“शौकिया रंगमंच का आंदोलन इस देश के हर क्षेत्र में और हरेक गॉंव में फैलाना है और यही रंगमंच के टिके रहने का आधार है। शौकिया रंगमंच ही पेशेवर रंगमंच का भरण-पोषण करता है।’’ हमरंग पर ‘नटरंग’ पत्रिका के ब.व.कारंत विशेषांक के सन्दर्भ में हिंदुस्तानी रंगमंच के किंवदंती पुरूष समझे जाने वाले बाबा कारंत की रंगशख्सीयत को समझने का एक वस्तुपरक प्रयास करता “अनीश अंकुर” का अगला आलेख ….| – संपादक
पारसी थियेटर, इप्टा और एन.एस.डी इन तीनों ने हिंदी रंगमंच से विश्वासघात किया- ‘ब.व.कारंत‘

अनीश अंकुर
बाबूकोंडी वेंकट रमण कारंत यानी ब.व.कारंत, रंगमंच की दुनिया जिन्हें प्यार से बाबा कारंत कहती है, पर ‘नटरंग’ ने एक विशेषांक निकाला है। दिल्ली से निकलने वाली ‘नटरंग प्रतिष्ठान’ की इस पत्रिका में हिंदुस्तानी रंगमंच के किंवदंती पुरूष समझे जाने वाले बाबा कारंत के रंगशख्सीयत को समझने का एक वस्तुपरक प्रयास है। कन्नड़ भाषी बाबा कारंत का हिंदी रंगमंच से जैसा गहरा लगाव व रिश्ता था वैसा शायद ही किसी अन्य अहिंदीभाषी रंगकर्मी का रहा है।
त्रैमासिक पत्रिका ‘नटरंग’ के 97-98 में कारंत जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर खासी सामग्राी है। इसमें उनके द्वारा लिखी गयी रपटें, दिए गए व्याख्यान, साक्षात्कार, प्रमुख लोगों के संस्मरण के साथ-साथ उनकी रचना प्रक्रिया को समझने के लिहाज से दस्तावेज भी हैं।
अन्य हिंदी भाषी षहरों की तरह पटना रंगमंच से भी ब.व.कारंत का खासा लगाव था। अपनी मृत्यु से कुछ महीनों पूर्व पटना की रंगसंस्था ‘हिरावल’ द्वारा अभिनेता विजय कुमार के सौजन्य से नाट्य संगीत कार्यषाला का आयोजन किया गया था। इस विशेषांक में एक लंबा साक्षात्कार है जो पटना रंगमंच से जुड़े परवेज अख्तर, अपूर्वानंद एवं श्रीकांत किशोर द्वारा, अस्सी के दशक में, लिया गया था। बेहद महत्वपूर्ण इस साक्षात्कार में उन्होंने कई विषयों पर बेबाक से राय प्रकट किया है। हिंदी रंगमंच से विश्वासघात कर फिल्मों में चले जाने वाले तीन परिघटनाओं का उल्लेख करते हैं ‘‘ हिंदी रंगमंच से पहला विश्वासघात पारसी थियेटर ने किया। पारसी थियेटर के सारे लोग सोहराब मोदी, पृथ्वी राजकपूर वगैरह फिल्मों में चले गए। यही काम इप्टावलों ने किया। खासकर हिंदी प्रदेषों में। तीसरा विश्वासघात एन.एस.डी के चलते हुआ। आज मुंबई में एन.एस.डी के सैंकड़ों लोग पड़े हैं ’’

नटरंग
कर्नाटक के चर्चित लोकनाट्य ‘यक्षगान’ पर एक दिलचस्प आलेख है ‘यक्षगान रंगसथल की रूढि़यां’। यक्षगान की प्रस्तुति की प्रक्रिया से लेकर उसके सामाजिक-सृजनात्मक महत्व को काफी जीवंतता से वर्णित किया है ब.व.कारंत ने। ‘अनामिका नाट्य महोत्सव’ की लंबी रपट खास तौर से पठनीय है। पूरी रपट साठ-सत्तर के दशक का एक रंगमंचीय खाका प्रस्तुत करता है।
