इंसानी ज़ज्बात जब खुद व खुद शब्द ग्रहण कर मानवीय अभिव्यक्ति बनकर फूटते हैं, निसंकोच ऐसी रचनाएं मन के बेहद करीब से गुजरती हैं | कुछ ऐसा ही सुखद एहसास देती हैं ‘सुलोचना खुराना‘ की यह कवितायें …. | – संपादक
आज की लड़की
खुशनुमा बेखौफ़ लड़की
कजरारे नयनो से
बंद होठों से-
मुस्कुराते हुए
कहती है-
आज़ाद हूँ मै—-
स्वच्छंद हूँ मै–
मेरे सपने-
मेरे अपने हैं !
आसमाँ को छूने का-
दम भरती हूँ—
थाम सकोगे अब-
उँगली मेरी तुम-
बेझिझक–
बोझ नहीं मै—-
श्रवण से मजबूत
कंधे ना सही–
अपने परों-पे बिठा के–
सपने सज़ा के–
तुम्हें जहाँ दिखाने वाली-
परी हूँ मै—–
पहचानो तो ??
वो ही तुम्हारी–
भरे नयनो से गिरती-
बोझिल नीर की –
बूँद हूँ मै——-
जज्बात
बर्फ से ठंडे ज़ज्बात
लफ़्ज़ों की गर्मी से
कभी पिघलते नहीं–
शीशे की चादर के भीतर
घटित होती हुई- होनी
कभी टलती नहीं–
इस तरफ का वक्त,अटूट सख़्त
उस तरफ की दुहाई को
कभी सुनता नहीं–
गुज़रता है- मौसम का कारवाँ
बहे नदी- सूखे ज़मीं -चट्टाने
कभी यूँ ही फिसलती नहीं–
देखते ही देखते ढलती है नज़र
पर- दूर नज़ारों का सफ़र तो
कभी कम होता नहीं—-!
जिंदगी
जिंदगी-अगर होती
एक कहानी-
पढ़ी हुई !!
कुछ पुरानी
जन्म- जन्मो की
भूली हुई–
एक याद अन्जानी !
हौले- हौले सरकते पन्ने-
यादों के झरोखों से
निकलते- तैरते
ख्वाब बनकर- उभर कर
नज़दीक आते !
आने वाले
उजालों-अंधेरों का पता
यक़ीनन बताते !!
परतों मे चलती-
जिंदगी का अंजाम कभी
रहस्य ना होता
अंतिम पन्ना भी- कभी
यूँ -बदहवासी सा
भविषय ना होता !!
परंतु ये जिंदगी
एक पढ़ी हुई-
कहानी नहीं !
नित नये-
पन्ने पलटती-
रूठती मनाती
हैरान करती
खूबसूरत जिंदगानी है
टूटे मोती
जिनका कोई दिन नहीं
रात नहीं
उनकी शामें -सहर क्या??
खाक सही___
टूट कर गिर जाते हैं
जब पत्ते
उनके लिए जमीं क्या??
शाख सही___
दर-ब-दर किनारों पे
जो अटक जातें हैं
उनके सहारे क्या??
वो अजनबी अनजान
ही सही ___
जिंदगी का फलसफा
समझते समझते
सर से ताज गिरा
तो क्या??
अब टूटे मोती की
किरकिच ही सही___
जाने कैसे पार लगेगी
किश्ती-है टूटी पतवार
तो अब बहे_ नाव क्या ??
चलो_ कुछ दूर ही सही