बुत जब बोलते हैं... : कहानी (सुधा अरोड़ा)

कथा-कहानी कहानी

सुधा अरोड़ा 1461 3/1/2021 12:00:00 AM

"विश्व महिला दिवस" को समर्पित हमरंग की प्रस्तुति "एक कहानी रोज़" 'महिला लेखिकाओं की चुनिंदा कहानी' में आज पहले दिन प्रस्तुत है वरिष्ठ लेखिका "सुधा अरोड़ा" की कहानी । कहानी पर महत्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है "प्रो० अरुण होता जी" ॰॰॰॰॰ कहानी पर आप अपनी टिप्पणियाँ नीचे कमेंट बॉक्स में करें।

बुत जब बोलते हैं...

इस घर में चूहे ही चूहे हैं। इंसान यहां रहे कैसे! 

पापा पहले खीझ कर बोलते हैं, फिर बुदबुदाते हैं, आखिर चूहे आते क्यों हैं, कभी सोचा है? जब घर गंदगी से अंटा-पटा रहता है, तब!

पापा हमेशा दांत पीसते हुए ही क्यों बोलते हैं, समझ में नहीं आता। पर शब्द हैं कि अंदर नहीं पिसते, बाहर आते हैं और घर की सारी पुरानी धूल खायी चीज़ों पर उफनने लगते हैं।

पता नहीं इस उफान का इस दीवार से कोई कनेक्शन है! क्यों मेरी निगाह दीवार पर टंगी सिद्धार्थ भैया की तस्वीर पर चली जाती है। एक तस्वीर जिसपर माला टंगी होने भर से उसके सारे रंग बदल जाते हैं। तस्वीर की आंखों में नमी दिखने लगती है, उस चेहरे के इर्द गिर्द गोलाकार में एक प्रभामंडल खिंच आता है और मन में आता है कि तस्वीर के होंठ अभी हिलें और कुछ बोलें। पर फ्रेम के अंदर से तस्वीरें कहां बोलती हैं! 

दस साल पुरानी तस्वीर है भैया की, पर इस पर कभी धूल नहीं देखी। बाकी पूरे घर की साफ़-सफ़ाई में मां की कोई दिलचस्पी नहीं। भैया के सामान पर भी धूल जमी दिख जाती है। उनकी गिटार पर। उनके आधे अधूरे कैनवास पर। अलमारी में बंद उनके रंग और ब्रश  पर। संगीत की उनकी किताबों पर। उनके सारे साजो सामान पर। अलमारी के किवाड़ के अंदर उनके लगाये पोस्टर तक पीले और बदरंग हो चले हैं। उनके किनारे उखड़ने लगे हैं पर वे हैं वहीं। पापा इनके बारे में कभी कुछ नहीं कहते। 

पर जब वह कहते हैं तो दांत भींच कर ही कहते हैं। जो कहते हैं उसका मतलब यह होता है कि घर का कोई भी पुराना, फट-फटा चुका सामान भी मां बाहर नहीं फेंकती, सहेज सहेज कर रखती जाती हैं और घर धीरे-धीरे एक कबाड़ में बदलता जा रहा है।..... और ऐसे कबाड़ में चूहे नहीं आयेंगे तो क्या तितलिया आयेंगी!

‘‘अभिजित, आज देर मत करना, समय पर पहुंचना है वहां। पापा के याद दिलाने से पहले ही मां मुझे बता चुकी थीं कि आज अपने जन्मदिन वाले कपड़े निकाल लेना। वही पहनना। और कार्डिगन ज़रूर ले लेना । खुले फार्महाउस में ठंड लगेगी।’’ 

‘‘जी! मैं भीतर से चहक उठा था। इसलिये नहीं कि अच्छे कपड़े पहनकर सज धज कर हम आउटिंग पर जा रहे हैं। वैसे तो मुझे दोस्तों के साथ अपने बरमुडा या रिप्ड जींस में बाहर जाकर धमाल करना ज़्यादा पसंद है बजाय इसके कि मां-पापा के साथ राजा बेटा बनकर सलीके से चलूं! ज़ोर से हंसने पर या झूम झूम कर टेढ़ा चलने पर भी जहां पाबंदी हो। हर बड़े-बुज़ुर्ग को झुककर प्रणाम करने की जगह अगर ग़लती से ‘हाय या हलो अंकल‘ बोल दिया तो अपनी ख़ैर नहीं। पापा के साथ चलते हुए मुझे हमेशा ‘अटेन्शन’  की मुद्रा में रहना पड़ता है।

मेरी चहक की असली वजह है कि मां ज़रा ढंग के कपड़े पहनकर बाहर निकलेंगी। घर में तो मां ऐसे कपड़े पहने रहती हैं कि उनसे साफ़ तो हमारी लक्ष्मीताई दिखती हैं-साफ़ सुथरी चमकदार साड़ी और कान में चमकते सोने के बुंदे और कलाई भर भर लाल हरी कांच की चूड़ियां।

 आज हम सब मेहता अंकल के बेटे की शादी में जा रहे हैं। मां भी चलेंगी। अक्सर मां कहीं भी जाने से सीधे मना ही कर देती हैं। जहां भी जाना होता है, मैं और पापा ही जाते हैं। मां साथ जाती हैं तो वह खास दिन होता है। दरअसल मां को पता ही नहीं कि वे जब ढंग से सजती संवरती हैं तो हम दोनों को कितना अच्छा लगता है। जी होता है कि उन्हें देखता ही रहूं फिर उन्हें ऐसे एकटक निहारने से मुझे खुद अपने पर शर्म आने लगती है। 

‘‘अभि! कैश गिनकर अलमारी के ड्रॉअर में डाल देना।’’ पापा मुझे नोटों का जत्था थमा देते हैं। 

‘‘वहां से लौटकर गिनता हूं न पापा!’’ मैं शादी में तैयार होने के लिये कपड़े निकालता हूं । 

पापा पहले मां को ये नोटों का ढेर थमा देते थे पर मां का गणित बहुत कमज़ोर है। वह हमेशा गिनने में ग़लती कर देती हैं। एक दिन पापा बौखला गये-रोज़ का यही हाल! अभि! तेरी ममी से आजकल कुछ नहीं किया जाता। ..... और यह काम मेरे जिम्मे आ गया। मेरे पापा - डॉ. देवाशीश कुमार शहर के नामी डॉक्टर हैं ! पापा के पास कितने सारे मरीज़ आते हैं। उनके क्लिनिक में शीरीन दीदी का दराज़ नोटों से भर जाता है। वे हालांकि गिनकर ही पापा को पकड़ाती हैं पर दोबारा चेक तो करना ही पड़ता है न! 

जब पहली बार इतने सारे नोट देखे थे तो कैसी चुहल सी पैदा हुई थी। नोट गिने। फिर सहेजे। इतने इतने ढेर सारे नोट। मैंने मां से चहक कर कहा,‘‘मां,मुझे भी डॉक्टर बनना है! पापा की तरह!’’

मां ने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे मेरे पार कहीं और देख रही हों। बस, फिर हल्के से मुस्कुरा दीं - पापा को बताना। खुश होंगे। 

पापा तो हर वक्त फोन पर ही रहते हैं। हर वक्त बिज़ी। हर वक्त जैसे लाम पर। मैं पापा को लेकर गर्व से भर जाता हूं। कितना भरोसा करते हैं उनके मरीज़ उनपर। कार ड्राइव कर रहे होते हैं, तब भी फोन बजता ही रहता है।

अब तो लगता ही नहीं कि मेरी यह हमेशा चुप सी रहने वाली मां भी कभी डॉक्टर रह चुकी हैं। शहर की एक नामचीन डॉक्टर! डॉ. देवयानी कुमार! पापा से कहीं ज्यादा शोहरत थी जिनकी। पापा के मरीज़ों से कहीं ज़्यादा मरीज़ उनके कमरे के बाहर इंतज़ार करते थे। रात को पापा पहले खाली हो जाते। मां को एकाध घंटा और लग जाता। सब मुझे बंसी काका ने बताया।.......पर एक हादसे में भैया क्या गये, मां की दुनिया ही बदल गई। मां ने अपनी प्रैक्टिस छोड़ दी और घर में बैठ गईं। चुपचाप। एक बुत बनकर! जैसे बोलना भूल गई हों। फिर घर में गरीबों का मुफ्त में इलाज करने लगीं। दवाइयां भी अपने पास से देतीं। बाहर से दवा लाने के लिये पैसे भी पकड़ा देतीं। 

मैं तब बहुत छोटा था। छह साल का। मां बहुत चुप रहती थीं और मुझे समझ ही नहीं आता कि उन्हें कैसे खुश करूं। कभी कभार मां मुझे बहुत लाड़ करतीं पर उनके छूने में लगता, जैसे मुझे नहीं भैया को दुलार रही हैं। एक स्पर्श जो होकर भी नहीं था। पर हर चीज़ की धीरे धीरे आदत हो जाती है। मां जैसी हैं, वैसी हैं। और पापा? पापा तो पापा हैं! पापा से भला कैसी शिकायत!

 ऐसे ही माहौल में बड़ा हुआ मैं। कभी मन होता-मां से पूछूं, सच बताओ क्या प्यार करती हो मुझे या सिर्फ़ भैया से ही प्यार था तुम्हें! मैंने तो सुना था मां हमेशा बेटों से बहुत लाड़ करती हैं। बस, एक ही बात याद है, मां को तब मैं ममी बोला करता था।  एकबार मां ने कहा,‘‘मुझे ममी मत बोला कर तू!’’ 

