७ दिसंबर १९२३ को डिवाई बुलंदशहर, भारत में जन्मे इंतज़ार हुसैन पाकिस्तान के अग्रणी कथाकारों में से थे | वे भारत पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में मंटो, कृश्नचंदर और बेदी की पीढ़ी के बाद वाली पीढ़ी के प्रमुख कथाकारों में से एक थे । उनकी स्कूली शिक्षा हापुड़ में हुई और १९४६ में मेरठ से उर्दू में एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद विभाजन के कारण वे सपरिवार पाकिस्तान में बस गए। वैसे तो इंतजार हुसैन १९४४ से उर्दू में कहानियाँ लेखते रहे हैं किंतु विभाजन के बाद १९५० के आसपास इनका रचना संसार एकदम बदल गया और पाकिस्तान के उर्दू कथा साहित्य में एक चमकते सितारे की तरह इनका प्रवेश हुआ। इंतजार हुसैन ने अनेक अहम कहानियों के अलावा तीन उपन्यास भी लिखे हैं जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास बस्ती है। इसे पाकिस्तान के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार आदमजी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। बाद में इंतजार हुसैन ने यह पुरस्कार वापस कर दिया था । उनके निधन पर श्रृद्धांजलि स्वरूप, 2008 में ‘बी बी सी’ हिंदी के लिए ‘मिर्ज़ा ए. बी. बेग’ द्वारा किया गया उनका साक्षात्कार (‘बी बी सी हिंदी’ से साभार) ….
कैसा है इंतिज़ार हुसैन का भारत
इंतज़ार हुसैन
इंतिज़ार हुसैन का कहना है कि नॉस्टालजिया उस वक्त पैदा होता है जब आदमी अपनी जड़, अपनी ज़मीन से कट जाता है.उनका कहना था कि उनकी कहानियों या उपन्यासों में भारत का, हिंदू पौराणिक कथाओं का जो चित्रण और वर्णन है, वह उसी की अभिव्यक्ति है. भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख कहानीकार और उर्दू के महत्वपूर्ण लेखक इंतिज़ार हुसैन इन दिनों दिल्ली में हैं और वह साहित्य अकादमी के प्रेमचंद फ़ेलोशिप पर यहां आए हुए हैं. कहानी, उपन्यास और सफ़रनामों के अलावा उन्होंने संस्मरण भी लिखे हैं. उन्होंने अपनी कहानियों में भारत की मिट्टी और यहां की परंपराओं को जिस तरह बयान किया है वह पाकिस्तान के किसी कहानीकार के यहाँ नहीं मिलता है.
उन्होंने कहा कि कहानी लिखते लिखते वह अपने अतीत में खो जाते हैं और उनकी कहानी दो युगों में चलने लगती है.
अपनी कहानी ‘मोरनामा’ सुनाते हुए उन्होंने कहा कि किस प्रकार उन्होंने भारत और पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण से प्रभावित होकर कहानी लिखनी शुरू की और वह महाभारत के कुरूक्षेत्र में पहुंच गए. इस कहानी के ज़रिए उन्होंने यह कहने की कोशिश की है कि युद्ध में सबसे विनाशकारी क्षण अंतिम क्षण होता है जब जीतने और हारने वाला अपना सब कुछ दाँव पर लगा देने को तैयार हो जाता है. चाहे नतीजा हीरोशिमा और नागासाकी ही क्यों न हो. उन्होंने कहा कि ऐसा ही हुआ था जब महाभारत में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया था और तीनों लोक उसकी चपेट में आने को थे तभी कृष्ण ने अश्वस्थामा को तीन हज़ार साल का अभिशाप दिया था, उन्हें लगता है कि वह अभिशप्त व्यक्ति अभी तक उनका पीछा कर रहा है. वो सवाल उठाते हैं कि क्या अभी तक तीन हज़ार साल पूरा नहीं हुआ है.
‘करबला और काशी’
जवाहारलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक घटना को याद करते हुए कहा कि यहाँ आकर एक सुखद एहसास होता है, क्योंकि पिछली बार उन्हें एक मित्र ने ‘काशी और करबला’ पर बोलने के लिए बुलाया था तो उन्होंने प्रेमचंद के नाटक ‘करबला’ के हवाले से बात करते हुए कहा था कि आठ ब्राह्मण भाई किसी तरह करबला पहुंच गए थे और उन्होंने इमाम हुसैन की ओर से बहादुरी के साथ लड़ते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी. उनमें से सिर्फ एक राहिब दत्त बच गए लेकिन अब ये लोग भारतीय संस्कृति से मानो ख़त्म हो गए तभी एक महिला ने खड़े होकर कहा आप ऐसा कैसे कह सकते हैं, आपके सामने मैं नौनिका दत्त खड़ी हूँ और मैं हुसैनी ब्राह्मण हूँ, मझे ऐसा मालूम हुआ मानो जंगल में चलते चलते अचानक एक नायाब परिंदा मेरे सामने आ गया हो.
