लखनऊ, 19 जुलाई। यूपी प्रेस क्लब में प्रो. एमैनुएल नेस ने ‘नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर वर्ग के संगठन के नये रूप‘ विषय पर एक व्याख्यान दिया। यह कार्यक्रम अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान द्वारा आयोजित किया गया |कार्यक्रम में प्रो. इमैनुएल नेस के व्याख्यान ‘आनंद‘ की एक संक्षिप्त रिपोर्ट……..
‘इमैनुएल नेस‘ सिटी युनिवर्सिटी आॅफ़ न्यूयार्क में राजनीति शास्त्र के प्रोफे़सर और युनिवर्सिटी आॅफ़ जोहान्सबर्ग, सेंटर फ़ॉर सोशल चेंज में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं। उनका शोधकार्य मज़दूर वर्ग की गोलबन्दी, वैश्विक मज़दूर आन्दोलनों, प्रवासन, प्रतिरोध, सामाजिक और क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साम्राज्यवाद-विरोध और समाजवाद से जुड़े विषयों पर केन्द्रित रहा है। वे नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में साम्राज्यवाद में आये बदलावों, ‘पोस्ट-फोर्डिज़्म’, वैश्विक असेंबली लाइन के उभार, अनौपचारीकरण की प्रक्रियाओं, मज़दूर वर्ग के परिधिकरण और नारीकरण, एवं ‘ग्लोबल साउथ’ में औद्योगिक मज़दूर वर्ग के नये रैडिकल व जुझारू आन्दोलनों का अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की कई बार यात्राएँ की हैं और भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील जैसे देशों में मज़दूरों, मज़दूर कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों से संवाद करने में विचारणीय समय बिताया है। उन्होंने इस विषय पर प्रकाशन भी किए हैं। उनकी हालिया किताब ‘सदर्न इनसर्जेन्सीः दि कमिंग ऑफ़ दि ग्लोबल वर्किंग क्लास’ (प्लूटो प्रेस) को श्रम इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नवोन्मेषी कहा जा रहा है। वे न सिर्फ़ एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं, बल्कि एक रैडिकल एक्टिविस्ट भी हैं जो यूएसए में एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के प्रयास में लगे हुए हैं।
नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर संगठन के नये रूप
प्रो. इमैनुएल नेस
कार्यक्रम की शुरुआत में सत्यम ने श्रोताओं से वक्ता का परिचय कराया और विषय का एक संक्षिप्त परिचय दिया। इमैनुएल नेस सिटी युनिवर्सिटी आॅफ़ न्यूयार्क में राजनीति शास्त्र के प्रोफे़सर और युनिवर्सिटी आॅफ़ जोहान्सबर्ग, सेंटर फ़ॉर सोशल चेंज में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हैं। उनका शोधकार्य मज़दूर वर्ग की गोलबन्दी, वैश्विक मज़दूर आन्दोलनों, प्रवासन, प्रतिरोध, सामाजिक और क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साम्राज्यवाद-विरोध और समाजवाद से जुड़े विषयों पर केन्द्रित रहा है। वे नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में साम्राज्यवाद में आये बदलावों, ‘पोस्ट-फोर्डिज़्म’, वैश्विक असेंबली लाइन के उभार, अनौपचारीकरण की प्रक्रियाओं, मज़दूर वर्ग के परिधिकरण और नारीकरण, एवं ‘ग्लोबल साउथ’ में औद्योगिक मज़दूर वर्ग के नये रैडिकल व जुझारू आन्दोलनों का अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की कई बार यात्राएँ की हैं और भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील जैसे देशों में मज़दूरों, मज़दूर कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों से संवाद करने में विचारणीय समय बिताया है। उन्होंने इस विषय पर प्रकाशन भी किए हैं। उनकी हालिया किताब ‘सदर्न इनसर्जेन्सीः दि कमिंग ऑफ़ दि ग्लोबल वर्किंग क्लास’ (प्लूटो प्रेस) को श्रम इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नवोन्मेषी कहा जा रहा है। वे न सिर्फ़ एक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं, बल्कि एक रैडिकल एक्टिविस्ट भी हैं जो यूएसए में एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के प्रयास में लगे हुए हैं।
