वर्तमान समय में समाज से लुप्त होती मानवीय संवेदनाओं के पहलूओं को विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करती सुशील उपाध्याय की कविताएँ – सम्पादक
अच्छा आदमी!!!
सुशील उपाध्याय
हर किसी की निगाह में
ऊंचा होता है अच्छा आदमी!
बौने लोगों के बीच
पूरी लंबाई का वाला अच्छा आदमी!
उसके कदमों की आहट पर
झुक जाते सिर,
हर कोई आग्रही-
हमारे घर आइये किसी दिन।
और चौड़ा हो जाता अच्छे आदमी का सीना!
छोटे लगने लगते-
पड़ोसी, साथी, सहकर्मी,
परिजन, प्रियजन!
अच्छा आदमी कभी-कभी बोलता,
अक्सर चुप रहता,
उसकी चुप्पी को भी सब सुनते चुपचाप!
लोग मांगते सलाहें,
लेते आशीर्वाद, पूछते रास्ता।
चमकने लगती सिर के पीछे दिव्य-दीप्ति।
सहम जाती धरती!
शांत, स्थिर, गुणी-ज्ञानी, तटस्थ, समदर्शी, प्रज्ञापुरुष….
और भी न जाने कितने-कितने
गुणों को धारण करता अच्छा आदमी।
न दुष्ट को दुष्ट कहता, न गलत को गलत
और न बुरे को बुरा कहता ‘अच्छा आदमी’।
हमेशा रखता शीर्ष से सहमति,
वक्त के साथ बदलता अपना दायरा,
परिधि और आयाम।
जीवन-मरण के प्रश्नों पर देता दार्शनिक जवाब!
तब, लोग खुद से पूछते-
हमेशा अच्छा ही होता है ‘अच्छा आदमी’ ?
बच्चा और कुंवारी इच्छाएं
बच्चा,
भुनी मूंगफलियों को हाथ में दबाए,
मिट्टी खोदता है।
बीज बोता है,
खुश होता है!
एक दिन,
जिंदगी उगेगी भुरभुरी मिट्टी से!
पानी देता है,
फिर, बीज उखाड़कर देखता है,
बीज, जो भुनी मूंगफलियां हैं!
निराश होता है
बीजों के साथ खेलता है!
कुंवारी इच्छाओं के लिए,
भगवान को पुकारता है!
सवाल पूछता है,
सयाने और गुनी लोगों से-
कैसे निकलेंगी धरती से कौंपले ?
लोग मुस्कुराते हैं,
आगे बढ़ जाते हैं,
बच्चा, नई जगह पर मिट्टी खोदता है,
उसे जिद है
जिंदगी उगाने की!
कल का इंतजार करो,
शायद! कौंपले फूट जाएं!!!
रोटियां नहीं, सपने बेलती है
सड़क पर ठेला लगाकर
रोटी बनाती, बेचती है वो लड़की!
गोल रोटियां, धरती के आकार जैसी।
अक्सर लगता है-
रोटियां नहीं, सपने बेलती है।
गर्म तवे पर आकार लेती रोटियां,
फूलती, फुस्स हो जाती।
ठीक वैसे ही,
जैसे कि अच्छे दिनों की उम्मीदें।
चूल्हे की आग तवे को नहीं,
देह को गरम करती है।
लपटे भले ही बाहर दिखती हों,
पर, ये भीतर से उठती हैं!
लड़की रोज सामना करती है
पेट की भूख का
देह की भूख का
नर-शिकारियों का,
जिनकी भूख है पेट से नीचे
लटकती, लहलहाती!
लड़की आंखें झुकाएं रोटियां बनाती है।
परोसती है।
दिनों को ठेलती है,
सड़क पर ठेले के पीछे खड़ी होकर!