ख़लील जिब्रान का नाम विश्व के उत्कृष्ट साहित्यकारों में ख़ास सम्मान के साथ गिना जाता है। इतना ही नहीं आपको एक लेखक के अलावा कवि और चित्रकार के रूप में भी विश्व भर में जाना जाता है। ख़लील जिब्रान के लेखन में पाखंड के प्रति विद्रोह, व्यंग्य एवं प्रेरणास्पद विचारों का भाव ही परिलक्षित नहीं होता बल्कि इसमें गहरी जीवन अनुभूति, संवेदना व भावात्मकता भी स्पष्ट दिखाई देती है। आपका साहित्य जीवन दर्शन से ओत-प्रोत है और इसीलिए प्रेम, न्याय, कला, आध्यात्म के अलावा धार्मिक पाखंड, वर्ग संघर्ष, समाज और व्यक्ति प्रमुख तौर पर आपके विषय रहे हैं। कहा जा सकता है कि प्रेरणा देने वाले विचारों का रचनात्मक प्रस्तुतिकरण आपके साहित्य की वेशेषता है। आपकी कहानियाँ पाठकों को आनंदित तो करती ही हैं साथ ही हमें जीवन जीने की कला से भी परचित कराती हैं।
आज पढ़ते हैं ऐसी ही कुछ दो कहानियाँ "ख़लील जिब्रान" की
रुदन और हास्य
नील नदी के किनारे, संध्या समय, एक बिज्जू और एक मगर की भेंट हुई, उन्होंने रुककर एक दूसरे का अभिवादन किया।
बिज्जू ने पूछा - "कहो कैसे हाल-चाल हैं ॰॰॰?"
मगर ने उत्तर दिया- "मेरा तो बुरा हाल है। जब कभी मैं वेदना और शोक से आकुल होकर रो पड़ता हूँ तो सारे जीव-जंतु कह उठते हैं, 'उंह, ये तो मगर के आंसू हैं', उनके ये शब्द मेरे हृदय को कितनी पीढ़ा पहुँचाते हैं, यह मैं कैसे बताऊँ॰॰॰?"
तब बिज्जू बोला- "तुम तो अपना रोना ले बैठे, लेकिन जरा मेरी बात पर भी गौर करो। जब मैं सृष्टि के सौंदर्य, रहस्य और विचित्रता को देखकर आनंदातिरेक में अट्टहास कर उठता हूँ, जैसे दिवस हँसता है, तो लोग कहते हैं, 'उंह, यह तो बिज्जू का अट्टहास है।"
मेले में
एक मेले में किसी देहात से एक लड़की आई, अत्यंत सुंदर, गुलाब और कुमुद सा मुखड़ा, बालों पर सूर्यास्त की छटा और होठों पर उषा की मुस्कान।
मनचले युवकों ने जैसे ही उसे देखा कि उसके चारों ओर मडराने लगे। कोई उसके साथ नाचने को उत्सुक था तो कोई उसके सम्मान में भोज देने को प्रस्तुत। वे सभी लालायित थे उसके अरुण कपोलों को चूम लेने के लिए। आख़िर वह मेले ही तो था।
लेकिन वेचारि लड़की एकदम भौंचक्की हो गई, सकपका गई । उसे उन नवयुवकों का यह व्यवहार बहुत बुरा लगा। कितनों को उसने बुरा-भला भी कहा और दो एक तो उसे थप्पड़ भी लगाने पड़े। अंत में वह उनसे पीछा छुड़ाकर भागी।
घर जाते हुए वह रास्ते भर अपने मन में सोचती रही, "मैं तो तंग आ गई ! कितने असभ्य और जंगली हैं ये लोग । एकदम असहाय है इनका व्यवहार ।"
उस मेले और उन नवयुवकों पर निरंतर विचार करते हुए उस सुंदर सुकुमारी ने एक वर्ष बिता दिया। वह फिर मेले में आई । उसी तरह गालों में गुलाब और कुमुद, बालों में सूर्यास्त का सुनहलापन और होठों पर सूर्योदय की मुस्कान लिए।
लेकिन उन्हीं नवयुवकों ने उसे देखते ही आँखें फेर लीं। उसे सारे दिन बिल्कुल अकेले रहना पड़ा, किसी ने उसे पूछा तक नहीं ।
संध्या के समय वह घर की ओर जाते हुए मन-ही-मन बड़बड़ाती गई, मैं तो तंग आ गई ! कितने असभ्य और जंगली हैं ये लोग, एकदम असहाय है इनका व्यवहार ।"
- अनुवाद - अजय कुमार
प्रतीकात्मक चित्र- google से साभार