नाटक, रंगमंच समाज में जनता की आवाज़ बनकर किसी भी प्रतिरोध के रचनात्मक हस्तक्षेप की दिशा में जरूरी और ताकतवर प्रतीक के रूप में मौजूद रहा है | न केवल आज बल्कि उन्नीसवीं शताब्दी में 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम जब असफल हो गया। लोगों को कंपनी सरकार के विरूद्ध आवाज उठाने का साहस न था उस समय नाटकों के माध्यम से प्रतिरोध की शुरूआत हुई, लोगों में साहस भरने का काम किया जाने लगा। बंगाल में ‘नीलदर्पण’ ऐसा ही नाटक रहा । हालांकि व्यवस्थाओं ने जनता की इन सांस्कृतिक आवाजों को दवाने की दिशा में भी कभी कमी नहीं छोड़ी | अॅंग्रेजों ने नाटकों की ताकत को देखते हुए उसके प्रचार-प्रसार पर अंकुष लगाने के लिए काला कानून ‘ड्रामेटिक परफोर्मेंस एक्ट, 1876 बनाया था । बावजूद इसके मनुष्य का दूसरे मनुष्य से रागात्मक संबंध कायम करने के रचनात्मक माध्यम के रूप में रंगमंच हमेशा जीवित रहा है और रहेगा ।… प्राचीन से आज तक के रंगमंचीय बदलाव को रेखांकित करता ‘अनीश अंकुर‘ का आलेख ….| – संपादक
रंगमंच का बदलता स्वरूप
दुनिया भर की प्राचीन कला माध्यमों में रंगमंच का नाम शुमार किया जाता है। पिछले दो हजार वर्षों से अपनी निरंतरता बनाए रखने वाले रंगमंच की लोकप्रियता आज भी वैसे ही अक्षुण्ण है। नाट्य शास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने नाटक को दुनिया में तीनों लोकों के समस्त भावों का अनुकरण करने वाला ऐसा माध्यम बताया है जिसमें समस्त ज्ञान, शिल्प, कला, विद्या या अन्य कार्य सन्निहित हैं। रंगमंच केा तो पंचम वेद तक की संज्ञा दी गयी है।
हिंदुस्तान के इतिहास में नाटक व रंगमंच के क्षेत्र में एक से बढ़कर एक विभूतियां हुईं। कालिदास का नाम तो सर्वविदित है ही उनके अलावा, भास, भवभूति, शूद्रक आदि के नाम प्रमुख है। तीसरी-चैथी सदी में शूद्रक का लिखा गया ‘मृच्छिकटिकम’ आज भी भारत के रंग संसार में बड़े चाव से खेला जाता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहरू ने अपनी विश्वविख्यात कृति ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में ‘मृच्छिकटिकम’ के सबंध में एक अॅंग्रेज विद्वान केा उद्धृत करते हुए कहा है ‘‘ ऐसा नाटक वही समाज रच सकता है जिसने मनुष्य के अस्तित्व व नियति से जुड़े दार्षनिक प्रष्नों केा काफी हद तक हल कर लिया हो।’’ भरतमुनि के नाट्यशास्त्र ने रंगमंच उसके तकनीक की एक तरह से आचारसंहिता निर्मित की। प्राचीन भारत के विद्वान मानते हैं कि ईसा के बाद हजार ईस्वी यानी जब तक नाटक व रंगमंच लोकप्रिय रहा भारत का डंका दुनिया भर में बजता रहा। इसके बाद नाटक उस तरह से लोकप्रिय नहीं रह पाया परिणामस्वरूप भारत भी दुनिया पर अपना वर्चस्व खेाता चला गया।
उन्नीसवीं शताब्दी में 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम जब असफल हो गया। लोगों को कंपनी सरकार के विरूद्ध आवाज उठाने का साहस न था उस समय नाटकों के माध्यम से प्रतिरोध की शुरूआत हुई, लोगों में साहस भरने का काम किया जाने लगा। बंगाल में ‘नीलदर्पण’ ऐसा ही एक नाटक था। अॅंग्रेज ने नाटकों के प्रचार-प्रसार पर अंकुष लगाने के लिए काला कानून ‘ड्रामेटिक परफोर्मेंस एक्ट, 1876 बनाया ।
