आज 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' और हमरंग द्वारा आयोजित 'एक कहानी रोज़' आयोजन के समापन पर साक्षात्कार के रूप में वरिष्ठ लेखिका और संपादक 'नमिता सिंह' से साहित्य, समाज और स्त्री अस्मिता के कई आयामों पर हमरंग की सह संपादक 'अनीता चौधरी' की बात-चीत॰॰॰॰॰
स्त्री विमर्श कई आयाम: साक्षात्कार
१- इन दिनों स्त्री विमर्श किस स्थिति में चल रहा है ? क्या अब अत्याधुनिक समय में स्त्री विमर्श कम हो रहा है ?
स्त्री विमर्श का मतलब है, स्त्रियों की स्थितियों पर बातचीत और उनके लिए एक न्यायोचित माहौल बनाने की बातचीत | यह बातचीत भी पिछले डेढ़ सौ या पौने दो सौ सालों से शुरू हुई है, उससे पहले इस तरह की कोई बात नहीं होती थी | खासतौर से उन्नीसवी शताब्दी में जब सुधारवादी आन्दोलन शुरू हुए, उस वक्त जो सबसे पहला कार्यक्रम बना, समाज सुधार में स्त्रियों की स्थिति | स्त्रियों के बंदी जीवन में समानता का कहीं कोई अवसर नहीं था | शिक्षा उनके लिए निषेध थी | उनकी कोई आवाज ही नहीं थी | तब से तो बात शुरू हुई | धीरे-धीरे आज हम इस स्थिति पर पहुँचे हैं कि स्त्रियों को संविधान में बराबर के अधिकार हैं | स्त्रियों के लिए राज्य की ओर से भी शिक्षा के लिए प्रबंध किये गए हैं और एक बड़ा मध्य वर्ग बना है | जिसमें सामान्यत: स्त्री और पुरुष की समानता की बात होती है | यह समानता की बात शिक्षा के स्तर पर भी होती है, लेकिन पूरे समाज का एक रवैया जो स्त्री को भी अपने बराबर समझने की बात करे, वह तो आज भी नहीं है | आज पूरे देश में रेप की घटनाएँ हो रही है| इस रूप में स्त्रियों के साथ जो व्यवहार पूरे समाज हो रहा है | अगर ऐसा ही चलता है तो वह जस्टिफाइड है क्योंकि समाज, स्त्रियों की एक सम्मानजनक स्थिति के लिए तैयार नहीं हो पा रहा है | इसके लिए बहुत बातचीत भी हो रही हैं | जब कभी कोई रेप की बड़ी घटना होती है | मोलीस्ट्रेशन की बात होती है, बड़ा हल्ला-गुल्ला भी होता है | कैंडिल मार्च भी निकाले जाते हैं । आज भी स्त्रियां असम्मानजनक स्थितियों में जी रही हैं | स्त्रियों के लिए समाज में एक समान वातावरण बनाने के लिए जमीनी कोशिशें करनी पड़ेंगी, इसके बाद भी कितना लंबा वक्त लगेगा, जिससे हम कुछ अचीव कर पाये | इसलिए स्त्री विमर्श को कम करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है |
२. स्त्री सुरक्षा को लेकर जो कानून बनाए गए हैं | उनका असर आप समाज में कितना देखती है ?
