हरसिंगार-सी लडकी : कहानी (मनीष वैद्य)

कथा-कहानी कहानी

मनीष वैद्य 845 6/25/2020 12:00:00 AM

तीखे नाक–नक्श, गोरी–चिट्टी, छरहरे बदन और लम्बे कद की, उसकी आँखें हल्के कत्थई रंग की थी और गहरी भी। उनमें गजब की कशिश थी जैसे डूबो देना चाहती हों।

हरसिंगार-सी लडकी

यकायक पल भर को तो यही लगा कि शायद बिजली कौंधी हो आसमान से या धरती ही डोल गई हो अपनी धुरी से। यह उसी तरह अप्रत्याशित और औचक हुआ था जैसे कोई सपना देख रहा हो, हकीकत में तो ऐसा कभी–कभी ही हो पाता है। वह कुछ देर के लिए स्मृति शून्य हो गया था। उसे कुछ भी याद नहीं रहा। कुछ भी नहीं। जैसे समाधि में चला गया हो। यह उस अकेले की स्थिति नहीं थी, वहाँ मौजूद करीब–करीब सभी लडके–लडकियों की कमोबेश यही स्थिति थी। किसी अजूबे की तरह प्रवेश हुआ था उसका यहाँ, वह यहाँ की तो थी ही नहीं पर यहाँ अब तक किसी ने आमने–सामने प्रत्यक्ष रूप से ऐसी किसी लडकी को कभी कहीं देखा भी नहीं था। हो सकता है किताबों में ही देखा हो या न भी देखा हो।

शासकीय हाई स्कूल जूनापानी के परिसर में हर कोई हतप्रभ था। हतप्रभ और उत्सुक उसके बारे में जानने को। उत्सुकता भी बेताबी की हद तक। वहाँ मौजूद कई जोड़ी आंखों में केवल सवाल ही सवाल थे। उसे लेकर कई-कई तरह के सवाल हर किसी के मन में थे। वह कहाँ से आई है, यहाँ क्यों आई है, क्या यहाँ ही पढेगी वह, यहाँ ऐसी लडकी कैसे पढ़ सकती है, जैसे कई सवाल थे पर जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं थे।

यहाँ पहले से पढ़ रही लडकियों के झुण्ड के पास जब वह खड़ी हुई तो लडकियाँ भी वहाँ से खिसक कर थोड़ी दूर हो गई मानों वह उनके झुण्ड में भी लडकों की ही तरह उसे शामिल करना नहीं चाहती हों। उसे शायद वहाँ की लडकियों से इस तरह की उम्मीद नहीं रही हो, सहसा वह एक पल के लिए अचकचाई. यह एक पल बहुत छोटा था समय के मान से। शायद समय की छोटी इकाई सेकंड से भी बहुत छोटा। पर सबकी नजरें करीब–करीब उसी की ओर थी लिहाजा उसकी अचकचाहट पहचान ली गई थी। वह लडकियों के झुण्ड से परे ही एक तरफ अकेली खड़ी हो गई. अब उसके चेहरे पर पहले की ही तरह चमक और स्थिर भाव थे जैसे इस बीच कुछ हुआ ही नहीं। कुछ घटा ही नहीं वहां।

वह लडकी ही थी पर यहाँ की आम लडकियों से कितनी अलग। जैसे वह किसी दुसरे देश की हो या किसी दुसरे ग्रह की। बनाव–सिंगार, पोशाख–पहनावा, चाल–ढाल, हाव–भाव कहीं से भी तो नहीं मेल खाती है वह यहाँ की बाकी लडकियों से। एकदम अलग, सब कुछ करीब–करीब विरोधी। अंग्रेज़ी में कहते हैं न कंट्रास। हाँ, तो कंट्रास ही थी वह यहाँ के लिहाज से। जितनी कंट्रास उतनी ही खुबसूरत, गुलबदन और जहीन भी। जैसे मुक्कमिल हो हर लिहाज से। तीखे नाक–नक्श, गोरी–चिट्टी, छरहरे बदन और लम्बे कद की, उसकी आँखें हल्के कत्थई रंग की थी और गहरी भी। उनमें गजब की कशिश थी जैसे डूबो देना चाहती हों। उसे लगा वह हरसिंगार-सी लडकी है और किसी भी पल झरते हुए पूरी धरती को ढँक लेगी। उसकी खुशबू हवा के साथ सारे आकाश को घेर लेगी। उसका अक्स देखने वह नदी के पानी में उतरेगी और नदी कैनवास में बदल जाएगी। उसे लगता कि एक दिन हरसिंगार के फूलों की तरह नाजुक उसका बदन भारहीन हो उठेगा।

