मानवीय संवेदनाओं और मानव मूल्यों के निरतंर क्षरण होते समय में सामाजिक दृष्टि से मानवीय धरातल से जुड़े साहित्यकारों का स्मरण हो आना सहज और स्वाभाविक ही है | वस्तुतः इनकी कहानियों और उपन्यासों से गुज़रते हुए वर्तमान अपने स्वरुप और घटनाओं के साथ जीवंत होना, लेखकीय समझ और सामाजिक साहित्यिक दृष्टि से उनकी लेखनी की ताज़ा संदर्भों में प्रासंगिकता स्पष्ट करता है | ‘भीष्म साहनी’ उन्हीं साहित्यकारों में से हैं जिनकी कहानी को लेकर साफ़ समझ थी कि “परिवेश बदल भी जाए तो भी कहानी पुरानी नहीं पड़ती। कहानी पुरानी तब भी नहीं पड़ती जब जीवन मूल्य बादल जाएँ, जीवन को देखने का नजरिया बादल जाए, क्योंकि तब भी वह किसी विशिष्ट कालखंड के जीवन यापन का चित्र अपने में सुरक्षित रखे होती है। समकालीन न रहते हुए भी किन्हीं पुराने रिश्तों कि कहानी कहती रहती है, कहानी पुरानी तब पड़ती है जब कहानी के भीतर पाया जाने वाला संवेदन अपना प्रभाव खो बैठे, असंगत पड़ जाए, जब कहानी कहने का ढंग भी रोचक न रहे, जब पाठक वर्ग कि साहित्यिक रूचियां तथा अपेक्षाएँ बादल जाएँ।” (आलेख से) हालांकि भीष्म जी का रचना संसार खूब चर्चित भी हुआ और उसकी सामाजिक व्याख्याएं भी कम नहीं हुईं बावजूद इसके उनके विपुल साहित्य में अनेक ऐसी कहानियां भी रहीं हैं जिन पर अपेक्षित रूप से कम ही लिखा जा सका है ‘फैसला’ और ‘लीला नंदलाल की’ आपकी ऐसी ही कहानियाँ हैं | इन्हीं दोनों कहानियों के संदर्भ में वर्तमान समय में उनकी सामाजिक और मानवीय प्रासंगिकता को व्याख्यायित करता हिंदी शोधार्थी ‘अनीश कुमार’ का आलेख | – संपादक
समय के साथ संवाद करतीं ‘भीष्म साहनी’ की कहानी
अनीश कुमार
(‘फैसला’ और ‘लीला नंदलाल की’ के संदर्भ में)
कहानी प्राचीन कला है। प्राचीन काल में यह जनरंजन का साधन भी रही है। समय के अनुसार उसके विषय में परिवर्तन आया है। अब कहानी का क्षेत्र अतीत में ‘क्या हुआ था’ की जगह आज हमारे बाह्य और आंतरिक जीवन में ‘क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है आदि हो गया है।
कहानी अपने लघु कलेवर में सहज के अन्तरविरोध और विसंगतियों को चित्रित करने में पूर्णतः समर्थ होती है। उसका छोटा आकार अपने आप में संपूर्णता लिए रहती है। नामवर सिंह लिखते है कि, “लोगों कि यह धारणा गलत है कि कहानी जीवन के एक टुकड़े को साथ लेकर चलती है, इसलिए उसमें कोई बड़ी बात कही ही नहीं जा सकती। कहानी जीवन के टुकड़े में निहित ‘अंतरविरोध’, ‘द्वंद्व’, ‘संक्रांति’ अथवा ‘क्राइसिस’ को पकड़ने की कोशिश करती है और ठीक ढंग से पकड़ में आ जाने पर खंडगत अंतरविरोध भी वृहत अंतरविरोध के किसी न किसी पहलू का आभास दे जाता है।
किसी भी कृति अथवा साहित्य का विवेचन एवं विश्लेषण उसके संवेदनात्मक विधान को ही आधार बनाकर किया जाता है। आज का साहित्य आज के वर्तमान संदर्भों को ही रूपायित करता है आधुनिक रचनाकारों में अग्रणी रहे भीष्म साहनी का साहित्य भी सामाजिक परिवेश एवं परिस्थितियों में व्याप्त जीवन के विविध पक्षों एवं पहलुओं को उजागर करता है जो वास्तव में समाज बोध को ही स्पष्ट करता है। अब तक समाज के संबंध में विभिन्न धारणाएं एवं दृष्टि कोण प्रचलित हैं। इस विभिन्नता का कारण इसकी प्रकृति का निरंतर गतिशील होना, निरंतर बदलना है विशेषकर पश्चिम के प्रभाव के कारण एकाएक अनेक परिवर्तन बड़ी द्रुतगति से हुए। विज्ञान में लोगों में हर चीज के प्रति एक नए दृष्टि कोण को विकसित किया। अनेक पुराने विश्वास, अब तर्क की कसौटी पर कसे जाने लगे। आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगे अनेक पुरानी मान्यताएँ टूटीं और नई मान्यताओं का विकास हुआ तदनुकूल साहित्य में भी संक्रमण की स्थिति उत्पन्न हो गई।