स्त्रियों के लिए क़ानून तो बहुत पहले से ही बनाए जा रहे थे, लेकिन उनमें बहुत लू पोल्स थे | धीरे-धीरे बात होती गई | महिला संगठनों ने भी इस पर बात की | दिसंबर २०१२ में निर्भया कांड से लोगों में ज्यादा जागरूकता आई | तब जस्टिस वर्मा कमेटी के सभी बिन्दुओं पर व्यापक रूप से चर्चा की गई और क़ानूनों में भी बदलाव किये गए | लेकिन क़ानून बना देने से भी तो कुछ नहीं होता | उसमें जो कठोर प्रावधान बने, उसका नतीजा यह हुआ कि अब गैंगरेप करने के बाद लड़की की ह्त्या कर दी जाती है | जिससे सबूत भी मिट जाते हैं और जुर्म साबित भी नहीं होता है | कहने का मतलब यह है कि समाज की स्थिति अभी भी ज्यों की त्यों है | उसकी सोच में एक रत्ती भर का परिवर्तन नहीं दिखाई देता | अंतर सिर्फ यह है, अगर सबूत है और जुर्म साबित हो जाता है तो उसको सजा मिल जायेगी | वरना आज से दस या बारह साल पहले जो आंकड़े लिए जाते थे उसमें कन्वेंशन रेट बढ़ा है | आज वह न्याय माँगते-माँगते तंग आ जाती है | जिसका अंत फिर सुसाइड में होता है | कितने ऐसे केस हुए हैं जहाँ बलात्कार की पीड़िता ने अंत में आत्महत्या ही कर ली | इसलिए बदलाव तो यह आया है कि अब रेप होते हैं और ह्त्या हो जाती है | जिससे सबूत ही न रहे | इस दिशा में भी विमर्श की अभी और ज़रूरत है ।
३. ऑनर किलिंग या साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों को महिला लेखिकाएँ अपनी लेखनी में कम ही शामिल कर रही हैं | आपको इसके क्या कारण नजर आते हैं ?
अगर मैं साम्प्रदायिकता की बात करूँ तो यह जरुर है कि बहुत महिलायें इन मुद्दों पर नहीं लिख रही हैं | उसका एक कारण यह है कि सांप्रदायिकता के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बहुत साफ़ नहीं है | लोगों ने साम्प्रदायिकता को खाली एक दंगा या लड़ाई-झगड़े के रूप में देखा है | दूसरा कारण राजनैतिक है जो विशेष रूप से सत्ता या व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है | हमारे यहाँ पर लोग राजनीति से बहुत दूर रहते हैं और इसे बहुत बुरी चीज समझते हैं और अक्सर कहते हैं कि हमें राजनैतिक नहीं होना है ।
दूसरा यह है कि इस रूप में बहुतायत में हमारी महिला लेखिकाएं सामाजिक आन्दोलनों से नहीं जुडी हैं | मैं अपने को बहुत सौभाग्यशाली समझती हूँ कि लेखन के साथ-साथ मैं आन्दोलनों से भी जुड़ी रही | खासतौर पर यहाँ कुँवरपाल का भी योगदान रहा था | हमने साथ मिलकर साम्प्रदायिकता के माहौल में सद्भावना और एकता के लिए राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर काम करने और इन चीजों से रूबरू होने की वजह से, हम पुरस्कार और सम्मानों से दूर रहे | इसलिए बड़ी संख्या में हमारी महिला लेखिकायें और बहुत से पुरुष लेखक भी इन मुद्दों पर नहीं आते हैं कि यह खतरे की चीज़ है |
जहाँ तक ऑनर किलिंग की बात है | इसे समझाने की जरुरत है कि खुद लेखक भी इसी समाज का प्राणी है | उसने अपने आप को सामाजिक और राजनैतिक रूप से इतना शिक्षित नहीं किया है कि वह इन सवालों पर आपके साथ आ सके | अभी हमारे समाज में बहुत से लेखक व लेखिकाएं हैं जो जातियों से अलग या इंटररिलिजन शादियाँ हो जाए तो उसे खुद भी अच्छा नहीं समझते हैं | इसके लिए बहुत ही उदारवादी सोच व विचारधारा की जरुरत होती है | तब आप इस पर उतनी ही प्रखरता से बात कर पाओगे और उसे संवेदना के स्तर पर महसूस करोगे | इस विषय पर कुछ एक कहानियाँ है, बहुत ज्यादा तो नहीं है | हालांकि यह एक व्यापक रूप से विषय नहीं बना है | लेखक अपने आस-पास जो देखता है उसी पर लिख देता है | लेकिन जब तक लेखक के पास पूरा वैचारिकता का आधार न हो तो उसके लिए मुश्किल होता है इन मुद्दों पर कलम चलाना |
४. वर्तमान समय में युवा पीढ़ी या ख़ास तौर से युवातियाँ, शादी जैसी संस्थाओं से विमुख हो रही हैं | आप इसके क्या कारण मानती हैं ?
