कविता आज-कल : आलेख “अनुपम त्रिपाठी”

कविता आज-कल : आलेख “अनुपम त्रिपाठी”

अनुपम त्रिपाठी 1159 4/14/2020 12:00:00 AM

इधर कविता की एक ताज़ी दुनिया बन रही है। कुछ समकालीन कवि पूरी तैयारी के साथ आ रहे हैं। 'कविता शब्दों का खेल है'- इस धारणा में बहुत खेला कूदा गया और यह खेल अभी भी जारी है। यह ताज़्ज़ुब करता है कि भाषा कला और साहित्य की ओर से अपनी आँख बंद किए हुए समाज में जहाँ पाठकों की संख्या हाशिये पर जा रही है वहीं लेखकों की संख्या में थोकिया इजाफा हुआ है, खासतौर से कवियों की संख्या में। लिख सब रहे हैं - पढ़ कोई नहीं रहा। पाठकीय क्षेत्र में वस्तु-विनियम का सिद्धांत लगा हुआ है। आप मेरी पढ़ें और मैं आपकी। आत्म चर्चा की ऐसी बीमारी पकड़ी है कि पूछिये मत। इस बिलबिलाई हुई कवियों की भीड़ ने अच्छे कवियों को ढँक लिया है। वैश्विक स्तर पर हिंदी कविता की क्या स्थिति है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। ऐसे में आलोचना की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह इस भीड़ से अच्छे कवियों को बाहर निकालकर समाज के सामने प्रस्तुत करे।

इंसाफ़ के तक़ाज़े पर इंसाफ़ की बलि : आलेख (ज्योति कुमारी शर्मा)

इंसाफ़ के तक़ाज़े पर इंसाफ़ की बलि : आलेख (ज्योति कुमारी शर्मा)

ज्योति कुमारी 850 12/11/2019 12:00:00 AM

हैदराबाद, उन्नाव, बक्सर, समस्तीपुर और मुजफ्फरपुर में बेटियों को जिंदा जलाने का मामला अभी थमा भी नहीं था कि पश्चिम चंपारण के शिकारपुर थाना क्षेत्र के एक गांव में ऐसा ही मामला सामने आया है । निश्चित ही यह भारतीय न्याय व्यवस्था, सामाजिकता और लोकतंत्र के लिए अत्यंत शर्मनाक है। किंतु इसके बरअक्स त्वरित न्याय प्रक्रिया में हैदराबाद का पुलिसिया कृत्य भी ऐसी घटनाओं के ख़िलाफ़ कोई आदर्श नहीं माना जा सकता। बल्कि बिना किसी अपराध के साबित होने से पूर्व ही महज़ आरोपित व्यक्ति या व्यक्तियों की भीड़ द्वारा हत्या कर देना या हैदराबाद में पुलिस का ख़ुद मुंसिफ़ बन जाना यक़ीनी तौर पर माननीय भारतीय न्यायालयों और न्याय प्रक्रिया को मुँह चिढ़ाने जैसा है, जो अपराधी और आपराधिक घटना की जाँच, विश्लेषण और अन्वेषण के रास्ते भी एक झटके से बंद कर देता है, फलस्वरूप न्याय व्यवस्था के प्रति सामाजिक भरोसे की जगह सहमा सा संदेह खड़ा होने लगता है । इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को सामाजिक और क़ानूनी रोशनी में देखने का प्रयास है, कथाकार और माननीय सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता ‘ज्योति कुमारी शर्मा’ का यह आलेख॰॰॰॰॰

हंसी व सामूहिकता को बचा कर रखता है रंगमंच: आलेख (अनीश अंकुर)

हंसी व सामूहिकता को बचा कर रखता है रंगमंच: आलेख (अनीश अंकुर)

अनीश अंकुर 1157 5/25/2019 12:00:00 AM

डिजीडल दुनिया में भले मनुष्य आभासी दुनिया में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं लेकिन यथार्थ में उनका सामूहिक जीवन पर बेहद घातक प्रभाव पड़ा है। हमारी सामूहिकता, एक दूसरे के साथ हंसना-बोलना सब पर बुरा प्रभाव पड़ा है। भोपाल के रंगनिर्देशक बंसी कौल ने रंगविदूषक की ऐसी ही अवधारणा पर काम किया है। वे कहते है ‘‘ रंगविदूषक में हम यह मानकर चलते थे कि हमारा काम एक असलहा है। आपको कुदरत ने ऐसा हथियार दिया जिसे बनाए रखना जरूरी है। यदि आप विचार को बचाकर रखोगे आप अपनी आध्यामिकता को बचाकर रखोगे क्योंकि जो हंसी-ठठा होता है, वह सामूहिक होता है। लेकिन आप उसी पूरी हंसी को खत्म कर दोगे तो आप सामूहिकता को भी खत्म कर रहे हैं जिसकी हमारे समाज को बहुत जरूरत है। ’’ नाटक यही काम करता है वो आपका मनोरंजन करता है, हंसाता है। ताकतवर लोगों पर भी हंसने की क्षमता प्रदान करता है। बकौल बर्तोल्त ब्रेख्त ‘‘ जिस नाटक में आप हंस नहीं सकते वो नाटक हास्यास्पद है।’’

