12 अक्टूबर 2015 को जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कन्वेंशन सेंटर में ‘संसप्तक‘ की नाट्य प्रस्तुति ‘ना हन्यते’ का समीक्षात्मक विवेचन कर रहे हैं ‘अभिनव सब्यसाची‘ जो पेशे से पत्रकार हैं और स्वयं भी 15 सालों से थिएटर में सक्रिय हैं।
गंभीर नाटकों की कमी को भरता ‘न हन्यते’
फ्रांसीसी साहित्यकार और दार्शनिक अलबर कामू अपनी मृत्यु के 55 साल बाद भी, हमारी पीढ़ी को अपने विचारों से लगातार प्रभावित कर रहे हैं। साहित्यकारों, दर्शनविदों, नाट्यकर्मियों और विचारकों का कामू के प्रति आकर्षण कम होता नहीं दिख रहा। विशेषकर साहित्य और रंगमंच पर कामू के विचार बार-बार अपने मूल रूप में तो कभी विवेचना के साथ दिख रहे हैं। 12 अक्टूबर 2015 को जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कन्वेंशन सेंटर में ‘संसप्तक’ नामक नाट्य दल ने अपने नाटक ‘ना हन्यते’ के ज़रिये, एक बार फिर कामू द्वारा उठाई गयी एक पुरानी बहस का दर्शंकों के सामने मंचन किया।
अलबर कामू ने 1949 में ‘द जस्ट’ नामक एक नाटक लिखा था जो ‘द जस्ट असैसिन्स’ नाम से प्रसिद्ध है। यह नाटक 1905 में रुसी सोशलिस्ट-क्रांतिकारियों द्वारा ग्रैंड डयूक अलेक्ज़न्द्रोविच की हत्या की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था। इस नाटक के अनुवाद और इसके रूपांतरण विश्व के अनेक भाषाओं में हुए हैं। हिंदी में भी इस नाटक को ‘जायज़ हत्यारे’ नाम से खेला जाता है। बंगला नाट्यकार तरित मित्र ने ‘द जस्ट असैसिन्स’ से प्रभावित होकर बंगला नाटक ‘हन्यमान’ लिखा था। नाट्यकार ने स्वयं इस नाटक को कई बार संसप्तक के लिए बंगला और हिंदी में (‘न हन्यते’ नाम से) निर्देशित किया है।
नाटक को इसके कथ्य, अभिनय और निर्देशन के लिये प्रसिद्धि मिली। संसप्तक, जो दिल्ली में नब्बे के दशक से सक्रिय है, को इस नाटक से विशेष पहचान मिली। ‘हन्यमान’ और ‘न हन्यते’ संसप्तक की सबसे सफल प्रस्तुतियों में से एक रहा है। इसकी सफलता के पीछे दल के अनुभवी कलाकार और निर्देशक की अहम भूमिका रही है। लेकिन इस बार ‘न हन्यते’ का मंचन दल के एक नए निर्देशक अंजन बोस के निर्देशन में हुआ। इस बार अभिनेता भी पहले की तुलना में कम अनुभवी और नये थे। निश्चित तौर पर इस कारण नाटक का प्रभाव भी पहले की तुलना में अलग रहा।
अलबर कामू के मूल नाटक की तरह ही ‘न हन्यते’ भी क्रांति के उद्देश्यों को लेकर क्रांतिकारियों के संशय, क्रांतिकारी से हत्यारे बन जाने के डर और क्रांति में हत्यायों को कितना न्यायोचित ठहराया जा सकता है, की बहस है। कामू ने कहा था, “मरने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन मारने का कोई कारण नहीं हो सकता।” इस नाटक में पात्र मरने और मारने के कारण ढूँढ़ते हैं। ‘न हन्यते’ की पृष्ठभूमि असहयोग आन्दोलन के बाद का बंगाल है। यह क्रांतिकारियों के एक दल की कहानी है। मानवता, नैतिकता और क्रांति के बीच झूलते ये क्रांतिकारी एक ब्रिटिश गवर्नर की हत्या की साजिश रच रहे हैं।
