कभी फ्रांस का प्यारा था ISIS: आलेख (सुरेश ऋषि)

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सुरेश ऋषि 362 11/18/2018 12:00:00 AM

कभी फ्रांस का प्यारा था ISIS 

सुरेश ऋषि

महबूब खान की मशहूर हिंदी फिल्म ‘मदर इंडिया’ के एक सीन में फिल्म का मुख्य किरदार बिरजू गांव के सूदखोर के घर डाका डालता है। इस दौरान बीजू कहता है कि “लाला तुमने कर्ज देकर हमारी मदद करने के बहाने बेईमानी से हमारी जमीन छीन ली, मेरी मां के कंगन छीन लिए।  डाकू मैं ही नहीं डाकू तुम भी हो।”  करीब साठ साल पहले आई इस फिल्म का यूं तो फ्रांस और ISIS के साथ कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन दोनों का रिश्ता समझने के लिए ये मिसाल अच्छी है। फ्रांस की राजधानी पेरिस में 129 बेकसूर लोगों का बेरहमी से कत्ल कर आईएसआईएस ने तर्क दिया कि ये सीरिया और इराक में फ्रांस की कार्रवाई का जवाब है।

हर अतिवादी गुट इस तरह के कत्लेआम को तर्क-कुतर्क से उचित साबित करने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वो कुछ समर्थन जुटाने में भी कामयाब भी हो जाते हैं।  पेरिस हमले को दुनिया के किसी तर्क से सही साबित नहीं किया जा सकता है लेकिन ईराक-सीरिया में भूमिका को लेकर खुद फ्रांस सरकार भी कठघरे में है।  अपने नागरिकों की जान-जोखिम में डालने वाली फ्रांस सरकार की विदेश नीति और आईएसआईएस से फ्रांस के पुराने रिश्ते की पड़ताल भी यहां जरूरी है।

इस पेचीदगी को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। 2011 में अरब वसंत के दौरान जब सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ घरेलू विरोध शुरू हुआ तो अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने उस बगावत का समर्थन किया। इसमें कुछ गलत भी नहीं था। सीरिया का असद सरकार के खिलाफ शुरुआती विरोध शांतिपूर्ण था। असद सरकार के खिलाफ बने गठबंधन का फ्रांस और अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों ने समर्थन किया । उस आंदोलन को दबाने के लिए असद ने बलप्रयोग किया और वहां से हिंसक आंदोलन की शुरुआत हुई। इस बीच असद सरकार के खिलाफ हथियारबंद दस्ता तैयार हुआ। फ्री सीरियन आर्मी नाम से एकजुट होकर, कुछ गुटों ने सीरिया की सेना के खिलाफ गोलबंदी शुरू की। अमेरिका की अगुवाई में नैटो (NATO) ने FSA यानी फ्री सीरियन आर्मी को ट्रेनिंग और हथियार दिए।

नैटो में अमेरिका का सबसे बड़ा साझेदार फ्रांस भी है। जाहिर है फ्रांस ने भी फ्री सीरियन आर्मी को मदद दी। ये सारी कोशिश राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार के खात्मे के लिए थी। उस वक्त तक सुन्नी इस्लामिक संगठन ISIS (ISIL)  का ज्यादा वजूद नहीं था। बहुत कम लोगों को इस खतरनाक गुट की जानकारी होगी। उस वक्त अमेरिका या फ्रांस को भी आईएसआईएस के प्रमुख बगदादी से खतरा नहीं लगता था। लेकिन इस अनजानेपन में पश्चिम देशों ने बगदादी को फलने फूलने के लिए खूब मदद की।