बंगाल की तरह महाराष्ट्र में भी नाटक समाज सुधार आंदोलनों से जुड़ा रहा। इस जुड़ाव की वजह इन प्रदेशों में नाटकों को अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल हुई। स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वमान्य नेता लोकमान्य तिलक तो सार्वजनिक सभाओं में लोगों से नाटक देखने की अपील किया करते थे। इसी वक्त हिंदी क्षेत्र में नवजागरण का सूत्रपात करने वाले ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ ने भी नाटकों केा अपना माध्यम बनाया। उनके लिखे नाटक सत्य हरिश्चन्द्र, भारत दुर्दषा, अॅंधेर नगरी ने अपार लोकप्रियता हासिल की। ‘अॅंधेर नगरी’ आज भी बड़े चाव से खेला जाता है। गुलाम भारत के लिए नाटकों की महत्ता का अंदाजा भारतेंदु्र हरिश्चन्द्र के इस दोहे से लग जाता है
आवहूं मिली भारत भाई
नाटक देखहीं सुख पाई।
लेकिन अब रंगमंच का स्वरूप वही नहीं था जो पिछले कई शताब्दियों से चला आ रहा था। लगभग इसी वक्त हिंदी क्षेत्र में पारसी रंगमंच का बोलबाला होने लगा था। पारसी थियेटर का मुख्य मकसद मनोरंजन था। सामाजिक सरोकारों वाली बात यहाँ न थी। हांलाकि पारसी रंगमंच आमलोगों द्वारा काफी पसंद किया जाता था। हिंदी क्षेत्र में यह एक तरह से पहला व्यावसायिक रंगमंच था जिससे बहुतों की जीविका चलती थी। लेकिन तत्कालीन समाज में पारसी थियेटर केा अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था। इस पर अश्लीलता का भी इल्जाम लगता रहा है। लेकिन बीसवीं सदी के तीसरे दशक में फिल्मों के आगमन के बाद पारसी – थियेटर खुद ही लुप्त होता चला गया।
पारसी थियेटर के पश्चात ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन’, यानी इप्टा का नाम सम्मान से लिया जाता है। 1943 में स्थापित इस संगठन ने रंगमच केा जनता के बीच ले जाने का अनूठा काम किया। किसानों, मजूदरों के जद्दोजहद केा नाटकों का विषय बनाया जाने लगा। बंगाल के भयावह अकाल में अनुमानतः 30 लाख लोग भूख से कालकवलित हो गए। इस अकाल पर इप्टा का नाटक ‘नवान्न’ आज भी जन नाट्य आंदोलन में मील का पत्थर माना जाता है।
आजादी के पश्चात राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संगीत नाटक अकादमी सहित ढ़ेंरों प्रांतीय अकादमियों की स्थापना हुई। आजादी के पूर्व नाटकों का मूलस्वर जहां साम्राज्यवाद विरोधी हुआ करता था। वहां अब उसमें विविधता आने लगी।
पचास व साठ के दशक में जगदीश चंद्र माथुर का ‘केार्णाक’, युद्ध की विभीशिका पर धर्मवीर भारती रचित ‘अंधा युग’ एवं मोहन राकेष के ‘आधे अधुरे’, ‘अषाढ़ का एक दिन’ आदि ने खासी ख्याति पायी। हिंदी में हमेशा से नाट्य आलेखों की कमी भी रही है। इस कारण यहाँ विदेशी नाटकों के अनुवाद के सहारा लेकर मंचन किए जाते रहे।
सत्तर व अस्सी के दशक में हिंदी रंगमंच ने अपनी जड़ों की ओर लौटने की कवायद शुरू की। हर प्रदेश की अपनी-अपनी नाट्य शैलियों की खेाज शुरू होने लगी। बंगाल में जात्रा, कर्नाटक में यक्षगान, बिहार में बिदेसिया आदि उसी परिघटना का सूचक है। 70 व अस्सी के दशक में नाटकों के विषयवस्तु में काफी तब्दीली आ गयी। तरह-तरह के प्रयोग होने लगे । यथार्थवादी से लोकनाट्य शैली सबों पर काम होने लगा। इसी समय भिखारी ठाकुर लोकनाटकों के नये नायक उभर कर आए वैसे उनकी लोकप्रियता बिहार के समाज में पहले भी काफी थी। पहले रंगमंव अभिनेताओं का माध्यम समझा जाता था। लेकिन अब निर्देशक, की भूमिका प्रधान होने लगी। परिणामस्वरूप नाटककार हाशिए पर जाने लगे। नाटकों की कमी की क्षतिपूर्ति कहानियों के माध्यम से की जाने लगी। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि ‘कहानी का रंगमंच’ नामक अलग विधा ही चल पड़ी।