उसने बाकी लडकियों की तरह बुशर्ट–घाघरा या सलवार–कमीज़ की जगह बेलबोटम पेंट के साथ चटख बड़े–बड़े लाल फूलों वाला टॉप पहन रखा था। पैरों में चप्पलों की जगह ऊँची एडी के डिजायनर सेंडिल थे। उसने तेल से भीगे बालों में रिबन बांध कर घोडा चोंटी नहीं की थी, उसके बाल हिप्पी कट कतरे हुए थे करीने से। उसने बालों को समेट कर हेयर बैंड लगाया हुआ था। चेहरे के दोनों ओर आगे की दो अर्द्धवृत्ताकार लटें बार–बार उसके गालों को छूने आ जाती, वह बार–बार उन्हें झटक कर पीछे कर देती। उसने कानों में झुमकियों की जगह बड़ी-बड़ी ईयरिंग पहन रखी थी पर नाक में कुछ नहीं था, न कांटा न नथ। न उसके माथे पर बिंदी थी, न हाथों में चूड़ियाँ। पैरों में पाजेब भी नहीं। बाएं हाथ की कलाई पर छोटी-सी सुनहरे फ्रेम की लेडिस घड़ी और दांयी कलाई में एक कड़ा। वह जहाँ भी होती, खुशबू का एक दायरा उसके चारों ओर फ़ैल जाया करता। शायद वह कोई खुशबूदार क्रीम या पाउडर लगाती रही होगी।

अपरिचय और आशंकाओं के बादल भी धीरे–धीरे छंटने लगे। कक्षा लगते ही सबसे पहले भरी जाती है हाजरी। हाजरी के साथ ही कई बाते एकदम साफ़ हो गई. उसका नाम था भावना और उन्हीं की क्लास में पढने आई थी। क्लास में पढने वाले करीब–करीब सभी लडके खुश थे उसके इसी क्लास में पढने से। दूसरी कक्षाओं के लडके कुछ उदास थे। पर इतने भी नहीं, आखिर स्कूल तो एक ही था।

शाम होते–होते तक तो यह भी पता लग ही गया कि नए-नए आये थानेदार की बेटी है भावना। पहले उनकी पोस्टिंग शहर के ही किसी थाने पर थी तो भावना भी वहीं के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ती थी। सरकारी नौकरी वालों का तो टोकरी में घर होता है खानाबदोशो की तरह। आज यहाँ तो कल वहां। उठाई टोकरी और चल दिए नई जगह। बच्चे भी फिंकाते रहते हैं शटल काक की तरह उनके साथ यहाँ–वहां। भावना के साथ भी यही हुआ था। कहाँ वह शहर का प्राइवेट स्कूल और कहाँ यह नीरे गाँव का सरकारी स्कूल। शहर से पचास कोस तो कस्बे से बीस कोस दूर यह जूनापानी गाँव। जूनापानी है या कालापानी वह समझ नहीं सकी। कालापानी ही तो है यह। कालापानी की सजा ही तो भुगत रहे हैं यहाँ के लोग। करीब 15 कोस धूल-धंखाड़ भरी ऊँची–नीची गाड़ी गरवट में हिचकोले खाते पंहुचते हैं यहां। कैसे रह लेते हैं यहाँ के लोग बिना सुविधाओं और साधनों के. कस्बे तक जाने की पक्की सड़क नहीं। बरसात में पांच महीने कट जाता है यह इलाका पूरी दुनिया से। तब यदि जाना ज़रूरी ही हुआ तो घुटनों–घुटनों कीचड़ में टट्टूओं या भैंसों पर चढ़ कर ही जा सकते हैं। बरसात बाद जब नदी में पानी थोडा कम होता तब कहीं एकाध मोटर चलने लगती। रोज सुबह जाकर शाम तक कस्बे से लौट आती मोटर।

