आदेश !
अध्यादेश !!
‘अध्यादेश’ के बाद, ‘अध्यादेश’
'यह संसद और संविधान की अवमानना है। ‘राजनितिक फ़ुटबाल’ खेलते-खेलते, ‘मुस्लिम महिलाओं की मुक्ति’ के रास्ते नहीं तलाशे जा सकते। संसद में बिना विचार विमर्श के कानून! देश में कानून का राज है या ‘अध्यादेश राज’? बीमा, भूमि अधिग्रहण, कोयला खदान हो या तीन तलाक़। सब तो पहले से ही संसद में विचाराधीन पड़े हुए हैं/थे। क्या यही है सामाजिक-आर्थिक सुधारों के प्रति ‘प्रतिबद्धता’ और ‘मजबूत इरादे’? क्या यही है संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की नैतिकता? क्या यही है लोकतंत्र की परम्परा, नीति और मर्यादा? यह तो ‘अध्यादेश राज’ और शाही निरंकुशता ही नहीं, अंग्रेजी हकुमत की विरासत का विस्तार है। ऐसे नहीं हो सकता/होगा ‘न्यू इंडिया’ का नव-निर्माण। अध्यादेशों के भयावह परिणामों से देश की जनता ही नहीं, खुद राष्ट्रपति हैरान...परेशान होते रहे हैं।'
मुस्लिम महिला संरक्षण विधेयक पर गहरी क़ानूनी समझ सामने लाता वरिष्ठ अधिवक्ता 'अरविंद जैन' का आलेख
मुस्लिम महिला
संरक्षण विधेयक
‘अध्यादेश’ के बाद, ‘अध्यादेश’
साढ़े चार साल में चालीस अध्यादेश। संसद
में पहला विधेयक पारित ना हो, तो अध्यादेश, अध्यादेश के बाद भी
विधेयक पारित ना हो तो दुबारा अध्यादेश। सुप्रीमकोर्ट के फैसले (22 अगस्त, 2017) के बाद, तीन तलाक़ विधेयक
लोकसभा में पारित हुआ मगर राज्यसभा में अटक-लटक गया। संसद में विधेयक पास नहीं हो
पाया तो, जारी हुआ अध्यादेश (सितम्बर 2018)। अध्यादेश के बाद शीतकालीन
अधिवेशन (2018) में फिर विधेयक लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में लटक
गया। कोई बात नहीं, दुबारा अध्यादेश (जनवरी 2019) जारी कर दो। फिर रबड़ की मोहर लगाओ और
देश को 'चलाओ'। 'शाहबानो' (1985 AIR 945) से लेकर 'सायराबानो' तक से, राजनीतिक विश्वासघात और न्याय का
नाटक-नौटंकी ही होती रही है। लिंग समानता की आड़ में घृणित धार्मिक राजनीति। सत्ता
और विपक्ष दोनों के हाथ दस्तानों (दोस्तानों) में! दोहरे चरित्रहीन चेहरे देश के
सामने हैंl तीन तलाक़ विधेयक के बहाने संसद में 89% मर्द सांसद, 'स्त्री सशक्तिकरण' पर बहस (लफ़्फ़ाज़ी) करते रहे हैं। संसद ने जिस विधेयक को पारित करने
से (दो बार) मना कर दिया, उसे बार-बार ‘अध्यादेश’ के रूप में थोंपना सत्ता बल का
छल ही कहा जायेगा l
यह संसद और संविधान की अवमानना है। ‘राजनितिक फ़ुटबाल’ खेलते-खेलते, ‘मुस्लिम महिलाओं की
मुक्ति’ के रास्ते नहीं तलाशे जा सकते। संसद में बिना
विचार विमर्श के कानून! देश में कानून का राज है या ‘अध्यादेश राज’? बीमा, भूमि अधिग्रहण, कोयला खदान हो या
तीन तलाक़। सब तो पहले से ही संसद में विचाराधीन पड़े हुए हैं/थे। क्या यही है
सामाजिक-आर्थिक सुधारों के प्रति ‘प्रतिबद्धता’ और ‘मजबूत इरादे’? क्या यही है संसदीय
जनतांत्रिक व्यवस्था की नैतिकता? क्या यही है लोकतंत्र की परम्परा, नीति और मर्यादा? यह तो ‘अध्यादेश राज’ और शाही निरंकुशता
ही नहीं, अंग्रेजी हकुमत की विरासत का विस्तार है। ऐसे नहीं हो सकता/होगा
‘न्यू इंडिया’ का नव-निर्माण। अध्यादेशों के भयावह परिणामों से देश
की जनता ही नहीं, खुद राष्ट्रपति हैरान...परेशान होते रहे हैं।
मुस्लिम महिला
विवाह का अधिकार संरक्षण विधेयक, 2017
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के
पांच न्यायमूर्तियों
की संविधान-पीठ द्वारा (22 अगस्त, 2017) मुस्लिम समाज में प्रचलित ‘तीन तलाक’ को निरस्त करने के
बाद, ‘तीन तलाक’ संबंधी ‘मुस्लिम महिला
विवाह का अधिकार संरक्षण विधेयक, 2017’ शीतकालीन अधिवेशन में पेश करने के लिए