भीष्म साहनी
भीष्म साहनी अपनी कहानी संग्रह “चर्चित कहानियाँ” की भूमिका में लिखते हैं कि “परिवेश बदल भी जाए तो भी कहानी पुरानी नहीं पड़ती। कहानी पुरानी तब भी नहीं पड़ती जब जीवन मूल्य बादल जाएँ, जीवन को देखने का नजरिया बादल जाए, क्योंकि तब भी वह किसी विशिष्ट कालखंड के जीवन यापन का चित्र अपने में सुरक्षित रखे होती है। समकालीन न रहते हुए भी किन्हीं पुराने रिश्तों कि कहानी कहती रहती है, कहानी पुरानी तब पड़ती है जब कहानी के भीतर पाया जाने वाला संवेदन अपना प्रभाव खो बैठे, असंगत पड़ जाए, जब कहानी कहने का ढंग भी रोचक न रहे, जब पाठक वर्ग कि साहित्यिक रूचियां तथा अपेक्षाएँ बादल जाएँ।”
भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त 1915 ई. को रावलपिंडी अब पाकिस्तान, में हुआ था। भीष्म साहनी को हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं का भी ज्ञान था भीष्म जी ने एक घटना से प्रेरित होकर ‘नीली आँखें’ नामक पहली कहानी लिखी जो बाद में हंस पत्रिका में छपी थी। स्वतंर्त्योत्तर हिंदी कहानी साहित्य में भीष्म साहनी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। भीष्म जी अपनी कहानियों के माध्यम से जमीनी यथार्थ की बात करते हुए दिखाई देते हैं। उनकी कहानियों में विभाजन की त्रासदी, टूटते हुए मानवीय मूल्य, कला और संस्कृति तथा अन्य क्षेत्रों में बढ़ते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप व मध्यवर्गीय चरित्र पूरी जीवंतता के साथ दिखाई देता है। नामवर सिंह लिखते हैं कि “सादगी और सहजता भीष्म कि कहानी कला की ऐसी खूबिया हैं जो प्रेमचंद के अलावा और कहीं नहीं दिखाई देता है। जीवन की विडम्बना पूर्ण स्थितियों की पहचान भी भीष्म साहनी में अप्रतिम है। यह विडम्बना उनकी अनेक अच्छी कहानियों की जान है।”
भीष्म साहनी प्रेमचंद की परंपरा के वाहक माने जाते हैं। उनकी कहानियाँ आम जनजीवन के इर्द-गिर्द घूमती हुई दिखाई देती है। इसी तरह उनकी दो कहानियां हैं- ‘फैसला’ तथा ‘लीला नंदलाल की’। दोनों कहानियां सामान्य जनजीवन के काफी निकट है जिसके कारण आज भी प्रासंगिक दिखाई देती हैं।
कहानी का प्रारम्भ ही अपने समय के साथ संवाद करती हुई होती है। भीष्म साहनी की रचनाएँ अपने समय की जीवंत कथाएँ हैं इसलिए उनकी रचनाओं पर बहुत लिखा मिलता है पर ‘फैसला’ और ‘लीला नंदलाल की’ पर बहुत कम लिखा गया है।
आज का समय भूमंडलीकरण और पूंजीवाद का है। हम जिस दौर में जी रहे है तो देखते हैं कि आज भ्रष्टाचार अपने आप में पूरे विश्व को समेटे हुए है। कहानी के मुख्य केंद्र मे ही भ्रष्टाचार है और सामान्य जनजीवन में घटित होने वाली समस्याओं को दिखाना है। कहा जाता है कि पैसे से न्याय भी खरीदा जा सकता है। फैसला कहानी का मुख्य पात्र ‘जिला न्यायाधीश शुक्ल जी’ है।