‘‘क्यों?’’ मैंने पूछा ज़रूर पर मां की आंखों में देखा तो कुछ ऐसा दिखा कि लगा-इतनी सी बात पर सवाल क्यों। तब से ही मां को मां कहता हूं और सचमुच मां ममी से ज़्यादा अच्छी लगती है। बस, एक खुली-खिली सी मुस्कान भर दिख जाये इस मां के चेहरे पर। जब दिख जाती है तो लगता है बारिश की फुहारें पड़ रही हैं। मुस्कुराती हुई मां बहुत भली दिखती हैं।

मां ने आसमानी रंग की साड़ी पहनी है। उसी रंग की मोतियों की माला! उसी रंग का कढ़ाई वाला कश्मीरी केप जो मां पर खूब फबता है। मां जब सजकर निकलती है तो अलग सी दिखती हैं। चेहरे पर तेज आ जाता है पर एक उदास छाया सी भी हर वक्त वहां पसरी रहती है। शायद मां को आज भी भैया याद आ रहे हों। वह आज होते तो मेहता अंकल के बेटे जितने ही तो बड़े होते। दोनों क्लासमेट थे स्कूल में। 

  फार्म हाउस यानी हमारे घर से दस बारह किलोमीटर का सफ़र! पूरे रास्ते भर मां चुप ही रहती हैं। कुछ नहीं बोलतीं। बस, एक बार पापा ने पूछा,‘‘लिफ़ाफ़ा ले लिया? भूली तो नहीं?’’ मां ने हल्का सा सिर हिलाया जो गाड़ी चलाते हुए पापा को दिखा नहीं। पापा का सुर थोड़ा तेज़ हुआ,‘‘मैं कुछ पूछ रहा हूं, कैश डालकर लिफ़ाफ़ा देने के लिये ले लिया या नहीं?’’ इस बार सिर के साथ मां के होंठ भी हिले-लिया! पापा की आवाज़ कुछ धीमी हुई-बोलोगी नहीं तो मुझे कैसे समझ में आयेगा। ...... तुम्हें आजकल कुछ याद नहीं रहता इसलिये बार बार पूछना पड़ता है। 

देवयानी और देवाशीश - नाम में क्या राइमिंग है पर हकीकत में? ऐसी अनोखी प्रजाति के मां-बाप को हर वक्त झेलना बच्चों को कैसा लगता है, यह कोई मुझसे पूछे। साथ-साथ चले नहीं कि लगता है, एक पतली सी डोरी पर चल रहे हैं। संतुलन नहीं साधा तो डोरी अब टूटी, तब टूटी। और यह डोरी ये बड़े नहीं साधते, हम बच्चों को ही साधनी पड़ती है। 

दूर से ही छोटे छोटे दूधिया बल्बों की कतारें और सफेद केसरिया फूलों की झालरें देखकर आंखों को राहत मिली। उसमें शहनाई के मद्धिम सुर ने कानों को भी मरहम लगाया। इतने शोर-शराबे और झगड़े-झंझटों के बीच शहनाई की ऐसी सुरीली गूंज एक दूसरे ही लोक में पहुंचा देती है। सुना है, भैया भी गिटार पर एक से एक सुंदर गाने बजाते थे। क्या इसीलिये मुझे अपने दोस्तों के साथ हो हुल्लड़ भरा रॉक म्यूज़िक एक प्रचंड पागलपन लगता है और उसपर बदहवास होकर झूमते अपने दोस्त थोड़े से खिसके हुए लगते हैं। मैं उस कनफोडू संगीत को पसंद नहीं कर पाता और सब मुझे मियां तानसेन कह कर चिढ़ाने लगते हैं। 

पापा ने कार को सलीके से सड़क के एक किनारे खड़ा किया। मां मुझे देखकर मुस्कुराईं-‘‘ज़रा पकड़ना अभि बेटा।’’ उन्होंने फूलों का गुलदस्ता मेरे हाथ में थमाया और बड़े एहतियात के साथ अपनी नीली साड़ी संभालते हुए उतरीं। चलो, मां ने मेरे सिर पर हाथ फिराया और मैं मां को कंधे से घेरता हुआ आगे बढ़ चला। क्या आलीशान स्वागत था रंग बिरंगे फूलों की  इंद्रधनुषी झालर से सजे धजे गेट पर। दोनों ओर से गुलाबजल की हल्की सी फुहारें! बिना कांटों का एक खूबसूरत सा गुलाब का फूल । फूलों की पंखुरियों का छिड़काव हम सबको खास मेहमान का दर्जा दे रहा था। गेट के दोनों ओर एअरइंडिया के दो महाराज़ा लाल पाग और काली मूंछों में एक हाथ स्वागत की मुद्रा में सलीके से उठाये मूर्तिवत खड़े थे। अरे, यह क्या! एक की झुकी हुई पलक झपकी! मां को कुहनी से टहोका मैंने,‘‘देखो मां, स्टैच्यू नहीं, सचमुच के 

हैं!’’ 

‘‘हट पागल!’’ कहकर मां आगे बढ़ चलीं तो मुझे भी आगे चलना पड़ा पर मैं पीछे घूम घूम कर देख रहा था। मूर्ति बनने की कला में वे दोनों बौने माहिर थे और मेकअप करने वाले ने ज़िंदा इंसानों को बुत में तब्दील कर डाला था।

सामने फैले विशालकाय मैदान पर करीने से कटी हुई हरी भरी घास थी। हर ओर चलने के रास्ते पर लाल कालीन बिछा हुआ। तारों भरे आसमान के शामियाने तले साटन के लिहाफ़ और गुलाबी फीतों से बंधी गद्दीदार चार-छह कुर्सियों के बीच आयताकार, चौकोर और षटकोण मेज़ें थीं। दूर एक कोने में कई सुसज्जित खंभों पर टिके ताजमहल के गुंबद की आकार में एक मंच था जिसपर पुराने वाद्ययंत्रों के साथ कुछ गायक और वादक बैठे थे। लग रहा था जैसे किसी राजसी ठाठ वाले म्यूज़ियम में हम चले आये हैं जहां हर ओर आंखों को लुभानेवाली नायाब दर्शनीय इबारतें रच दी गई हैं। ट्रे में काजू, पिस्ता, बादाम, किशमिश और अखरोट सजाये सजी-धजी लड़कियां घूम रही थीं। 

हर एक मेहमान को खास तवज्जो दी जा रही थी। मां की आंखंे हर ओर घूम गयीं, फिर थकी सी बोलीं -अरे, अब तक दूल्हा-दुल्हन तो आये ही नहीं। स्टेज खाली पड़ा है। पापा ने हुंकारा भरा,‘‘लगता है, जल्दी आ गये हम! चलो, यहीं बैठ जाते हैं। कुछ खा-पी लो। नज़ारे देखो!’’ 

अचानक पापा को अपने परिचित मित्र दिखाई दे गये और वे चहक कर ड्रिंक्स वाले काउंटर की ओर बढ़ गये। मां ड्रिंक्स लेती नहीं थीं और मैं अपने मां पापा की नज़रों में नाबालिग था। 

हम कुछ स्टार्टर्स लेकर बैठ गये और आसपास के अजायबघर का मुआयना करने लगे। छोटे छोटे बल्बों में सजे आकारों में कहीं झरना था तो कहीं बर्फ़ का पहाड़। वाह, क्या नज़ारा था। आंखों के लिये हर कोना अलग तरह से सजा-धजा था जो बरबस ध्यान खींच लेता था। ..... और एक कोने में सजे उस विशालकाय बर्फीले पहाड़ की चोटी पर, नीले रंग में जटाजूटधारी भगवान शिव की प्रतिमा थी। मृगछाल पहने। एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में डमरू लिये। गले में सर्पमाला डाले। एक टांग पर खड़े। मैंने उस पर नज़रें टिका दीं। मां ड्रिंक्स के उस काउंटर की ओर देख रही थीं जहां पापा अपने दोस्तों के जमावड़े में शामिल हो गये थे। 

कुछ मिनटों में ही मैंने देखा-वाह वाह! भोले भंडारी ने अपना पैर बदल लिया। पहले वह दायें पैर पर खड़े थे, अब बायें पैर पर। 

‘‘मां, देखो वह शिव जी भी सचमुच के! ही इज़ रीअल!’’ मैं लगभग चीख कर बोला । 

‘‘पागल है? इतनी ठंड में.....? पुतला है वह!’’ मां ने देखा और मुझे झिड़क दिया !

वह नीलकंठ महादेव पलकें भी झपक रहे थे। 

मां को दिख क्यों नहीं रहा। मां की दूर की नज़र कमज़ोर है शायद! 

हमारे सिर के काफी ऊपर एक छोटा सा मिनि हेलीकॉप्टरनुमा खिलौना घूम रहा था जैसे किसी ने जासूसी के लिये उसे छोड़ रखा हो। एक अजूबा सा दिख रहा था। धीरे धीरे चक्कर काट रहा था मच्छर के भिनभिनाने की सी आवाज़ करता। यह क्या है भला? मां ने मुझसे पूछा। क्या पता-मैंने कंधे उचका दिये। हमारे बग़ल में बैठी एक सुंदर सी आंटी ने हमारी बात सुन ली और चहकते हुए बताया-यह रिमोट ऑपरेटेड कैमरा है। ऊपर से सारे मेहमानों की तस्वीरें खिंच जाती हैं, बेटी की शादी में हमने पहली बार लगवाया था इसे पांच साल पहले।......अब तो बहुत कॉमन हो गया है! कहकर उन्होंने जैसी निगाह हम तक डाली, हमें लगा हम ज़मीन में चार इंच नीचे धंस गये हैं। कैसे बेवकूफ़ हैं हम। हमें इतना भी नहीं पता। किस ज़माने में रहते हैं!

