सांस्कृतिक तर्क के सहारे पूंजीवाद के साम्राज्यवाद का उत्कर्ष ही भूमंडलीकरण है। भारत में भूमंडलीकरण की शुरुआत नब्बे (1990) के दशक से होती है। इस भूमंडलीकरण के दौर में सबसे ज्यादा कोई परास्त और निराश हुआ हो तो वे हैं आदिवासी, दलित और स्त्री। नब्बे के दसक के बाद इन सभी विमर्शों के केंद्र में रखकर साहित्य लिखे जा रहे हैं। दमित अस्मिताएं और उनकी लोकतान्त्रिक मांगों, उपभोक्तावादी अपसंस्कृति, मध्यवर्गीय जीवन की विद्रूपता जनजीवन की तबाही उत्पीड़न आदि को रेखांकित किया जा सकता है।
यूं भी जब भारत मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक नेतृत्व व भूमंडलीकरण के समक्ष समर्पण की नीति पर चल रहा हो उस समय प्रतिरोधी संस्कृति और साहित्य से ही आशा की जा सकती है। हिंदी में भूमंडलीकरण के प्रभाव में अनेक उपन्यास लिखे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ उसके सम्पूर्ण प्रतिरोध और विकल्प के रूप में बहुत से उपन्यास प्रतिरोध का सही नजरिया अपनाकर भूमंडलीकरण के विरुद्ध जन प्रतिरोध की सही अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर साहित्य के जनतंत्र की रचना कर रहा है।
भूमंडलीकरण की मानवीय विभीषिका को साहित्यिक जड़ों में खोजने का प्रयास करता शोधार्थी ‘अनीश कुमार’ का आलेख ……
नवें दसकोत्तर हिंदी उपन्यास और भूमंडलीकरण
अनीश कुमार
भूमंडलीकरण बाज़ार और पूंजी आधारित एक ऐसी जटिल अंतरसंबंध एकतंत्रात्मक साम्राज्यवादी सत्ता व सरंचना है, जो किसी साझे मकसद या स्वप्न के लिए नहीं बल्कि साम्राज्यवादी मंसूबों की पूर्ति के लिए रची गई है और जो मानवता के अब तक के इतिहास में सबसे बड़े दुःस्वप्न की तरह है। यह ऐसे तिलिस्म की तरह है जो आसानी से समझ नहीं आता। यह विश्व पूंजीवाद, साम्राज्यवाद के अग्रिम विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया है, इसमें एकीकरण और विघटन दोनों परिघटनाएँ शामिल है। धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति और अंतरराष्ट्रीय चौखट में राष्ट्रीयता और नृवंशीयता के सहारे विश्व की प्रतिरोधी शक्तियों की एकजुटता को तोड़ने और बाज़ार एवं पूंजी के एकीकरण को रचने वाले मायावी बाज़ार, भूमंडलीकरण सम्पूर्ण बाज़ार को एक कर रहा है और मनुष्यों को बाँट रहा है।
भूमंडलीकरण के स्तर पर उत्तर-आधुनिकता और तीसरी दुनिया के संदर्भ में उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धांत का मुख्य औज़ार है। समाजवाद पराजित हो चुका है वहीं पूंजीवाद की फतह सम्पूर्ण सर्वव्यापी है। आधुनिक भारतीय संस्कृति और समाज में जो कुछ भी प्रगतिशील और मूल्यवान है उसका एक बड़ा हिस्सा यूरोप से आया है।
सांस्कृतिक तर्क के सहारे पूंजीवाद के साम्राज्यवाद का उत्कर्ष ही भूमंडलीकरण है। भारत में भूमंडलीकरण की शुरुआत नब्बे (1990) के दशक से होती है। भूमंडलीकरण की शुरुआत में लिखे गए उपन्यासों में उनके प्रभाव को देखा जा सकता है। जब भारत मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक नेतृत्व व भूमंडलीकरण के समक्ष समर्पण की नीति पर चल रहा हो उस समय प्रतिरोधी संस्कृति और साहित्य से ही आशा की जा सकती है। हिंदी में भूमंडलीकरण के प्रभाव में अनेक उपन्यास लिखे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ उसके सम्पूर्ण प्रतिरोध और विकल्प के रूप में बहुत से उपन्यास प्रतिरोध का सही नजरिया अपनाकर भूमंडलीकरण के विरुद्ध जन प्रतिरोध की सही अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर साहित्य के जनतंत्र की रचना कर रहा है।