‘हिंदी कहानी के आंदोलनों ने जहां एक और पुरानी जड़ता को तोड़कर नई जमीन तैयार की वहीं उसमें कभी मूर्खतापूर्ण और कभी षड्यंत्रपूर्ण चयनवाद भी उभरा हिंदी के कई महत्वपूर्ण लेखक इस चयनवाद के शिकार हुए। ऐसे आंदोलनों के शिकार भीष्म साहनी भी हुए… यह चयनवादी आलोचना उनकी भी थी जो अपने को प्रगतिशील और जनवादी सिद्ध करने के लिए कुछ भी कर रहे थे। इस चयनवाद के शिकार भीष्म साहनी जी अकेले नहीं हुए कई दूसरे महत्वपूर्ण हिंदी कथा लेखक और कवि या तो पीढ़ियों के अंतराल के नाम पर आधुनिक न रहे या फिर उनके सामाजिक संघर्ष को क्रांतिकारी तत्वों में शामिल न किया गया। यह अवश्य ही दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति थी जिसके विरुद्ध आज भी संघर्ष करने की आवश्यकता बनी हुई है खासकर तब जब क्रांतिकारिता की व्याख्या सामाजिक परिवर्तन के दूसरे छोर पर जा रही है। फिटगेराल्ड ने कभी कहा था कि “मैं अपने समकालीनों के साथ नहीं होना चाहता क्योंकि मेरी नियति भविष्य के कूड़ेदान में नहीं होगी। भीष्म साहनी अपने समय के साथ हो सकते हैं, अपने समकालीन लेखकों के साथ ही नहीं। ऐसा नहीं है कि भीष्म साहनी जी अपनी कहानियों के कलात्मक रूप गठन के प्रति असचेष्ठ हों। वे इस दिशा में यशपाल की थोड़ा उस शैली का अभ्यास किया हुआ मालूम पड़ते है जो प्रतिपरमुखता का का एक नाटकीय चरम बिंदु पूरे घटनाक्रम के भीतर से खड़ा कर लेती है और आधुनिकतावादी लेखकों ने कथानक को प्रायः व्यर्थ बना दिया है। हिंदी में प्रेमचंद, यशपाल से लेकर भीष्म साहनी और अमरकांत, रेणु ने उनकी पुनः प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष किया। भीष्म जी तमाम कहानियों की रूप रचना में एक कथानक होता है, एक भरी पूरी कहानी होती है, जिसमें अकेला चरित्र अपनी भीतरी परिस्थितियों में कम होता है एक पूरा व्यापाररत समुदाय उनके साथ दिखता है। कहानीपन की रक्षा का संघर्ष कहानी की रचनात्मक पहचान के लिए आवश्यक हो गया है। आज की अधिकांश कहानियों में हलचल तो बहुत होती है पर अंतरवस्तु में एक रिक्तता सी लगती है।”
फैसला कहानी भीष्म कहानी जी कालजयी रचना साबित होती है। कहानी का प्रारंभ प्रकृति के निकट से होता है। लेखक दिखाता है कि मनुष्य को सिद्धांत से द्वारा व्यावहारिक होना चाहिए क्योंकि व्यावहारिक अनुभव सैद्धांतिक अनुभव से कहीं ज्यादा कारगर सिद्ध होते है। लेखक लिखता है, “लगता जो कुछ किताबों में पढ़ा है सब गलत है, व्यवहार की दुनिया का रास्ता ही दूसरा है। हीरालाल मुझसे उम्र में बहुत बड़ा तो कहीं तो नहीं है लेकिन उसने दुनिया देखी है। बड़ा अनुभवी और पैनी नजर का आदमी है।”
आज का समय पूंजीवाद का है। लेखक कहानी में पूंजी का किस तरह से गलत उपयोग किया जाता है इसको भी दिखाता है। कहा जाता है कि सत्य व ईमानदारी कभी झुकता नहीं हैं परेशान जरूर होता है। उसी प्रकार शुक्ला जी के ईमानदारी पर सवाल उठाया जाता है। शुक्ला जी जिला न्यायाधीश होते हुए भी एक दम शांत विन्रम व बाहरी दिखावे से मुक्त हैं। भीष्म साहनी लिखते हैं कि ‘ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता हैं, क्यों सकुचाता झेपता रहता है। यह बात कभी मेरी समझ में नहीं आयी। शायद इसलिए की दुनिया पैसे है जेब में पैसा हो तो आत्म सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर अगर जूते सस्ते हो और पजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है।’