वह रिमोट परिचालित कैमरा जैसे ही आगे गया, हर हर महादेव की आंखों के साथ गर्दन भी उसे देखने के लिये थोड़ा घूम गई। 

‘‘मां, झूठ नहीं कह रहा। ठीक से देखो। वह सचमुच का लड़का है। बाय गॉड!’’

इस बार मां ने भी ध्यान दिया।

‘‘अरे हां, अभि! यह तो पुतला नहीं, इंसान है। सचमुच ! इतनी ठंड में......बीमार हो जायेगा यह। नंगे बदन खड़ा कर दिया है उसे! उफ़!’’

मां बेचैन हो उठीं,‘‘क्या कर रहे हैं ये लोग! डॉक्टर के घर में शादी है और एक बच्चे को नंग-धड़ंग खड़ा कर रखा है।’’ 

मां ने सूट बूट धारी एक सुपरवाइज़र को इशारे से बुलाया जो ट्रे में काजू पिस्ता ले जाती सुंदरियों को हिदायत दे रहा था और हर मेहमान से पूछ रहा था कि उनकी खिदमत में क्या पेश किया जाये।

वह सूट बूट धारी सामने आकर खड़ा हो गया और एअर इंडिया के महाराजा की तरह अभिवादन में आधा झुककर बोला-यस मैम !

मां ने भोले भंडारी की ओर इशारा किया-वह शिव जी बना बच्चा देख रहे हैं? 

सूट बूट धारी ने कुछ हैरत में कहा-‘‘यस मैम!’’

‘‘उसे इसी वक्त नीचे उतारिये। इट्स इनह्यूमन। उसे ठंड से निमानिया हो जायेगा। डॉक्टर हूं मैं। और यह डॉक्टर के बेटे की शादी है?......’’ 

यह क्या हुआ! मैंने तो सिर्फ़ अपनी पैनी निगाह का रुआब जताया था कि वह पुतला नहीं, जीता जागता लड़का है।

‘‘मैम! वहां बर्फ़ नहीं है।’’ सूटधारी ने अपनी गर्दन पर सजा ‘बो’ ठीक किया और हंस कर बोला,‘‘उसके खड़े रहने के लिये लकड़ी का पाटा है। ठंड नहीं है वहां।’’

मां ने उसे ऊपर से नीचे तक ताड़ती निगाहों से देखा फिर फीकी सी हंसी हंसकर बोलीं,‘‘यही तो फर्क है!कपड़े पहनकर आप यह बात कह सकते हैं। वह नंगे बदन खड़ा है। बदन पर नीला रंग पोत देने से गर्मी नहीं आ जाती बदन में, इतना तो समझते हैं न आप!‘‘

‘‘मैम, दिस इज़ पार्ट ऑफ़ आवर ईवेंट! ही इज़ पेड फ़ॉर इट मैम! ‘‘ 

‘‘पेड फॉर इट? उफ़!‘‘ 

‘‘जी मैम!‘‘

‘‘हद है, डॉ मेहता जानते हैं इस ईवेंट के बारे में?‘‘ 

‘‘यस मैम।‘‘ सूट बूट धारी विनम्रता और धीरज की साक्षात् प्रतिमूर्ति बना अब तक एअरइंडिया के महाराजा की तरह आधा झुका था।

‘‘डॉ मेहता को फोन करूं? उसे नीचे उतारिये। अभी! इसी वक्त! ‘‘

मां का चेहरा तमतमा रहा था। मुझे क्या मालूम था कि मां मेरे इस छोटे से अविष्कार को लेकर इतनी हाइपर हो जाएंगी। 

‘‘जी....जी....नहीं....आय‘ल कॉल हिम! ‘‘ सूट बूट धारी अब कुछ अव्यवस्थित हुआ, फिर अपने को व्यवस्थित करता, दायें बायें झांकता आगे की ओर बढ़ गया, ‘‘यस मैम....‘‘

मैंने मां की पीठ पर हाथ रखा, ‘‘रिलैक्स मां! अपना बी.पी मत बढ़ाओ‘‘

मां का ब्लड प्रेशर तो शूट अप कर चुका था, ‘‘अभि, क्या वो दरवाज़े पर एअर इंडिया के महाराजा भी ज़िंदा लोगों को पुतला बनाके खड़ा कर रखा था? तूने कहा था न!‘‘

मैंने भी सूट बूट धारी की सी स्थिर टोन में कहा, ‘‘पता नहीं मां! आय‘म नॉट शूयर!‘‘

जब सामनेवाला अधीरता की सीमा पार करता दिखे तो हमारे धीरज का ग्राफ अपने आप ऊपर उठने लगता है।

शादी की गहमा गहमी मां की उस अधीरता के सामने फीकी पड़ रही थी। मां सबसे बड़ा अजायबघर थीं उस समय! अर्जुन की आंख की तरह वे नीलकंठ पर एकाग्र थीं।

तब तक पापा ड्रिक के लंबे ग्लास को इस तरह थाम कर आये जैसे उनके हाथ में फिल्मफेयर अवॉर्ड की ट्रॉफी हो-‘‘हाय गाईज़! व्हॉट आर यू अप टू?कुछ खा नहीं रहे? ऐसी शादी देखी नहीं होगी!  एनीथिंग एंड एवरीथिंग यू वॉन्ट टू हैव अंडर द सन!...... ‘‘ पापा के अंदाज़ में जो खनक थी और जिस तरह लहरा कर वे बोल रहे थे, लग रहा था-खुमारी की शुरुआत हो चुकी है। 

तब तक हमारी मेज़ पर दो खूबसूरत कपों में सूप आ चुका था। मैंने पापा से कहा, ‘‘पापा आप ले लो सूप! मैं और मंगवा लेता हूं।‘‘

पापा ने मुंह बिचकाया, ‘‘हुंह! यहां सूप पीने कौन आया है!‘‘ फिर अपने जोम में मुस्कुराये।

मैं भी मुस्कुराया। आखिर हम यहां मौज मस्ती करने ही तो आये थे।

मां ने धीरे से कहा, ‘‘यू हैव टू ड्राइव अस बैक होम! प्लीज़....‘‘

पापा ने और लरज़ कर कहा, ‘‘अरे, आय हैव नेव्हर लॉस्ट माय सेन्सेज़। हैव आय ? आज तक कभी अपने होशो हवास खोये हैं मैंने?‘‘

पापा की आंखें एकबार और पूरे फार्महाउस का चक्कर काट आईं-‘‘देखो, अब तक दूल्हा-दुल्हन नहीं आये। यह है इंडियन शादी। दूल्हा-दुल्हन आयें न आयें, हमारी बला से। बरातियों की तो शादी मन जाती है।..... चलो, आपलोग सूपपान करो, हम सुरापान करके आते हैं ज़रा। बड़े पुराने यार दोस्त मिल रहे हैं - तीस साल बाद! हा हा! नो जोक! ‘‘

मां की निगाह में शर्मिंदगी थी! मैं चाह रहा था कि मैं वहां से गायब हो जाऊं पर वहां बने रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। 

हर हर महादेव गायब हो चुके थे। बर्फ़ के पहाड़ से गंगा झर झर बह रही थी ।

थोड़ी देर बाद सूट बूट धारी फिर झुका हुआ हाज़िर था-‘‘मैम! उतार दिया उसे!

‘‘कहां है वह ?‘‘ 

‘‘मैम....मैम....ही इज़ फ़ाइन.....मैम! ‘‘

‘‘हां, लेकिन मुझे उससे मिलना है। आय वॉन्ट टू सी हिम!‘‘ मां ने सख़्त स्वर में कहा । 

मां को आज क्या हो गया है। मां हमेशा तो ऐसी नहीं दिखतीं । 

सूट बूट धारी अकबकाया। ओ. के.! ओके मैम! उसने मोबाइल से नंबर मिलाया। हिदायत दी। 

‘‘जी चलिये मैम!‘‘

मां चल दीं। उनके पीछे पीछे फूल का गुलदस्ता थामे हुए मैं। 

रास्ते में मां की कोई परिचित मिल गईं। अपना षॉल लहराते हुए बोलीं -‘‘अरे, अभि बेटा इता बड़ा हो गया। ..... और तू? तू इतनी दुबली क्यों हो रही है?‘‘...... वैसे उनके कहने से पहले ही मुझे मालूम था कि वे यही बोलेंगी और अगला वाक्य- तबीयत तो ठीक है न! और डॉक्टर साहब ? हां .... वो तो अपनी मंडली में चले गये होंगे। हमें पता था कि यहां तो देर होनी ही है सो हम तो जी आये ही देर से......