सूचीबद्ध हुआ। हालाँकि, फैसले के तत्काल बाद केंद्रीय कानून
मंत्री रविशंकर प्रसाद ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा था कि फैसले के
क्रियान्वयन के लिए अलग से कानून बनाए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उस समय
केंद्र सरकार, कानून बनाए जाने के पक्ष में नहीं थी। बाद में तर्क यह दिया गया कि
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर ‘तीन तलाक़’ की प्रथा जारी रही
और कोई आमूल-चूल बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था। लोकसभा में सत्ताधारी दल का बहुमत
होने के कारण विधेयक पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में आकर अटक-लटक गया।
राज्य सभा में बहस के दौरान, सत्ताधारी दल के सहयोगी भी, विपक्ष के साथ खड़े
नजर आए। लगता है कि सरकार इस विधेयक/अध्यादेश पर बहस के माध्यम से, 2019 के चुनावी बेड़े को
पार ले जाना चाहती है। पक्ष-विपक्ष की नीति और नीयत, संदेह के घेरे में
होना स्वाभाविक है। प्रतिपक्ष की नज़रों में “धार्मिक प्रतिशोध-प्रतिहिंसा
से उपजा विधेयक, स्वागत योग्य नहीं”।
अध्यादेश या संवैधानिक
धोखाधड़ी
संविधानानुसार तो अध्यादेश ‘असाधारण
परिस्थितियों’ में ही, जारी किये जा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट
तक कह चुकी है कि ‘अध्यादेशों’ के माध्यम से सत्ता बनाए-बचाए रखना, संवैधानिक धोखाधड़ी
है’। राज्यसभा में बहुमत नहीं है तो, संसद का संयुक्त
सत्र बुलाया जा सकता था/है। हालांकि 1952 से आज तक केवल चार बार, संयुक्त सत्र के माध्यम
से विधेयक पारित किए गए है। संयुक्त सत्र बुला कर विधेयक पारित कराना, भले ही संवैधानिक है
लेकिन व्यावहारिक बिलकुल नहीं। जानते हो ना! संविधान के अनुच्छेद 123 (दो) के तहत छह
महीने के भीतर ‘अध्यादेश’ के स्थान पर विधेयक पारित करवाना
पड़ेगा और अनुच्छेद 85 के तहत छह महीने की अवधि संसद सत्र के अंतिम दिन से लेकर, अगले सत्र के पहले
दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए। पहले की तरह अगर लोकसभा और राज्यसभा से मंजूरी नहीं
मिली तो?
निश्चय ही संसद का कामकाज ठप होने की
बढ़ती घटनायें, गहरी चिन्ता का विषय हैं । विपक्ष को विरोध का अधिकार है, पर संसद में हंगामा
करके बहुमत को दबाया नहीं जा सकता। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की जिम्मेदारी है कि मिल
बैठ कर आम सहमती बनायें । विपक्षी हंगामे या हस्तक्षेप से बचने के लिए, अध्यादेश का रास्ता
बेहद जोखिमभरा है। अपनी भूमिका और विवेक के माध्यम से विपक्ष का सहयोग जुटाते.
क्या आये दिन अध्यादेश जारी करने का, कोई व्यावहारिक समाधान या विकल्प नहीं? तीन तलाक़ विधेयक
पारित ना होने के बाद ऐसा क्या हो गया कि अध्यादेश को लाने की तत्काल जरूरत पड़ गई।
ऐसे समय में अध्यादेश लाने से मुस्लिम महिलाओं को क्या लाभ?
हाँ! हाँ! हम जानते हैं कि जिस दिन (26 जनवरी,1950) संविधान लागू हुआ, उसी दिन तीन और उसी
साल 18 अध्यादेश जारी करने पड़े. नेहरु जी ‘जब तक रहे
प्रधानमंत्री रहे’ और उन्होंने अपने कार्यकाल में 102 अध्यादेश जारी
किये. इंदिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल में 99, मोरार जी देसाई ने 21, चरण सिंह ने 7, राजीव गाँधी ने 37, वी.पी.सिंह ने 10, गुजराल ने 23, वाजपेयी ने 58, नरसिम्हा राव ने 108 और मनमोहन सिंह ने
(2009 तक) 40 अध्यादेश जारी करे-करवाए। सत्ताधारी दलों के सभी नेता संविधान को
ताक पर रख, अनुच्छेद 123 का ‘राजनीतिक दुरूपयोग’ करते रहे हैं. क्या
‘अध्यादेश राज’ कभी खत्म नहीं होगा?
