जो है, उससे बेहतर चाहिए का नाम है ‘विकास’: संस्मरण (अनीश अंकुर)

बहुरंग संस्मरण

अनीश अंकुर 517 11/17/2018 12:00:00 AM

भगत सिंह या सफ़दर हाशमी के जाने के बाद सांस्कृतिक या वैचारिक परिक्षेत्र या आन्दोलन रिक्त या विलुप्त हो गया ….या हो जाएगा यह मान लेना निश्चित ही भ्रामक है बल्कि सच तो यह है कि उनकी परम्परा के प्रतिबद्ध संवाहक हमेशा रहे हैं और रहेंगे भी …… ‘विकास’ उसी रास्ते का राही और वैचारिक संवाहक था जो महज़ २१ वर्ष की अल्पायु में एक रेल हादसे में शहीद हुआ को याद करते हुए ……. “अनीश अंकुर” | – संपादक

जो है, उससे बेहतर चाहिए का नाम है ‘विकास’

26 जून 2003 को मखदुमपुर स्थित अपने गांव भानुबिगहा जाने के लिए विकास पटना-गया सवारी गाड़ी में बैठा। अपनी मां व बहन से मिलने तथा घर पर छूटे वाद्ययंत्र हारमोनियम व कैसियो लाने जा रहा था। सफर में पढ़ने के लिए उसने भीष्म साहनी का प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’ रख लिया था। लेकिन विकास अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच पाया। बीच रास्ते में ही उसकी मौत हो गयी। तब उसकी उम्र महज 21 वर्ष थी।
उस समय पटना-गया लाइन का दोहरीकरण चल रहा था। नदवां और मसौढ़ी के मध्य रेलवे लाइन के किनारे लापरवाही से रखे गए ट्रक के डंफर से ट्रेन टकरा गयी परिणामस्वरूप विकास की मौत हो गयी।
इस साल विकास को गुजरे 12 वर्ष हो गए हैं। सृजनशील रंगकर्मी और जुझारू एक्टीविस्ट विकास के असामयिक निधन से पटना के सांस्कृतिक एवं सामाजिक जगत को गहरी क्षति हुई थी। मात्र तीन वर्ष की अवधि में वो पटना के परिवर्तनकारी सांस्कृतिक आंदोलन का अविभाज्य हिस्सा बन चुका था। आस-पास की दुनिया को बदलने का सपना एवं अपने मिलनसार स्वभाव के कारण वो सबका प्रिय बना चुका था । नये लड़कों को संगठन में जोड़ने की क्षमता के सभी कायल थे।
विकास में दुर्लभ रचनात्मक प्रतिभा थी। 21 वर्ष की छोटी सी उम्र में वो सात वाद्ययंत्र नाल, गिटार, हारमोनियम, बांसुरी, बैंजो एवं ड्रम को कुशलतापूर्वक बजा लेता था। सुर व ताल की अपनी समझ का उपयोग इस बेसुरे समाज को सुरमय बनाने में करता रहा। सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ छात्र आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी, राजनैतिक हलचलों से गहरे जुड़ाव की वजह से वह अपने समाज में प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करने वाले बहुमूल्य कार्यकर्ता में तब्दील हो रहा था। लोभ, लालच एवं हिंसा के चौतरफा शोर के बीच न्याय, सच्चाई व सौंदर्य के से प्रतिबद्ध विकास वर्तमान से ज्यादा भविष्य के उम्मीद की तरह नजर आता था।