संचार क्रांति समाज व राजनीति के साथ-साथ रंगमंच में बदलाव के लिहाज से भी बेहद महत्वपूर्ण है। रंगमंच पर अब मल्टीमीडिया का प्रयोग होने लगा, भिन्न किस्म की रंगयुक्तियों, रंगअभ्यासों केा जगह मिलने लगी। विचार के स्थान पर शरीर और उसके संचालन केा अधिक महत्व दिए जाने की प्रवृत्ति शुरू हो गयी।
पहले नाटक जहाँ अंको व दृष्यों में बॅंटे रहते थे वो विभाजन समाप्त होने लगा। दृष्यपरिवर्तन के लिए प्राचीन नाटकों में पर्दा गिराने का चलन था लेकिन अब इसके आधुनिक प्रकाश तकनीक एवं संगीत आदि का इस्तेमाल किया जाने लगा। सूत्रधार का काम कोरस द्वारा किया जाने लगा।
बाहरी के साथ-साथ रंगमंच की अंदरूनी संरचना में भी तब्दीली आने लगी। अस्सी के दशक में बिहार सहित हिंदी क्षेत्रों में नये -नये संगठनों का आर्विभाव हुआ। रंगमंच में चूँकि संसाधनों का अभाव रहा करता था इस कारण सभी कलाकार सामूहिक रूप से संघर्ष करते, चंदा जमा कर नाटक किया करते थे। सामाजिक जीवन के विघटन का क्रमषः असर यहाँ भी परिलक्षित होने लगा। संगठन धराशायी होने लगे। एकल अभिनय की परंपरा का जन्म हुआ। नाटकों के नाम पर संसाधन बढ़ने लगे। अब चंदा जमा करना, संगठन बनाने आदि की आवश्यकता धी-धीरे कम होने लगी। प्रयोग आधारित रंगमंच अब प्रोजेक्ट आधारित बनने की तरफ बढ़ चला। इसका प्रभाव भी पड़ा। रंगमंच की दुनिया में किसी भी समय की तुलना में पूर्णकालिक रंगकर्मियों की संख्या में काफी वृद्धि हो गयी । जो रंगमंच कभी भी व्यावसायिक नहीं हो पाया था वो अब उसकी ओर बढ़ रहा है। लेकिन ये व्यावसायिकता अनुदान आधारित है इसका केाई ठोस सामाजिक आधार नहीं है। जब अनुदान बंद होता है नाटक होना भी रूक जाता है।
इसे सबसे अच्छी तरह से हिंदी क्षेत्र में नुक्कड़ नाटकों की विकास यात्रा से समझा जाता है। दर्षकों से सीधे मनोरंजक संवाद करने के मामले में इसका केाई सानी न था। । नुक्कड़ नाटक की इस ताकत का इस्तेमाल सरकार एवं कोर्पोरेट दोनों ने समझा और अपने हित में उसका इस्तेमाल करने की केाशिश करने लगे। पहले जहाँ नुक्कड़ नाटकों के विषय महॅंगाई, बेराजगारी, भ्रष्टाचार हुआ करते थे उसकी जगह अब एड्स, पोलियो, बैंक में खाता कैसे खोलें, ओ.आर.एस का घोल कैसे पिलाएं आदि होने लगे। पहले नुक्कड़ नाटक जहाँ आमलोगों से सीखते हुए उनसे संवाद का माध्यम था उसकी जगह वो ब्यूरोक्रेटिक अंदाज में जनता तक महज सूचना पहुँचाने वाला एकतरफा माध्यम बन बैठा।
आज टेलीविजन, फिल्म जैसे यांत्रिक माध्यमों के बावजूद रंगमच का जीवंत माध्यम होना इसकी सबसे बड़ी ताकत है। रंगमंच की जीवंतता ही इसे आगे आने वाले वक्त में जनता के लिए मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षण और अंतस चेतना के माध्यम के रूप में बचाए रखेगी। रंगमंच का स्वरूप जितना भी परिवर्तित हुआ हो एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से रागात्मक संबंध कायम करने के रचनात्मक माध्यम के रूप में रंगमंच हमेशा जीवित रहेगा।