”रवीन्द्र के. दास का एकल कविता-पाठ”
‘स्त्रीवादी भजन”
पाँच मर्दों ने मिलकर
स्त्रीवादी भजन गाए
दर्शकों में बैठी स्त्रियाँ मुस्कुराईं
इस तरह हुआ
स्त्रीवादी कविता का प्रदर्शन
कुछ मर्द होते ही हैं इतने उदार
कि उनसे देखा ही नहीं जाता
दुख स्त्रियों का !
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रवीन्द्र केे. दास अपनी कविताओं का पाठ, हिन्दी की ज़मीनी रचनाशीलता को अनौपचारिक मंच देने के उद्देश्य से गठित साहित्यिक संस्था ‘हुत’ की ओर से आयोजित एकल कविता-पाठ कार्यक्रम के दौरान प्रस्तुत कर रहे थे। ‘हुत’ की तरफ़ से यह आयोजन रविवार, 14 जुन, 2015 को शाम 6.00 बजे से एनडीएमसी पार्क, अबुल फ़ज़ल रोड, नियर तिलक ब्रीज रेल्वे स्टेशन, मंडी हाउस, नई दिल्ली में किया गया था।
अपने कविता-पाठ में रवीन्द्र के. दास ने—‘स्त्राीवादी भजन’, ‘इंसानी इरादों की आख़िरी कलाबाज़ी’, ‘विज्ञापन’, ‘क्योंकि मित्रों जंगल बिना राजा केे नहीं होता’, ‘सभ्याता की पहचान’, ‘हाथों में हुनर’, ‘जब भी हार कर लौटता हूँ’, ‘आज अगर तुम हँसे’, ‘मगध की प्रजा में कोई असन्तोष नहीं है’, ‘जो छाँव के धोखे में खडे हैं’, ‘घर’, ‘जो प्रेम और आतंकवाद को जीते हैं’, ‘तुम्हारा सच और मेरा सच’, ‘अधूरी रह जाती हैं मेरी तमाम कविताएँ’, ‘अन्त में बचेगी कविता ही’, ‘लड़की की बहादुरी का मिथक’, ‘चन्द हर्फों में ज़िन्दगी’, ‘तुम्हारी कविता’, ‘नदी को इससे क्या’, ‘तुम्हारी देह है तो तुम हो’, ‘लड़कियाँ’, ‘आओ खेलें ऐसा खेल’, ‘कविता प्रक्रिया’ आदि कई कविताएँ प्रस्तुत कीं।
रवीन्द्र के. दास की कविताओं पर हिन्दी के युवा आलोचक आशीष मिश्र ने कहा कि जब तक किसी कवि की सारी उपलब्ध कविताएँ न पढ़ लूँ, कुछ भी कहना नहीं चाहता, एक अपराधबोध से घिरने लगता हूँ। जब आप बोलने के लिए कह रहे हैं तो ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ क्योंकि मैंने अभी इनके तीनों संग्रह नहीं पढे हैं। सब मिलाकर अब तक दास जी की 50-60 कविताएँ ही पढ़ी होंगी। जो भी कहूँगा इस गुंजाइश के साथ कि ठीक से पढ़कर मैं अपने को करेक्ट करूँगा। एक-दो बातें मैं कहना चाहता हूँ जो निगेटिव हैं। जान-बूझ कर निगेटिव बातें कह रहा हूँ और इसे दोस्त के नाते अपना दायित्व भी समझता हूँ। पहली बात यह कि रवीन्द्र के. दास की ये कविताएँ एक पढे-लिखे आदमी का ‘मानसिक उपप्लव’ हैं। यह मानसिक उपप्लव सुने-पढ़े का प्रभावोत्पात और बहुवर्णी दुनिया का एक निर्लिप्त संघटन है। इसमें फेनामेनल दुनिया का विश्लेषण नहीं होगा उसके प्रति क्षण विशेष में घटित सहज प्रतिक्रिया होगी । दूसरे यह कि दास जी की कविताओं में दुनिया नहीं दुनिया की धारणा है। कविता का काम दुनिया के प्रति धारणा रचना नहीं, यह काम अन्य संकाय कर लेंगे, इसका काम दुनिया को रचना है, दुनिया की वस्तुवत्ता को जगह दिलाना।
मेरा मानना है कि सभ्यता के साथ दो चीज़ें अनिवार्य रूप से घटित होती हैं। पहली, चीज़ों की हिंसक अर्थ-निश्चितता और दूसरी, अमूर्तन। बिना इसके किसी तरह की व्यवस्था और प्रबन्धन सम्भव नहीं होता। अर्थ-निश्चितता का तात्पर्य सत्ता द्वारा चीज़ों की स्थिति-अवस्थिति को एकदम निर्धारित और परिभाषित किया जाना। अमूर्तन का अर्थ चीज़ों को संकेत और डेटा में बदलना। अब आप एक चलते-फिरते इंसान नहीं आधार कार्ड के 16 अंक हैं। कविता इस पूरी प्रक्रिया से असहमति जताती है, इसका प्रतिरोध रचती है या वह इसी आधार पर आज कोई सार्थकता सिद्ध कर सकती है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि दास जी अपनी कविता में छूट रही इस दुनिया को भी जगह दें।
युवा कवि और हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका ‘आम आदमी’ के कार्यकारी सम्पादक पंकज चौधरी ने कहा कि रवीन्द्र के. दास की कविताओं का रेंज बड़ा है। सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर जिस तरह इनकी सधी हुई कविताएँ हैं, उसी तरह रोज़मर्रा के जीवन से जुडी कविताएँ भी हैं, और इसके सशक्त उदहारण ‘विज्ञापन’, ‘हाथों में हुनर’ आदि कविताएँ हैं।