खासतौर पर जब युवतियां शादी जैसी संस्था से दूरी बना रही हैं उसका कारण है, भारतीय पारम्परिक संस्कार में शादी के बाद, उस रुढ़िवादी पुरुष को पत्नी रूपी महिला पर डोमिनेंट होने का जो पारिवारिक वातावरण मिल जाता है | आज लड़की उस वातावरण से वैचारिक रूप से मुक्त होना चाहती है | उसने एजूकेशन के साथ जो विचारधारा पढ़ी है उसी के अनुसार जीवन जीना चाहती है | लेकिन हमारे भारतीय परिवार और परम्परा की अवधारणा के अंतर्गत शादी के बाद पति को पत्नी पर कई सारे अधिकार मिल जाते हैं जो हर स्तर के होते हैं | चाहे वह सेक्स के रूप में हों या परिवार में डोमिनेंस के रूप में | आज की कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की किसी भी वर्ग की हो, उसकी भी अपनी मर्जी और इच्छा है | क्यों जरुरी है कि पति के चाहने पर ही बच्चे पैदा हो ? वह नहीं चाहती तो यहीं पर क्लेश हो जाता है | यहाँ पर पति में अपने अधिकार की भावना जागृत हो जाती है |
लड़कियों के पढ़ने-लिखने से उनमें एक स्वाभिमान, अपनेपन, अस्मिता और अपने व्यक्तित्व के प्रति सजगता की जो स्थिति आई है | वहाँ पर इस तरह के क्लेश होना बहुत स्वाभाविक है | इसलिए कई बार ठोस स्थूल कारण नहीं होने पर भी तलाक हो जाता है | इसीलिए वे कहती हैं कि हम इस तरह से बंधन में नहीं रह सकतीं | हम स्त्री सशक्तिकरण और स्त्रियों के प्रति हिंसा की बात करते हैं लेकिन जब तक हमारे पुरूष समाज की एजूकेशन नहीं होगी तब तक ये चीजें सही नहीं हो सकती हैं इसीलिए तलाक हो रहे हैं, अलग-अलग रहने की बात हो रही है, लिव इन रिलेशनशिप हो रही है या फिर शादी ही न करो | यह केवल ग्लोबल इफेक्ट ही नहीं है, इसमें लड़कियां पढ़-लिखकर चेतना संपन्न हुई हैं, यह भी एक कारण है | यह बदलाव सिर्फ हाई क्लास की लड़कियों में ही नहीं हैं | पहले की अनपढ़ और पढ़ी-लिखी लड़कियां भी इस तरह के निर्णय ले रही हैं | क्योंकि वह इस तरह के वातावरण को देख रही हैं, उनकी मानसिकता में बदलाव है | लेकिन यह बदलाव लड़कियों के स्तर पर तो हो रहा है किंतु पूरे समाज के स्तर पर नहीं हो रहा है | इसीलिए कॉण्ट्राडिक्शन्स पैदा हो रहे हैं | मैं हमेशा कहती रही हूँ कि जब भी हम स्त्री सशक्तिकरण और स्त्री विमर्श की बात करें तो यह केवल स्त्री समूहों के लिए नहीं है | पूरे समाज को एडजस्ट करने वाली बात कहें |
५. आपको लगता है कि सम्पूर्ण स्त्री विमर्श को एक ही दिशा में एक ही तरीक़े क्रियान्वित किया जाना चाहिए या कोई सशक्त कदम उठाने चाहिए और वो क्या कदम हो सकते हैं |
