सामाजिक ताने-बाने और उसके बितान में उलझी स्त्री, अबूझ मान्यताओं और परम्पराओं के नाम पर मानवीय शोषण के कितने ही आयामों से गुजरती है, उस गाँठ को खोलना, सुलझाना और एक सिरा पकड़कर सही और मुकम्मल दिशा दे पाना भले ही आसान न हो किन्तु स्त्री बखूबी जानती है कि मुक्त और सहज जीवन का स्पेस पाने के लिए समाज के बनाए वही अस्त्र सबसे ज्यादा कारगर हैं, जिन्हें व्यवस्थाओं ने स्त्री शोषण के निमित्त संभाल रखा है | आधुनिकता को धता बताकर अमूर्त से जूझती नई रोशनी तलाशती ‘अमृता ठाकुर’ की कहानी ……|– संपादक
बुझव्वल
अमृता ठाकुर
जन्म – बिहार
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित |
दूरदर्शन में विषय विशेषज्ञ के तौर पर स्वतंत्र रूप से कार्यरत
विगत १३ वर्षों से पत्रकारिता में सक्रीय
सम्प्रति – स्वतंत्र पत्रिकारिता
318 मीडिया अपार्टमेन्ट, अभय खंड – 4
इन्द्रापुरम, गाज़ियाबाद
फोन – 09868878818
बिल्कुल चुप्पी छा गई थी। किसी के चेहरे पर ये भाव नही था कि कुछ ऐसी अनहोनी हो रही हो जो नई हो। मेरे लिए नई थी। बिल्कुल नई। फिल्मों में जरूर देखा था वो भी हथेलियों से आंखों को छुपाते हुए। कई बार पापा के पीछे छुपते हुए। बचपन में भूत की फिल्मों का बड़ा क्रेज था। डर में एक अलग तरह का रोमांच होता है। ये जो सामने हो रहा था न तो डरावना था, न ही रोमांच पैदा कर पा रहा था। गुस्सा आ रहा था-वो ऐसा क्यों कर रही है! मन कर रहा था कि उसे जोर से झिंझोड़ कर बोलूं -‘क्या बेवकूफी कर रही हो!’ सभी ने उसे चारों तरफ से घेर रखा था। बदहवास, जोर जोर से चेहरे को झुला रही थी। बालों ने उसके चेहरे को पूरी तरह से ढंक लिया था। बीच बीच में सर को ऊपर करती और गुस्से में कक्का जी का नाम लेती। उसकी आवाज बदल गई थी, कभी किसी बच्चे जैसी आवाज कभी मर्द की मोटी आवाज। फिर किसी मेले का जिक्र करने लगी। कक्का जी के किसी गुस्से का जिक्र करते हुए रोने लगी। हमरा जिलेबी खाय के या हमरा जिलेबी दिअ, हमरा जलेबी दिअ।
रोने की आवाज कम होने लगी, अचानक अजीब घुटी सी आवाज में चिल्लाने लगी। दो लोग भागे जलेबी लाने। दादी की तेज आवाज आई ‘अरे ! कवितवा के जिलेबी दिअ। ओर की खेब बेटी ?