‘रंगमंच और हिंदी समाज’ विषय पर दिये गये व्याख्यान में कारंत जी हिंदी समाज की भाषायी उदासीनता पर चर्चा करते हुए भूदान आंदोलन के राष्ट्रीय नेता बिनोबा भावे का उदाहरण देते हैं ‘‘ ये बहुत उदार भाषा है कोई भी हिंदी लिख पढ़ के बोल सकता है। बिनोबा भावे ने कहा था कि हिंदी भाषा तुम कितना भी बिगाड़ कर बोलो कोई बुरा नहीं मानता। क्योंकि ज्यादा से ज्यादा लोग कहेंगे कि ये बिनोबा की हिेंदी है, ये गॉंधी की हिंदी है। आप किसी दूसरी भाषा को इतना बिगाड़ कर नहीं बोल सकते हैं’’
हिंदी रंगमंच के शौकिया चरित्र के बारे में बहुत बात की जाती है। हिंदी रंगमंच का शौकिया होना इसकी कमजोरी के रूप में देखा जाता है। नीलम मान सिंह से निजी बातचीत में ब.व.कारंत ने शौकिया रंगमंच के संबंध में कहा “शौकिया रंगमंच का आंदोलन इस देश के हर क्षेत्र में और हरेक गॉंव में फैलाना है और यही रंगमंच के टिके रहने का आधार है। शौकिया रंगमंच ही पेशेवर रंगमंच का भरण-पोषण करता है।’’ कारंत जी आगे टिपप्णी करते हैं ‘‘ शौकिया रंगमंच जोखिम लेता है वह प्रारूप के साथ प्रयोग करता है और उसकी प्रकृति नवाचारी होती है। वित्तीय और कार्यगत दबावों के बावजूद, तमामतर कठिनाईयों के उपरांत भी आगे बढ़ती जाती है। क्योंकि इसके पास खोने को कुछ नहीं है यह शौकिया रंगमंच ही है जिसने रंग आंदोलन को सक्रिय और भारत में जीवंत बनाए रखा है।’’
ब.व कारंत की ख्याति सबसे ज्यादा रंगसंगीत के लिए है। इस संबंध में उनके शिष्य रहे स्व. अलखनंदन कहते हैं ‘‘ अपनी सांगीतिक धुनों को वे ध्वनि योजनाएं कहा करते थे। थियेटर में जिसतरह हम ग्राउंड प्लान करते हैं उसी तरह स्पीच के लिए साउंड प्लान भी तैयार करना चाहिए। बहुत से नाटक अच्छे डिजायन होने के बाद भी उबाउ लगने लगते हैं क्योंकि निर्देषक अपने अभिनेताओं के स्वर डिजायन नहीं करता। अगर वो 20 मिनट तक हारमोनियम दबाए रहें तो उसको कैसे सुन सकते हैं?’’
‘अॅंधेर नगरी’ कारंत जी द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले वाले वाद्ययंत्रों के विषय में भारत रत्न भार्गव कहते हैं ‘‘ पत्थरों, लकड़ी के टुकड़ों, चाकू, कैंची, छुरियों जैसी नित्य प्रति काम में आने वाली सामान्य सी वस्तुओं की ध्वनियों में संगीतात्मकता पैदा करना उन्हीं के वश की बात थी। ’’ बाजार के दृष्य में विविध आंचलिक बोलियों तथा उच्चरित स्वरों का वैविध्य जिस वातावरण की सृष्टि करता है व एकान्तिक न होकर सार्वजनिन और सर्वकालिक बन जाता है। एक ही दृष्य में हमें संपूर्ण देष का प्रतिनिधित्व करने वाला रंग-संसार बन जाता है’’