प्रो. नेस ने अपनी बात नवउदारवाद की अवधारणा की व्याख्या से शुरू की जो दरअसल राज्य द्वारा अपने कल्याणकारी कार्यों से मुँह मोड़ने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के साथ ही अति-उत्पादन और अति-संचय के संकट से निपटने के लिए वित्तीयकरण भी बढ़ता जाता है। परन्तु इस वित्तीयकरण ने आर्थिक संकट को और अधिक गहरा किया है एवं अंतरराष्ट्रीय पूँजी व साम्राज्यवाद के परजीवी चरित्र को बढ़ाया है।
प्रो. नेस ने आगे बताया कि विशेष रूप से द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में साम्राज्यवाद ने उन्नत देशों तथा तथाकथित विकासशील देशों के बीच एक वैश्विक वर्ग विभाजन पैदा किया है। ‘ग्लोबल नॉर्थ’ और ‘ग्लोबल साउथ’ के बीच के विभाजन की वजह से मैन्युफैक्चरिंग उन्नत देशों से भारत, फिलीपीन्स, चीन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील जैसे देशों की ओर स्थानांतरित हुई है। एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम जैसे प्रमुख ब्राण्ड एवं टोयोटा, होण्डा, हुण्डाई, फोर्ड जैसी दैत्याकार ऑटोमोबाइल कंपनियाँ अब उन्नत पूँजीवादी देशों में कोई उत्पादन नहीं कर रही हैं एवं उन्होंने अपनी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयाँ तथाकथित तीसरी दुनिया की ओर स्थानांतरित कर दी है। इसकी वजह से ‘ग्लोबल साउथ’ में एक विशाल मज़दूर वर्ग उभरा है जो वास्तव में बेहद परिधिकृत अनौपचारीकृत एवं असुरक्षित है। यह प्रक्रिया एक वैश्विक असेंबली लाइन के उभार और फोर्डिस्ट असेंबली लाइन के पराभव के साथ ही घटित हुई है। नतीजतन विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में फोर्डिस्ट युग के विशाल कारखानों की जगह बड़ी संख्या में छोटे-छोटे कारखानों का उभार देखने में आया है। इन कारखानों में कार्यबल बेहद असंगठित है एवं वह कैजुअल या ठेके पर कार्यरत है। यह प्रक्रिया ‘ग्लेाबल नॉर्थ’ में भी घटित हुई है, लेकिन वहाँ यह बहुत छोटे स्तर पर है।
प्रो. नेस ने नव-कारपोरेटवाद की अवधारणा के बारे में भी बात रखी। नव-कारपोरेटवाद (neo-corporatism) एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें ट्रेड यूनियनों पर राज्य का वर्चस्व कायम हो जाता है और वे मज़दूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने की बजाय मज़दूरों के जुझारूपन को नियंत्रित और विनियमित करने का उपकरण बन जाती हैं। उन्होंने दक्षिण कोरिया व दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण दिया जहाँ मुख्यधारा की पारंपरिक ट्रेड यूनियनों ने कॉरपोरेट के अति-शोषण के ख़िलाफ़ मज़दूर आन्दोलन को नियंत्रित और विनियमित करने में राज्य के एजेंट के रूप में काम किया। साथ ही इन पीत आत्मसमर्पणवादी (yellow capitulationist) यूनियनों की प्रतिक्रिया में मज़दूरों ने नये तरीकों से संगठित होने और प्रतिरोध करने का प्रयास किया जिन्होंने अन्तत: स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों के रूप में ‘वर्कर्स अपोजिशन’ के नए रूपों को जन्म दिया। अत: पारंपरिक ट्रेड-यूनियनों के मज़दूर राजनीति को विनियमित करने में राज्य मशीनरी का हिस्सा बन जाने की प्रतिक्रिया के रूप में मज़दूरों ने मज़दूर संगठन के नये रूपों की खोज की। इसके अतिरिक्त तीसरी दुनिया के देशों में मज़दूर वर्ग को कॉरपोरेटवादी ढाँचे में एक हद तक ही सहयोजित किया जा सकता था।