इलाज के नाम पर सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल था, जहाँ पूरी बरसात भर कोई नहीं झांकता, ताला लटकता रहता। सरकारी हाई स्कूल में भी सिर्फ़ 4 शिक्षक हैं प्रिंसिपल सहित। चारों ही कस्बे से आते हैं पढाने। जब चाहें तब छुट्टी मना लेते हैं शिक्षक भी। किसी को कोई काम तो किसी को कुछ। अंग्रेज़ी और विज्ञान पढ़ने वाले तो कोई हैं ही नहीं। ऊपर से पढाई का तो कोई स्तर ही नहीं। अब प्रिंसिपल तो मीटिंग और रिपोर्ट में ही उलझे रहते, वे पढाने से रहे और पढ़ा भी लें तो क्या, उनका साफ़ मानना था कि यहाँ वे तो क्या खुद ब्रम्हा भी आ जाये तो इन जाहिलों को नहीं पढ़ा सकते। अब सरकार ने स्कूल खोल दिया है तो उन्हें नौकरी करना ही है। मदनमोहन माडसाब कस्बे के ही हैं और उनका लंबा–चौड़ा कुडमा है। 25 लोगों के कुडमे में उनके यहाँ कोई फुर्सत में नहीं हैं। कोई खेती में लगा है तो कोई बिजनेस में बिजी है। अब ऐसे में नाते–रिश्तेदारी का सारा जिम्मा उन्हीं का है। कितनी ही कोशिश करें पर काम निकल ही आता है। अब यहाँ वैसे भी उन्हें हिन्दी ही पढाना है और हिन्दी में कौन फ़ैल होता है। पढाये या नहीं पढ़ायें क्या फरक पड़ता है इससे। वह तो पढाने का शौक है, नहीं तो घर पर ही डेढ़ सौ बीघा जमीन है। ठाकुर सर के यहाँ भी अच्छी खासी खेती-बाड़ी है तो उससे जितना वक्त मिल जाता है, आ जाते हैं पढाने वे भी। व्यासजी को कोई काम नहीं बस पूजन-पाठ या ब्रह्म भोज का काम नहीं हो तो चले ही आते हैं बेचारे। हाँ आ कर थक भी जाते हैं शुगर और बीपी दोनों है, 50 के पार जा रहे हैं अब कुछ ही साल घट रहे हैं, ये भी निपट जाएँ तो हरि ओम तत्सत्... बोर्ड परीक्षाओं में यहाँ का रिजल्ट हासिल से मापा जाता है। जैसे 104 ने परीक्षा दी और 4 पास हुए तो हासिल आए सौ। सभी अभ्यस्त हो चुके हैं इस सबके और किसी को इस सबसे कोई शिकायत भी नहीं है। 

तो इन सबके बीच इस नई लडकी के स्कूल में आने से वहाँ की तासीर अब तेजी से बदलने लगी थी। उस क्लास की ही नहीं, पूरे स्कूल की हाजरी बढ़ने लगी थी। लडकियों ने भी उसे अपने साथ शामिल कर लिया था धीरे–धीरे। लडके-लडकियों को सौंदर्यबोध हो रहा था पहली बार अलग तरह से। उस लडकी का व्यक्तित्व अब उन्हें खींचने लगा था। बाकी लडकियों के पहनावे में ख़ासा बदलाव आ रहा था। अधिकतर अब सलवार सूट पहनने लगी थी। हालाँकि अब भी लडके–लडकियाँ आपस में बात नहीं करते थे। कभी कभार बहुत ज़रूरी होने पर ही कोई बात होती पर वह भी बहुत संक्षिप्त। वे अलग–अलग झुंडों में खड़े रहते परिसर में और क्लास में भी लडकियों की बैठने की जगह अलग होती थी। फिर भी कुछ हुआ था कि लडके भी अब धुर्रे नहीं रह गये थे। वे भी कंघी–वँघी काढ़कर नील से ही सही अपने कपड़ों में सफेदी की चमकार बढ़ाने लगे थे। भावना खड़ी बोली बोलती और उसमें कुछ–कुछ अंग्रेज़ी के शब्द भी जोड़ लेती। सॉरी और थैंक यू जैसे शब्द तो बिखरते ही रहते हमेशा उसके आस–पास। अब वे घर–परिवार और खेती–किसानी की बातों की जगह दिखाने को ही सही पर पढाई की बातें करने लगे थे। वे भी अपनी मालवी बोली छोड़कर खड़ी बोली सीख रहे थे। वे अपना प्रभाव जमाने के लिए अंग्रेज़ी के निबंध को रटकर इस तरह कंठस्थ कर लेते कि एक ही साँस में किसी मन्त्र की तरह धाराप्रवाह सुना देते और निबन्ध के आखिर में फुलस्टॉप भी बोल जाते। यहाँ तक कि मदनमोहन माडसाब भी हिन्दी पढाते–पढाते दो चार अंग्रेज़ी के शब्द बोल ही लिया करते। अब तक वे अंग्रेज़ी को भले ही धुर विदेशी भाषा मानकर हिकारत करते रहे हों लेकिब अब वे इसे संपर्क भाषा मान कर हिन्दी की छोटी बहन बताने लगे थे। वे अब बिहारी और घनानन्द के अतिशयोक्तिपूर्ण नायिका नख-शिख वर्णन को नयी भाव–भंगिमाओं के साथ समझाने लगे थे। वैसे भी मदनमोहन माडसाब के रंगीले मिजाज के कई किस्से कस्बे से गाँव तक सुने–सुनाये जाते हैं।