शार्लिट ब्रॉन्टी: आज की स्त्री : आलेख (प्रो० विजय शर्मा)

शार्लिट ब्रॉन्टी: आज की स्त्री : आलेख (प्रो० विजय शर्मा)

विजय शर्मा 544 11/18/2018 12:00:00 AM

खासकर साहित्य के संदर्भ में, अभिव्यक्ति में स्त्री स्वर तब से शामिल हो रहे थे जब स्त्रियों का लिखना तो दूर शिक्षा प्राप्त करना भी सामाजिक अपराध था | दरअसल गोल-मोल तरीके से समाज स्वीकृत स्थितियों को लिखना या चित्रण करना तो हमेशा आसान था | किन्तु पुरूष सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में मानवाधिकारों की समानता की मांग के साथ सामाजिक भेदभाव के नंगे सच को उद्घाटित करना निश्चित ही न केवल साहस का काम था बल्कि उन्ही स्वरों कि प्रेरणा पाकर अब तक १४ स्त्री लेखिकाएं साहित्य के नोबोल पुरूस्कार तक पहुंची हैं | सामाजिक रूप से बेहद संकीर्ण और खतरनाक वक़्त में भी स्त्री स्वर को मुखर करने वाली लेखिका “शार्लिट ब्रॉन्टी” को उनके दूसरी शताब्दी वर्ष में चर्चा कर रहीं है ‘विजय शर्मा‘ ….| – संपादक

टू वीमेन: युद्ध काल में स्त्री: आलेख (प्रो0 विजय शर्मा)

टू वीमेन: युद्ध काल में स्त्री: आलेख (प्रो0 विजय शर्मा)

विजय शर्मा 553 11/18/2018 12:00:00 AM

”युद्ध का स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली अच्छी फ़िल्मों की संख्या और भी कम है। ‘टू वीमेन’ उन्हीं कुछ बहुत अच्छी फ़िल्मों से एक है। ‘टू वीमेन‘ उपन्यास युद्ध काल में स्त्री जीवन की विभीषिका का सचित्र, उत्कृष्ट एवं भयावह चित्रण करता है। स्त्री जीवन की इसी भयावहता, कठोरता और क्रूरता का फ़िल्मांकन इस फ़िल्म का कथानक है। यह एक बेबाक फ़िल्म है जो सोचने पर मजबूर करती है। युद्ध पुरुषों का शगल है, पर मारी जाती है स्त्री। मर जाती तो भी भला था। युद्ध काल में वह मृत्यु से भयंकर हालात में जीने को मजबूर होती है। स्त्री शांति काल में सुरक्षित नहीं है, वह युद्ध काल में सुरक्षित नहीं है। वह विदेश में असुरक्षित है, अपने देश में भी सुरक्षित नहीं है। और तो और वह देवालय-गिरजाघर में भी सुरक्षित नहीं है।” ‘टू वीमेन‘ के संदर्भ में ‘विश्व महिला दिवस‘ पर ‘डा० विजय शर्मा‘ का विस्तृत और समीक्षात्मक आलेख …….| – संपादक

छोड़छाड़ के अपने सलीम की गली… : आलेख (प्रो० विजय शर्मा)

छोड़छाड़ के अपने सलीम की गली… : आलेख (प्रो० विजय शर्मा)

विजय शर्मा 893 11/18/2018 12:00:00 AM

“प्रेम क्या है? प्रेम में पड़ना क्या होता है? इसे लिख कर व्यक्त नहीं किया जा सकता है फ़िर भी युगों-युगों से प्रेम पर लिखा जाता रहा है, आगे भी लिखा जाता रहेगा। इसे जानने-समझने का एक ही तरीका है आपादमस्तक इसमें डूबना। यह प्रेरक है, इसीलिए न मालूम कितने चित्र, मूर्तियाँ और साहित्य इसकी उपज हैं।” (गैब्रियल गार्सिया मार्केस की किताब ‘लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा’) के संदर्भ में आधुनिकता, प्रेम और सेक्स के आंतरिक और सूक्षतम सम्बन्धों और मानवीय रिश्तों के बीच प्रेम के लिए स्पेस खोजने एवं समझने का प्रयास करता ‘प्रो० विजय शर्मा‘ का आलेख …| – संपादक

