‘सुदीप सोहनी ‘नीह्सो’ की शीर्षक विहीन कविताएँ-

कविता कविता

सुदीप सोहनी 315 11/18/2018 12:00:00 AM

प्रेम एक लय है प्रकृति की, जीवन की और साँसों की, निश्चित ही उसे शब्दों में बाँध पाना आसान नहीं है बावजूद इसके दुनिया का यह खूबसूरत एहसास, मानव अभिव्यक्ति के रूप में साहित्यकारों की कलम से किसी निर्मल झरने की तरह फूटता रहा है | ये कविताएँ मानवीय स्पन्दन के इतने करीब ले जातीं हैं कि कलमकार की हर शाब्दिक कल्पना संवेदना के रूप में अपने भीतर धडकती महसूस होती है | मानव जीवन के एकांत से मुठभेड़ करते, समय के चरमोत्कर्ष से निकली ‘सुदीप सोहनी ‘नीह्सो‘ की यह कवितायें …..| – संपादक

‘सुदीप सोहनी ‘नीह्सो’  की शीर्षक विहीन कविताएँ-

1)-

सुदीप  सोहनी ‘नीह्सो’

याद को याद लिख देना जितना आसान है
उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है
उस क्षण को जीना और उसका बीतना
जैसे हो पानी में तैरती नाव
आधी गीली और आधी सूखी
जिये हुए और कहे हुए के बीच
झूलता हुआ पुल है एक
याद

2)-

जैसे कोई रख दे एक हाथ पर अपना ही दूसरा हाथ
जैसे कोई देख सके आईने में खुद को
जैसे उड़ती हवा को महसूस करे कोई साँसों में
जैसे आँख में आया आंसू चिपट ले गाल पर
जैसे एक करवट हो, एक तकिया और ख़ामोश नींद
जैसे कई शब्द, ध्वनियां और केवल एक नाम
जैसे बस की खिड़की और गुज़रते रास्तों पर हो समय ठिठका हुआ
जैसे पहाड़ के ऊपर हो एक आवारा बादल
और नीचे ज़मीन पर दो होंठ प्रार्थना में बुदबुदाते
जैसे सदियों का सफ़र हो सूरज का ढलना
और रात का आना किसी पुण्य का फलना
जैसे किसी मोड़ से जाती नदी पर एक पुल तय करता हो नज़दीकियां
जैसे शाम ढले चाय के साथ उतर जाए गर्माहट छाती में
जैसे कोई हाथ बढ़ाये और भींच ले चाँद को मुट्ठी में
जैसे स्वाद का मतलब एक थाली का कौर हो
जैसे सड़क का मतलब बेमतलब कोई सैर हो
जैसे किसी बच्चे की जुबान पर हो दो का पहाड़ा
जैसे किसी दुकान पर हो कपड़ों के ढेर में रखा एक इन्तज़ार
बस, ऐसे ही होना चाहिए प्रेम को
इतना ही सहज, इतने ही पास

3)-

प्रेम की असह्य पीड़ाओं में से एक है सुख के बारे में सोचना.
ये सोचना की पिछली या आने वाली सर्दियाँ
उमस से भरी होंगी.
या ये कि बसों, ट्रेनों की लगातार आवाजाही चल रही होगी पर उनमें सफ़र करने वाले धड़ हमारे नहीं .
ये भी कि धूप खिल रही होगी चटख,
उन रास्तों पर जहां अब भी बाक़ी होंगी हमारी हंसी
और छूने पर हथेलियाँ टीस रही होगी खुरदुरी छुअन खुद की ही .

दो समयों का अंतराल एक खाई है
दो समय दो हाथ हैं इच्छाओं से जुड़े
हाथ पर बंधा समय एक प्रतीक्षा है
प्रतीक्षा एक पूरे जन्म का नाम है

सोचने की अवधि घूम फिर कर
ठिठक ही आती है साथ खाये सुख के स्वाद पर
लगातार सोचते रहना एक दुःख है
कभी समाप्त न होने वाला
लगता है कभी-कभी
कि सुख एक डर है

सुख की कल्पना कोरे कागज़ पर मांड दी गयी वो रेखा है,
जिसे भविष्य में हम ही मिटा देंगे
ये एक ऐसा दुःख है जो रिसता है क़तरा -क़तरा,
जीने की चाह में तिल-तिल कर.

4)-

अबोला पसंद है उसे
घंटों रह सकती है वो मुझसे बिना बोले
घंटों क्या दिनों तक
और उसका बस चले तो महीनों भी
उसे वो सब कुछ पसंद है जो मुझे पसंद नहीं
वो अड़ियल, खुश रहती है इसी में

हम जब दूर होते हैं तो कई जन्म दूर होते हैं
उसे जन्मों दूर रहना अच्छा लगता है
मुझे कभी कभी अच्छा लगता है उसका अच्छा लगना
इस क़ीमत पर भी कि उसे मुझसे दूर रह कर अच्छा लगता है

सोचता हूँ पास होना कितना सुखद होता है
जैसे हरी घास पर ठिठकी हवा
जैसे मेरी ठोस हथेलियों में उसके नरम हाथ
उसके गालों पर मेरी आँखों की नमी
उसके सूखे होठों पर मेरी तड़पती एक सांस
उसकी रूह में घुलती मेरी रूह

सोचता हूँ सुख कितना क्षणिक होता है
उसे याद दिलाओ न लोगों,
उसका अबोलापन दम घोंटता है मेरा !

5)- 

कमरे की बंद खिड़की के चश्मे से देखते हुए
सोचता हूँ अक्सर
कि हम दोनों के बीच एक अंतहीन समय रहता
है
मैं समय के इस ओर रहता हूँ
जहां हलक के घूँट जितनी तेज़ी से समय भागता है .
तुम समय के उस पार रहती हो
जहां रोएँ खड़े होने जितनी सुस्ती से समय अलसाता है .
हम दोनों ही मिलते हैं तब
जब प्रेम और समय का रसायन मिलकर कुछ ऐसी क्रिया करता है
जहाँ पैदा होना अंतिम शर्त होती है .

हम मिलते हैं और जन्म लेते हैं .
बिछड़ते हैं और मर जाते हैं .
इस तरह हर बार हम कई जन्मों और मृत्यु के फासलों पर होने लगते हैं .
हमारे बीच दूरियों का समीकरण तय करता है यही समय .
इस तरह एक समय और एक साथ
अलग अलग और अकेले अकेले
हमारे बीच समय की कई पीढियां हैं .
प्रेम हमारा, देखो तो कितना कठिन है .

सुदीप सोहनी द्वारा लिखित

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