......उफ़ ! हमें क्यों पता होता है कि वे यही बोलेंगी। उन्हें क्या मां के खोये अंदाज़ और चेहरे पर चिपकी नकली मुस्कान से पता नहीं चलता कि मां सुन ही नहीं रहीं, मां का ध्यान कहीं और है! मां तो उस सुपरवाइज़र के पीछे पीछे चलती जा रही हैं और मैं मां के पीछे। मेरे सामने इसके अलावा चारा ही क्या था।

सिर्फ़ एक आदमी के घुसने भर की जगह खुली थी, बाकी तीनों ओर कनातें तनी थीं। हम तीनों एक एक कर अंदर दाखिल हुए। बीचोबीच चार कुर्सियां और एक गोल मेज़ थी। अंदर एक कतार से सबके कपड़े टंगे थे। शायद उनकी जो यहां हाथ में ट्रे लिये, एक जैसी ज़री के पट्टे वाली साड़ियां सलीके से टांके सजी धजी घूम रही हैं। 

 एक कोने में मृगछाल पहने, नीले रंग में सराबोर एक दुबला पतला सा लड़का भोले भंडारी की छवि से निकलकर जैसे ठंड से सिकुड़ कर वहां खड़ा था-अपने नीले बदन पर अपनी मैली कमीज़ को गले पर लपेटे। दूर से एक पुतला ही दिख रहा था जो, सामने आ खड़ा हुआ तो उसके पूरे शरीर में सिर्फ़ दो आंखें ही दिख रही थीं, उजली-चमकती सी, जो नीली मिट्टी से सनी उसकी निर्जीव देह पर एकमात्र ज़िंदा चीज़ लग रही थीं। उसकी पलकें झपकने पर ही लगा कि वह मिट्टी का बेजान नहीं, जीता जागता इंसान का बच्चा है।

मां ने उसकी कलाई थाम कर उसे एक कुर्सी पर बिठाया और खुद दूसरी पर बैठीं। मैंने फूल का गुलदस्ता मेज़ पर रख दिया पर रखते ही लगा जैसे भगवान शिव को फूल चढ़ा रहा हूं। मैंने वापस उसे अपने हाथ में उठा लिया। 

अपनी हथेली उस लड़के के माथे पर फिराते हुए मां सुपरवाइज़र की ओर मुड़ीं,‘‘कपड़े कहां है इसके। फौरन पहनाइये। कैसा ठंडा बदन हो रहा है! उफ़!

मां के चेहरे पर तनाव बढ़ता जा रहा है। पापा ठीक कहते हैं कि मां बहुत अनप्रेडिक्टेबल हैं। अपने को डिप्रेशन में बनाये रखने का बहाना ही ढूंढती रहती हैं हमेशा।

सूटधारी ने घबराकर पहले उसके सिर से जटा उतारी, फिर उसके गले में लिपटी कमीज़ की आस्तीन उसकी बांहों में चढ़ाने लगा तो लड़के ने खुद ही उसे पहन लिया और ऐसी मुद्रा में आ गया जैसे उसे स्कूल में क्लास से बाहर निकाल दिया गया हो। जटा उतारने से मेकअप की परत माथे पर साफ़ दिखाई देने लगी। वह कभी मां की ओर देखता, कभी सूटधारी की ओर जैसे पूछ रहा हो कि मेरी ग़लती क्या है। 

‘‘ठंड लग रही थी वहां बेटा?‘‘ मां ने उस लड़के से पूछा तो जवाब सूटधारी से आया, ‘‘मैम, बर्फ़ तो सिर्फ़ सामने है। पीछे थर्मोकोल है, लकड़ी..... 

मां ने सूटधारी को हथेली दिखाकर बरज दिया।

अब लड़के ने डरे-सहमे से ‘ना’ में सिर हिलाया- नहीं, ठंड नहीं लग रही थी वहां । बोला कुछ नहीं। 

‘‘कुछ गरम पिआगे बेटा ?‘‘

‘ना’ में उसने फिर सिर हिला दिया । मुझे शक हुआ, कहीं यह गूंगा तो नहीं। पर वह सुन पा रहा था!

‘‘सूप लाऊं? चाय? ‘‘ मेरे मुंह से निकल गया-गरम गरम! 

उसने फिर सिर हिला दिया। जैसे चाभी से भरा गुड्डा हो!

‘‘क्या खाओगे?‘‘ मैंने उसके सपाट पेट की ओर देखते हुए पूछा ।

‘‘पूरी भाजी!‘‘ इस बार वह बोला। सूखे होंठों को जीभ से तर करता हुआ।

‘‘डोंट वरी मैम! मैं अभी एक प्लेट में खाना लाने का ऑर्डर देता हूं मैम! ‘‘

सूटधारी, अपने गले पर ‘बो’ कसता हुआ, बाहर की ओर निकल गया। उसके चेहरे पर अजब सा भाव था जैसे कह रहा हो कैसे बेढब लोगों से पाला पड़ गया।

 उसके बाहर जाते ही लड़के ने हिचकते हुए मां से पूछा, ‘‘मेरा पइसा नईं कटेगा न? माई की दवा के लिये चाहिये।‘‘

मां एक पल को रुकीं, फिर पूछा, ‘‘मां बीमार हैं?‘‘ 

इस बार उसने ‘हां’ में सिर हिलाया।

‘‘कितने पैसे की बात हुई?‘‘

उसने दाहिने हाथ की पांच उंगलियों को खोलकर दिखाया। एक एक उंगली जैसे एक एक हथेली हो ।

‘‘पांच हज़ार?‘‘

‘‘नहीं, पांच सौ!‘‘ वह पांचों उंगलियों को खोलता बंद करता है।

‘‘स्कूल जाते हो?‘‘ 

‘‘स्कूल में इस्त्री का कपड़ा देने जाता हूं।‘‘ 

मां ने एकाएक अपना पर्स खोला और लिफ़ाफ़े में रखे सारे नोट निकालकर उसे थमा दिये, ‘‘रख ले बेटा ।आना कभी मिलने।‘‘ साथ में अपना पुराना कार्ड भी जो मां की प्रैक्टिस के समय का विज़िटिंग कार्ड था।

वह मुंह बाये देखने लगा, ‘‘इतना सारा?‘‘ उसकी आंखें फैल गईं ।

उसके साथ साथ मैं भी घबरा गया। यह क्या हो रहा है मां को। जान न पहचान, हज़ार हज़ार के नोट थमा दिये इस लड़के को! इतने लंबे लंबे नोट तो उसने कभी देखे भी नहीं होंगे।

तब तक वह सूटधारी आता दिखा तो लड़के ने जल्दी से मृगछाल की छाप वाले कपड़े के नीचे पहने अपने धारीदार कच्छे में नोटों को खोंस लिया। 

‘‘मैम, खाना मंगवा दिया है! वी विल टेक केअर!‘‘ उस सूटधारी के पीछे पीछे एक सुसज्जित कन्या खाने से अंटी पटी प्लेट के साथ होंठों पर नपी-तुली मुस्कान लेकर हाज़िर थी।    

‘‘आप लोग भी चलें।‘‘ सूटधारी फिर एअर इंडिया के महाराजा की मुद्रा में झुक गया।

शादी है या नौटंकी! हर कोई अपनी अदाकारी के पैसे वसूल रहा है। एअर इंडिया के महाराजा से लेकर सुंदरी बालाओं तक! 

 

मेरी भूख तो इन नौटंकियों से मर चुकी थी। तब तक दूल्हा-दुल्हन का पदार्पण हो चुका था और मंच पर उनके विराजने से पहले ही उन्हें शुभकामनाएं देने वाले मेहमानों की कतारें लंबी होती जा रही थीं। 

मां ने पापा को ढूंढने के लिये इस कोने से उस कोने तक चारों ओर नज़र घुमा ली। पापा कहीं दिखाई नहीं दिये तो मां ने कहा,‘‘चलो, खाना ले लेते हैं।‘‘ 

हमने भोजन की परिक्रमा शुरु की। उस विशाल प्रांगण के विशालकाय भोज समारोह में दक्षिण से लेकर गुजरात -राजस्थान और चीनी-इतालवी-थाई से लेकर कॉन्टीनेन्टल खाने के स्टॉल्स को निहार निहार कर हम दोनों अपना पेट भर चुके थे। मां ने सलाद से और मैंने कॉर्न चीज़ पास्ता से अपनी प्लेट भर ली और बेमन से खाने पर जुट गये। मां खा तो क्या रही थीं, टूंग रही थी । मेरी ओर देखकर शायद अपने आप से कह रही थीं-‘‘कैसा पैराडॉक्स है! करोड़ों की शादी और एक गरीब को ठंड खाने के पांच सौ दे रहे हैं, यहां से जाकर चाहे वह निमोनिया पकड़ ले।‘‘ 

‘‘आपने अपना कार्ड तो दे दिया है न मां, आपके पास आ जायेगा।‘‘

मैंने कहने को कह दिया पर उस भोले भंडारी की पूरी-भाजी की मांग ने मेरे लिये कॉर्न-पालक-चीज़ पास्ता को नफ़ीस छुरी कांटे से खाना दुश्वार कर दिया था।

पापा अब तक नहीं आये थे। मैं अगर न आता और पापा इसी तरह मां को अकेला या किसी ठस सी चमकीली दोस्त के पास छोड़कर चले जाते तो मां को कैसा लगता, यह सोचने से मैं अपने को रोक नहीं पाया। शायद इसीलिये, पापा के साथ कहीं बाहर चलने के लिये, मां तैयार नहीं होतीं !

जब मैं गरमा-गरम गुलाबजामुन पर, ठंडी-ठंडी आइसक्रीम और चॉकलेट सॉस डालकर, खाने बैठा तो पापा हड़बड़ाते हुए आये, ‘‘अरे, चलो उठो जल्दी। मैं क्यू में अपनी जगह रखवा कर आया हूं। मिसेज़ देसाई के पास। चलो, नये जोड़े को विश कर आयें पहले!‘‘

मैंने आधा खाया, आधा छोड़ा और पापा के हुक्मअदायगी में अटेंशन में खड़ा हो गया! 