’ उसके मुंह से अब बस गुंं गु की आवाज आ रही थी । ‘पर ये कविता कौन है? इनका नाम तो सुलक्षणा है! मेरी देवरानी। फिर सब किस कविता का जिक्र कर रहे हैं!’ मैं सबके चेहरे को देख रही थी, पर मेरे अलावा किसी के चेहरे पर कोई सवाल नहीं था। ये पूरा प्रकरण लगभग ढाई घंटे तक चलता रहा। संभव के आते ही सुलक्षणा उसे देख कर रोने लगी, फिर निढाल हो गई। सब अपने अपने कमरें में चले गए। मै भी। कई सवाल गडमडा रहे थे। पर किससे पुछूं? रवि ने तो कभी इन सब बातों का जिक्र नहीं किया था। क्या उसे ये जिक्र करने लायक बात नहीं लगी? या सभी परिवारों के अपने कुछ सच होते हैं जिन्हें वो बाहर लाने से बचते हैं।
सुलक्षणा रवि के चचेरे भाई संभव की पत्नी थी। पहली बार मिली, बच्चों की तरह चिहुंक कर बोली ‘आप इतनी सारी पढाई किए, पढते हुए बोर नहीं होते थे? हम तो आज भी याद करते हैं पढाई वाले दिन को, ना! बोरियत के सागर में डूब जाते हैं। पढ कर करना क्या था? मैट्रिक में नब्बे प्रतिशत आ भी जाता तो क्या होता? मेरी दोस्त बोलती थी काहे चिंता कर रही है पति सुहाग रात में ये थोड़ी ना पूछेगा तुम्हारे मैट्रिक में अंग्रेजी में कितना नम्बर आया था। और सच्ची में कोइयो नही पूछा कभी नम्बर उम्बर के बारे में।’
सुलक्षणा ने बारहवीं तक जिला स्कूल से पढाई की थी। बेहद सुंदर थी बल्कि शादी के बाजार में यही उसकी सबसे बड़ी पूंजी थी। चार बहनों में सबसे बड़ी। घर का खाना पीना किसी तरह चल जाता था। उच्च जाति का ब्राहम्ण परिवार और सुंदर लड़की, दान दहेज के लिए मन मसोस के रह गईं काकीजी । पर इस बात की बहुत खुशी थी कि उनकी बहु किसी फिल्म हिरोईन से कम नहीं। अडोस पड़ोस की शादियों मेें जब दान दहेज की प्रदर्शनी होती तो काकीजी मन ही मन अपनी किस्मत को कोसती, अपनी खिसियाहट पर आदर्श के मुलम्में चढा लेती। ‘अरे! हम दान दहेज से जरा दूर ही रहते हैं, सुना नही है दुल्हन ही दहेज है। हम तो बस वही मानतें हैं। हां! बेटी की शादी में बीस लाख गिनना पड़ा, पर सब लोग का सोचना ऐसा थोड़ी ना होता है, बेटी का ससुराल वाला सब तो बहुत लोभी है।’ सुलक्षणा के घर वालों के लिए तो संभव जैसे अंधे के हाथ बटेर था। संभव, मस्तमौला खूबसूरत लड़का, प्रापर्टी डिलिंग का धंधा करता था। काम भी अच्छा चल रहा था। कम से कम वो तो ऐसा ही कहता था। घर में सबसे छोटा, सबका लाडला, दो बहन जिनकी शादी हो चुकी थी। खुश ही तो दिखती थी सुलक्षणा फिर ये क्या समस्या है उसके साथ?
मैं अपने कमरे में बैठी इंतजार कर रही थी कोई तो आए मेरे इन जिज्ञासाओं को पार लगाए। ‘ओफ ओह! अब इन्हें ही आना था, आधी बात तो इनकी समझ ही नहीं आती बोलती क्या है।’ मै मन ही मन बुदबुदाई। सामने सकरा वाली थी। सफाई और रसोई के काम के लिए आया करती थी। सकरा शायद उनके ससुराल के गांव का नाम था । वहां औरतों को, खासकर निम्न वर्ग की औरतों को जो काम के लिए घर आती थीं, अक्सर उनके नाम नहीं ससुराल के गांव के नाम से बुलाया जाता था। बड़ी इच्छा होती थी जानने की इनका असली नाम क्या होगा। पर मां बाप ने उनका क्या नाम रखा था ये पता करना तो कुछ ज्यादा ही मुश्किल काम था। लड़कियों के नाम शादी के बाद बदल कर कुछ और रख दिए जाते हैं। सुलक्षणा का असली नाम भी कुछ और है। मेरे नाम को बदलने की कवायद भी काफी चली और कुछ गौरी जैसा नाम रखा गया। पर रवि की जबान पर वो नाम चढ ही नही पाया, सुना सुनी दूसरे भी संध्या ही बोलते रहें। मै कुछ और पूछना चाहती थी जबान से कुछ और ही सवाल निकला ‘सकरा वाली आपका नाम क्या है?’ सकरावाली भौंहो को टेड़ा कर मेरी तरफ अजीब नजर से देखी। ‘ का कनिया हंसी ठटठा करती हैं? सकरावाली कह रही हैं और नाम पूछ रही हैं।श्
’श् ‘ओह! अण्ण् ये अण्ण् सकरावाली ये कविता कौन है?’ सकरावाली ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे वो अपने किस्मत के कोस रही हो कि कहां वो किसी कमअक्ल के फेरे में फंस गई।
कविता दीदी ? वो तो संभव भैया की बड़ी बहन हैं।’
कौन सी वाली? वो जो हरी साड़ी में थीं?सकरा वाली ने फिर मेरी तरफ ऐसी नजर डाली जैसे मैं पागल हो गई हूं। ‘ हरी साड़ी में कविता दीदी को देखा है! हूं कैसन बात कर रही हैं कनिया आप। कविता दीदी आपको भी तो नहीं परेशान करने लगीं हैं ? आपको नहीं पता है कविता दीदी बचपन में मर गईं। फिर आप ऐसा बात क्यों कर रहीं हैं। दस बारह बरस की थीं तबबे मर गई। फिर आपको कैसे दिखने लग गर्इं।
मर चुकी है! फिर लोग कविता कविता क्यों बोल रहे थे?’