सागर और शंकर मदनमोहन माडसाब के इस बदलाव को बड़ी गंभीरता से ले रहे थे। उन्हें लगता था कि इस तरह तो एक दिन वह माडसाब के प्रभाव में आ जाएगी। जबकि उनका पक्का यकीन यह था कि इस क्लास तो क्या पूरे स्कूल में सबसे ज़्यादा पढ़ाकू सागर की ओर ही भावना का झुकाव बढ़ रहा है। शंकर इस बात को सागर से इतने यकीनी तौर पर कहता कि सागर के अंदर का संशय हल्का होकर हवा हो जाया करता। सागर को प्रत्यक्ष ऐसा कभी लगता नहीं था कि वह उस पर कोई खास ध्यान दे रही है पर उसे शंकर पूरे भरोसे से बताता था कि किस तरह वह पूरे स्कूल में सिर्फ़ सागर को ही पसंद करती है और किस तरह कई बार खुद वह शंकर से उसके बारे में, उसके घर और पढाई के बारे में पूछती रहती है। सागर और शंकर की दोस्ती पहले ऐसी नहीं थी पर इन दिनों दोनों के बीच कुछ ज़्यादा ही पटने लगी थी। स्कूल से छुट्टी के बाद दोनों साथ ही घर लौटते। दोनों शाम को मंदिर की ओर घुमने निकल पड़ते। क्लास में भी पास–पास ही बैठते। उनमे इससे पहले कभी इतनी दोस्ती नहीं रही थी। सागर हमेशा किताबों में डूबा रहता तो शंकर को अपनी शरारतों से ही समय नहीं मिल पाता। वे जैसे दो विपरीत ध्रुव थे, लेकिन उस लडकी के आने के बाद न जाने क्या हुआ था कि विपरीत ध्रुव होते हुए भी दोनों पास–पास आ रहे थे। शायद बहुत पास। सागर के घर की माली हालत ठीक नहीं थी और पिता को लकवा हो जाने से माँ ही उसे जैसे–तैसे पढ़ा रही थी। उसे पढने के सिवा कहीं किसी तरफ मन नहीं लगाना है। यह उसने पक्का कर लिया था, पर शंकर उस लडकी की बात छेड़ देता तो वह भी सुनने का मोह नहीं छोड़ पाता। शंकर के पिता की अच्छी खासी दुकान थी और उसे कोई चिंता नहीं थी, वह जैसे–तैसे बस पास हो जाना चाहता था।

सागर और शंकर सहित तमाम लडके भावना के पिता यानी नए थानेदार से बहुत डरते थे। रौबदार कद-काठी में पुलिस की डांगरी पहने वे जिधर से गुजरते, सन्नाटा-सा खिंच जाता। उनके चेहरे पर झबरीली कटारा मूंछें उनके रौब को और भी बढ़ा देती थी। वे कोतवाली के सामने ही पेड़ पर उल्टा लटकाकर चोर-डकैतों को ऐसा पीटते कि देखने वालों की भी रूह तक कांप उठती। वे कम ही बोलते थे। उनका किसी को आँख भर देखना ही बहुत था। वे जब घोड़े से इलाके की गश्त पर निकलते तो अक्सर औरतें और कमजोर दिल वाले अपने–अपने घरों में घुस जाया करते।