आज से दस या बारह साल पहले स्त्री विमर्श पर बात करते थे (हालांकि आज भी करते हैं) | तो हम कहते थे कि स्त्रियों की आपस में एकता होनी चाहिए | पूरी दुनिया की औरतों की एक सी कठिनाइयाँ, कष्ट और समस्याएं हैं | हमने देखा कि समाज में आज भी वर्णवादी व्यवस्था बहुत निर्मम है | दलितों की स्थितियां देखी या २००२ में गुजरात देखा, उससे पहले भिमंडी देखा | यह सब देखकर हमारी स्त्री विमर्श की अवधारणा बिल्कुल समाप्त हो गयी, इसलिए स्त्रियों पर बात करते वक्त हमारा बयान, वर्ग आधारित होना चाहिए | बिना वर्ग आधारित स्त्री विमर्श किए, हम सही नतीजों पर नहीं पहुंच सकते हैं | हमें दलित स्त्रियों की अलग तरह से बात करनी पड़ेगी और वहीँ हमें ग्रामीण स्त्रियों की बात दूसरी तरीके से करनी होगी जहाँ मुद्दे भी दूसरे हो जायेंगे, शायद जो पहले महत्वपूर्ण नहीं थे लेकिन दूसरी जगह महत्वपूर्ण हो जायेंगे | इस तरह से जब हम धार्मिक पहलू पर बात करेंगे तो हमारी एप्रोच मिडिल क्लास औरतों के लिए दूसरी हो जायेगी जहाँ पर हमें कहना पड़ेगा, धर्म के आधार पर एक समूह की औरतों पर अत्याचार होता है | उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? कैसे हम उसका निराकरण कर सकते हैं ? यह हमारी क्लास बेस्ड एप्रोच होनी चाहिए | उसके बिना हम सही नतीजों पर नहीं पहुँच सकते और न ही सही तरीके से बात कर सकते हैं |
६. अधिकतर महिला लेखकों की कहानियों में कहानी के बिंदु घरेलू होते हैं, दूसरे व्यापक मुद्दे कम ही होते हैं | इसके क्या कारण है कि उनका प्रतिशत न के बराबर रहता है ?
आज कुछ लेखिकाएं व्यापक रूप से मुद्दों को ले रही हैं | लेकिन अभी भी बहुत बड़ी संख्या में महिला लेखिकाएं ऐसी हैं जो घरेलू और आपसी मुद्दों को ही लेती हैं | उसका कारण यह कि औरतें अपने दुखों से ही इतनी परेशान होती हैं लेकिन कुछ लेखिकाएं हैं जिनकी नजर सभी समस्याओं पर जा रही है | उन्होंने आदिवासियों पर, विस्थापन पर और जाति व्यवस्था की विद्रूपताओं पर लिखा है और उनमें राजनैतिक विषय भी हैं | लेकिन मैं इस बात को मानती हूँ कि राजनीति में लिखना जो है अपने आप को अग्निपथ से निकलना है । अगर हम गंभीर लेखन के जरिये सांप्रदायिकता पर चोट कर रहे हैं तो कैसे सत्ता व्यवस्था को छोड़ देंगे | मेरा उपन्यास ‘लेडीज क्लब’ और बहुत सारी कहानियाँ हैं जैसे- राजा का चौक है उसमें हम कैसे इन मुद्दों को छोड़ सकते हैं | अगर इन सब बातों पर लिखते हैं तो सत्ता व्यवस्था से अलग नहीं हो सकते हैं | जैसे किसी लेखिका ने अपनी इमेज एक नारीवादी लेखिका के तौर पर बनाई है | अब सवाल उस इमेज को बनाए रखने का भी है | अगर आप स्त्रीवादी हैं और आपके लेखन में इससे इतर कोई बात आ रही है, जैसे कि स्त्रियों पर भी आजकल के माहौल, ग्लोबलाइजेशन या बाजारवादी संस्कृति का असर है, उससे कभी-कभी औरतें भी शोषक के रूप में व्यवहार करने लगती हैं | इससे उनकी जो इमेज बनी हुई है वह खराब होगी | कई बार ऐसा होता है कि आपको अपनी इमेज को बनाये रखने के लिए एक ख़ास तरह का लेखन करना पड़ता है | तो यह भी एक मजबूरी हो जाती है कि जो इमेज बन गयी है उसको भी सुरक्षित रखने की जरूरत होती है | हालाँकि एक लेखक के तौर पर हमारा दृष्टिकोण सार्वभौमिक हो | जिससे हम सामाजिक, राजनीति और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर भी बात कर सकें |