छोटी कनिया जी के ऊपर आती हैं, उनको वो बहुत परेशान करती हैं। देखा नहीं था आपने का का सब मांगती हैं। कभी कपड़े चाहिए होते हैं कभी, कभी बकरा मांगती हैं। एक दिन तो हद्दी कर दीं। कहनें लगीं की हमको दुल्हन जैसा तैयार कर दो। फिर सब गहना लत्ता पहीन के नाचना शुरू कर दीं, फिर सब अपना कपड़ा लत्ता फाड़ दीं।’
लगता है बड़े कक्का कविता दीदी को बहुत प्यार करते थें। तभी देखो कुछ मांगती हैं तुरन्त दौड़ पड़ते हैं लाने को।
’ अरे काहे का प्यार कनिया! लड़कियन सब तो एक जैसी होती है। ऊपर से एक के बाद एक, तीन। घर में इधर से उधर नाक सुड़कती चकरघिन्नी की तरह फिरती रहती थी। तभी तो बीमार पड़ी तो कोई ज्यादा ध्यान दिया नहीं बस चली गई। औहे बुला लिया जो गल्ती से भेज दिया था।’
फिर अब क्यों इतना हल्ला हंगामा होता है?
अरे अब तो आत्मा है ना! क्या पता नाराज हो कर क्या करने लग जाए।
कई सवाल मथ रहे थे। भूत भात ये कुछ होता नही ंतो सुलक्षणा की आवाज कैसे बदल जा रही थी। और वो ऐसा क्यों करेगी। इतनी हंसमुख लड़की है। फिर उसे कविता से जुड़ी इतनी बातें कैसे पता है? अगले दिन सुलक्षणा मिली लेकिन वो सुलक्षणा बिल्कुल अलग थी, वैसी ही पुरानी हंसती खेलती सुलक्षणा।
का भौजी रहिका वासी से मिलने जा रही है? बच के रहिएगा। इस गांव के लोग का सुबह सुबह दरसन करेगीं तो खाना गया आपका आज। भूक्खे पेट रहना पड़ेगा।’श्रवि के छोटे भाई संजय ने मुझसे चुटकी ली। पर मेरे चेहरे पर आए सवाल को देख खुद ही बोल पड़ा।
‘अरे! नही सुनी है,ं ‘बुडबक धनाई के रहिकावास, कोठी में अनाज और घर में उपवास’ अपनी भामीजान उसी गांव की हैं।’
संजय की आवाज सुनकर सुलक्षणा खुद ही कमरे से बाहर निकल आई। रात की घटना की थोड़ी भी छाया सुलक्षणा के चेहरे पर नहीं थी। मुझे देखते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। संजय की ओर देखते हुए बोली-‘अरे जाइए, दीदी को मत भड़काइए। दीदी! इनकी बात पर मत विसवास करिए। देखते हैं अपने लिए कनिया कहां की लाते है।’ सुलक्षणा के पास कहने को बहुत कुछ था-राजन की बहु ने कौन सी नई साड़ी खरीदी है। संभव ने उससे कौन सी बात पर छेड़ा है, और उसे फिल्म दिखाने ले जाने के लिए कितनी मान मनुहार किया है। पर वो अकेले उसके साथ नही जाएगी, हॉल में उसे वो बहुत छेड़ता है ये और वो। कभी कभी ऐसा महसूस होता कि अपने और संभव की जितनी बातें वो बताती, वो फिल्मी ज्यादा लगतीं। फिर संभव वैसा लगता नहीं है, थोड़ा कटा कटा सा ही दिखता है। पर क्या पता, शायद ऐसा ही हो। मैनें वैसे ही टोह लेने के लिए सुलक्षणा से पूछा श्कल क्या हो गया था सुलक्षणा तुम्हें?’