राष्ट्रपति भवन कई बार ‘संकेत’ दे चुका है कि अगली
बार किसी भी अध्यादेश पर, महामहिम अपने संवैधानिक अधिकारों, राष्ट्रीय हितों, राजनीतिक दायित्वों
और संसदीय परम्पराओं का हवाला देकर गंभीर सवाल खड़े कर सकते हैं। एक बार किसी भी
विधेयक, अध्यादेश या मंत्रीमंडल की सलाह को मानने से इनकार भी कर सकते हैं
या पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो, यह मौजूदा सरकार के
लिए सचमुच मुश्किल की घड़ी होगी। आखिर राष्ट्रपति कब तक ‘रबर की मोहर’ बने रहेंगे?
बताने की जरुरत नहीं कि आर.सी. कूपर
बनाम भारतीय संघ (1970)
में संविधान के अनुच्छेद 123 की वैधता को चुनौती
दी गई तो, सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से ही मन कर दिया और ‘तत्काल आवश्यकता’ के सवाल पर निर्णय
लेने के काम राजनेताओं पर छोड़ दिया। अध्यादेशों को लेकर राज्यपालों की भूमिका पर
अनेक बार गंभीर प्रश्न खड़े हुए हैं. इस संदर्भ में डॉ. डी. सी. वाधवा बनाम बिहार
राज्य (ए.आई.आर.1987
सुप्रीम कोर्ट 579) में सर्वोच्च
न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें कहा गया है कि बार-बार ‘अध्यादेश’ जारी करके कानून बनाना
अनुचित और गैर संवैधानिक है। अध्यादेश का अधिकार असामान्य स्थिति में ही अपनाना
चाहिए और राजनीतिक उदेश्य से इसके इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जा सकती।
कार्यपालिका ऐसे अध्यादेश जारी करके, विधायिका का अपहरण नहीं कर सकती।
उल्लेखनीय है कि कोयले सम्बंधित
अध्यादेश 2014 को चुनौती देते हुए, जिंदल पावर एंड स्टील, बीएलए पावर और सोवा
इस्पात लिमिटेड ने दिल्ली, मध्य प्रदेश और कोलकाता उच्च न्यायालय
में पांच अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई। इन सभी याचिकाओं में कोयला अध्यादेश की संवैधानिक
वैधता पर गंभीर प्रश्न उठाए गए हैं। केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालयों के अंतरिम
आदेश पर रोक लगाने और सभी याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय में ट्रांसफर करने की
गुहार लगाईं। कोयला मंत्रालय की तरफ से अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि सभी लंबित
याचिकाओं में कानूनी मुद्दे एक जैसे ही हैं। इसका विरोध करते हुए वरिष्ठ वकील और
कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि कंपनी के शेयर होल्डिंग पैटर्न में
तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। मगर मुख्य न्यायाधीश एच. एल. दत्तू की
अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने (3 फरवरी, 2015) हस्तक्षेप करने से
साफ़ इनकार कर दिया। अध्यादेशों के संदर्भ में कानूनी लड़ाई का आरम्भ हो चुका है, अंत ना जाने कब और
किस रूप में होगा। 
तीन तलाक़:
संवैधानिक वैधता
उल्लेखनीय है कि शायरा बानो बनाम भारत
गणराज्य (Writ Petition (C) No.118 of 2016) मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायमूर्ति- जस्टिस जे.एस.
खेहर, जस्टिस कूरियन जोसेफ, जस्टिस यू. यू. ललित, जस्टिस आर.एफ.
