॉपी में उतार लेता। हां यहां किताबें घर ले जाकर पढ़ने की सुविधा तो थी, पर समय नहीं था।
अब तक पढ़ने के साथ-साथ लिखने की ‘लत’ भी लग चुकी थी। मुक्‍ता के स्‍तंभों में कुछ अनुभव प्रकाशित हो चुके थे, बदले में कुछ अच्‍छी किताबें भी उपहार में प्राप्‍त हुईं थीं। किशोर उम्र के प्रेम का अहसास भी जागृत हो चुका था। नतीजा यह कि अभिव्‍यक्ति कविता के रूप में होने लगी थी। साल भर बाद मैं होशंगाबाद आ गया। अखबार तो घर में आता ही था। अखबार पढ़ने का चस्‍का कुछ ऐसा था कि कई बार सुबह ब्रश बाद में करता, पहले अखबार की सुर्खियां देख डालता। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों ‘संपादक के नाम’ पत्र लिखने का जुनून सवार था। लगभग हर रोज एक पोस्‍टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र लिखा ही जाता था। तो सुबह सबसे पहले अखबार में अपना पत्र और उसके नीचे अपना नाम देखने की तमन्‍ना होती थी। शाम होते-होते आसपड़ोस में जो अखबार आते थे, वे भी मांगकर पढ़ डालता।
यहां भी मैंने दो वाचनालय एवं पुस्‍तकालय खोज लिए। एक था इतवारा बाजार में दुकानों के पीछे एक पुराना पुस्‍तकालय जिसे यहां की नगरपालिका संचालित करती थी। उसकी अलमारियों में किताबें पता नहीं कब से बंद थीं। वहां देखरेख करने वाले ने मेरे आग्रह पर कई अलमारियों को खोला। किताबों के अंदर लगी इश्‍यू स्लिप से पता चलता था कि कितने लोगों ने उसे पढ़ा है। अब तक मेरी रुचि थोड़ी परिष्‍कृत हो गई थी। पढ़ने के साथ-साथ लिखने में रुचि आरंभ से रही थी। अब रूझान साहित्य की ओर हो चला था। यह पुस्‍तकालय तो जैसे साहित्‍य का खजाना था। अज्ञेय, प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, वृंदावनलाल वर्मा, राहुल सांकृत्‍यायन, आचार्य चतुरसेन, यशपाल आदि और बंगला लेखक शरत, बंकिम के हिंदी अनुवाद यहां उपलब्‍ध थे। सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना, भवानी प्रसाद मिश्र के कविता संग्रह भी। कविता, कहानी, उपन्‍यास जो मेरे हाथ लगा, मैंने एक सिरे से पढ़ना शुरू कर दिया।वयं रक्षाम्, वैशाली की नगरवधू जैसे भारी भरकम उपन्‍यास जिन्‍हें पढ़ने में दस से बारह दिन लगे, मैंने यहीं से लेकर पढ़े। पर यहां पत्रिकाएं नहीं आती थीं। वे मिलीं मुझे जिला वाचनालय एवं पुस्‍तकालय में। नर्मदा किनारे मंगलवारा में बहुउद्देशीय शासकीय उच्‍चतर माध्‍यमिक शाला के परिसर में यह पुस्‍तकालय स्थित था। यहां से मैं किताबें इश्‍यू करवाकर घर भी ले जाता था।
मेरे पास घर में भी लगभग चालीस-पचास उपन्‍यास थे। उन सबको मैंने कवर चढ़ाकर, हरेक की जिल्‍द को धागे से सिल दिया था। मोटी किताबों को सिलना बहुत मुश्किल का काम होता था। इसके लिए मैं मोची से जूता सिलने वाला सूजा खरीदकर लाया था। उसके बाद भी मोटी किताबों को सिलने के लिए जुगत भिड़ानी होती थी। उसके लिए पहले कील और हथौड़े से किताबों की जिल्‍द पर छेद करता और फिर सूजे की मदद से उन्‍हें सिलता। पुरानी किताबों की दुकानों से भी किताबें खरीदने का चाव मुझे था। तब हिन्‍द पाकेट बुक्‍स दो-दो रुपए कीमत के उपन्‍यास छापता था और वे पुरानी किताबों की दुकानों में आधी कीमत में मिल जाते थे। कृश्‍न चंदर के बहुत सारे उपन्‍यास मैंने ऐसी ही दुकानों से खरीदे। ये सब किताबें गमिर्यों के अवकाश में आसपास के घरों के लोग पढ़ने के लिए मांगकर ले जाते थे। आप कह सकते हैं मेरे पास एक छोटा-मोटा पुस्‍तकालय था। उन दिनों किराए की लायब्रेरी का मोहल्‍ले में चलन था। चवन्‍नी-अठ्ठनी के किराए पर तरह-तरह की पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने को मिल जाती थीं। हालांकि मैं कभी भी ऐसी लायब्रेरी का सदस्‍य नहीं बना। न ही मैंने अपनी किताबें किराए पर दीं।