कल कब, जब शाम को छत पर अकेली टहल रही थी?
हाँ हां! हालांकि मै उससे कल रात की बात जानना चाह रही थी, पर जिज्ञासा का विशय तो ये भी था कि अक्सर शाम को सुलक्षणा क्यों अकेली छत पर टहलती है। वो अकेले रहने वाली प्राणी तो है नही।
हम! उनका इंतिजार कर रहे थे।
क्यों संभव कहीं गया था? कहां?
पता नही।
नहीं शाम की बात नहीं कर रही, रात को ?
रात को कहां कुछ हुआ था। ई आएं उसके बाद हम लोग सोने चले गए।’
पता नही सुलक्षणा को सचमुच कुछ याद नही था या वो बताना नहीं चाहती थी? मैने बात को टाल दिया। सब कुछ नार्मल चलता रहा। लेकिन अक्सर शाम को सुलक्षणा छत पर अकेली टहलती हुई नजर आती। कुछ पूछो तो इधर उधर की बात कर टाल देती।
मै गौर कर रही थी कि मुझे ले कर महिलाओं में एक अलग तरह का खौफ है। मेरे हर एक एक्षन को वो नजरों से तौलती रहतीं। यहां तक कि सासू मां भी कई बार कुछ ज्यादा ही आदर से मुझसे बातें करतीं। शायद इस दूरी की वजह शिक्षा और मेरा नौकरी पेशा होना था। उनके लिए मै औरत की उस छवि को चुनौती देती हुइ्र दिख रही थी जिसे वो अभी तक जी रहीं थीं। कभी औरत की इस आधुनिक छवि के प्रति वो आदर प्रगट करती दिखतीं तो कभी अपनी पारंपरिक छवि को सही साबित करने के लिए मुझमें कमियां निकालने की कोशिश करतीं। रसोई में मै जैसे ही घुसी सब के सब चुप हो गएं। शायद वो कुछ ऐसी बातें कर रहें थे, जो मुझसे शेयर नहीं करना चाहते थे। काकी ने मुझे ऊपर से नीचे तौलती हुई निगाहों से देखा। फिर गला साफ करते हुए बोलीं ।
‘अरे कनिया! आदमी जात को हर हाल में खुश रखना पड़ता है, उनके हिसाब से सजो संवरों, उनकी पसंद का खाना बनाओ। अरे तुम तो ना बिंदी लगाती हो ना चूडि़यां हैं हाथ में। ये तो सुहाग की निषानी है। हमारी सुलक्षणा को देखो कितनी सजी संवरी रहती है, संभव कैसे लट्टू बना घूमता रहता है उसके आगे पीछे। क्यों सुलक्षणा ? बस बेचारी को बच्चा ही नही हो रहा है।
सुलक्षणा सिर नीचे किए पैर के अंगूठे से जमीन को खोदने लगी। मै थोड़ा हड़बड़ा गई। सबके चेहरे देखनें लगी, ऐसा क्या हुआ अभी जो काकीजी को ये कहना पड़ा। क्या रवि ने? नही, रवि तो खुद इन सबके खिलाफ है। फिर? मैने ‘जी!’ बोल कर ही इन सवालों से पीछा छुड़ाना ठीक समझा। मेरी सास ने मैदान संभालने की कोशिश की।
अरे संध्या पढी लिखी है उसे इन सब की कोई जरूरत नही है। इसको कोइयो छोटा सा भी काम दे दो, कितने सलीके से करती है।’
हाँ ऊ तो है। पर फिर भी आदमी लोग को कुछ और चाहिए होता है। उनकों अप्सरा बन कर रिझाना ही पड़ता है। चंचल मन होता है ना!’