मां ने पापा से कहा, ‘‘आप खा तो लेते.....‘‘ 

पापा ने फिर उसी खुमारी में कहा, ‘‘अहह ..... इतने स्टार्टर्स खाये कि मेन कोर्स के लिये तो पेट में जगह ही नहीं बची अब! चलो, बी रेडी!‘‘ 

...... और हम पापा के पीछे पीछे मार्च करते से चल दिये ।  

कतार वाकई लंबी थी! कतार के करीब ऑर्केस्ट्रा वादक, मेहमानों की फ़रमाइश पर, पुराने वाद्ययंत्रों पर पुराने हिंदी फिल्मी गीत बजा रहे थे - अजीब दास्तां है ये.....कहां शुरु, कहां ख़तम ....ये मंज़िलें हैं कौन सी...... न तुम समझ सके न हम......! देसाई आंटी के साथ पापा गीत की धुन पर सिर हिलाहिला कर मस्ती में झूम रहे थे। 

गीत खत्म हुआ तो पापा ने कहा, ‘‘लिफ़ाफ़ा निकाल कर हाथ में रख लो!‘‘

मां ने कुछ नहीं कहा।

‘‘लिफ़ाफ़ा! कहां है?‘‘

‘‘नहीं है!‘‘ मां ने सीधे कहा ।

‘‘मतलब? लेकर तो चली थीं तुम!‘‘

‘‘हां, पर मैंने कहीं दे दिया....‘‘ 

‘‘दे दिया? कहीं? मतलब?‘‘

मां चुप रहीं!

मां के असमंजस को भांप कर मैंने पापा को संक्षेप में उस भोले भंडारी की कथा सुनानी शुरु की ! पर पापा बीच में ही चिहुंक कर बोले, ‘‘यानी तुम्हारी मां ने लिफ़ाफ़ा उस शिवजी के पुतले को शगुन में दे दिया?‘‘

मां की बेवकूफी पर पापा इस तरह फिसफिसाकर हंसे जैसे देख रहे हों कि किसी और ने तो नहीं सुनी यह बात।

‘‘क्या करना है मैडम अब! फरमाइये!‘‘ पापा ने चढ़ी हुई आंखों से पूछा ।

मां ने अपना पर्स खोलकर एक का चमचमाता सिक्का लगा, विघ्नविनाशक गणपति का सुनहरा उभरा हुआ चित्र बना, लाल केसरिया रंग का शगुनी लिफ़ाफ़ा निकाला और पापा को थमा दिया, ‘‘खाली है।‘‘ 

‘‘आप अपने वॉलेट से डाल दो इसमें......जितना देना है!‘‘

‘‘क्या? वॉलेट से?‘‘ पापा का खुमार एकबारगी जैसे उतरा। वे मां के नज़दीक आये और बौखलाकर शब्दों को चबाते हुए बोले, ‘‘आर यू मैड? मैं कैश लेकर चलता हूं कभी? क्रेडिट कार्ड दे दूं कि आप निकाल लो इसमें से? क्या पागलपन हो रहा है!....... देखो, तुम्हारे पर्स में कितने हैं?‘‘

मां ने खाली पर्स दिखा दिया।

‘‘कम ऑन! कम ऑन! लेट्स गो! ‘‘ 

पापा का चेहरा अब तमतमा रहा था। उनका सारा खून जैसे चेहरे पर चढ़ आया था ।

मिसेज़ देसाई ने रोका, ‘‘अरे... अरे.... कहां जा रहे हैं डॉक्टर साब?‘‘

‘‘सॉरी, हम कुछ भूल आये हैं मिसेज़ देसाई! अभी आते हैं! विल बी बैक इन अ मोमेंट! ‘‘ 

पापा ने मां को इतनी ज़ोर से बांह से पकड़ा कि मां की हल्की सी चीख निकल गई।

पापा, मां को लगभग खींचते हुए, बाहर ले जा रहे थे। मैं तेज़ तेज़ कदमों से मां की ओर चल रहा था कि कहीं कुछ अवांछित घटित न हो जाये।

गेट पर एअर इंडिया के महाराजा बने दो बुत अपनी लाल पाग और काली मूंछों के साथ अब भी विनम्रता में झुके खड़े थे।

 

कुछ ही पलों में हम अपनी गाड़ी के सामने थे। पापा ने पहले बगल वाला दरवाज़ा खोला और मां को उस सीट पर बिठा दिया। फिर दरवाज़ा धांय से बंद करते हुए अपनी ड्राइविंग सीट पर जाकर बैठ गये। पीछे की सीट पर बैठते ही मेरा मन हुआ कि मां के कंधे पर हाथ रखूं पर पापा का तेवर देखते हुए मेरे हाथ जहां के तहां रुक गये।

पापा ने एक झटके के साथ गाड़ी स्टार्ट की और छूटते ही तीसरे गिअर में डालकर गाड़ी को आड़ा तिरछा चलाने लगे,‘‘हाउ कुड यू डू सच अ फुलिश थिंग!‘‘ 

‘‘बात का बतंगड़ बना रहे हो! क्या फर्क पड़ता! ये फूल देकर विश कर सकते थे न! ‘‘

‘‘फूल! ये फूल! ये सवा दो सौ रुपये का बुके! एक प्लेट की कीमत वहां पंद्रह सौ से कम नहीं थी।‘‘

गाड़ी ने एक तेज़ घुमाव लिया और हम सब एक ओर लुढ़क गये ।

‘‘पापा ! तो क्या वी हैड टू पे फॉर थ्री प्लेट्स?‘‘ (हमें तीन प्लेट की कीमत चुकानी थी वहां) मेरे मुंह से निकल गया।

‘‘शट अप अभि! तू तो मत बोल! ‘‘

‘‘कार्ड में तो ओन्ली ब्लेसिंग्स लिखा था न! ‘‘ मां ने धीमे से कहा।

‘‘ओन्ली ब्लेसिंग्स ? ओन्ली ब्लेसिंग्स ! वो आम पब्लिक के लिये है। उनके अपने स्टाफ़ के लिये है।ग़रीब पेशेंट्स के लिये है। हमारे लिये नहीं। समझीं?‘‘

मां अजीब सी नज़रों से पापा को देखती रहीं।

‘‘लिफ़ाफ़े के बिना ही शगुन कर आईं? खाली लिफ़ाफ़ा हमें दिखाने के लिये रख लिया ? लिमिट!.... आखिर वो लड़का तुम्हारा कौन लगता था जिसे शगुन के पैसे थमा आईं तुम ? हं .... बोलो।‘‘

‘‘प्लीज़......‘‘ मां ने पापा को चुप कराने की कोशिश की।

‘‘अपने फितूरों में चलती हो तुम! ह-मे-शा! ह-र वक्त!‘‘

मां चुप हो गईं ।

‘‘मैं तंग आ गया हूं तुम्हारे इन टैंट्रम्स से.......‘‘ 

मां ने ऐसी आंखों से देखा जैसे सबकुछ बिना शब्दों के सिर्फ़ आंखों से ही कह डालेंगी।

‘‘जहां जाती हो एक न एक तमाशा खड़ा कर देती हो और..... यू थिंक कि दुनिया को बदल डालोगी....‘‘

मां चुप बनी रहीं पर मैंने देखा उनका पूरा शरीर थरथराने लगा था।

‘‘एंड बाय द वे, वो मेरे पैसे थे! माय मनी! माय हार्ड अर्न्ड मनी! एक मिनट नहीं लगाया और पांच हज़ार उसे पकड़ा दिये! फ़ाइव थाउज़ेंड! बग़ैर मुझसे पूछे तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई-मेरे गाढ़ी कमाई के पैसों को, इस तरह एक दो टके के लड़के पर, उड़ाने की! ‘‘

मां ने स्टीयरिंग पर हथेली दबा दी! 

गाड़ी तेज़ हॉर्न के साथ हिचकोले खाने लगी।

‘‘हां, पैसे! तुम्हारे पैसे! शर्म आती है कहते हुए? मां चीख रही थीं - यही पैसे थे न तुम्हारे, जब नोटों के बंडल पे बंडल भर कर ले गये थे सिद्धू को मेडिकल में एडमिशन दिलाने।..... डॉक्टर बनाना चाहते थे उसे ....‘‘

मां की रोती हुई या चीखती हुई आवाज़ में फ़र्क कर पाना मुश्किल था ।

मां कांप रही थीं, ‘‘नहीं बनना चाहता था वह डॉक्टर!...... नहीं करनी थी उसे मेडिकल की पढ़ाई.......’’ मां की आवाज़ उनके भीतर की सारी पसलियों को चीरते हुए एक दबे हुए विलाप की तरह बाहर आ रही थी -‘‘तुम्हारे पास ये नोट, ये तुम्हारी गाढ़ी कमाई के पैसे न होते तो मेरा बेटा आज ज़िंदा होता । तुम्हारे इन नोटों ने मेरे बेटे की जान ले ली...... आज मेरे बेटे की शादी हो रही होती ..... वह इस तरह बिजली के खंभे से टकराकर अपनी जान नहीं देता...... बाप नहीं, हत्यारे हो तुम! मार डाला तुमने उसे! मेरा बेटा आज ज़िंदा होता.......‘‘ और मां ने चलती गाड़ी का दरवाज़ा खोल दिया था ।

