प्रेम, एवं अन्य कवितायें (सुरेन्द्र रघुवंशी)

कविता कविता

सुरेन्द्र रघुवंशी 116 11/18/2018 12:00:00 AM

सामाजिक, राजनैतिक संकीर्णताओं के खतरनाक थपेड़ों से सदियों से जूझती आती प्रेम की अविरल धार को परिभाषित करते हुए उस सामाज के जटिल ताने-बाने में दूध और पानी की तरह घुल रहे बाज़ारी और राजनैतिक दुष्प्रभाव के बीच वर्तमान में मानवीय संवेदनाओं को खंगालने का प्रयास करतीं ‘सुरेन्द्र रघुवंशी’ की कवितायें …..| – संपादक

प्रेम 

सुरेन्द्र रघुवंशी

सुरेन्द्र रघुवंशी

उसमें इतना आवेग है
कि अपने प्रवाह पथ में
उसने कभी स्वीकार ही नहीं किया कोई अवरोध

वह कभी अपने तट के भीतर
तो कभी तट के बाहर बहा
हार कर रुक नहीं गई धार

उसकी तरलता में कृत्रिमता का नमक नहीं है
वह यथार्थ के ताप से उपजा है
ज़रूरी नहीं कि सभी देख पायें उसे
उसे देखने के लिए वैसी ही नज़र चाहिए जैसा वह है

वह आकाश में आवारा बादलों जैसा है
तो धरती पर पगली सी बहती फिरती नदी जैसा भी है
पेड़ पौधों में फूलों जैसा है
शरीर में आँखों जैसा है
एक अकथनीय सत्य जैसा वह व्याप्त है हवा में

वह आँखों की तरलता में ध्वनित होता है
तो होंठों के फैलाव में विस्तार पाता है
मैंने उसे कई रूपों में देखा है
ठीक- ठीक कहूँ तो
वह बिल्कुल तुम्हारे जैसा है

सरियों पर चिड़ियाँ 

painting 'अरुण प्रेम' google से साभार

painting ‘अरुण प्रेम’ google से साभार

पेड़ नहीं रहे पर्याप्त
इसलिए चिड़ियाँ आ पहुंचीं
मकान की दीवार में निकले लोहे के सरियों पर

चिड़ियाँ अपने समय के संकट के
संधिकाल पर झूल रही हैं

धरती से पेड़ और आकाश से शुद्ध हवा
जो छीन ले गए धीरे- धीरे
उनका क्रूर चेहरा याद करते हुए
अपनी चीं- चीं भाषा में बतिया रही हैं चिड़ियाँ
कि कहाँ गई निर्बाध उड़ने की आज़ादी
और शाखाओं पर अठखेलियां करने की ख़ुशी

सावधान !
चिड़ियों के पंजों में हरी टहनी नहीं
समय को निगलती लोहे की जंग है

दोस्ती

दुनिया भर की निराशाओं की खरपतवारों के बीच
जीवन के खेत में दोस्तों की फसल हमेशा लहलहाती रही
सूखा और बाढ़ के बीच भी दोस्त बचे रहे कहीं न कहीं
दोस्ती की हवाओं के लिए

वे स्कूली दिनों में खेलते -खेलते रूठते और मान जाते
कॉलेज में अपनी प्रेम कथाओं को साझा करते
फिर बेरोजगारी के कुम्भ में रोजगार हेतु
विभिन्न घाटों पर पहुंच जाते बिछड़ गए परस्पर

बहुत दिनों के बाद वे अचानक प्रगट हो जाते
बहन या भाई की शादी में बढ़ चढ़कर हाथ बटाते हुए परिजनों की बीमारी में वे अकेलेपन को दूर कर देते

पर आश्चर्यजनक रूप से अब कहाँ गायब हो गए दोस्त
क्या स्वार्थ का दीमक खा गया इस मज़बूत काष्ठ को
अथवा अपनी-अपनी परेशानियों की नावों में
अपनी बुद्धि की पतवारों के सहारे
वे हो गए तितर- वितर संघर्ष के इस विशाल ताल में
या बाजार निगल गया उनकी संवेदनाओं को
और अनावश्यक तथा असंगत लगते-लगते
कालातीत ही हो गई दोस्ती ?

क्या मैं दरिद्र हूँ

मेरे श्रम से बने खपरैल घर के पास हरी -भरी घास है
चेतना की एक नदी बहती है मेरे सामने हरदम
साहस का पहाड़ मुझे अपने कंधे पर बैठाता है

करुणा के बादल उमड़ते- घुमड़ते हैं
मेरे ह्रदय के नीले आसमान में
विचारों के सुगन्धित फूल मन उपवन का सौन्दर्य हैं

व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत कारण से
कूद पड़ता हूँ रण भूमि में
जब असहनीय हो जाती है पीड़ा

लाभ-हानि के गणित को फेंक देता हूँ समंदर में गलने
रिश्तों को तौलता नहीं तराजू में
जानता नहीं कुशल तैराकों की वक्रगति

धन और मुद्राओं के लोहे को खींचने के लिए
मेरी प्रवृति चुम्बक में तब्दील नहीं हो पाती
क्या मैं दरिद्र हूँ ?

सुरेन्द्र रघुवंशी द्वारा लिखित

सुरेन्द्र रघुवंशी बायोग्राफी !

नाम : सुरेन्द्र रघुवंशी
निक नाम :
ईमेल आईडी :
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.