हत्या की पहली कोशिश तब नाकाम हो जाती है जब बम फेंकने से पहले पता चलता है कि जिस गाड़ी में गवर्नर थे उसमें उनका परिवार भी था। इस नाकामी के बाद दल के सदस्यों के अहम्, उसूल और व्यक्तिगत विचार आपस में टकराते हैं। अंत में बिखरता दल संभलता है और हत्या की दूसरी कोशिश करता है लेकिन गवर्नर के बदले एक दूसरे अंग्रेज़ अफसर की हत्या हो जाती है और दल का एक महत्वपूर्ण सदस्य पकड़ा जाता है। मानवतावादी होने और क्रांति के हिंसक पक्ष का समर्थक ना करने के कारण वह गलत व्यक्ति की हत्या के बाद खुद को कमज़ोर महसूस करता है। जेल में उसे सरकार के पक्ष में बयान देकर अपने अन्य साथियों का नाम बताने के लिए बाध्य किया जाता है परन्तु वह यातनायें सहकर भी क्रांति के प्रति ईमानदार रहता है और अंत में फाँसी के तख़्त पर बिना किसी शिकन के चढ़ जाता है।
नाटक के मुख्य पात्रों में कुणाल सान्याल एक कवि हृदय क्रांतिकारी है जो जीवन को किसी भी क्रांति से बड़ा मानता है। अपने साथियों से कई मुद्दों पर असहमत होने के बावजूद वह निष्ठा के साथ अपने दल के नियमों का पालन करता है और अंत तक नहीं टूटता। वहीँ शिव हालदार एक रैडिकल क्रांतिकारी है जिसके लिए उपनिवेशवाद सबसे बड़ा दुश्मन है और क्रांति के उद्देश्य के लिए वह किसी भी हद तक जाने को गलत नहीं मानता। आसिफ़ हुसैन दल का लीडर है और अपने अन्दर के द्वन्द को छिपाये पूरे दल को एकजुट बनाये रखना चाहता है। एला दत्त के मन में असफलता का डर तो है पर वह उसे कभी अपने चेहरे पर प्रकट नहीं होने देती। निलिनी मौत के डर से जूझते हुए एक दिन खुद को क्रांति से अलग कर लेता है। नाटक के अन्य पात्रों में आई.बी. के असिस्टेंट कमिश्नर केदारनाथ त्रिवेदी और मृत एडीसी की विधवा मारग्रेट मककार्थी नाटक के छोटे परन्तु महत्वपूर्ण पात्र हैं जो नाटक के कथ्य को उचित गहराई देते हैं।
नाटक का एक दृश्य
नाटक की शुरुआत पोस्ट मॉडर्न अंदाज़ में होती है जब कुणाल तेज़ संगीत और मंच पर ग्राफिक्स के प्रोजेक्शन के बीच बॉडी मूवमेंट के ज़रिये अपने मानसिक द्वन्द को दर्शकों के सामने रखता है। इस दृश्य को देखकर लगता है कि नाटक की प्रस्तुति पोस्ट मॉडर्न शैली में ही होगी लेकिन बाकी का नाटक मॉडर्निस्ट शैली में ही निर्देशित किया गया है। अगर नाटक के लेखन की बात करें तो यह एक मॉडर्निस्ट नाटक ही है। ऐसे में किसी भी निर्देशक के लिए उसे पोस्ट मॉडर्न शैली में प्रस्तुत करना एक बड़ी चुनौती होती है । साथ ही पोस्ट-मॉडर्न थिएटर में सैट से लेकर अभिनय और प्रस्तुति के इतने प्रयोग हो चुके हैं कि ठीक-ठीक यह बताना भी मुश्किल है कि पोस्ट-मॉडर्न थिएटर की क्या ख़ास शैली होती है ! वैसे इस नाटक का सैट भी कुछ हद तक ऐबस्ट्रक्ट है जिसे निश्चित तौर पर पोस्ट मॉडर्न प्रयोग कहा जा सकता है।
