खुदा-ए-सुखन, ‘मीर-तकी-मीर: आलेख (एस तौहीद शहबाज़)

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एस. तौहीद शहबाज़ 759 11/18/2018 12:00:00 AM

यह बात याद रखने योग्य है कि हिन्दी और उर्दू भाषा के निर्माण के इतिहास में अठाहरवीं शताब्दी, जो मीर की शताब्दी है, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उस समय तक भाषा का नाम केवल हिन्दी था । कभी-कभी उसे जबान-ए-देहलवी भी कहा जाता था। इसका सबसे अधिक विश्वस्त रूप उर्दू लिपि में और उर्दू शायरी के रूप में निखर रहा था । इस शताब्दी में यह जुबान स्थानीय बोलियों की हदबंदी से आजाद होकर हिन्दुस्तान व्यापी जबान बन गयी। हिन्दी के संत कवियों और उर्दू के सूफी शायरों ने जनता की बोलियों को अपनाया और कबीर, मीरा, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, वली दकनी, सौदा और मीर ने उच्चश्रेणी के शाहकार पेश किए जो दुनिया की दूसरी भाषाओं की उच्चश्रेणी शायरी से आंखें मिला सकते हैं। ……. बीते 21 सितम्बर को ‘मीर-तकी-मीर’ की पुण्यतिथि पर ‘एस तौहीद शहबाज़’ का आलेख …..

खुदा-ए-सुखन, ‘मीर-तकी-मीर 

आईए ‘नक्शाब जारचवी’ को जाने: सख्शियत (सैयद एस तौहीद)

एस तौहीद शहबाज़

शायर को खुदा का शिष्य भी कहा गया है और ‘पैगम्बर’ का स्थान भी दिया गया है, लेकिन मीर तक़ी मीर अकेले शायर हैं,जिनको खुदा-ए-सुखन (शायरी का खुदा) कहा जाता है। वली दकनी, सौदा, नजीर अकबराबादी, अनीस, गालिब और इक़बाल के होते हुए मीर उर्दू शायरी में महानता के तख्त पर बैठने वाले अकेले नहीं हैं, और न यह कहना सही होगा कि वह उर्दू के सबसे बडे शायर हैं। फिर भी इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि उर्दू के सब शायरों की सूची में सबसे ऊपर ‘मीर’ का ही नाम रहेगा। यद्यपि आज लोकप्रियता के विचार से ग़ालिब और इक़बाल, मीर से कहीं आगे हैं, और उनकी किताबें ‘कुल्लियात-ए-मीर’ की अपेक्षा बहुत ज्यादा बिकती हैं। उनके शेर लोगों की जुबान पर ज़्यादा हैं। उनका प्रभाव वर्त्तमान शायरी पर अधिक स्पष्ट है। फिर भी ग़ालिब और इक़बाल की शाइराना महानता से इंकार करने वाले मौजूद हैं, मगर मीर की उस्तादी से इंकार करने वाला कोई नहीं है। कुल्लियात-ए-मीर में दर्जनों मसनवियां, क़सीदे और मर्सिए शामिल हैं। इनके अलावा ग़जलों के छह दीवान हैं। उनमें दो हजार से ज्यादा ग़जलें हैं और शेरों की संख्या पंद्रह हजार के पास होगी। हर हाल में बडे-से-बडे शायर ने मीर का नाम आते ही अपना सर झुका लिया है ।