प्रो. नेस के अनुसार उन्नत देशों में इस नव-कॉरपोरेटवाद कारगर साबित हुआ है जहाँ तीसरी दुनिया के देशों के मज़दूर वर्ग की साम्राज्यवादी लूट-खसोट की वजह से साम्राज्यवादी शासक वर्ग मज़दूर वर्ग के सापेक्षत: बड़े हिस्से को सहयोजित करने में क़ामयाब हुआ है। इसने एक ओर बढ़ते वैश्विक ध्रुवीकरण तथा दूसरी ओर तीसरी दुनिया में मज़दूर आन्दोलन के बढ़ते हुए जुझारूपन में भी योगदान दिया है।
प्रो. नेस ने कहा कि मज़दूरों के संगठन के नये रूप मुख्यधारा के पारंपरिक ट्रेडयूनियनवाद की विफलता की वजह से अस्तित्व में आ रहे हैं। उन्होंने बताया कि 1960 के दशक में यूरोपीय एवं अमेरिकी ‘न्यू लेफ्ट’ और दक्षिणपंथी सिद्धान्तकारों के बीच यह धारणा व्याप्त थी कि मज़दूर वर्ग मर चुका है। उनकी दलील थी कि हम मज़दूर वर्ग के पूँजीवादी शोषण की मंजिल को पार कर चुके हैं क्योंकि प्रौद्योगिकी ने इन सभी प्रश्नों का समाधान कर दिया है। परन्तु 1990 का दशक आते-आते यह स्पष्ट हो चुका था कि मज़दूर वर्ग को अतीत की कोई चीज़ बनने की बजाय हम मानवता के इतिहास में सबसे बड़े मज़दूर वर्ग के उभार के साक्षी हैं। औद्योगिक मैन्युफैक्चरिंग और पूँजीवादी शोषण ख़त्म नहीं हुआ है, बल्कि वह उन्नत पूँजीवादी देशों से उस ओर स्थानांतरित हो गया है जिस उचित ही ग्लोबल साउथ’ कहा गया है। यह विशाल मज़दूर वर्ग न सिर्फ़ मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में काम कर रहा है बल्कि सेवा क्षेत्र में भी कार्यरत है। पूँजी का वित्तीयकरण एक बड़े सेवा क्षेत्र के उभार तथा विकासशील देशों की ओर मैन्युफैक्चरिंग के स्थानांतरण का प्रमुख कारण रहा है।
उन्नत दुनिया और साथ ही साथ विकासशील दुनिया दोनों में ही ये मज़दूर कम मज़दूरी वाले प्रवासी/आप्रवासी मज़दूर हैं। पारंपरिक ट्रेड यूनियनें इन मज़दूरों को संगठित करने में अक्षम रही हैं क्योंकि ये मज़दूर छोटे कारखानों और वर्कशॉपों में काम करते हैं। अत: मज़दूरों ने उन्हें मज़दूर केन्द्रों और मज़ूदर क्लिनिकों जैसे नये रूपों में संगठित किया है। ये मज़दूर बेहद जुझारू हैं। परन्तु मज़दूरों के संगठन के इन नये रूपों में साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियाँ, एनजीओ, एडवोकेसी ग्रुप्स भी घुस रहे हैं। उनके असली एजेंडा को समझने की ज़रूरत है। उम्मीद की किरण यह है कि इन अति-शोषित मज़दूरों में से अधिकांश कैजुअल और ठेके पर काम करने वाले हैं और इसलिए वे बहुत रैडिकल व जुझारू मज़दूर हैं। दक्षिण अफ्रीका में खदान मज़दूरों की नयी जुझारू यूनियन ने बहुत जल्द ही पारंपरिक आत्मसमर्पणवादी यूनियनों का स्थान ले लिया और वह मज़दूरों के लिए एक विकल्प के रूप में उभरी। चीन में भी नये मज़दूर संगठनों ने कई ‘वाइल्ड कैट’ हड़तालें कीं, उदाहरण के लिए होण्डा ऑटो पार्ट्स मज़दूरों की एक महीने की हड़ताल। इसके अतिरिक्त दो साल पहले चीन में निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी जिसमें लाखों मज़दूरों ने भाग लिया था। ये स्वतंत्र और तृण-मूल स्तर की यूनियनें भूमण्डलीकरण एवं ‘पोस्ट-फोर्डिज़्म’ के दौर में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन की चुनौतियों के संभावित उत्तर के रूप में उभरी हैं।
व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर सत्र हुआ। अभिनव सिन्हा, बीएम प्रसाद,अभिषेक गुप्ता और एस एन त्रिपाठी ने कुछ प्रासंगिक प्रश्न पूछे जिनका प्रो. नेस ने विस्तार से उत्तर दिया। व्याख्यान में डॉ. ममगेन, डॉ. सी एस वर्मा, गिरी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ के प्रो. हिरन्मय धर, प्रो. एस एन आब्दी, प्रो जेपी चतुर्वेदी और राजीव हेमकेशव सहित बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी एक्टिविस्ट और छात्रों ने हिस्सा लिया।
प्रस्तुति – आनंद