नाटक का पहला सीन जेलखाने का है जहाँ कुणाल कैद है और केदारनाथ त्रिवेदी उसकी मुलाकात मारग्रेट मककार्थी से करवाता है। बाद में केदारनाथ कुणाल से अपने जुर्म की स्वीकारोक्ति करने को कहता है। यह दृश्य काफी धीमी गति का था। मारग्रेट मककार्थी और कुणाल के बीच के संवाद लम्बे थे और मककार्थी की आवाज़ ऑडिटोरियम के अंत तक बैठे दर्शकों तक पहुँच नहीं रही थी। इसके बाद के दृश्यों में पूर्व की घटनायें हैं जिनमें हत्या की साजिश से लेकर हत्या की दूसरी कोशिश तक की कहानी और अंतिम दृश्य फिर से वर्तमान में आकर ख़त्म होता है।
दूसरा दृश्य तेज़ गति से चलता है और इसमें दर्शकों का सभी पात्रों से एक-एक कर के परिचय होता है। तीसरा दृश्य काफी तनाव भरा था लेकिन बेहतर अभिनय से असरदार बन पड़ा । चौथे दृश्य में ख़ास कर जब कुणाल और एला आपस में बात करते हैं नाटक सुस्त हो गया । बीच में एक दृश्य कुणाल, शिव और एला के बीच के बौद्धिक बहस को स्वप्न दृश्य की तरह डिजाइन किया गया है । इस दृश्य का निर्देशन असरदार है। अंतिम दृश्य की शुरुआत तो अच्छी होती है परन्तु अंत तक आते-आते यह थका हुआ सा लगता है। कुल मिला कर शुरू के पांच दृश्यों की अच्छी प्रस्तुति के बाद नाटक क्लाइमेक्स तक आते-आते ढीला पड़ जाता है।
नाटक की अवधि दो घंटे से ऊपर है पर अपनी विषय वस्तु की वजह से नाटक कुल मिला कर दर्शकों को बांध पाने में सफल होता है। नाटक भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान क्रांतिकारियों की मन:स्थिति के साथ महात्मा गाँधी और कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव और भारतीय पूंजीपतियों की उनसे करीबी को लेकर टिप्पणियां करता है तो साम्राज्यवाद और क्रांति के भविष्य, के रूप को लेकर तीखे संवाद ।
वैसे तो नाटक में चित्रित क्रन्तिकारी दल खुल कर किसी वाम विचारधारा का पक्ष लेता हुआ नहीं दिखाया गया है परन्तु कई हिस्सों में नाटक ‘भगत सिंह’ और ‘चे गुवेरा’ की क्रांति को लेकर कही गयी बातों का समर्थन करता दिखता है। एक जगह आसिफ़ कहता है कि “मुझे मुल्क के दायरे से निकल कर पूरे जहाँ की हर क्रांति से जुड़ना है ।” कुणाल का चरित्र भी इन्ही दोनों क्रांतिकारियों से मेल खाता है।
नाटक जिस दौर को चित्रित करता है उस वक़्त न सिर्फ़ रूस की क्रांति हो चुकी थी बल्कि प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था। स्टालिन का असर विश्व के हर वाम दल पर सीधे या परोक्ष रूप से पड़ रहा था। नाटक इन सब विषयों पर बात करने से बचता है। अगर नाटक के डिस्कोर्स में इनको भी शामिल किया जाता तो विषय की गहराई और बढ़ जाती। बावजूद इसके नाटक अपने मूल विषय के साथ न्याय करता है और क्रांतिकारियों के मनोविज्ञान को बेहतरीन तरीके से दिखता है।