साभार google से

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उनका स्थान शायरी में ही नहीं बल्कि भाषा के विकास इतिहास में भी बहुत महत्त्व रखता है। खडी बोली, जिस पर वर्त्तमान हिन्दी और उर्दू भाषा की बुनियाद है, इतने निखरे हुए रूप में मीर के यहां दिखाई देती है कि उसके बाद का हर रूप मीर की देन मालूम होता है। शैली और भावों के विचार से भी मीर की हैसियत एक ऐसे शाइराना स्रोत की-सी है, जिसमें सारी नदियां फूट पडती हैं। वहां ग़ालिब के रंग के भी प्रारंभिक चिन्ह मिलते हैं (और इसी से वर्त्तमान शायरी का रंग पैदा हुआ है) और मोमिन और दाग़ के रंग के साथ-साथ बाह्यता (वह शायरी जिसमें प्रेम की आंतरिक अनुभूति की अपेक्षा प्रेमिका के बाह्य सौंदर्य पर अधिक जोर दिया जाता है। इसे उर्दू में कंघी चोटी की शायरी कहते हैं) का अंदाज़ भी मिलता है जिसे लखनऊ स्कूल के नाम से याद किया जाता है । लुत्फ़ यह है कि जिसको आज इक़बाल की ग़ज़ल की नई शैली समझा जाता है और जिसकी रवानी(प्रवाह) में चिंतन की महानता के कारण एक भारीपन आ गया है और गंभीर कैफियत पैदा हो गयी है, उसके चिन्ह भी मीर के यहां भी वर्त्तमान हैं, और कई स्थानों पर प्रतीक ही की नहीं बल्कि विचारों की आश्चर्यजनक समानता है । हांलाकि चिंतन और भावों के विचार से मीर और इक़बाल के बीच शताब्दियों का अंतर है।

इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात यह है कि पूरे दो सौ बरस बाद जब 1947 में देहली एक बार ख़ून की होली में नहाई और पंजाब और देहली की भूमि हिन्दू-मुस्लिम-सिख दंगों ने नादिरशाही क़त्ल-ए-आम और अहमद शाही लूट-खसोट की याद ताज़ा कर दी तो उर्दू के वर्त्तमान नवयुवक शायरों ने ग़ालिब और जोश का दामन छोडकर मीर के दामन में शरण ली। मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने अपनी पुस्तक ‘आब-ए-हयात’ में मीर की प्रशंसा इस प्रकार की है कि ‘कद्रदानी ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और फूलों की महक बनाकर उडाया। हिन्दुस्तान में यह बात उन्ही को नसीब हुई है कि मुसाफिर, ग़ज़लों को तोहफे के तौर पर शहर-से-शहर में ले जाते थे’। फूलों की यह महक आज भी आवारा है। लेकिन इससे इतर मीर को समझने का एक सरल ढंग प्रचलित हो गया। किसी ने उनके संबध में यह कह दिया था कि सौदा की शायरी वाह है और मीर की शायरी आह—कीजिए क्या मीर साहब, बंदगी, बेचारगी ।

मीर की शायरी जितनी सीधी और मनमोहक है उतनी टेढी-बांकी, तिर्छी-तीखी भी है। उसमें कोमलता और घुलावट है उतनी ही कटुता और कडवापन भी है।

हम फकीरों से बे अदाई क्या
आन बैठे जो तुमने प्यार किया ।
फिर एक जगह यह भी कहते हैं—
दूर बैठा ग़ुबार-ए-मीर उस से
इश्क बिन यह अदब नहीं आता।

कटु और मधुर,नर्म और गर्म,इस सम्मिश्रण में मीर के व्यक्तित्व का सारा जादू है ।

उल्टी हो गयी सब तदबीरें,
कुछ न दवा ने काम किया 
देखा उस बीमार-ए-दिल ने 
आखिर काम तमाम किया ।

यह व्यक्तित्व अपने काल में घुल-मिलकर एक हो गया है। और यह कि इस शायरी में दिल और दिल्ली पर्यायवाची शब्द बन गए हैं ।