विकास का जन्म जहानाबाद जिले के मखदुमपुर प्रखंड के भानुबिगहा गांव में हुआ था। पिता परमेश्वर प्रसाद एवं मां रामकॅुंवर देवी थीं। सात भाई-बहनों के बीच नंदलाल ;नन्दू के नाम से लोकप्रिय विकास ने वर्ष 1999 में मैट्रिक की परीक्षा राममोहन राय सेमिनरी से पास किया था। इंटर उसने विज्ञान व गणित से किया संप्रति वह पटना कॉलेज में हिंदी स्नातक का द्वितीय वर्ष का छात्र था। संगीत की प्रारंभिक शिक्षा उसने संगीत शिक्षक स्व. कमल सिन्हा से प्राप्त किया था।
अप्रैल , 2000 में विकास ‘प्रेरणा’ से जुड़ा। ‘बसंती हुआ लाल रंग’, ‘जामुन का पेड’़, ‘महामहिम’, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’, ‘मॅंगनी बन गए करोड़पति’, ‘नहीं कबूल’, महादेव, मुक्तिबोध की कहानी ‘वह’ आदि में उसने अभिनय किया। वैष्वीकरण के जनविरोधी चेहरे उजागर करने वाला नाटक ‘नहीं कबूल’ में विकास ने तीन ;बीज, कीड़ा, कंप्यूटर आदि में अविस्मरणीय भूमिकाएं निभायी जिसके लिए उसे खासी चर्चा व सराहना मिली। विकास सहज व स्वाभाविक अभिनेता था। जिन भूमिकाओं में मैलोड्रामैटिक संभावना रहती उसका निर्वाह काफी विष्वसनीय तरीके से करता। इस दौरान उसने इप्टा, अक्षरा व हिरावल के साथ मिलकर काम किया।
अपने कॉलेज ‘पटना कॉलेज’ की सांस्कृतिक टीम में उसने ‘तिरिया चरित्तर’ में भी भूमिका निभायी। पटना वीमेंस कॉलेज के लिए तैयार किए गए नाटकों व संगीत की वजह से आई.आई.टी खड्गपुर में हुई राष्ट्रीय प्रतियोगिता में वीमेंस कॉलेज ने नौ में से छह इवेंट में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
इसके अलावा ‘जूलियस सीजर के अंतिम सात दिन’, ‘रवि के रथ का घोड़ा’, ‘मरीचिका’ एवं ‘गगन दमामा बाज्यो’ के लिए पार्ष्व संगीत तैयार किया। अपने कस्बे मखदुमपुर के लड़को के साथ मिलकर विकास ने ‘नवजागरण संस्कृति मंच’ का गठन किया। इस टीम से उसने भारतेंदु हरिश्चंद्र के मशहूर नाटक ‘अंधेर नगरी’ का मंचन मखदुमपुर के अलावा कालिदास रंगालय, पटना में भी किया । साथ ही तत्कालीन एन.डी.ए सरकार द्वारा पाठ्यपुस्तक से प्रेमचंद की रचना हटाए जाने के विरूद्ध अपने कस्बे में प्रतिरोध मार्च का आयोजन भी किया था। मखदुमपुर जैसे कस्बे के लिए तब यह एक नई बात थी।
नाटकों व रंगकर्म से जुड़ाव के फलस्वरूप विकास की राजनैतिक चेतना विकसित होती चली गयी। इसमें सवाल करने व बहस करने की दुर्लभ आदत का भी योगदान था। धीरे-धीारे साहित्यिक किताबें पढ़ने की भूख जागी। अपने 25 दिनों की जेलयात्रा के दौरान भी उसने कई पुस्तकें पढ़ी, यहॉं तक कि मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व तक वो ‘तमस’ पढ़ रहा था।
कला व संस्कृति को राजनैतिक ढ़ंग से देखने की को ने उसे ‘कला जनता के लिए’ की जनतांत्रिक अवधारणा तक पहुँचाया। मार्क्सवादी विचारों से परिचय ने विकास को नागरिक सवालों को भी देखने की नई दृष्टि दी। गुजरात में अल्पसंख्यकों का सुनियोजित कत्लेआम हो, अमेरिका द्वारा इराक पर किया गया नृषंस व बर्बर हमला। विकास हर जगह न सिर्फ बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता रहा बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करता।