रंगसंगीत संबंध में सत्यव्रत राउत , अपने आलेख में, खुद कारंत जी की कई कही बातों को आधार बना कहते हैं ‘‘ रंगमंच में सीनिक ;दृष्यद्ध और सोनिक ;श्रव्य के प्रभाव में ज्यादा अंतर नहीं होता। कुदरत की ध्वनियों को संवेदना को साथ सुनकर जब उन्हें ताल और लय में बॉंध दिया जाए तो ये संगीत हो जाता है। नाटक संगीत गीत से ज्यादा से ज्यादा स्पीच ;वाचिकद्ध के नजदीक होता है। नाट्य संगीत दृष्य की अभिव्यक्ति का ही एक रूप है। जैसे हम अलग परिस्थति में मूड बदलते हैं, ध्वनि को भी बदलना चाहिए। ’’ कारंत जी तो यहॉं तक मानते थे कि ‘‘ हम काल को भी संगीत की ध्वनियों से व्यक्त कर सकते हैं ’’
एक अभिनेता के लिए बचपन के दिनों में गुबी वीरन्ना कंपनी के दिनों की बातें कारंत जी अक्सर दुहराया करते कि ‘‘ अभिनेता के लिए तीन पी बहुत जरूरी है। पाइप, पोज और फिगर या पर्सनैलिटी ;वीरन्ना फिगर को पिगर कहते थे । अभिनेता के लिए पूर्ण गायक होना जरूरी नहीं लेकिन उसे संगीत का बोध जरूर विकसित करना चाहिए। वो तानसेन न भी हो, कम से कम कानसेन जरूर हो’’
जावेद अख्तर खॉं, अपूर्वानंद, श्रीकांत किशोर, अलखनंदन, रेखा जैन, प्रभात त्रिपाठी एवं कृष्ण बिहारी मिश्र के संस्मरणों व आलेखों से कारंत जी की षख्सीयत की कई अनजानी परतें अनावृत्त होती हैं।
इस विशेषांक में कारंत जी के कई साक्षात्कार छपे हैं। जो क्रमशः राधा वल्लभ त्रिपाठी, गौतम चटर्जी एवं अलखनंदन का है। बाबा कारंत का महत्व हिंदी के सबसे प्रमुख नाटककारों में से एक जयशंकर प्रसाद के नाटकों के मंचन के लिए भी याद किए जाते हैं। जयशंकर प्रसाद के नाटक अनअभिनेय माने जाते रहे हैं। गौतम चटर्जी के साथ साक्षात्कार में कारंत जी ने कहा ‘‘ लिखे हुए नाटक की विषयवस्तु को रंगशिल्प के रंगविन्यास में कैसे सोचें ये सोच नहीं थी। ऐसे निर्देशकों ने जब प्रसाद के नाटक पढ़े तो पाया कि बड़े-बड़े दृष्य हैं, युद्धों के विशाल वर्णन हैं इन्हें मंच पर कैसे दिखाया जाए? इसके लिए हाथी, घोड़े, आदि कैसे लाएंगे? ’’ आगे वे कहते हैं ‘‘ जबकि मैं सोचता हूॅं कि यदि मुझे मीडियम की जानकारी है तो कोई भी नाटक खेला जा सकता है’’
नटरंग के इस विशेषांक में रंगकर्मी नीलेश दीपक ने ‘नटरंग प्रतिष्ठान में कारंत’ एवं उनके जीवनवृत का संयोजन किया है जिससे उनके विशाल रंगसंसार से परिचय होता है। सबसे दिलचस्प एवं महत्वपूर्ण है हिमांशु बी जोषी द्वारा कारंत के ‘शकुन्तला की रचना प्रक्रिया’ का दस्तावेजीकरण। इसमें इस नाटक के निर्देशन के दौरान लगभग प्रतिदिन लिए गए महत्वपूर्ण नोट्स हैं। मसलन ‘‘ सारी भारतीय भाषांए स्वर प्रधान हैं। यहॉं हृस्व-दीर्घ स्वर है जबकि अॅंग्रेजी में नहीं है। जिस भाषा में हृस्व-दीर्घ न हो वो आदेशात्मक होती है ’’
उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर कार्यशालाओं का आयोजन किया। नये-नये नाट्य समूहों तक रंगमंच संबंधी अपनी समझदारी को पहॅुंचाते रहे। इसी सिलसिले में पटना भी उनका आना हुआ। जमीनी स्तर पर रंगमंच के शिल्प के प्रति जिज्ञासा उत्प्रेरित करने में उनका योगदान अतुलनीय है। वे खुद भी कहा करते थे ‘‘मैं मीनारी कामों की बजाए मैदानी कामों में ज्यादा विश्वास रखता हूॅं। ’’