हिंदी उपन्यासों में भूमंडलीकरण का प्रभाव और प्रतिरोध कई रूपों में है। भारत के औपनिवेशिक काल में प्रेमचंद ने 1923 ई॰ में ही ‘रंगभूमि’ में विदेशी पूंजी का विरोध करते हैं। 1991 ई. के बाद भारत में आए भूमंडलीकरण और उदारीकरण की सैद्धांतिकी और उसके मूल्यों का समर्थन और प्रचार की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। 1993 ई. में प्रकाशित सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ के केंद्र में यौन मुक्ति के दर्शन को प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास की नायिका सिलबिल कस्बे के प्राइमरी स्कूल के मामूली अध्यापक की बेटी है, उसके सामने असंभव महत्वाकांक्षाओं और सपनों की कभी न समाप्त होने वाली श्रृंखला सजाई जाती है और वह उन सबको पाने के लिए मचल उठती है। असंभव से आगे बढ़ते जाने की ललक सिलबिल उर्फ़ वर्षा वशिष्ठ को अकेला कर देती है। सिलबिल एक प्रतीक मात्र है उन लड़कियों की जो सब कुछ पा लेने के चक्कर में अपना सर्वस्व खो देती हैं। पूंजी इतनी चंचल है की वह किसी संबंध को ठहरने नहीं देती। सिलबिल अपनी उपलब्धियों और जीवन में संबंध तथा समंजस्य नहीं बैठा पाई।
भूमंडलीकरण में स्त्री की अंधी दौड़ को दर्शाने वाला उपन्यास है चित्रा मुद्गल का ‘आँवा’(1999) जहां स्त्री इस भूमंडलीकरण के आँवा में पक रही है। पूंजी की चकाचौंध किसी को भी गुलाम बना सकती है और वह चाहे मुंबई के ट्रेड यूनियन के नेता की बेटी नमिता पाण्डेय हो या कोई और स्त्री मुक्ति का प्रश्न देह मुक्ति के कुछ हद तक ‘रेड्यूस’ हो जाता है। बाज़ार मुक्ति को झांसा देता है शायद कुछ हद तक मुक्त करता है लेकिन उससे ज्यादा वह अपने संजाल में फंसाता भी है। ममता कालिया के उपन्यास एक ‘पत्नी के नोट्स’, मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘कठगुलाब’(1996) विभिन्न समाजों, राष्ट्रों और वर्गों की स्त्रियों की नियति से साक्षात्कार कराता है। वह इस सत्य को उद्घाटित करता है की इतिहास में भी औरत दूसरे दर्जे की नागरिक रही है। राजी सेठ ‘निष्कवच’(1995) में आधुनिक स्त्री के दो रूपों के खाँटी और निष्कवच यथार्थ को नीरा और मार्था के रूप में प्रस्तुत करती हैं। राजी सेठ स्वीकृत और परंपरागत मूल्यों पर पुनर्विचार के लिए उकसाती हैं। नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘शाल्मली’(1993) व ‘जिंदा मुहावरे’(1993) हैं जिनमें वे व्यापक मानवीय संदर्भों को उठाती और चिन्हित करती है। मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘बेतवा बहती रही’(1994) बुंदेलखंड की पृष्टभूमि में बेतवा के कछारी क्षेत्र में साधारण स्त्री के उत्पीड़न और यातना के संदर्भों को उद्घाटित करता है इसी का विस्तार वह ‘इदन्नम’ में करती हैं। स्त्री की मुक्ति का सवाल पूरे समाज की मुक्ति से जुड़ा है वह इस सत्य को कभी ओझल नहीं होने देती।