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सन् 2000 में विकास ‘प्रेरणा’ में शामिल हुआ। उसके कुछ ही दिनों पशचात ‘प्रेरणा’ जैसे प्रतिबद्ध सांस्कृतिक संगठन के एन.जी.ओ में तब्दील किए जाने का उसने जमपर विरोध किया। इसकी कीमत विकास को चुकानी पड़ी ‘प्रेरणा’ में एन.जी.ओ.करण के हिमायतियों ने उसके साथ बदसलूकी एवं मारपीट की तथा संगठन से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। आज नाट्य टीमों के एन.जी.ओकरण का जो विकाराल स्वरूप दिखाई पड़ता है तब उसके शुरूआती साल थे।
‘प्रेरणा’ से निकले कई साथियो के साथ मिलकर फरवरी, 2003 में विकास ने ‘अभियान’ की स्थापना की। पटना कॉलेज के न्यू हॉस्टल में विकास का कमरा ही ‘अभियान’ का कार्यालय था जहॉं उसकी बैठकें हुआ करती थी। मौत से एक सप्ताह पूर्व ‘अभियान’ के आयोजन में चर्चित कथाकार शैवाल के कथा पाठ में उसने अहम भूमिका निभायी।
नाटक की दुनिया से हासिल वामपंथी समझदारी से छात्र अंदोलन में भी विकास सक्रिय हुआ। कॉलेज कैंपस एवं बाहर की गतिविधियों में वो बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगा। ऐसे ही एक कार्यक्रम में विकास एवं उसके दो अन्य साथियो पर फर्जी मुकदमा लाद कर गिरफ्तार कर लिया गया परिणामस्वरूप उसे 25 दिन जेल में रहना पड़ा। जेल में अपने स्वभाव व बांसुरीवादन के कारण वह कैदियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हो गया था। विकास की गिरफ्तारी के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध मार्च को छात्र व सांस्कृतिक संगठनों ने मिलकर आयोजित किया था जिसमें बड़ी संख्या में संगठनों के दायरे के बाहर के भी छात्र शामिल हुए थे।

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25 दिनों की जेल यात्रा ने नये दुनिया बनाने के उसके जज्बे को और सशक्त बना दिया। लेकिन जेल से लौटने के एक महीने बाद ही विकास असमय मौत का शिकार हो गया। पटना कॉलेज कॉमन रूम में शोकसभा आयोजित हुई। बड़ी संख्या में छात्र, संस्कृतिकर्मी , व बुद्धिजीवी शामिल हुए। विकास की मौत से हर आँख नम हुई, प्रत्येक चेहरा उदास हुआ।
पिछले 12 वर्ष के दौरान पटना रंगमंच पर ढ़ेरों नये रंगकर्मी आए पर विकास की तरह रंगकर्म, संगीत, समाज एवं राजनीति के प्रति गहरी प्रतिबद्धता वाला कोई दूसरा रंगकर्मी नजर नहीं आता। रंगमंच की एक्टीविस्ट परंपरा से आता था विकास। बिहार जैसे प्रदेश में बगैर एक्टीविस्ट हुए सार्थक रंगकर्म नहीं किया जा सकता, ऐसी उसकी समझ बनने लगी थी।
सृजन व सियासत का अनूठा संगम विकास डायरी लिखा करता था, कविताएं रचता था साथ ही उसे स्केचिंग का भी शौक था। इंक्लाबी मिजाज का मालिक विकास सही मायने ‘जो है, उससे बेहतर चाहिए’ का प्रतीक था।
पटना रंगमंच में प्रति वर्ष विकास की स्मृति में आयोजन होता है। इस वर्ष भी प्रेमचंद रंगशाला में ‘हिंसा के विरूद्ध संस्कृतिकर्मी’ ;रंगकर्मियों-कलाकारों के साझा मंच के बैनर तले ‘कला व संस्कृति के समकालीन परिदृष्य’ पर बातचीत आयोजित की गयी । केंद्र में नयी सरकार बनने के पश्चात् कला व संस्कृति के प्रमुख संस्थानों पर भगवा पृष्ठभूमि के लोगों को बिठाए जाने की परिघटना का पर चिंता जाहिर की गयी।

अनीश अंकुर द्वारा लिखित

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लेखक जानेमाने संस्कृतिकर्मी और स्वतन्त्र पत्रकार हैं।

205, घरौंदा अपार्टमेंट ,                                            

 पष्चिम लोहानीपुर

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