अचेतन मानव तंतुओं को चेतन में लाने का प्रयास करतीं ‘अभिज्ञात‘ की कवितायें ……
अदृश्य दुभाषिया
चिट्ठियां आती हैं
आती रहती हैं
कागजी बमों की तरह हताहत करने
समूची संभावना के साथ
कौन सा शब्द किस आशय से टकरा जाये
कहां
कहा नहीं जा सकता
हर शब्द ख़तरनाक हो सकता है
चिट्ठियों को चाहिए जवाब
कहां हैं जवाब
किस ओर किसके पास
अगर चिट्ठी हो मुझे ही संबोधित
लिखा हो मेरा ही नाम पता
जवाबदेही मेरी है
नाम बदल दूं मसखरी में
तो तुम्हें भी घायल कर सकती है
या हड़बड़ी में अपनी समझ पढ़ बैठे कोई
अपना क्या नहीं होगा
नाम पता सम्बोधन के अलावा
क्या है जवाब?
समस्याएं बहानों में कैसे तब्दील हो जाती हैं
नहीं जानता
क्या कागज, अंतरदेशी, लिफाफे, पोस्टकार्ड
यह गुस्ताख दुभाषिए हैं
जो समस्या को बहाने में बदल देते हैं
चुपचाप
या स्याही की ठीक नहीं है नीयत
हवाएं: जहां लिखी जा रही हैं चिट्ठियां
पढ़ी जा रही हैं
कौन है वह अदृश्य दुभाषिया
कहना मुश्किल है
मगर चिट्ठियां
अपने सही आशय के साथ
नहीं पहुंचतीं।
आश्वासन की पीठ
जरूर चींटी ने
मेरे कान में कुछ कहा
साभार google
पूरी ताकत के साथ
क्या? मैं सुन नहीं पाया
मुझे अच्छा लगा
चींटी का इस तरह से कुछ कहना
जबकि वह पूरे तौर पर दाव पर थी
वह अपनी आवाज समेत बिला सकती थी
मेरे कान की जानलेवा गुफा में
मुझे संतोष देता है
किसी का इस तरह से कुछ करना
मुझे शर्म आई
चींटी के आगे, मैं उससे छोटा हुआ
मैं चींटी बनूंगा, मैंने अपने से कहा
और अपने आश्वासन की पीठ थपथपाई
अब मेरे सामने
एक विस्तृत पीठ का फैलाव था
जिस पर मैं कर सकता था अपनी यात्राएं।
बिसुक गई है पीड़ा
पीड़ा बाहर आ सकती है
मछली की तरह उछलकर
चुप्पी से
पीड़ा को बज लेने दो
जो वह बजती हो
बहुत ख़तरनाक होता है पीड़ा का हस्ताक्षर
यदि वह हो चेहरे पर
उसी से मिलता जुलता
एकदम अस्पष्ट
स्पष्ट तो खैर, होती ही नहीं पीड़ा
अक्सर सुरेन्द्र जोशी की पेंटिंग में समाते देखा है
औरतों के ऐंठे जिस्म में
शहर के तमाम बरतनों को मुंह चिढ़ाते हुए
पीडा कभी-कभार
साकी बार में एकाध पैग पीकर
टिप के पैसों से कन्नी काट निकल भागने की कोशिश में
बाहर आ सकती है
नशे का बहाना कर
बेयरे की आंखों में अपनी याचना करती आंखे डालने के पहले
अजानी प्रसन्नता की अनंत प्रतीक्षा से अघाकर
बिसुक गई है पीड़ा
इसे हाथ न लगाओ
चार पिल्लों को जनकर
झल्लाई हुई कटही कुतिया में बदल सकती है
कभी भी।