जैसा की पहले बताया जा चुका है कि नाटक में कलाकार अपेक्षाकृत नये थे बावजूद इसके सभी ने अपने अभिनय से प्रभावित किया। आसिफ़ की भूमिका में राहुल यादव काफ़ी परिपक्वता दिखाते हैं। एक समझदार लीडर के रूप में उनका अभिनय प्रशंसा योग्य था । उनके अभिनय में लगातार सहजता बनी रही। हाँ अंतिम दृश्य में वे संवाद बोलते वक़्त कई जगहों पर फम्बल करते हैं जो कि साफ़ समझ आ जाता है। अभिनेता तरुण चकवर्ती ने कुणाल के चरित्र की दृढ़ता और ईमानदारी को मंच पर बखूबी निभाया। केवल भावुक दृश्यों में वे असहज लगे। शिव हालदार के कठिन चरित्र की तैयारी नीलांजन गुहा ने बहुत अच्छी तरह से की थी। उनकी मेहनत मंच पर साफ़ दिखी। लेकिन उत्तेजनापूर्ण संवादों को बोलते हुए वे लाऊड हो जाते थे और अपनी सहजता छोड़ देते थे। एला के चरित्र में सिमरन ने न्याय किया। उसने पूरे नाटक में अपने चरित्र को नहीं छोड़ा और सहज भी रहीं । हालांकि उनको अपने संवाद अदायगी और वॉयज़ पर और काम करना चाहिये। उनमें एक बेहतरीन अभिनेत्री बनने के सारे गुण हैं। शशि गुहा (केदारनाथ) और परोमा भट्टाचार्य (मककार्थी) ने अपने अभिनय की सहजता से प्रभावित किया। सौरभ सैनी और सुरेश कुमार ने भी अच्छा अभिनय किया।
नाटक में श्रीमोयी दासगुप्ता की प्रकाश परिकल्पना एवं उनका प्रकाश संचालन आला दर्ज़े का रहा। नाटक के लिए अर्नब दासगुप्त का संगीत चयन और संचालन प्रशंसा योग्य था। संगीत नाटक के मूड के अनुरूप था और नाटक को गति देता रहा। नाटक को युवा निर्देशक अंजन बोस ने निर्देशित किया था। आज जब दिल्ली में गंभीर विषयवस्तु वाले नाटकों की कमी साफ़ दिखती है ऐसे में एक युवा निर्देशक का निर्देशन के लिए इतने मुश्किल नाटक का चयन करना उल्लेखनीय है। अंजन एक निर्देशक के रूप में संभावनायें जागते हैं।
नाटक की लम्बाई और संवादों का दोहराव नाटक के विपरीत जाता है। प्रेम, जीवन और क्रांति के बीच की बहस को कई दृश्यों में छोटा किया जा सकता था क्योंकि कई संवाद रह-रह कर एक सी बात कह रहे थे। अच्छे संपादन से नाटक और धारदार बनाया जा सकता है, निर्देशक ऐसा करने से चूक गए। अंतिम दृश्य के शुरू होने से पहले एला, शिव और आसिफ़ अंतिम दृश्य के कुछ संवाद बोलते हैं और फिर दृश्य शुरू होता है। इसकी आवश्यकता नहीं थी। शायद ऐसा डिजाईन अंतराल (इंटरवल) को दिमाग में रख कर किया गया था लेकिन जेएनयू में नाटक बिना अन्तराल के हुआ ऐसे में इस हिस्से को निकाल देना चाहिए था।
नाटक में संवाद कई जगहों पर बेहद साहित्यिक हिंदी में हैं। जेएनयू में तो इस तरह की भाषा को समझने वाले दर्शक मिल जाते हैं पर क्लिष्ट हिंदी से नाटकों को बचना चाहिये। साधारण दर्शकों को समझ आने वाली भाषा का प्रयोग ही रंगमंच को जन साधारण से जोड़ कर रख सकता है। अपनी कुछ-एक कमियों के बावजूद ना हन्यते की इस प्रस्तुति ने आश्वस्त किया कि दिल्ली में युवा सार्थक और अर्थपूर्ण थिएटर से जुड़े हुए हैं। आज के समय में संसप्तक नाट्य दल के लिये ही नहीं बल्कि दिल्ली के सभी थिएटर पसंद करने वालों के लिये यह एक बड़ी उपलब्धि है।