इंतिज़ार हुसैन ने बताया कि नौनिका दत्त ने बाद में उन्हें किताबों के हवाले से हुसैनी ब्राह्मण के बारे में बताया और कहा कि वे लोग मंदिर नहीं जाते हैं और उनके गले पर कटे का एक निशान होता है. उन्होंने यह भी बताया कि सुनील दत्त भी हुसैनी ब्राह्मण थे और नर्गिस की माँ भी उसी वंश से थीं. उन्होंने यह भी कहा कि हमारी गंगा-जमुनी साझा सभ्यता और संस्कृति बहुत तेज़ी से बदल रही है, एक दौर ऐसा था जब पैग़म्बर मोहम्मद के बारे में लिखी जाने वाली विशिष्ट कविता शैली ‘नात’ में ऐसी पंक्तियाँ हुआ करती थी जिसमें कृष्ण से भी लगाव नज़र आता था, जैसे मोहसिन काकोरवी की यह नात ‘सिम्ते काशी से चला जानिबे-मथुरा बादल’ बड़ी मशहूर हुई. ‘दिल्ली था जिसका नाम’
उनकी किताब ‘दिल्ली था जिसका नाम’ को किस कोटि में रखा जाए, फ़िक्शन या इतिहास के जवाब में उन्होंने कहा की यह एक तज़किरा या विवरण है और इसे इतिहास कहने से इतिहासकार नाराज़ हो जाएंगे. बहरहाल जो भी हो उनका तज़किरा ‘दिल्ली था जिसका नाम’ इन्द्रप्रस्थ से शुरू होता है जिसे पांडवों ने बसाया था और आज के पुराने क़िले के स्थान पर अपना राजनगर बनाया था. उसे बाद में किसी दहलू राजा ने फिर से बसाया और उसका नाम दहलू फिर दिल्ली हुआ. 792 वर्षों तक उजाड़ पड़े रहने के बाद चौहान वंश के राजा अनंगपाल की राजधानी बना कई बार उजड़ा और बसा लेकिन किसी न किसी तरह क़ायम रहा. मुग़ल काल में यह शाहजहानाबाद बना और फिर अंग्रेज़ों ने इसे नई दिल्ली बना दिया. यह किताब असल में शाहजहानाबाद की कहानी है, इसमें वहां के लोगों के रहन सहन, उनके रीति-रिवाज, तीज-त्योहार, मौसम, खेल-तमाशे, खान-पान, शिल्पियों के कौशल्य और वहां के लोगों के अंधविश्वास का वरनण है. इसमें मुग़लकाल की बड़ी बड़ी घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है उन्होंने इस तज़किरे को 1924 के हिंदू-मुस्लिम फ़साद पर ख़त्म कर दिया है मानों उनके नज़दीक शाहजहानाबाद की साझा संस्कृति के चिराग़ की लौ बुझ गई और अंग्रेज़ों की नई दिल्ली का रंग छा गया. सब से अलग
इंतिज़ार हुसैन भारतीय उपमहाद्वीप के अनूठे कहानीकार हैं. वो अपनी कहानियों को किस्सागोई और दास्तानगोई के अंदाज़ में कहते हैं और वर्तामान को अतीत से जोड़ कर एक बिल्कुल नया आयाम देते हैं. वह रूपक का काफ़ी प्रयोग करते हैं और उनकी कहानियाँ प्रतीकात्मक और सांकेतिक होती हैं. पंचतंत्र की शैली में उन्होंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं और पशु-पक्षी को मुख्य पात्र बना कर समसामयिक घटनाओं पर कड़ी आलोचना की है. अपने इस अलग लेखन के बारे में उन्होंने कहा कि प्रगतिशील आंदोलन के बाद कहानी एक ही तरह के खोल में चली गई थी इसीलिए उन्होंने सब से अलग रास्ता चुना, जो मुश्किल था लेकिन इसी की वजह वह जो भी है, आपके सामने है.