काकी ने अपनी बात को सम्बल देने के लिए अनुभवों का सहारा लिया। काकी की बात सुनकर साधारण चेहरे को नजरअंदाज करता संध्या का आत्मविश्वास भी डगमगा गया। मन कहता अगर सुंदर चेहरे ही सब कुछ होते तो रवि पूरे परिवार से लड़ कर उससे शादी करता क्या? उसे सुंदर चेहरों की क्या कमी थी। वो खुद जब इतना खूबसूरत था। वहीं दिमाग चेतावनी देनें में लगा था, फिर भी क्या पता कभी उसे अपने फैसले पर पछतावा होता हो, जब अपने भाई भतीजों की सुंदर पत्नियों को देखता हो। नहीं मुझमे कुछ खास है उन सुंदर चेहरों से कुछ हट कर।
‘दीदी कहां खो गईं। चलिए मेरे कमरें में चलते हैं।’सुलक्षणा की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी।
हाँ हां, अरे! सब चले गएं। पता ही नहीं चला। हां चलो।’
हम सुलक्षणा के कमरें में थे। कमरा बहुत करीने से सजा हुआ था। रैक के ऊपरी हिस्से में टैडी बियर की पूरी जमात विराजमान थी। जगह जगह प्लास्टिक के फूलदान में प्लास्टिक के फूल लगे हुए थे। दीवार पर एक गबदू से बच्चे का बड़ा सा पोस्टर लगा हुआ था। बैड के बगल में छोटा सा टेबल जो क्राशिए से बने मेजपोश से ढंका हुआ था। उस पर सुलक्षणा और संभव का फोटो। अपने बिस्तर को हाथों से झाड़ते हुए मुझे उस पर बैठने का इशारा किया।
अरे ठीक है, कितना तो साफ सुथरा है, और कितना साफ करोगी।’
नहीं काफी धूल है। आप आराम से बैठों ना पैर ऊपर करके।
फिर शुरू हो गई सुलक्षणा की इधर उधर की बातें। कुछ अपने मायके की बातें, कुछ स्कूल के दिनों की बातें। पर आज सुलक्षणा चहक नही रही थी। कोई बात थी जो उसे परेशान किए हुए थी। फिर अचानक सवाल किया- दीदी मैं क्या आगे पढाई नही कर सकती?
हां! क्यों नहीं कर सकती हो। पर तुम्हे तो |
नहीं ठीक रहेगा। मेरे लिए यही ठीक रहेगा। उसके चेहरे पर खिंचती लकीरें साफ बता रहीं थीं कि अंदर बहुत कुछ चल रहा है।
पर पता नही मां मानेंगी की नही। उ तो मान जायेंगें। बोलते रहते है कि तुम कुछ आगे पढो लिखो। आपकी बहुत प्रसंसा करते हैं।
संभव का काम काज कैसा चल रहा है? कल मिला तो था लेकिन मैं उससे पूछ नहीं पाई। इन दिनों थोड़ा कम ही दिखता है, लगता है थोड़ा बिजी है?
हाँ शायद
शायद मतलब? तुम पूछती नहीं हो उससे काम के बारे में।
‘हां नही। पहली पूछती थी तो बोलते थे, तुम्हारी समझ में नहीं आएगा । फिर पूछना छोड़ दी। हमारी बात बस बिस्तर पर ही होती है। और वहां वो कुछ इस तरह की मतलब टेंसन वाली बात करना पसंद नही करते।
सुलक्षणा विचारों के झोंके में मुझ से खुल गई। अचानक अचकचा गई। ‘मतलब उनको इस तरह की सिरियस वाली बात हमसे करना अच्छा नहीं लगता।’
लेकिन फिर भी तुम्हारे दिमाग में ये बात तो आती ही होगी ना कि क्या करता है, कहां जाता है, रात को लौटने में इतनी देर क्यों हो जाती है। फिर मैंने तो जैसे सोच ही लिया था कि अपने सभी जिज्ञासाओं को आज शांत कर ही लूंगी।
वहीं तो है उनका आफिस। एक दो बार गए थे उनके आफिस, पसंद नहीं करते हम जाते हैं तो।
तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? कभी कुछ बोला है क्या ?
नही पता नहीं।
एक चुप्पी सी फैल गई हम दोनों के बीच। वो जैसे मन में अपने शब्दों को तौल रही थी कि उसने मुझसे इस तरह की बातें करके कहीं कुछ गलत तो नहीं किया। और मै समझ नहीं पा रही थी कि इस बात पर आगे क्या बोलूं।
चल कैसी बातें कर रही हैं ऐसा थोडी ना हो सकता है।
हाँ उ मुंहझौसी के प्रेम का बुखार उतरेगा तब न हम अच्छे लगेंगे दीदी । सुलक्षणा के धैर्य का बांध टूट चुका था।
किसका?