साभार google से

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कभी –कभी यह विचार आता है(और यह विचार ही है) कि मीर ने हाफ़िज और ग़ालिब की तरह अपने समय के शिकंजों को तोडने में सफलता प्राप्त नहीं की और काल तथा इतिहास में बनाए हुए भयानक क़ैदखाने की सारी आहनी सलाखें(लौह शलाकाएं) मीर के शरीर और प्राणों में घुस गयीं । मीर के यहां उस हंसी-खुशी और ताजगी और तृप्ति का अभाव है ।उनकी शायरी ग़म का अथाह सागर है । जिसमें आंहों की की कुछ मौजें हैं और एहतिजाज(विरोध) के कुछ तुफान । मीर के यहां प्रेम संसार की सृष्टि का कारण होने के बावजूद जानलेवा है। अभिरूचि की अधिकता कण को रेगिस्तान और बूंद को सागर बनाने के बजाए रोने और मरने पर आमादा करती है । आवारगी आज़ादी की भावना नहीं है, बल्कि परेशान हाली और परेशान रोजगारी है । इसमें तड़प नहीं है, उदासीनता की लाचारी है । इसीलिए मीर ने ‘आवारगी’ की तुलना समीर से नहीं, बगूलों से उपमा दी है। मीर माशूक से खेल नहीं सकते। वह या तो शिकायत करते हैं या आराधना । लेकिन यह व्यक्तिगत दुख नहीं, सारे संसार का बडा दुख है। यह अपने दिल की आंतरिक फिजा में सीमित एक व्यक्ति की पराजय नहीं है बल्कि एक पूरी दुनिया, एक पूरे युग की पराजय है । जिसको उस व्यक्ति ने अपने भीतर समेट लिया है। मीर एक हारे हुए प्रेमी जरूर हैं लेकिन यह इंसान नहीं खुदा की हार मालूम होती है । उन्होने बार-बार यह बताया है कि उनकी शायरी उनके युग की प्रतिनिधि है। उनका दीवान केवल उनके अपने नहीं बल्कि सारे जमाने के दर्द व ग़म का संग्रह है ।

यह संयोग नहीं है कि उन्होने दुनिया के धन-दौलत से अधिक नैतिक मूल्यों को महत्त्वपूर्ण समझा और अपनी ग़जलों के अलावा फकीरों और दरवेशों की कहानियों के रूप में उन्हें लिपिबध किया। कुछ लोग ग़लती से इन नैतिक कहानियों को झूठ या काल्पनिक घटनाओं का नाम देते हैं । यह बात याद रखने योग्य है कि हिन्दी और उर्दू भाषा के निर्माण के इतिहास में अठाहरवीं शताब्दी, जो मीर की शताब्दी है, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उस समय तक भाषा का नाम केवल हिन्दी था । कभी-कभी उसे जबान-ए-देहलवी भी कहा जाता था। इसका सबसे अधिक विश्वस्त रूप उर्दू लिपि में और उर्दू शायरी के रूप में निखर रहा था । इस शताब्दी में यह जुबान स्थानीय बोलियों की हदबंदी से आजाद होकर हिन्दुस्तान व्यापी जबान बन गयी। हिन्दी के संत कवियों और उर्दू के सूफी शायरों ने जनता की बोलियों को अपनाया और कबीर, मीरा, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, वली दकनी, सौदा और मीर ने उच्चश्रेणी के शाहकार पेश किए जो दुनिया की दूसरी भाषाओं की उच्चश्रेणी शायरी से आंखें मिला सकते हैं।

मीर के यहां वली दकनी की शायरी का प्रभाव वर्त्तमान है । जबान के अलावा ग़जलों की जमीनें और कुछ विचार भी समान हैं। लेकिन मीर का रास्ता बहुत अलग है। उनकी शायरी वली की तरह निस्पृहता और प्रेमिका की खातिरदारी तक सीमित नहीं है। मीर ने ग़जल को अपने समय का आईना बना दिया। शब्दों के हिन्दुस्तानी उच्चारण की तरह मीर की ग़जलों का तरन्नुम( लय और सुर) भी आवामी स्वर से बहुत ज्यादा करीब है। उनकी ग़जल में फारसी ग़जल की नफासत से अधिक हिन्दी शायरी की अरजी कैफियात है। उपमाओं और शाब्दिक चित्रों के मामले में भी वह अपने आस-पास से चित्र प्राप्त कर लेते हैं । यह कलाम काबिले गौर है :

पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा ,हाल हमारा जाने है
जाने न जाने,गुल ही जाने,बाग़ तो सारा जाने है ।

एस. तौहीद शहबाज़ द्वारा लिखित

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सैयद एस. तौहीद जामिया मिल्लिया के मीडिया स्नातक हैं। सिनेमा केंद्रित पब्लिक फोरम  से लेखन की शुरुआत। सिनेमा व संस्कृति विशेषकर फिल्मों पर  लेखन।फ़िल्म समीक्षाओं में रुचि। सिनेमा पर दो ईबुक्स के लेखक। प्रतिश्रुति प्रकाशन द्वारा सिनेमा पर पुस्तक प्रकाशित passion4pearl@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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