अचानक ब्रेक लगा और मां की देह, आधी गाड़ी के भीतर और आधी बाहर, झूल रही थी ।

मेरा दिमाग़ सुन्न हो रहा था। मेरे सामने एक तिलिस्म टूट रहा था। 

यानी सिद्धार्थ भैया की मौत एक हादसा नहीं, खुदकुशी थी। 

मेरे सामने जाले छंट रहे थे और गहरा रहे थे। 

घर जाकर मां को होश आ गया था पर वह बेहोश पड़ी रहीं।

घर पहुंच कर मैंने नोट नहीं गिने। 

मैं मां के पास ही बैठा रहा।

मां ने मुंदी हुई आंखें खोलीं। 

मेरे कंधे पर उन्होंने हाथ रखा। 

वह स्पर्श आज मैं महसूस कर पा रहा था।

मैंने उनकी हथेली को अपनी हथेली से ढक दिया। 

 

'सुधा अरोड़ा' की कहानी पर 'अरुण होता' की टिप्पणी -

बहुआयामी और सघन अनुभूति की कहानी

सुधा अरोड़ा हमारे समय की प्रतिनिधि एवं चर्चित कहानी लेखिका हैं। इस कथाकार ने अपने लेखन कर्म से समकालीन कथा-संसार में  अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । इस कहानीकार की 
कहानियाँ अपने समय और अपनी भूमि से जुड़ी हुई होती हैं। कभी इस महिला रचनाकार ने अपने किसी इंटरव्यू में कहा भी था- ‘‘कहानीकार होने की पहली शर्त उसका संवेदनशील होना है। आदमी को असंवेदनशील बनानेबनाते चले जाने के तमाम दबाव गाहे-बगाहे उसके अवचेतन पर पड़ते हैंपर एक रचनाकार तमाम अमानवीय,  हिंसक और क्रूर स्थितियों के बीच से अपना रास्ता ढूंढ़ लेता है।’’  बहरहाल सुधा जी की ताजा कहानी बुत जब बोलते हैं के आधार पर कुछ जरूरी मुद्दों पर विचार करना आवश्यक लगता है। 

बुत नहीं बोलते हैं। बुत चुप रहते हैंबिल्कुल खामोश। कहानी में बुत कोई मूर्ति या प्रतिमा नहीं बल्कि माँ’ हैनारी है। पुरुषवादी वर्चस्व उसे बुत बनाए रखता है ताकि उसकी सत्ता बरकरार रहे। प्रस्तुत कहानी में बुत सिर्फ माँ नहीं है। ध्यान देने की बात है कि माँ प्रतिष्ठित डॉक्टर रह चुकी है। पिता भी बड़े डॉक्टर हैं। दोनों उच्च वर्ग से संबंधित हैं। अन्य लोग जो बुत बने हुए हैं या बनाये गये हैं निम्न वर्ग से हैं। सूटधारी सुपरवाइजर जो विवाह महोत्सव की देख-रेख करता हैमध्यवर्ग से संबंधित है। देसाई परिवार उच्च वर्ग या अभिजात्य परिवार का है। कहा जा सकता है कि यह कहानी बड़े वितान की रचना करती है। कहानी में वर्ग-चेतना और स्त्री चेतना का कलात्मक समन्वय साधित हुआ है। यह कहानी को विशिष्ट बनाता है। 

आजकल स्त्री चेतना के नाम पर कुछ खास संपादक जो लिखवा रहे हैंस्त्री विमर्श या बोल्डनेस के नाम पर कहानी में जो कुछ परोसा जा रहा हैउससे सुधा अरोड़ा की कहानी की तुलना नहीं की जा सकती है। इनकी स्त्री-चेतना और बोल्डनेस’ का स्वरूप बिल्कुल भिन्न है। इस बोल्डनेस में देह विमर्श’ नहीं है। दृढ़ संकल्प तथा मजबूत व्यक्तित्व का सुंदर समन्वय है। स्त्री-अस्मिता की जबर्दस्त मुठभेड़ है जो मर्दवादी व्यवस्था के लिए चुनौती है। लेकिनयह भी सच है कि यह स्त्री कहीं से भी संवेदनहीन नहीं है। मातृत्व की स्नेहधारा प्रवाहित करती है। बिना लाउडनेस दिखाए कभी शान्त रहकर तो कभी नपे-तुले शब्दों में कुछ जवाब देकर वह अपने निर्णय से अडिग रहना भी जानती है। अतः इस कहानी की माँ’ के माध्यम से कहानी लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि स्त्री विमर्शस्त्री चेतना का एक भारतीय आधार है। भारतीय पाठ है। देशी संस्करण है जो किसी भी अर्थ में पाश्चात्य चिंतन से कमतर नहीं है। इसकी जो भारतीय जमीन है वह ठोस है और उसे और अधिक पुख्ता बनाया जा सकता है। असली बात चेतना की है जो सुधा अरोड़ा की कहानी से बार-बार सामने उभरती है। इस संदर्भ में कहानीकार की अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ शीर्षक कहानी का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें स्त्री अस्मिता का यथार्थ रूप अंकित किया गया है। 

किसी भी कहानी में वर्णित कथा या घटना महज़ एक माध्यम बनकर आती है। मूल बात है कथा या घटना के बहाने रचनाकार अपने सरोकार और कन्सर्न’ को सामने लाने का प्रयास करता है। उसकी कथा- दृष्टि से जीवन दृष्टि का परिचय मिलता है। उसकी संबंद्धता और प्रतिबद्धता के संकेत सूत्र भी कथा के बहाने उद्घाटित होते हैं। बुत जब बोलते हैं’ में सुधा अरोड़ा ने कई संदर्भोंआयामों एवं परिप्रेक्ष्यों को बड़ी शिद्दत के साथ चित्रित किया है। बदलते समय में स्त्री  संघर्षो को व्यापक फलक पर अंकित किया है। इस कहानी में कथा नहीं के बराबर है। चिकित्सक दंपति के जीवन में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था। रुपए पैसे की कमी न थी। डॉक्टर अपने बड़े बेटे को डॉक्टर बनाना चाहते थे। बेटे को यह मंजूर न था। उसने आत्महत्या की। उसके सहपाठी विवाहोत्सव में बुत बने शिव के प्रति माँ की अपार संवेदनाममता और मानवीयता फूट पड़ती है तो माँ को बुत बने रहने के लिए विवश करने वाले पिता के प्रति तीव्र आक्रोश और प्रतिरोध का स्वर सुनाई पड़ता है। 

कहानी का प्रारम्भ वातावरण के चित्रण के साथ होता है। लेकिन वातावरण का विवरणात्मक और ऊबाऊ वर्णन नहीं हुआ है। बड़ा सांकेतिक है यह वर्णनघर का वातावरण बोझिल है। खीझबौखलाहट आदि के साथ पापा के माध्यम से कहानीकार ने पारिवारिक जीवन की अशांति तथा त्रासद स्थितियों की ओर भी इशारा किया है। कहानी का पहला वाक्य-‘‘इस घर में चूहे ही चूहे है।’’ पाठकों के मन में उत्सुकता जगाता है। किस घर में? ‘चूहे ही चूहे’ क्यों हैंचूहे बाहर से घर में आते हैं। सामान नष्ट करते हैं। गंदगी फैलाते है। इस घर’ में चूहे कैसे आ गयेआदि सवालों के साथ जैसे ही पाठक आगे बढ़ता है तो उसे दूसरा वाक्य मिलता है इंसान यहाँ रहे कैसे अर्थात मनुष्य के रहने लायक नहीं रहा यह घर। दरअसल, ‘पापा’ के इस कथन से परिवार में व्यप्त तनाव तो जाहिर होता ही हैं, इसके साथ दाँत मींचकर कहने के पीछे माँ’ के प्रति उनकी नाराजगी का पता भी चलता है। माँ को केवल अपने बड़े बेटे की तस्वीर की साफ सफाई का ध्यान है। उसकी स्मृति में सदा डूबी रहने वाली माँ को घर की साफ-सफाई में कोई दिलचस्पी नहीं है। सुधा अरोड़ा कहानी के शुरु के दो छोटे-छोटे अनुच्छेदों में संवेदना को सूक्ष्मता के साथ बड़े आत्मीय ढंग से अभिव्यक्त करती हैं कि पाठक अनायास ही कहानी से जुड़ता चला जाता है। यूँ कह सकते हैं कि पाठक स्वयं कहानी का अंग बन जाता है। यह कहानीकार की बड़ी सामर्थ्य है। यह सामर्थ्य यूँ ही नहीं हासिल हो जाती है। गहरे जुड़ाव और अनोखी प्रतिभा के माध्यम से ऐसी सामर्थ्य प्राप्त होती है। 

 ‘बुत जब बोलते हैं’ एक बहुआयामी कहानी है। इसमें जितनी चिंता व्यक्ति की है उतनी ही समाज की भी। परिवार की चिंता है तो देश की भी। मातृत्व और संवेदना के व्यापक धरातल का चित्रण है तो पूँजीवादी बाजारवादी कुचक्रों से पीड़ित मानव जाति के हाहाकार का भी। अतीत और वर्तमान तो है ही। 