शंकर की बात पर भरोसा करने की कुछ ठोस वजहें भी थी सागर के पास। पहली और सबसे मजबूत वजह थी शंकर की बड़ी बहन राधा। राधा उनसे दो क्लास आगे पढ़ती थी और अपनी क्लास में अकेली लडकी। उसके साथ की सभी लडकियाँ फेल हो चुकी थी बोर्ड परीक्षाओं में। उसका दिमाग पढने में बहुत तेज था। पूरे स्कूल की लडकियों के लिए किसी रोल मॉडल की तरह थी वह, जो स्कूल में पढाई नहीं होने के बाद भी अच्छे नम्बरों से पास होती रही हमेशा। सारी लडकियाँ राधा के इर्द–गिर्द मडराती रहती। किसी को कुछ समझ में नहीं आता तो राधा उन्हें बता देती। भावना से राधा की खास घुटने लगी थी। वह हमेशा राधा के पीछे पुच्छ्ल्ली की तरह चिपकी रहती क्लास के पहले और बाद में। राधा का घर स्कूल के पास ही था। लिहाजा ज़रूरी परिस्थितियों में प्रसाधन के लिए भी लडकियाँ वहाँ चली जाती थी। स्कूल में ऐसी कोई व्यबस्था नहीं थी। भावना भी स्कूल से पहले राधा के घर आ जाती और फिर वहाँ से दोनों साथ ही जाती। कोतवाली के पास बने उसके सरकारी क्वार्टर से राधा के घर तक आने के दो रास्ते थे। एक गाँव की चौपाल से गुजरता था, जहाँ गाँव भर के फुरसतिये और लम्पट नजरें गडाये बैठे रहते और दूसरी चौपाल के पीछे वाली गली, जो ज्यादातर फुर्सत में ही रहती। इस पर कभी-कभार ही कोई नजर आता। गाँव की सभी लडकियाँ और औरतें आने–जाने के लिए इसी गली का सहारा लेती थी। लिहाजा इसे औरतों की गली भी कहा जाता था। वह लडकी भी इसी गली से आती–जाती थी।

शंकर की बात में इसलिए भी वजन था कि गाहे–बगाहे खुद भावना भी क्लास में उसे देख लिया करती, कभी–कभी तो उनकी नजरें भी आपस में मिल जाया करती। ख़ास तौर पर तब जब वह क्लास में किसी सवाल का सही–सही जवाब दे देता। एक-दो बार तो खुद उसी ने उसकी पढाई की तारीफ़ भी की थी। कभी–कभार वह उससे उसकी कॉपी भी मांग लिया करती। पिछली बार टेस्ट में उसे और भावना को बराबर–बराबर नम्बर मिले थे। एकाध बार वह सागर की ओर मुस्कराई भी थी या शायद उसे ही ऐसा भ्रम हो गया हो। इनमें से कोई ऐसा ठोस कारण नहीं था जिसकी बिना पर यह मान लिया जाये कि वह उसकी ओर खिंच रही है। यह सब ऐसी वजहें थी जो किसी भी लडके से कोई भी लडकी कर सकती थी। पर उसके मन में क्या कुछ चल रहा है, यह शंकर के सिवा और कौन जान सकता था। राधा के घर आने–जाने से शंकर से सभी लडकियाँ बातचीत कर लेती थी। बिना किसी झिझक के. शंकर कुछ लडकियों से हलकी–फुल्की मजाक भी कभी कर लिया करता था पर सब भाई की तरह उसके कहे का बुरा नहीं मानती थी। शंकर उसे जो कहता वह मान तो लेता पर अंदर ही अंदर उसे कहीं संशय ज़रूर था। कोई कीड़ा था जो कुलबुलाता रहता अंदर ही अंदर। न भरोसा कर पा रहा था और न ही विश्वास।

एक दिन शाम को वे मंदिर से घर लौट रहे थे। तब सागर ने शंकर से कहा कि वह भावना से उसकी बात करवा दे ताकि वह खुद अपने संशय को दूर कर सके. शंकर ने कहा कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है। मैं कल ही उससे बात कर बता दूंगा। एक दो दिन तो यहाँ–वहाँ शंकर टालता रहा पर जब सागर ने बार–बार अपनी बात दोहराई तो उसने बताया कि उससे बात हो गई है। अभी वह परीक्षा की तैयारी में व्यस्त है। आखरी पेपर के बाद घर लौटते वक्त औरतों वाली गली में वह तुमसे मिलकर अपने दिल की बात खुद बताना चाहती है और मैं तुम्हें उससे मिलवा दूंगा। इसी दौर में बोर्ड की परीक्षाएं शुरू हो गई. परीक्षा में सागर के पीछे ही शंकर का भी नंबर आता था। शंकर ने पहले ही सागर को उससे मिलाने के बहाने यह तय कर लिया था कि परीक्षा में वह इस तरह बैठे कि उसकी कॉपी उसे साफ दिखती रहे और वह उससे नक़ल कर सके. यही हुआ भी, हर पेपर में सागर की कॉपी से शंकर लिखता रहा फर्राटे से।