औही। किसी को बोलिएगा नही हम कुछ ऐसा बोले हैं। मां को तो बिल्कुल ही नहीं।
अरे नही मुझ पर विश्वास रखो। ये किसके बारे में बात कर रही हो?
उ विधवा है। अपने पति को खा चुकी है, बच्चा उच्चा कुछ है नहीं। उसी के पास जातें है रोज शाम को। अपने भाई के घर में रहती है। भाई को भी अच्छा है, इ खूब पैसा वैसा देते हैं उन लोग को। इसीलिए तो इनकी जल्दी शादी करवा दी गई। पर कहा कुछ हुआ शादी से।
तुमने ताई जी को नहीं बताया ये?
बताया तो बोलने लगीं कि तुम्हारा काम है उसको पल्लू से बांध के रखो । अप्सरा ब्याहने का क्या फायदा जब इ काम भी तुमसे नहीं हो सकता। आदमी लोग का दिल तो चंचल होता ही है। तुम बांझ हो इसलिए लड़के का मन इधर उधर भटक रहा है।’ अब मुझे थोड़ा थोड़ा समझ आ रहा था सुलक्षणा का रोज शाम को छत पर अकेले टहलना।
लेकिन ये सब कब तक चलेगा? तुम मतलब कैसे ये सब अपना मन कहीं और लगाओ।
हाँ तभी तो सोच रहे हैं, पढाई कर लें, गांव के स्कूल मेंं छोटे बच्चों को पढा लेंगे। कहीं तो मन लगाएं। अपने घर तो वापिस जा नहीं सकते। शायद बच्चा वच्चा हो जाए तो ये भी कुछ बंध जाएंगे। पर हम बांझ हैं कैसे होगा।
‘किसने कहा तुम बांझ हो? डॉक्टर को दिखाओ। पहली बात, वो जब तुमसे प्यार करता ही नही ंतो उसे जबरदस्ती क्यों बांध रही हो।’ सुलक्षणा ने अजीब सी नजरों से देखा, जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आई हूं।
‘डॉक्टर को दिखाया था, पता नहीं क्या बताया। मां कहतीं है डॉक्टर तो पैसा कमाने के लिए कुछ भी बोलते रहते हैं, बच्चा जनना औरत का काम होता है, डॉक्टर कैसे कह रहा है आदमी में कमी है। पांच साल हो गया है बच्चा नहीं हुआ। कहती हैं तेरे से ये काम नहीं होगा तो संभव की दूसरी शादी करके देखेंगे। डर लगता है दीदी फिर मेरा क्या होगा? मैं ऐसा होने नहीं दूंगी। अजीब लग रहीं थी ये सब बातें। ये तरीके अपने उसी चिर परिचित अंदाज में सदियों से सांसे ले भी रही हैं। बेटा परिवार के हिसाब से नहीं चल रहा, शादी कर दो घर गृहस्थी की जिम्मेदारी सर पर पडेगी, लाइन पर आ जाएगा। पूरा का पूरा कुनबा लग जाता है, किसी तरह उनकी बनाई लकीरों पर दूसरा इंसान चलने लग जाए। प्रेम जैसे शब्दों का इन शादियों मे कोई वजूद ही नही है। और शायद कोई उसकी उम्मीद करे तो लोग हंसेंगे ही कि यही तो प्यार है, बच्चे पैदा करो फिर ताउम्र उनकी देखभाल करो। बाकि तो फिजूल की फिल्मी बाते हैं। और उनकी इस सारी योजनाओं में बलि का बकरा बनती औरत । एक अप्सरा की तरह पति को रिझा कर रखना, एक मशीन की तरह उसके वंश को बच्चा देना । और अगर ऐसा नहीं कर पा रही तो उसकी जिंदगी व्यर्थ है। सुलक्षणा को अपनी जिंदगी व्यर्थ ही लग रही थी।
सुलक्षणा कुछ कविता दीदी के बारे में बताओ ना! बहुत सुनते हैं उनके बारे में।
मै कविता दीदी का नाम लेकर उसके चेहरे पर आती प्रतिक्रियाओं को पढना चाहती थी।
‘कविता दीदी इनसे बड़ी बहन थी। बचपन में ही मर गईं। तीसरी बेटी थी ना हमेशा डांट फटकार उनके हिस्से में आता था। बीमार हुईं, कोनो ध्यान नहीं दिया। भंसाघर के बगल में जो कमरा हैं ना! जहां अनाज रखते हैं वहीं पर एक दिन मरी हुई मिलीं। बेचारी! मां जी कभी कभी उनके बारें में बताती हैं। बहुत अकेली थी बेचारी!