दूसरी तरफ फ्री सीरियन आर्मी गैर मजहबी गुट था जिसका मकसद सीरिया की असद सरकार को हटाकर लोकतंत्र बहाली था। इसी तर्क पर फ्रांस और अमेरिका ने FSA की हथियारों समेत हर तरह से मदद की। इसका अंजाम ये हुआ कि FSA में रहकर लड़ाकू ने हथियार तो लिए लेकिन फिर वो आईएसआईएस में शामिल होने लगे। जब तक आईएसआईएस सीरिया में असद सरकार के खिलाफ लड़ रहा था तब तक फ्रांस-अमेरिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं थी। यहां तक कि अरब देशों की नजर में सबसे बड़ा मुजरिम और अमेरिका-फ्रांस का दोस्त इजरायल भी सीरिया सरकार को कमजोर करने वाले ISIS और FSA जैसे गुटों से खुश था। इसकी वजह भी जानना जरूरी है। सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद अलवी शिया हैं। इस वजह से शिया बहुल देश ईरान सीरिया का बड़ा सहयोगी है। ईरान फलिस्तीन के हमास गुट को मदद देता है तो जाहिर है इजरायल का सबसे बड़ा दुश्मन भी है। इजरायल चाहता है कि बशर अल असद की सरकार गिरे और ईरान की ताकत कम हो। ईरान ने भी कूटनीतिक तरीके से असद की मदद करने के लिए अपने शिया सैन्य गुट हिजबुल्ला को सीरिया में उतार दिया।

 यहां सऊदी अरब की भूमिका जानना भी बेहद जरूरी है। जगजाहिर है कि सुन्नी मुल्क सऊदी अरब और शिया मुल्क ईरान के बीच शीत युद्ध चलता है। सीरिया में ईरान के बढ़ते असर के खिलाफ सऊदी अरब ने जबात अल नुसरा नाम के गुट को सीरिया में असद से लड़ने के लिए उतार दिया। जबात अल नुसरा को सऊदी अरब से हर तरह की मदद मिली। कहने का मतलब सीरिया में बशर अल असद को हटाने के लिए नैटो देश अमेरिका-फ्रांस-ब्रिटेन, सऊदी अरब और आईएसआईएस एक पाले में आ गए। ये कहना गलत नहीं होगा कि आज फ्रांस के सबसे बड़े दुश्मन बने बैठे आईएसआईएस को फ्रांस की भी शह मिल ही रही थी। । ये वैसा ही था जब सोवियत यूनियन के खिलाफ अफगानिस्तान की लड़ाई में तो अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की मदद की लेकिन एक दिन वही ओसामा बिन लादेन 9/11 हमला कर अमेरिका को सबसे बड़ा जख्म दे बैठा।

फ्रांस ने इससे भी एक कदम आगे जाकर बशर अल असद के खिलाफ बिना किसी ठोस कूटनीतिक वजह कड़ा रुख अख्तियार किया था। 2013 में सीरिया में रासायनिक हथियार इस्तेमाल करने की खबरों के बाद फ्रांस ने जोरदार तरीके से असद सरकार के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की वकालत की थी। यहां तक कि दुनिया में झगड़ों का फैसला करने वाला अमेरिका भी असद को लेकर फ्रांस के बजाय नरम था। असद का विरोध करने का हक हर किसी को है लेकिन किसी एक देश पर इस तरह से बेवजह घात लगाना फ्रांस की विदेशनीति के हल्केपन का सबूत था।

फ्रांस और अमेरिका को असल दिक्कत तब शुरू हुई जब आईएसआईएस ने इराक में तेजी से फैलना शुरू किया। इराक के कई इलाकों पर आईएसआईएस ने अपना कब्जा कर लिया था। इसमें इराक की सबसे जरूरी चीज तेल के कुएं भी शामिल थे।  दुनिया को जब आईएसआईएस की दरिंदगी की खबरें मिलना शुरू हुई तक तक बहुत देर हो चुकी थी। बगदादी ने अपने ईराक और सीरिया के कई हिस्सों को अपने कब्जे में कर खिलाफत का एलान कर दिया था। अरब मामलों के कई जानकारों ने माना था कि आईएसआईएस अब तक का सबसे खतरनाक गुट था जो धर्म की आड़ लेकर कुछ भी कर रहा है। पूरी दुनिया में आईएसआईएस का खौफ फैल गया था। ईराक के राष्ट्रपति समेत पूरी दुनिया एक बार फिर अमेरिका की तरफ देख रही थी।