आखिरकार वह पेपर भी हो गया, जिसके बाद उसे उससे मिलना था। उसकी सांसे तेज–तेज चल रही थी। अंदर ही अंदर वह डर रहा था। कहीं उसने अपने पिता से शिकायत कर दी तो...कहीं उसने कुछ कह दिया तो ...नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा। लाख कोशिशों के बाद भी पसीना–पसीना हुआ जा रहा था वह। कहीं शंकर उसे फंसा न दे। कहीं वह गुस्सा न हो जाए. कई–कई आशंकाएं आ–जा रही थी। गला सूख रहा था। क्या कहेगा वह उससे। बोल फूट नहीं रहे थे।

पेपर के बाद इधर जैसे ही औरतों वाली गली में भावना का आना हुआ, पास ही छुपकर खड़े शंकर ने सागर को उसकी ओर धकेल दिया और पीछे से ही चम्पत हो गया। धक्का इतनी जोर का था कि वह उस पर गिरते–गिरते बचा। उधर वह भी इस तरह के ओचक वाकिये से पल भर के लिए अचकचा गई थी। एक पल को पीछे हट कर वह तमतमाते हुई गुस्से से बोली–क्या है यह...इस तरह कहाँ दौड़े जा रहे हो...?

उसे इस तरह गुस्से में फनफनाते देख कर वह सन्न रह गया। उसे पल भर में माजरा समझ आ गया कि कैसे शंकर ने उसे नकल के लालच में फंसा दिया है और अब उसका बचना मुमकिन नहीं है। आज तो वह गया काम से...मुसीबत का एक पल भी कितना बड़ा और त्रासद होता है। कोई तरीका नहीं सूझ रहा था। उसे एक ही पल में आसमान के तारे जमीन पर नजर आ गये। तभी सागर की नजर अपनी चप्पल पर पड़ी जो अनायास दिए धक्के की वजह से टूट चुकी थी। जैसे कोई आस नजर आ गई उसे। सॉरी, चप्पल टूट गई, सॉरी-कहते हुए वह एक तरफ हो गया। उसने एक पल उसे खा जाने वाली नजर से देखा और दूसरे ही पल हल्की-सी मुस्कान बिखेरती वह आगे बढ़ गई. उसे लगा कि गर्मियों की इस दोपहर में वह गली हरसिंगार के फूलों से पट गई है।


मनीष वैद्य द्वारा लिखित

मनीष वैद्य बायोग्राफी !

नाम : मनीष वैद्य
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जन्म -16 अगस्त 1970, धार (म.प्र.)
कहानी संग्रह-  टुकड़े-टुकड़े धूप (2013), फुगाटी का जूता (2017)

सम्मान- प्रेमचन्द सृजनपीठ से कहानी के लिए सम्मान (2017)
यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017)
कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)  
कहानी संग्रह फुगाटी का जूता’ पर  वागीश्वरी सम्मान (2018 )
फुगाटी का जूता’ पर ही अमर उजाला शब्द छाप सम्मान (2018 )     
शब्द साधक रचना सम्मान (2017)
श्रेष्ठ कथा कुमुद टिक्कू सम्मान (2018 )     

हंसपहलकथादेशवागर्थनया ज्ञानोदयपाखीकथाक्रमइन्द्रप्रस्थ भारतीअकारबहुवचनलमहीपूर्वग्रहपरिकथाकथाबिम्बवीणासाक्षात्कारआउटलुकपुनर्नवाअक्षरपर्वनिकटयुद्धरत आम आदमी सहित महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में 70 से ज्यादा कहानियाँ प्रकाशित। कुछ रचनाओं का पंजाबी और उड़िया में अनुवाद। 

पानीपर्यावरण और सामाजिक सरोकारों पर साढे तीन सौ से ज्यादा आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

संप्रति -पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों से जुडाव

संपर्क- 11 ए मुखर्जी नगरपायोनियर स्कूल चौराहा,
 
देवास (मप्र) 
पिन 455001  

मोबाइल - 9826013806                   

manishvaidya1970@gmail.com

 

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पोस्ट की गई टिप्पणी -

मुनीश तन्हा नादौन

18/Aug/2020
बहुत अच्छी कहानी बधाई कृपया अपना नम्बर दें ताकि विस्तार से बात हो सके बधाई साधुवाद

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

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