नरीमन और जस्टिस अब्दुल नजीर की संविधान-पीठ ने, ‘तीन तलाक’ को निरस्त करने का
आदेश दिया था। इस फैसले के बाद, पूरे देश में ऐसा लगा कि मुस्लिम
महिलाओं की आजादी का नया युग शुरू हो गया है। अब मुस्लिम स्त्रियों पर दमन, अत्याचार या अनाचार
का सिलसिला एकदम खत्म जाएगा। केंद्र सरकार ने इसका भरपूर श्रेय लिया और विपक्षी दल फैसले
का विरोध भी नहीं कर पाए, शायद इस डर से कि विरोध कहीं उनके ‘वोट बैंक’ में सेंध न लगा दे।
395 पेज के फैसले में तीन तलाक को निरस्त
करने का फैसला 3-2 के बहुमत से लिखा गया। 1937 के शरियत लॉ में तीन तलाक का प्रावधान
सेक्शन 2 में था, जिसे पांच जजों की बेंच ने निरस्त कर
दिया। जस्टिस खेहर और जस्टिस अब्दुल नजीर तीन तलाक को निरस्त करने के पक्ष में
नहीं थे। दोनों ने इस प्रावधान को असंवैधानिक नहीं माना। लेकिन साथ ही यह भी कहा
कि चूंकि यह महिलाओं के हितों के खिलाफ है, इसलिए इस पर सरकार
और संसद को कानून बनाना चाहिए। यानी केवल दो जजों ने कानून बनाये जाने की बात कही
थी। इसका सीधा सा अर्थ है कि सरकार के लिए कानून (वो भी आपराधिक कानून) बनाए जाने
की कोई बाध्यता नहीं थी। तीन तलाक का प्रावधान खत्म हो गया और नया कानून बनने तक, यदि कोई अपनी पत्नी
को तीन तलाक दे देता है, तो उसे सजा या ज़ुर्माना नहीं! पति
पत्नी से कहेगा कि वह नहीं मानता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को, जाओ अदालत। ऐसे में
मुस्लिम महिलाएं (जिनमें से अधिसंख्य अशिक्षित-गरीब और गांव कस्बों में रहने वाली
हैं) अदालतों के चक्कर काटती रहती। बिना तीन तलाक़ कहे, पत्नी को छोड़ सकता
है, 90 दिनों में तीन बार तो कह ही सकता है। अनेक चोर रास्ते अभी भी मौजूद
हैं।
अन्य कानूनों से
तुलनात्मक अध्ययन
आश्चर्यजनक है कि भारतीय दंड संहिता
की धारा 494 के अंतर्गत, पति-पत्नी के रहते, दूसरा विवाह करने
की सज़ा सात साल मगर अपराध असंगेय और जमानत योग्य है लेकिन तीन तलाक़ की सज़ा तीन साल
मगर अपराध संगेय और गैर-जमानत योग्य। क्यों? दूसरा विवाह करना, तीन तलाक़ से कम
गम्भीर अपराध है, तो सज़ा सात साल क्यों? संगेय ही नहीं, जमानत योग्य भी।
दोनों प्रावधान एक साथ पढ़ते हुए, कानून अपनी समझ से बाहर जा रहा है। बाल
विवाह कानून के तहत विवाह हो जाए तो अवैध होने योग्य माना जाता है, लेकिन तीन तलाक़
अवैध। मतलब बाल विवाह होने दो, तीन तलाक़ नहीं...नहीं...नहीं!
भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में अपवाद यह भी है
कि अपनी बालिग पत्नी से बलात्कार तक को अपराध नहीं समझा जाता क्योंकि पति को
कानूनी अधिकार है। पत्नी से बलात्कार संवैधानिक है मगर तीन तलाक़ अपराध! यही नहीं, तीन तलाक़ पर फैसले
के समय (2017) भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के अनुसार किसी भी
व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति की पत्नी के साथ व्यभिचार दण्डनीय अपराध
(असंगेय, जमानत योग्य) था मगर किसी भी अनब्याही, तलाक़शुदा या विधवा
से सेक्स अपराध नही। और हाँ! पत्नी को व्यभिचारी पति के खिलाफ शिकायत तक का अधिकार
नही था। पर तीन तलाक़ संगेय और गैर-जमानती अपराध। तीन साल की सज़ा। वेश्यावृति कानून
में ग्राहक अपराधी नहीं। फलने-फूलने दो व्यभिचार और देह व्यापार। तीन तलाक़ विधेयक
का अन्य कानूनों से तुलनात्मक अध्ययन करते-करते दिमाग चकराने लगता है। पत्नी से
बलात्कार, सुंदरी से व्यभिचार औरतों के देह व्यापार की कानूनी छूट है या ‘जेंडर-जस्टिस की
लूट’!
स्त्री सशक्तिकरण के नाम पर, यह कैसा
उदारवादी-सुधारवादी छायायुद्ध है! बेहद नाटकीय पक्ष-विपक्ष। देश की ‘आधी-आबादी’ भूली नहीं है कि
महिला आरक्षण विधेयक भी तो (9 मार्च, 2010) राज्यसभा में पास हुआ था, जो आज तक लोकसभा
में अटका-लटका है। क्या मासूम सा बहाना है कि क्या करें, ‘सर्व सहमति’ बन ही नहीं पा रही।