हलाला निकाह: एक वैध वेश्या-वृत्ति: आलेख (हुश्न तवस्सुम निहाँ)

हलाला निकाह: एक वैध वेश्या-वृत्ति: आलेख (हुश्न तवस्सुम निहाँ)

हुश्न तवस्सुम निहाँ 1778 11/18/2018 12:00:00 AM

“कहा जाता है कि शरीयतन स्त्री को इस्लाम में तमाम अधिकार दिए गए हैं। ऐसा वास्तव में है भी किंतु ये अधिकार कभी अमल में लाते हुए दिखाई दिए नहीं। अर्थात ये सारे महिला अधिकार सिर्फ धर्म ग्रंथों तक ही सीमित हो कर रह गए हैं । इन अधिकारों को व्यवहार में लाया ही नहीं गया। बल्कि मुस्लिम महिला को बताया तक नहीं कि उसे कुछ अधिकार भी मुहैया कराए गए है। क्यँू ? क्योंकि अगर वह अपने अधिकारों की बाबत जान लेगी तो कल अधिकार मांगने को खड़ी भी हो जाएगी। शायद यही कारण है कि आज के समय में यदि महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो सबसे बत्तर स्थिति मुस्लिम महिला की है। हलाला निकाह मुस्लिम महिला के शेाषण की ही एक अगली कड़ी है। हलाला निकाह के बारे में ठीक-ठीक स्पष्ट नहीं कि इसका इतिहास क्या है, क्यूं ये रिवायत शुरू करनी पड़ी। इसके पीछे का लॉजिक क्या था। तलाक और फिर निकाह और फिर तलाक की थ्योरी क्या है? या फिर किसी पैगम्बर या खलीफा की पत्नी का भी कभी हलाला निकाह हुआ था या नहीं ? बहरहाल स्थिति है तो बेहद गम्भीर और शर्मनाक।हलाला इस्लाम धर्म की एक ऐसी प्रथा है जो काफी निंदनीय कही जा सकती है। इसमें एक तलाकशुदा पत्नी को अपने पति से दोबारा निकाह करने के लिए, उससे पहले किसी दूसरे मर्द से निकाह करना पड़ता है। यही नहीं उसके साथ हमबिस्तरी भी जरूरी है। यानि निर्दोष होते हुए भी काल का ग्रास महिला को ही बनना है। पति के कुसूर की सजा पत्नी को, क्योंकि वह महिला है। यह तो एक तरह का यौन उत्पीड़न ही है। अर्थात महिला के यौन उत्पीड़न की खुली छूट।” ‘हुश्न तवस्सुम निहाँ‘ का आलेख ……

खुदा-ए-सुखन, ‘मीर-तकी-मीर: आलेख (एस तौहीद शहबाज़)

खुदा-ए-सुखन, ‘मीर-तकी-मीर: आलेख (एस तौहीद शहबाज़)

एस. तौहीद शहबाज़ 809 11/18/2018 12:00:00 AM

यह बात याद रखने योग्य है कि हिन्दी और उर्दू भाषा के निर्माण के इतिहास में अठाहरवीं शताब्दी, जो मीर की शताब्दी है, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उस समय तक भाषा का नाम केवल हिन्दी था । कभी-कभी उसे जबान-ए-देहलवी भी कहा जाता था। इसका सबसे अधिक विश्वस्त रूप उर्दू लिपि में और उर्दू शायरी के रूप में निखर रहा था । इस शताब्दी में यह जुबान स्थानीय बोलियों की हदबंदी से आजाद होकर हिन्दुस्तान व्यापी जबान बन गयी। हिन्दी के संत कवियों और उर्दू के सूफी शायरों ने जनता की बोलियों को अपनाया और कबीर, मीरा, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, वली दकनी, सौदा और मीर ने उच्चश्रेणी के शाहकार पेश किए जो दुनिया की दूसरी भाषाओं की उच्चश्रेणी शायरी से आंखें मिला सकते हैं। ……. बीते 21 सितम्बर को ‘मीर-तकी-मीर’ की पुण्यतिथि पर ‘एस तौहीद शहबाज़’ का आलेख …..