युवा पत्रकार मानसी मनीष ने विचार व्यक्त किया कि इनकी कविताएँ हमारे मन के तमाम भावों को अभिव्यक्त करती हैं। अन्तिम कविता लड़कियाँ बहुत सुन्दर कविता है। मुझे इनकी भाषा बहुत सहज और आकर्षक लगी। दीपक गोस्वामी ने कहा कि आज़ मैंने एक साथ 21 कविताएं दास जी की सुनीं। वे वैज्ञानिक अंतःक्रिया करते हैं फिर कविता करते हैं और कविता में निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। यह बात प्रभावित करती है। कुछ लोग शब्दों से कविता करते हैं, कुछ लोग भावनाओं से, पर जो कविताएँ इस तरह की एक प्रक्रिया से बनती हैं वे अच्छी कविताएँ होती हैं। दास जी पाठक को भी प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहते हैं, जिससे भाषा में ज़बरदस्त अभिव्यक्ति-क्षमता आ जाती है। युवा पत्रकार वीर भूषण ने कहा कि मैं पेशे से पत्रकार और स्वभाव से कलाकार हूँ। जब मैं दास जी की कविताएँ सुन रहा था तो मुझे अच्छा लगा । मुझे सब कुछ अच्छा लगा पर एक कमी खटक रही थी कि इनकी कविताओं में विद्रोह का स्वर बहुत कमज़ोर है। हम आगे यह आपसे अपेक्षा करेंगे। युवा रचनाकार मनीष शुक्ल ने विचार व्यक्त किया कि इनकी समाज और राजनीति पर गहरी पकड़ है। मज़दूर वाली कविता बहुत अच्छी लगी।
”हुत” के संयोजक और युवा कवि इरेन्द्र बबुअवा ने रेखांकित किया कि इनकी कविताएँ एक दिशा देती हैं, गाइड करती हैं। जैसे ‘लड़कियाँ’ कविता। हम अपने मूल जीवन को छिपा के जीते हैं, इसके सांस्कृतिक ऐतिहासिक कारण हैं। कवि इससे बाहर निकलना चाहता है। कवि चाहता है कि लड़कियाँ उस तरह न दिखें-जिएँ जिस तरह उन्हें दिखना चाहिए बल्कि वे दिखें उस तरह जैसा वे दिखना चाहती हैं, यह एक गहरी और बड़ी बात है। मज़दूर वाली कविता अच्छी लगी। इस कविता में किसी भी मज़दूर का विडंबनात्मक जीवन है जो वह शहर में आ कर भोगता है ।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘रू’ के सम्पादक कुमार वीरेन्द्र ने विचार व्यक्त किया कि रवीन्द्र के. दास की कविताओं में व्यक्त कई बातों में एक बात जो मुझे विशेष रूप से लगी, वह है कवि की, ख़ालीपन में संवाद-यात्रा। यह संवाद-यात्रा समय भीतर रूढ़ सवालों से टकराते रहने की है। ऐसे में कवि के प्रति विश्वसनीयता तब और बढ़ जाती है, जब वह ख़ुद से टकराना इससे अलग ‘कर्म’ के रूप में चिन्हित नहीं करता।
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”लडकियाँ ”
वहाँ, उस ग्रुप में कई सारी लडकियाँ थीं
किसी को मैं
उसके जूड़े से पहचानता था
किसी को उसकी उछल-कूद से
तो किसी को उसकी आवाज़ से
सारी की सारी लडकियाँ बेहद खूबसूरत थीं
उन्हें
नहीं मालूम था कि मैं उन्हें पहचानता हूँ
उन्हें देखा करता हूँ इतनी देर तक
अगर उन्हें पता चल जाता
तो वह किसी आवरण में छिप जातीं
और भूल जातीं
कि उन्हें करना क्या है
वे करतीं जो उन्हें करना चाहिए
वे भूल जातीं
कि उन्हें बोलना क्या है
वो बोलतीं जो बोलना चाहिए
उन लड़कियों को अपने शरीर को लेकर
कोई तनाव न था
यह स्वतंत्रता देख मैं गदगद था
और उसके अगले पल स्मरण हुआ
मेरी एक नज़र के उजास से
सिर्फ़ मेरे होने के अहसास से
उनका शरीर उन्हें बोझ लगने लगेगा
अचानक मैं
सभ्यता से भयभीत हो उठा
सिहर उठा मेरा अंतःकरण
सभ्यता ने सिर्फ़ प्रकृति को ही रौंदा हो
ऐसा नहीं है,
उसने स्त्रियों को
मनुष्य होने तक की छूट न दी
मैं एकांत और असहाय कवि करता हूँ प्रार्थना
कि ध्वस्त नष्ट हो जाए वो सभ्यता
और इन लड़कियों को मिले एक निर्द्वंद्व क्षेत्र
कि जिसमें हो सकें ये
जो भी होना चाहिए जैसे भी होना चाहें।
०००
”हाथों में हुनर”
हाथों में हुनर
मन में लगन
हृदय में आशा
आयु में उत्साह
लेकर वह शहर आता है
शहर की भीड़
गाँव का भोलामन
उचित-अनुचित की उलझन
खुद से ही अनबन
वह पीछे रह जाता है
पेट की भूख
हृदय की हूक
कंधे पर जिम्मेदारी
सौ तरह की लाचारी
वह मजदूर बन जाता है
अकर्मण्य संगठन
मालिकान से अनबन
जुबान की आज़ादी से
या बुखार मियादी से
बेमौत मर जाता है
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