सितंबर 2014 में अमेरिका ने इराक में आईएसआईएस के खिलाफ कार्रवाई का फैसला लिया। इस बार फिर उसका सबसे बड़ा साथी बना फ्रांस। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने 15 सितंबर 2014 को पेरिस में ‘इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन पीस एंड सिक्योरिटी इन इराक’ रखी जिसमें 26 देशों ने हिस्सा लिया। जाहिर है आईएसआईएस से निपटने की ही कूटनीति तैयार हुई थी।

इस बैठक के बाद आईएसआईएस के खिलाफ फ्रांस ने भी आईएसआईएस के खिलाफ फाइटर प्लेन तैनात कर दिए। अमेरिका के बाद आईएसआईएस पर सबसे कड़ा प्रहार फ्रांस का ही था। अब तक फ्रांस के लड़ाकू विमानों ने आतंकियों की हालत पतली कर रखी है।  मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक फ्रांस ने अब तक करीब पौने तीन सौ हवाई हमलों में आईएसआईएस के 450 ठिकानों को निशाना बनाया। ज्यादातर हवाई हमले इराक में ही हुए हैं। पेरिस में हमला कर आईएसआईएस ने इसी कार्रवाई का बदला लेने की बात कही थी।

आईएसआईएस की ये दलील कहीं से भी सही नहीं है। इस तरह के दलीलों को लेकर हुए हमलों से डरना भी उस आतंक को बढ़ावा देना जैसा ही है। लेकिन इराक-सीरिया को लेकर फ्रांस सरकार की विदेश नीति में खूब खामी रही और अपने नागरिकों को खतरे में डालने के लिए फ्रांस सरकार पर सीधी उंगली उठ रही है।

 अमेरिका की ओबामा सरकार की तरह फ्रांस भी विदेश नीति भी अब तक आईएसआईएस को लेकर हवा में झूल रही है। फ्रांस एक तरफ जहां इराक में आईएसआईएस पर बम गिरा रहा है वहीं नैटो जिसका अहम सदस्य फ्रांस है, सीरिया में आईएसआईएस पर रूसी कार्रवाई का विरोध कर रहा है। यानी एक ही आतंकी गुट पर फ्रांस का दोहरा रवैया। चाहता तो ब्रिटेन की तरह फ्रांस भी नैटो में रहते इराक-सीरिया को लेकर खुद को दूर रख सकता था।

फ्रांस की दूसरी कमजोरी अपने घर में भी रही। पिछले साल रूसी न्यूज एजेंसी रशिया सिवोद्निया (Rossiya Segodnya) ने एक सर्वे किया था जिसमें फ्रांस के 16 फीसदी लोगों ने आईएसआईएस से हमदर्दी दिखाई थी। फ्रांस ने अपने घर में बढ़ रही इस तरह की कट्टरता पर ध्यान नहीं दिया। फ्रांस में 10-12 फीसदी मुस्लिम आबादी है जिसमें से आईएसआईएस सैकड़ों युवकों को अपने तरह आकर्षित करने में कामयाब रहा । रिपोर्ट्स के मुताबिक एक हजार से ज्यादा फ्रांस के मुस्लिम आईएसआईएस में शामिल हुए हैं और  पेरिस के हमलावरों के तार भी फ्रांस से जुड़ रहे हैं। फ्रांस उदार देश माना जाता है और ब्रिटेन और अमेरिका के बजाय फ्रांस आईएसआईएस के आसान निशाना था। लेकिन संभावित खतरों और चुनौतियों से निपटने की फ्रांस ने तैयारी नहीं की।

जाहिर है कुछ हद तक फ्रांस सरकार का रवैया भी गैरजिम्मेदाराना रहा है। फ्रांस जानबूझकर सीरिया-इराक के दलदल में उतरा और अब और गहरा फंसता जा रहा है। पेरिस हमले के बाद पश्चिमी देश आईएसआईएस पर और आक्रामक तरीके से कार्रवाई कर रहे हैं लेकिन ये नाकाफी है। अब अमेरिका और फ्रांस समेत पश्चिमी देशों को आईएसआईएस के खिलाफ ठोस रणनीति भी बनाने की जरूरत है जो ना सिर्फ उनके देशों के लिए बल्कि सीरिया-इराक के लोगों के लिए अमन बहाली कर सके।

(प्रस्तुति – विनय सुल्तान)

सुरेश ऋषि द्वारा लिखित

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