मुस्कुराहट बिखेरने से मिलती है वास्तविक खुशी: आलेख (सुशील कुमार भारद्वाज)

मुस्कुराहट बिखेरने से मिलती है वास्तविक खुशी: आलेख (सुशील कुमार भारद्वाज)

सुशील कुमार भारद्वाज 473 11/18/2018 12:00:00 AM

एक इंसान की खुशी दूसरे की भी खुशी हो, कोई जरूरी तो नहीं. जैसे इस दुनियां में सुंदरता और संतुष्टि का कोई निश्चित पैमाना नहीं है ठीक उसी प्रकार खुशी का कोई निश्चित स्वरूप या पारामीटर नहीं है. खुशी हमें हर उस क्षण से मिल सकती है जिस पल हम स्वयं को आनंदित करते है. परिवार, दोस्त, सहकर्मी या फिर जीवन में मिलने वाले हर प्राणी से निष्पक्ष एवं निष्कलुष भाव से मिलते हैं. जहां हम कुछ वापस पाने की आस लगाने की बजाय परोपकार या सहयोग की भावना से कार्य करते हैं. जब हम अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ प्रकृति के हर जीव –जंतु के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने से गुरेज करते हैं. स्वर्ग की परिकल्पना खुशी की ही भूमि पर तैयार की जाती है जहां मनुष्य सारी चिंताओं और विध्न-बाधाओं से दूर हो सिर्फ भोग-विलास में खोया रहना चाहता है. जबकि सभी जानते हैं कि किसी चीज में हमारी आसक्ति ही हमारे खुशी के विनाश का कारण बनती है. कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य के पास होने से खुशी मिलती है तो कोई कहता है दूर रहने से. जबकि खुशी का सम्बन्ध नजदीकी और दूरी से नहीं है….

मानवीय करुणा का उच्च शिखर है परसाई का व्यंग्य: आलेख (सुरेश क़ांत)

मानवीय करुणा का उच्च शिखर है परसाई का व्यंग्य: आलेख (सुरेश क़ांत)

सुरेश कान्त 628 11/18/2018 12:00:00 AM

जीवन की व्याख्या के लिए एक विचारधारा की अनिवार्यता बताते हुए परसाई लिखते हैं, “एक ही बात की व्याख्या भिन्न–भिन्न लोगों के लिए भिन्न–भिन्न होती है. इसलिए एक विचारधारा जरूरी है, जिससे जीवन का ठीक विश्लेषण हो सके और ठीक निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके. इसके बिना लेखक गलत निष्कर्षों का शिकार हो जाता है. मेरा विश्वास मार्क्सवाद में है. यहीं से प्रतिबद्ध लेखन का विवादास्पद प्रश्न खड़ा हो जाता है. प्रतिबद्ध लेखन को जो पार्टी–लेखन मानते हैं, वे अनजाने या जान–बूझकर भूल करते हैं. प्रतिबद्धता एक गहरी चीज है, जो इस बात से तय होती है कि समाज में जो द्वंद्व है, उसमें लेखक किस तरफ खड़ा है—पीड़ितों के साथ या पीड़कों के साथ. कोई यह स्वीकार नहीं करेगा कि वह पीड़कों के साथ है. पर यदि वह अपने को किनारे की या बीच की स्थिति में रख लेता है, तो निश्चित रूप से पीड़कों का साथ देता है. अपने पक्ष के निर्वाचन से कोई बचाव नहीं, सिवा छल के. …जो जीवन से तटस्थ है, वह व्यंग्य–लेखक नहीं, जोकर है.”

आदर्श समाज की परिकल्पना-संत रैदास: आलेख (शिवप्रकाश त्रिपाठी)

आदर्श समाज की परिकल्पना-संत रैदास: आलेख (शिवप्रकाश त्रिपाठी)

शिव प्रकश तिरपाठी 1418 11/18/2018 12:00:00 AM

रविदास ने ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमें कोई ऊंच-नीच, भेदभाव, राग-द्वेष न हो। सभी बराबर हो सामाजिक कुरीतियों न हो, जिसे कालान्तर में महात्मा गांधी द्वारा रामराज्य की अवधारणा के रुप में महत्व मिला। संत रैदास के काव्य में आदर्श राज्य के लिए चिंतित दिखते है। उन्होंने राज्य के आवश्यक तत्वों पर विचार किया तथा उनकी नई व्यवस्था करके बेगमपुर शहर की परिकल्पना की। हम इनके इस परिकल्पना को इनके काव्य में देख सकते है। आपने आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक तीनों क्षेत्रों में अपने विचार व्यक्त किये है।…. संत रविदास की जयंती पर शिव प्रकाश त्रिपाठी का विस्तृत आलेख ..|

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