भूमंडलीकरण के दौर में पूँजी का वचर्स्च बढ़ता जा रहा है। पूँजी ने मनुष्य को व्यक्ति में तब्दील कर दिया है। उसने तमाम नाते रिश्तों को प्रॉडक्ट बना कर रख दिया है। बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था में सब कुछ बिकाऊ साबित हो रहा है। जो बिकता है वह टिकता है। पूँजी और बाज़ार ने संवेदनाआत्मीयतामानवता के तमाम गुणों को फालतू सामान की सूची में डाल दिया है। संवेदना छीज रही है। मानवता कराह रही है। लेकिन पूँजी सर्वशक्तिसंपन्न हो रही है। पापा का बड़े बेटे को डॉक्टर बनाने की जिद के मूल में जनसेवा की भावना नहीं है बल्कि अधिक मात्रा में रुपए की कमाई है। इस ज़िद के चलते उन्हें बड़े बेटे को खोना पड़ा। माँ बुत बन गई। लेकिनपूँजी की कठोर मुट्ठी में आ चुके पापा को कोई पछतावा नहीं होता है। पूरी कहानी में एक भी शब्द नहीं मिलता जिससे यह कहा जा सके कि बेटे की आत्महत्या से पिता दुःखी है। यह है पूँजी का पराक्रम। उसके सामने तमाम इंसानी रिश्ते बौने और ठिंगने प्रतीत होते हैं। व्यक्ति बस रह जाता है तो रुपए कमाने वाली एक मशीन। हमारे समय और समाज की इस विसंगति और विडंबना को कहानीकार ने अत्यंत निपुणता के साथ बिंबित किया है। बेहद खुशी की बात है कि कहानी की माँ पूँजी के आगे घुटने नहीं टेक देती। उसने एक ही झटके में पूँजी के माया-जाल को छिन्न-भिन्न कर दिया है। स्मृतिमातृत्व और संवेदना के समक्ष रुपएधन-वैभव आदि को मूरी के पातन’ सिद्ध कर दिया। माँ ने अपनी प्रैक्टिस छोड़ दी। घर में सिर्फ गरीबों का मुफ्त में इलाज किया। दवाई अपनी ओर से देती रही। पूँजी की शक्ति को पराजित करने का ऐसा नायाब तरीका बहुत कम कहानियों में मिलेगा। 

ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ मैं’ नई पीढ़ी का है। सोलह साल का अभिजीत। अपनी माँ के अनुभव को अपने जीवन में उतारने वाला साहसी नवयुवक। सच है कि आज की उपभोक्तावादी सभ्यता पूरी दुनिया को अपने चपेट में लेने के लिए उतावली हो रही है। लेकिनमाँ अथवा अभिजीत जैसे कुछ पात्रा आज भी देश में हैं जो भारतीय जीवन मूल्यों की सख्त जमीन पर खड़े हैं और मानव विरोधी शक्तियों को मुँहतोड़ जवाब दे रहे हैं। इस कहानी का सौंदर्य इसकी अंतिम पंक्तियों में उद्घाटित होता है जहाँ मानव मूल्य के चिरंतन तत्वों की विजय दिखाई पड़ती है-

मैं माँ के पास बैठा रहा। 

माँ ने मुंदी हुई आँखें खोलीं। 

मेरे कंधे पर उन्होंने हाथ रखा। 

वह स्पर्श आज मैं महसूस कर पा रहा था।

मैंने उनकी हथेली को अपनी हथेली से ढंक दिया।’’

आयातित अनुपयोगी विचारों को सिरे से अग्राह्य करते हुए अपने देश की माटी से उपजे मानव मूल्यों के प्रति एक अगाध लगावसम्मान एवं समझ का पूरा परिचय मिल जाता है। एक बात यह भी है कि ममत्व के समक्ष सब कुछ फीका पड़ जाता है। मानव जाति को बचाए रखने के लिए संवेदनशीलता को भी जिन्दा रखना जरूरी है। संवेदना बची रहेगी तो मानवता बची रहेगी। इसी तरह साहित्य भी बचा रहेगा। अतः आज के परिप्रेक्ष्य में इस कहानी की अर्थवत्ता असंदिग्ध है।

रोलाबार्थ ने लिखा है-‘‘लेखक की मृत्यु पर ही पाठक का जन्म संभव है।’’ अर्थात् लेखक के स्व’, अहम’ या मैं’ की मृत्यु हुए बिना अपनी उद्दाम और विस्फोटक प्रतिभा का विकास नहीं कर पाता है। इस कहानी को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि कथाकार ने लंबी जद्दोजहद करने के बाद यह कहानी लिखी है। अपने स्व’ को तिरोहित करने के लिए लंबा  संघर्ष किया है। बड़ी आसानी से बुत जब बोलते हैंकृ’ कहानी नहीं लिखी जा सकती है। एक और बिंदु पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कथा वाचक बेटा अभिजीत है जबकि मूल कथा माँ-पापा के माध्यम से प्रकट होती है। ऐसी पद्धति से तटस्थता बनी रहती है। विश्वसनीयता कायम रहती है। 

 कहानी की गहन अनुभूति और संवेदना की प्रस्तुति के लिए  भाषिक संरचना का महत्व होता है। कहानी की अंतर्वस्तु और समाज की पूरा ध्यान रखते हुए भाषा की बुनावट हुई है। भाषिक संरचना में परिवेश का ध्यान रखा गया है। सहजता इस कहानी की बड़ी खूबी है। सीधी और सहज भाषाछोटे-छोटे वाक्यों की रचना से कहानी अधिक प्राणवंत हुई 

कहना न होगा कि बुत जब बोलते हैं शीर्षक कहानी में जीवन-जगत, मनुष्य और समाजविसंगतियों और अंतविरोधों के विविध  परिदृश्य बड़ी शिद्दत  के साथ अंकित हुए हैं। बहुआयामी और सघन अनुभूति की कहानी है बुत जब बोलते हैं। इसमें पारिवारिक जीवन की विसंगतियों के साथ-साथ युवा स्पंदन के चित्र हैं। नारी-चेतना और वर्ग चेतना का सुंदर समन्वय है। भूमण्डलीकरण के दौर की अमानवीय स्थितियों की सहज अभिव्यक्ति भी है। अतः यह सुधा अरोड़ा की ही नहीं हिन्दी की एक महत्वपूर्ण कहानी है। 

सुधा अरोड़ा द्वारा लिखित

सुधा अरोड़ा बायोग्राफी !

नाम : सुधा अरोड़ा
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ऑथर के बारे में :

जन्म : अविभाजित लाहौर (अब पश्चिमी पाकिस्तान) में 4 अक्टूबर 1946 को । 1947 में लाहौर से कलकत्ता ।
शिक्षा : स्कूल से लेकर एम.ए. तक की शिक्षा कलकत्ता में ही हुई । 1962 में श्री शिक्षायतन स्कूल से प्रथम श्रेणी में हायर सेकेण्डरी पास की। 1965 में श्री शिक्षायतन कालेज से बी.ए.आनर्स और 1967 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी साहित्य) किया । दोनों बार गोल्ड मेडलिस्ट । पहली प्रकाशित कहानी मरी हुई चीज़ ज्ञानोदय सितम्बर 1965 में । पहली लिखित कहानी एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत  सारिका : मार्च 1966 में प्रकाशित । 1967 में छात्र जीवन में ही प्रथम कहानी संग्रह ‘ बगैर तराशे हुए’ का प्रकाशन हुआ ।

कार्यक्षेत्र :

·        1965 से 1967 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका प्रक्रिया  का संपादन .

·        1969 से 1971 तक कलकत्ता के दो डिग्री कालेजों श्री शिक्षायतन और आशुतोष कालेज के प्रातःकालीन महिला विभाग जोगमाया देवी कालेज में अध्यापन .

·        1977 - 1978 के दौरान कमलेश्वर के संपादन में कथायात्रा में सहयोगी संपादक

·        1993 -1999 तक महिला संगठन हेल्प से संबद्ध . कई कार्यशालाओं में भागीदारी

·        2000 से अब तक - वसुंधरा पुस्तक केंद्र तथा महिला सलाहकार केंद्र से संबद्ध  .

कहानी संग्रह :

·                    बगैर तराशे हुए (1967) - लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद

·                    यु़द्धविराम (1977) - छह लंबी कहानियां - पराग प्रकाशन दिल्ली

·                    महानगर की मैथिली ( 1987 ) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली

·                    काला शुक्रवार ( 2004 ) - राजकमल प्रकाशनदिल्ली

·                    कांसे का गिलास ( 2004 ) - पांच लंबी कहानियां - आधार प्रकाशनपंचकूला ,हरियाणा

·                    मेरी तेरह कहानियां ( 2005 ) - अभिरुचि प्रकाशनदिल्ली

·                    रहोगी तुम वही ( 2007 ) - रे माधव प्रकाशननोएडा, उ॰प्र॰

·                    21 श्रेष्ठ कहानियां ( 2009 ) - डायमंड बुक्सदिल्ली

·                    एक औरत: तीन बटा चार ( 2011 ) - बोधि प्रकाशनजयपुर

·         मेरी प्रिय कथाएं ( 2012 ) - ज्योतिपर्व प्रका , दिल्ली

·         10 प्रतिनिधि कहानियां ( 2013 ) – किताबघर प्रकाशनदिल्ली

·         अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी ( 2014 ) - साहित्य भंडार , इलाहाबाद

·         बुत जब बोलते हैं ( 2015 ) - लोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद

·                    चुनी हुई कहानियां ( 2016 ) – अमन प्रकाशन, कानपुर 

उपन्यास :

·                    यहीं कहीं था घर (2010) - सामयिक प्रकाशन दिल्ली

स्त्री विमर्श :