ऐसी लागी लगन…

यह 1978 की बात है। तब तक मैं कॉलेज में स्‍नातक होने की कोशिश कर रहा था। होशंगाबाद के सतरास्‍ते पर पोस्‍ट आफिस से लगी एक आटा चक्‍की थी चन्‍द्रप्रभा फ्लोरमिल। यह मेरे एक मित्र संतोष रावत की ही थी, वही इसे चलाते थे। एमएससी,एलएलबी करने के बाद भी जब उन्‍हें कोई नौकरी नहीं मिली तो उन्‍होंने यह काम चुना। वे भी पढ़ने-लिखने में रुचि रखते थे। हमारे दो और साथी थे। हम चारों इस चक्‍की पर बैठते, बहसें करते, एक-दूसरे से किताबें और पत्रिकाएं मांगकर पढ़ते। अखबारों में सम्‍पादक के नाम पत्र लिखते। हम सब तरह-तरह की पत्रिकाएं पढ़ना चाहते थे। उन्‍हें हर माह व्‍यक्तिगत रूप से खरीदना हमारे लिए संभव नहीं था। किराए की लायब्रेरी में वे उपलब्‍ध थीं, पर जब तक हाथ में आतीं पुरानी हो चुकी होतीं। हम उन्‍हें ताजा-ताजा पढ़ना चाहते थे। तो हम चारों ने मिलकर एक पुस्‍तकालय बनाया-अंकुर पुस्‍तकालय। मिलकर पत्रिकाएं खरीदते और फिर बारी-बारी से उन्‍हें पढ़ते। पहल और सारिका मैं नियमित रूप से खरीदने लगा था।
1979 में नेहरू युवक केन्‍द्र में काम करना शुरू किया। केन्‍द्र के समन्‍वयक श्‍याम बोहरे स्‍वयं साहित्‍य में रुचि रखते थे। सो कार्यालय में भी एक छोटा सा पुस्‍तकालय था। यहां परिचय हुआ हरिशंकर परसाई की किताबों से। श्रीलाल शुक्‍ल के रागदरबारी से। यहीं मुझे मिली अब तक की सबसे प्रिय पुस्‍तक, यह है शरतचन्‍द्र के जीवन पर आधारित विष्‍णु प्रभाकर का उपन्‍यास आवारा मसीहा । मुझे याद है कि इसे पहली बार पढ़ने में चौदह दिन का समय लगा था। दिनमान यहां नियमित रूप से आता था। केन्‍द्र में ही काम करते हुए बनखेड़़ी की स्‍वयंसेवी संस्‍था किशोर भारती के सम्‍पर्क में आना हुआ। किशोर भारती में एक बड़ा पुस्‍तकालय था। इस पुस्‍तकालय में साहित्‍य का एक बड़ा खण्‍ड था। इसमें मुझे मिलीं उपेन्‍द्रनाथ अश्‍क और अमृतराय की किताबें।
1982 में एकलव्‍य का गठन हुआ और मैं नेहरू युवक केन्‍द्र से एकलव्‍य में आ गया। होशंगाबाद में उसका पहला ऑफिस खुला। इसमें हमने बच्‍चों के लिए एक पुस्‍तकालय की शुरुआत की। पहले ही साल गर्मियों की छुट्टियों में बच्‍चों की भीड़ देखने लायक थी। पुस्‍तकालय का समय शाम चार से छह बजे तक होता था। पर बच्‍चे हैं कि तीन बजे से ही जमा होने लगते थे। लम्‍बी लाइन लगती, लगभग साठ-सत्‍तर बच्‍चों की। हर पन्‍द्रह-बीस मिनट के बाद हरेक को एक नई किताब चाहिए होती थी। उन्‍हें संभालना मुश्किल हो जाता। पर किसी भी बच्‍चे को मना नहीं किया जाता था। आखिर किताबें तो पढ़ने के लिए ही होती हैं न। बाद में एकलव्‍य में बड़ों के लिए भी एक अध्‍ययन केन्‍द्र की शुरुआत की गई थी। होशंगाबाद के मालाखेड़ी कस्‍बे के पास एकलव्‍य के परिसर में यह आज भी जारी है। हालांकि पाठकों की संख्‍या सीमित ही है।
1985 में जब चकमक शुरू हुई तो किताबों से बिलकुल अलग तरह का रिश्‍ता शुरू हुआ। एकलव्‍य के भोपाल कार्यालय में एक बहुत बड़ा पुस्‍तकालय था, आज भी है। इंटरनेट उस समय तक इतना विकसित और लोकप्रिय नहीं हुआ था। हर महीने चकमक के लिए सामग्री जुगाड़ने, तैयार करने के लिए घंटों इस पुस्‍तकालय में लगाने होते थे। जो भी पढ़ना, गंभीरता से पढ़ना। लेकिन जब से चकमक के संपादन से नाता टूटा है, तब से पढ़ना कम होता गया है, खासकर किताबें। लेकिन पढ़ने की इच्‍छा अंदर से इतनी बलवती होती है कि मैं आज भी कई सारी पसंदीदा पत्रिकाएं खरीदता हूं, भले ही उन्‍हें पूरा न पढ़ पाऊं। बरसों से खरीदी गईं कई पत्रिकाएं इस उम्‍मीद में जमा करके रखीं हैं कि कभी तो उन्‍हें पढ़ने का समय मिलेगा। इसी क्रम में किताबों का संग्रह भी है। तो यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पढ़ने-लिखने ही नहीं, मेरे पूरे व्‍यक्तित्‍व को विकसित करने में वाचनालय और पुस्‍तकालयों का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

राजेश उत्साही द्वारा लिखित

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