सुलक्षणा के चेहरे पर गहरी पीड़ा की रेखा साफ दिख रही थी, जैसे ये सारी बातें सुलक्षणा नहीं कविता खुद बता रही हो।’’ मेरी नजर उसके चेहरे पर टिक गई। उसके अंदर बहुत कुछ चल रहा था। दो भाव आपस में गुत्थमगुत्था हो रहें थे। कभी सुलक्षणा कभी कविता।
कई दिनों तक शांति रही। सुलक्षणा को कविता दीदी की आत्मा भी परेशान नहीं कर रही थी। मेरी प्रेगनेंसी की खबर सुनने के बाद काकी ने सुंदरता का आलाप लगाना कम कर दिया था। पर अब बात बात में सुलक्षणा के कामों में कमियां निकालने लग गईं थीं। कुछ तो उस परिवार के अंदर चल रहा था जो बाहर, नहीं आ रहा था या जानबूझ कर नहीं आनें दिया जा रहा था। सुलक्षणा कुछ चुप सी रहनें लग गई थी।
वो रात फिर सुलक्षणा के लिए भारी था। कविता दीदी के भूत ने उस पर अपना पूरा कब्जा कर लिया था। वही हलचल, वही बैचेनी पर आज कुछ डिमाण्ड नहीं था। जोर जोर से सिर हिलाते हिलाते पूरी पसीनें से लथपथ सुलक्षणा धीरे धीरे काफी रिलेक्स होने लगी थी, जैसे अंदर के सारे तुफान को उसने सिर हिला हिला कर उतार फेंका है। फिर धीरे से गुर्राते हुए बोली -‘संभव को बुलाओं। उसने मुझे बहुत परेशान किया है।’
संभव को बुलाने के लिए हलचल मचने लगी । ताई जी ने संजय के कान में कुछ कहा, संजय उठ कर वहां से चला गया। थोड़ी देर बाद संजय, संभव के साथ वहां पहुंच गया। संभव को देखते ही सुलक्षणा की आंखें उस पर टिक गई। उबलती हुई आंखों से उसने उसे देखा। जोर जोर से हांफने लग गई।
मेरी गुडि़या तूने किवाड़ के पीछे क्यों छिपाई थी? बोल, बोल ना! बोलता क्यों नहीं है? फिर उस रानी को दे आया। बहुत मजा आता है, हमको तंग करने में। हैं! कैसे कैसे हम ढूंढ रहे थे अपनी गुडि़या को, तुमको तो खूब मजा आ रहा था। तुमको देखे थे, मुंह दबा कर हंस रहे थे। तुमको पता है हम कितना रोते थे भंसाधर में। तुम्हें कैसे पता। तुमने मेरी गुडि़या, मेरा बच्चा रानी को दे दिया। जाओ तुम्हें श्राप देतें हैं तुम्हारो यहां कभी कोई बच्चा ना हो। अब पता चलेगा तुमको मेरा गुस्सा।‘
सुलक्षणा की इस बात से चाराें तरफ सन्नाटा हो गया। अचानक ताई की धीरे से सुबकने की आवाज आई। धीरे धीरे उनकी आवाज तेज होती गई। फिर गिरगिड़ाहट में बदल गई। नही बाबू अपना भाई के साथ कोई ऐसा करता हैं, माफ करदे उसको।’
पर नहीं आज कविता संभव को माफ करने के मूड में बिल्कुल नहीं थी। जोर जोर से सिर हिलाना शुरू कर दिया। फिर निढाल हो गई। आज सबके चेहरे के भाव बदले हुए थे। एक चिंता साफ नजर आ रही थी, पर सुलक्षणा का चेहरा अपेक्षाकृत आज शांत था। बिल्कुल शांत जैसे सभी समस्याओं से उसने मुक्ति पा ली। और शायद कविता दीदी की आत्मा ने भी सुलक्षणा से मुक्ति पा ली थी, वो फिर कभी सुलक्षणा पर नहीं आई। आत्मा ने अपना रास्ता खोज लिया था और सुलक्षणा ने भी।