·                    आम औरत: जि़न्दा सवाल  (2008) - सामयिक प्रकाशन दिल्ली

·                    एक औरत की नोटबुक (2010) - मानव प्रकाशन कोलकाता

·                    सांकल सपने और सवाल (2018) लोकभारती प्रकाशनइलाहाबाद

·          स्त्री समय संवाद – (साक्षात्कार) (2016) - साहित्य भंडार , इलाहाबाद

कविता संकलन :

·                    रचेंगे हम साझा इतिहास ( 2012 ) - मेधा बुक्स दिल्ली

·                    कम से कम एक दरवाज़ा  ( 2015 ) बोधि प्रकाशन , जयपुर 

एकांकी:          ऑड मैन आउट उर्फ बिरादरी बाहर (2011) - राजकमल प्रकाशनदिल्ली

संपादन :        औरत की कहानी (2008) - भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली

·                    भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन—‘दहलीज़ को लाँघते हुए  और पंखों की उड़ान’- स्पैरोमुंबई  ( Sound and Picture Archives for Research on Women )

 

·        मन्नू भंडारी: सृजन के शिखर ( 2010 ) - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली

·        मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान ( 2012 ) - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली

·        स्त्री संवेदना : विमर्श के निकष ( 2015) - दो खंड - साहित्य भंडार इलाहाबाद 

 

अनुवाद :

 

·                    कहानियां कइ भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजीफ्रेंचपोलिशचेक ,जापानीडचजर्मनइतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित।

·                    रहोगी तुम वही ( 2008 - उर्दू भाषा में; किताबदार, मुंबई )

·                    उंबरठ्याच्या अल्याड पल्याड-(मनोविकास प्रकाशनपुणे, महाराष्ट्र) (2012-स्त्री विमर्श पर आलेखों का संकलन मराठी भाषा में) मैथिलीच गोश्ट -(प्राजक्तप्रकापुणेमहाराष्ट्र - 2015 कहानी संकलन )   

·        वेख धीयां दे लेख - यहीं कहीं था घर उपन्यास का पंजाबी अनुवाद

 

टेलीफिल्म :

·                   ‘ रहोगी तुम वही कहानी पर पाकिस्तान के ‘हम टीवी चैनेल द्वारा चार किस्तों में धारावाहिक प्रस्तुति 

·                     युद्धविराम’ , ‘दहलीज़ पर संवाद’ , ‘इतिहास दोहराता है’ तथा जानकीनामा पर दूरदर्शन द्वारा लघु फिल्में निर्मित. दूरदर्शन के समांतर’ कार्यक्रम के लिए कुछ लघुफिल्मों का निर्माण

फिल्म  पटकथाएँ :

·                    पटकथाबवंडर)टी. वी. धारावाहिक और कई रेडियो नाटकों का लेखन ।

साक्षात्कार :

·                    उर्दू की प्रख्यात लेखिका इस्मत चुग़ताईबंग्ला की सम्मानित लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी (नलिनी सिंह के कार्यक्रम सच की परछाइयां’ के लिए) हिन्दी की प्रतिष्ठित लेखिका मन्नू भंडारी, लेखक भीष्म साहनीराजेंद्र यादव,  नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल आदि रचनाकारों का कोलकाता दूरदर्शन के लिए साक्षात्कार ।

स्तंभ लेखन : सन् 1977-78 में पाक्षिक सारिका में आम आदमी: जिन्दा सवाल का नियमित लेखन

·                    सन् 1996-97 में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष तक दैनिक जनसत्ता  में साप्ताहिक कालम वामा  महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहा।

·                    मार्च 2004 से मार्च 2009 तक मासिक पत्रिका ‘ कथादेश’ में औरत की दुनिया’ स्तंभ बहुचर्चित

अन्य :         कक्षा ग्यारहवीं तथा बी.ए. के पाठ्यक्रम में कहानियां तथा आलेख शामिल !

सम्मान :      

·                    सन् 1978 का उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा विशेष पुरस्कार.

·                    सन् 2008 का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान,  सन् 2010 का प्रियदर्शिनी सम्मान .

·                    सन् 2011 का वीमेंस अचीवर अवार्ड .  

·                    सन् 2011 का केंद्रीय हिंदी निदेशालय का पुरस्कार 

·                    सन् 2012 का महाराष्‍ट राज्‍य हिंदी अकादमी सम्‍मान,  

·                    सन् 2014 का वाग्‍मणि सम्‍मान

·                    सन् 2015 का मुंशी प्रेमचंद कथा सम्मान 

·          सन् 2016 का मीरा स्मृति सम्‍मान

 

सम्पर्क: 1702, सॉलिटेअरहीरानंदानी गार्डेन्सपवईमुंबई-400 076

फोन: 022 4005 7872 / 097574 94505 / 90824 55039 

ई-मेल : sudhaarora@gmail.com 

 

वसुंधरा , 602, गेटवे प्लाज़ा,  हीरानंदानी गार्डेन्सपवईमुंबई-400 076

फोन: 022 4005 7872 / 90824 55039 

ई-मेल : sudhaarora@gmail.com

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पोस्ट की गई टिप्पणी -

किरण अग्रवाल

05/Mar/2021
बेहद संवेदनशील कहानी। इसे लगभग साँस रोके-रोके ही पढ़ गई। इसने एक अजीब सी बैचेनी से भर दिया है मुझे। सुधा अरोड़ा की यह कहानी 'बुत जब बोलते हैं' ऊपर से जितनी सरल प्रतीत होती है उतनी ही जटिल है जिसके कई स्तर हैं और जिसके अर्थ सन्दर्भ दूर तक जाते हैं। इसे पढ़ते हुए मुझे लगा जैसे मैं विपश्यना मैडिटेशन कर रही हूँ। सुनने में विचित्र लग सकता है लेकिन सच है। सुधा अरोड़ा जी को मेरा सादर नमन।

किरण अग्रवाल

05/Mar/2021
बेहद संवेदनशील कहानी। इसे लगभग साँस रोके-रोके ही पढ़ गई। इसने एक अजीब सी बैचेनी से भर दिया है मुझे। सुधा अरोड़ा की यह कहानी 'बुत जब बोलते हैं' ऊपर से जितनी सरल प्रतीत होती है उतनी ही जटिल है जिसके कई स्तर हैं और जिसके अर्थ सन्दर्भ दूर तक जाते हैं। इसे पढ़ते हुए मुझे लगा जैसे मैं विपश्यना मैडिटेशन कर रही हूँ। सुनने में विचित्र लग सकता है लेकिन सच है। सुधा अरोड़ा जी को मेरा सादर नमन।

Dr padma sharma

01/Mar/2021
सुधा अरोड़ा जी की कहानी बुत बोलते हैं कथ्य और शिल्प में बेहतरीन कहानी है। कहानी में बुत शब्द प्रतीकार्थक टॉप में दृष्टिगत होता है। बुत बना शिवरूपधारी बालक ही नहीं वरन विवाह के आयोजक जो बाजारीकरण और दिखावटीपन के कारण शो मैन यानि बिट बन गया है, या वहाँ देखने वाले लोग जो इस दिखावेपन से प्रसन्न हैं, या वे स्त्री पुरुष जो इस आयोजन में कठपुतली की तरह अर्थोद्देश्य से काम मे लगे थे। कहानी की मुख्य महिला पात्र का इस तरह बिखर जाना मन को उद्विग्न कर रहा है। जिस साहस से उन्होंने बालक को रुपये दिए थे उसी साहस से उन्हें अपने पति का सामना भी करना चाहिए। सुधा अरोड़ा जी के हाथों मैंने वागीश्वरी पुरस्कार प्राप्त किया था। उन्हें प्रणाम एवं साधुवाद। हनीफ जी अनिता जी और उनकी टीम को बधाई इस नए प्रकल्प के लिए। कल फिर मिलते हैं दूसरी कहानी के साथ

हनीफ़ मदार

01/Mar/2021
अत्यंत पठनीय कहानी

Anjali Deshpande

01/Mar/2021
सुधा अरोड़ा की कहानियां संवेदना से ओतप्रोत रहती हैं। इस कहानी में विचार और भावना का गजब का संतुलन है। पितृसत्ता केवल स्त्रियों पर नहीं बच्चों पर भी तानाशाही चलाती है यह कहानी में बहुत अच्छे से अंकित हुआ है। इसमें एक सोलह साल का लड़का ज़िन्दगी के ऐसे पहलु से रूबरू होता है जो उसके वर्ग में या तो अदृश्य रहते हैं या उनको तवज्जोह नहीं दी जाती। दोनों बेटों के बीच उम्र का इतना बड़ा फासला है कि बड़े भाई की मौत की असलियत उसे अभी तक मालूम ही नहीं। अब उसमें मरे हुए भाई के लिए जो ईर्ष्या थी वह ख़त्म होकर मां के स्पर्श की मुलायमियत को महसूस कर पाने, उसे मृत भाई के लिए होने पर भी अपने लिए होने की समझ का उदय हुआ है। कहानी पठनीय है। पर इसमें प्रतिकार का आभाव अखरता है। शिक्षित, पति से अधिक कमाने वाली होकर भी शादी और पति की तानाशाही झेल रही मां पर दया आ सकती है, बस। हर कहानी में विद्रोह नहीं होता, जीवन में वही होता है जो इसमें हुआ। फिर भी, यह दबा दबा सा विरोध अखरता है।

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