भूमंडलीकरण के समय में और भी मुद्दे हैं- आदिवासी विमर्श और विस्थापन, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, धार्मिक और सांप्रदायिकता संकीर्णता। इस समय उपन्यासों इन सभी विषय वस्तु को साथ लिए एक समानरूप से सामने आते हैं। सांप्रदायिकता को जहाँ एक दूसरे खास तरह की आक्रामकता मिलती है और अल्पसंख्यक इसके खास रूप से शिकार बनते हैं।
इस भूमंडलीकरण के दौर में सबसे ज्यादा कोई परास्त और निराश हुआ हो तो वे हैं आदिवासी, दलित और स्त्री। नब्बे के दसक के बाद इन सभी विमर्शों के केंद्र में रखकर साहित्य लिखे जा रहे हैं। दमित अस्मिताएं और उनकी लोकतान्त्रिक मांगों, उपभोक्तावादी अपसंस्कृति, मध्यवर्गीय जीवन की विद्रूपता जनजीवन की तबाही उत्पीड़न आदि को रेखांकित किया जा सकता है। आदिवासी विनाश और विस्थापन को चित्रित करने वाले उपन्यासों में प्रमुख है- ‘हिडिंब’-एस. आर. हरनोट, ‘ग्लोबल गाँव के देवता’, ‘गायब होता देश’- रणेन्द्र, ‘जहां जंगल शुरू होता है’- संजीव, ‘जहां बांस फूलते हैं’- श्री प्रकाश मिश्र, सांप्रदायिकता की समस्या पर केन्द्रित उपन्यास है- ‘हमारा शहर उस बरस’- गीतांजली श्री, ‘कैसी आग लगाई’, ‘बरखा लगाई’- असगर वजाहत , ‘नागफनी के जंगल में’, ‘कितने पाकिस्तान’ -कमलेश्वर तथा ‘आखिरी कलाम’- दूधनाथ सिंह , जनजीवन में विकृति और प्रतिरोध को उभारने वाले उपन्यास लिखे भी गए हैं जिनमें प्रमुख हैं; ‘बिश्रामपुर का संत’- श्रीलाल शुक्ल, ‘विसर्जन’- राजू शर्मा, ‘देश निकाला’- धीरेन्द्र अस्थाना, ‘मुन्नी मोबाइल’- प्रदीप सौरभ आदि। दमित अस्मिता पर केन्द्रित उपन्यास है; ‘थमेंगा नहीं विद्रोह’- उमराव सिंह जाटव, ‘उधर के लोग’- अजय नवरिया, ‘जख्म हमारे’, ‘मुक्ति पर्व’- मोहनदास नैमिशराय आदि।
इस तरह हिंदी औपन्यासिकता भूमंडलीकृत यथार्थ के विविया रूपों को अपने में समेंटती और उसका प्रतिरोध एवं विकल्प प्रस्तुत करती है। भूमंडलीकरण और बाज़ार की पूरी सरंचना सत्ता केंद्र और उसके तिलिस्म की भयावहता और कुरूपता को, नए किस्म के यथार्थ को उसकी पूरी पेचीदगी के साथ हिंदी उपन्यासों में प्रस्तुत करते हुए उसके विरुद्ध जनप्रतिरोध और विकल्प को रखने की कोशिशें दिखती हैं।
राकेश कुमार सिंह का सन् 2003 में प्रकाशित उपन्यास ‘पठार पर कोहरा’ झारखंड के जनजातीय जीवन पर लिखा गया है। रचनाकर ने शोषण उत्पीड़न और अत्याचार के विभिन्न हतकंडो के चंगुल में फंसे संथाल में मुंडा आदिवासियों की स्थिति को उजागर किया है। प्रस्तुत उपन्यास में शोषण उत्पीड़न और अत्याचार के नए-नए दुश्चक्रों के जाल में फंसे आदिवासी मानस को जागृत करते हुए उसमें अस्मिता और चेतना को जगाने वाले एक संवेदनशील और दुर्दम्य आत्मविश्वास, इच्छाशक्ति वाले नायक पेशे से अध्यापक संजीव शान्याल की संघर्ष गाथा है साथ ही हताशा से घिरी एक आदिवासी मुंडा युवती के रंगीनी आत्मसंघर्ष, अस्तित्व की रक्षा और नारी मुक्ति की कहानी है। उपन्यासकार ने झारखंड के आदिवासी लोकजीवन की छटाओं का चित्रण करते हुए उनके सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को स्पर्श करने का प्रयास किया है।
