‘अमरपाल सिंह’ की कहानियों में भाषाई पकड़ और कहानीपन निश्चित ही एक प्रौड़ कथाकार होने का आभास कराता है | प्रस्तुत लघुकहानी में भी अमरपाल सिंह में एक संभावनाशील लेखक के तेवर नज़र आते हैं ……|– संपादक
कटी नाक, जुड़ी नाक
अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर ‘
अब कपार पर हाथ धरे क्यों बैठे हो भईया, जो हुआ सो हुआ ! इतनी भी पीर क्यों पैदा करनी ? अरे ! जिसे माँ –बाप के बारे में सोचना होता, वो भला ऐसे कदम थोड़े ही उठाता ? पैदा होते मर ना गयी कुलक्षनी , करमजली | ननिहाल ,ददिहाल ,गाँव ,गिरांव सबके थूथुन पर गोबर पाथ दिया , किसी को मुँह दिखाने लायक छोड़ा है भला ? शशी ने भड़की हुई ननद से धीरे से कहा –“चुप करिए जीजी ! आपकी बातें सुनकर अभी ये मुझी पर बरस पड़ेंगे |” ननद ने मुँह बनाते हुए – “हुंह …..तो बरस पड़ें , हमारे भाई की नाक कटी है,छाती पर होलिका जली है ,और तुम क्या चाहती हो भाभी ! मैं बिआहू ,कहरवा और नकटा गाऊँ ?”
शशी ने पनीली आँखों को आँचल के कोरों से पोछते हुए कहा –“ छाछ पियोगी जिज्जी ? भूलो भी ,पानी डालो, किए कराये पर उसके !” शशी के मुँह से ऐसी बातें सुन, ननद ने तुनककर कहा “ तुम भी गजब करती हो भाभी ,पूरा गाँव सुलग रहा है इस आग में , किस –किस आँगन जाकर पानी डालोगी ?” तीरथ ने बहन की हाँ में हाँ मिलायी – “ सच्ची तो बोल रही है , किस –किस का मुँह बंद कराओगी ?”
शशी ने चौखट से बाहर पाँव निकाला ही था कि तीरथ चीख पड़ा –“तू उस चरना के घर नही जायेगी ,हमारी इज्ज़त उछाली है उसने ,और तू उस कमीनी को लाने की सोच रही है ! भूल कर भी ऐसा मत करना ,नाक हो इस घर की तुम |”
“ हाँ भाभी ! तुम इस घर की इज्ज़त हो , पूरे गाँव को धता बताकर, दूसरे पुरवे अकेले जाना ठीक नहीं होगा , भईया गलत नही कह रहे हैं !”
ननद की बचकानी बातें सुनकर, शशी भभक पड़ी –“ वाह रे विधाता ! खैर ! …. काठ का कलेजा गढ़ा है भाई – बहन ने , तो सुन लो ! ऐसे ही एक दिन मैं भी भगा कर लायी गयी थी इस घर में , और जिज्जी आप ! अपनी सहेलियों संग, ठुमक- ठुमक कर खूब बन्ना –बन्नी , गा – गा के नाची थीं उस रात | उस अँधियारी घड़ी से आज तक, मैं भी अपने मायके ,गाँव –गिरांव के लिए कटी नाक हूँ ,गाँव की धूल तक ने मुँह फेर लिया ,और मैं भाग्यफुँकी , बाप के घर की कटी नाक, ससुराल में इज्ज़त बन के बैठी हूँ | एक ही नाक का दो परिवारों के बीच, अलग -अलग नामकरण करा दिया, टोला पड़ोसियों ने | मैं तो ये बुझौवल समझ ही नहीं पाती हूँ जिज्जी !
“और हाँ सुन लो ! आज बेटी को लेने नहीं, विदा कराने जा रही हूँ ,उसे ये समझाने जा रही हूँ, कि दोनों घरों के लिए तू एक ही नाक है | नहीं तो मेरी तरह पूरी उमर, कटी और जुड़ी नाक के बीच घुटन भरी साँसें लेती रहेगी |” झटके से चौखट पार करते हुए शशी ने पति की तरफ़ आँखें फेरीं …………..देखा ……..!
अपने झुके कंधों को सीधा कर, ज़मीन पर पड़े गमछे से, तीरथ अपनी पगड़ी बाँधने लगा था |