महिला लेखिका शरद सिंह का ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास सन् 2005 में प्रकाशित हुआ। सदियों से उपेक्षित, वंचित, उत्पीड़ित, एवं आर्थिक बदहाली का जीवन जी रही बेड़ियाँ समाज की औरतों के जीवन सत्य को इस उपन्यास में उजागर किया है।
‘शाम भर बातें’ दिव्या माथुर का लिखा हुआ उपन्यास है जो सन् 2015 में आया था। वह प्रवासी दुनिया में भूमंडलीकरण के समय में किस तरह से पार्टियों का चलन एक सभ्यता बन गई है इसको बारीकी के साथ सामने लाती है। पार्टी में महिलाओं का किस तरह से शोषण बड़े स्तर पर किया जाता है इसको दिखाती हैं। विद्याभूषण का लिखा हुआ ‘लौटना नहीं है’(2015) उपन्यास अपने समय और समाज को समझने का सशक्त माध्यम दिखता है। एक तरफ जब देश विकास और सफलता की अग्रसर है, विश्वशक्ति बनने की ओर कदम बढ़ा रहा है ठीक ऐसे समय में स्त्रियों पर कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी रीति रिवाजों के नाम पर अत्याचार करना अत्यंत चिंतनीय और सोचनीय है। यह उपन्यास स्त्रियों की जीवन की विषमताओं, बिडंबनाओं और जटिलताओं को ही व्यक्त नहीं करता बल्कि उन्हें अपनी स्वतन्त्रता और संघर्ष के लिए भी प्रेरित करता है।
भूमंडलीकरण एक ओर जहां पूंजीपतियों के लिए वरदान साबित हो रहा है वही शोषित वर्ग (दलित, आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यक) के लिए नई समस्या बनकर सामने आया है। भूमंडलीकरण का सीधा प्रहार आदिवासियो की संस्कृति पर हुआ है। आज आदिवासी केन्द्रित बहुत उपन्यास लिखे जा रहे हैं जिनमें वैश्वीकरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भूमंडलीकरण का प्रभाव मनुष्य पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों स्तरों से पड़ा है। साहित्य का जुड़ाव समाज से सबसे सबसे अधिक होता है इसलिए समाज व समय के बदलने के साथ साहित्य के प्रतिमान बदलने लगता है। 21वीं सदी में वृद्धों की समस्याएँ बच्चों की समस्याएँ, मानव अधिकार आदि समस्याएँ भी अपनी उपस्थिती दर्ज करवा रही है। वर्तमान समय के उपन्यासों में इन सभी की उपस्थिती देखी जा सकती है। इस समय कुछ आत्मकथात्मक उपन्यास भी लिखे जाने लगे हैं। लेखक अपनी जमीन व अपने परिवेश को अपने तरीके से जोड़कर सामने ला रहा है।
इस प्रकार हम देखते हैं की नब्बे के दशक के बाद के उपन्यासों में सांप्रदायिकता, उदारवादी नीति का विरोध तथा उसका प्रभाव, दलितों/ शोषितों की स्थिति, महिलाओं की स्थिति, बच्चों, वृद्धों आदि की स्थिति तथा युवा पीढ़ी का अपने समय व समाज के साथ खत्म होती रुझान की स्थिति का निरूपण मिलता है ।
संदर्भ- सूची
- मुद्गल, चित्रा, आँवा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण- 2010, ISBN: 81-7138-022-0
- वजाहत, असगर, कैसी आग लगाई, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण- 2014, ISBN: 978-81-267-0885-7
- मिश्र, श्रीप्रकाश, जहां बांस फूलते हैं, यस पब्लिकेशन्स, दिल्ली, ISBN: 978-93-81130-97-1
- सिंह, पुष्पपाल, भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2012, ISBN: 9788183615037
- सिंह, पुष्पपाल, 21वीं सदी का हिंदी उपन्यास, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण- 2015, ISBN: 9788183617888
काबरा, कमल नयन, भूमंडलीकरण के भंवर में भारत, संस्करण- 2005, ISBN: 817714202x, 9788177142020