यह कहानी सरकार कामकाज की पोल खोलती है। कार्यलयों में फाइलें जानबूझकर दबा दी जाती हैं। कहानी के अनुसार किसी भी सरकारी कर्मचारी को फाइलों के अनुसार ही चलना चाहिए। कहानी यहां की व्यवस्था के खिलाफ भी आवाज उठाती है। न्यायालयों में बहुत सारे अपराधी इसलिए जेल से हैं क्यों वे बाहुबली, पूंजीवादी है। वे सच में गुनहगार है ये सब जानते हैं लेकिन फाइलों में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। लेखक लिखता है कि “इस बात की उसे फिक्र नहीं होनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, कौन क्या कहता है। बस यह देखना चाहिए कि फाइल क्या कहती है।”
एक न्यायाधीश जब अपना फैसला सुनाता है तो उसे यह पता होता है कि यह गुनहगार नहीं है लेकिन पूंजी उसे गुनहगार सिद्ध कर देती है। पुलिस व्यवस्था इतनी लचर है कि किसी को भी जबरन गुनहगार बना देती है। शुक्ला जी अपनी ईमानदारी का परिचय देते हुए फाइलों के अलावा सच क्या है इसको भी जानने कि कोशिश की और एक मुलजिम को सजा होते-होते बचा लिया। जैसी आज स्थिति है कि पैसा दो सारा काम हो जाएगा। फिर थानेदार अपना निजी खुन्नस निकालने के कारण कमिश्नर साहब से मामले को उल्टा सीधा सुनाकर उसे दुबारा हाईकोर्ट में पेश करता है। वहां सच क्या झूठ क्या है इसका पता नहीं बस फाइल में उसे गुनहगार सिद्ध कर दिया। फैसला फाइल के आधार पर आया। जिससे मुलजिम को सजा हुई।
इसी तरह भीष्म साहनी जी एक और कहानी के साथ सरकारी व्यवस्था के लचर व्यवस्था का पोल खोलते हैं। प्रारंभ में ही पूरी कहानी को बता देते हैं, “किस्सा यह कि मेरा स्कूटर चोरी हो गया। बिल्कुल नया स्कूटर था। खरीदे दो महीने भी नहीं हुए थे पूरे चार साल तक इंतजार करते रहने के बाद उसे खरीद पाने का मेरा नंबर आया था। इधर वह पलक झपकते गायब हो गया।”
हमारे यहां आप किसी समस्या को लेकर पुलिस के पास शिकायत करने जाइए तो पुलिस अपना रौब दिखाने लगती है। लेखक लिखता है कि ‘जब मैंने बताया कि पुलिस में रिपोर्ट लिखवा आया हूँ तो चाचाजी सिर हिलाने लगे, “तुम समझते हो पुलिस स्कूटर बरामद करवा देगी..? अगर पुलिस इतनी चुस्त होती तो तुम्हारा स्कूटर उठता नहीं नहीं।”
कहानी समाज व मनुष्य के उन सचाइयों को दिखाने का प्रयास करती है जो वास्तविकता से कुछ और आगे है। हम जो देखते हैं सुनते हाँ तो लगता है कि वही सही बल्कि ऐसा नहीं है। पूंजी सभी चीजों पर भारी पड़ती है। कहानी के पात्र नन्दलाल कि भूमिका एक दबंग नेता, सरकारी कर्मचारी के तौर पर लेखक ने तय किया है। नंदलाल जी का रौब इतना था कि उनके एक फोन के लिए महीनों पापड़ बेलने पड़ते है। लेखक लिखता है कि, “इस तरह भी कभी दुनिया के काम हुए हैं..? एक दिन पिता जी ने चाचाजी को डांटते हुए कहा, “सरकारी कार्यवाइयों के सहारे बैठे रहोगे तो तुम्हें मुआवजा मिल चुका फिर मेरी ओर देखकर बोले, “ डिब्बे में से घी निकलता हो तो टेढ़ी उंगली से निकालते है। सीधी उंगली से घी नहीं निलकता।”
भीष्म साहनी जी अपने जमाने में इस तरह कि कहानियां लिख रहे थे। उनकी इस कहानी का मुख्य पात्र आज के सरकारी व गैरसरकारी कार्यलयों कि सच्चाई है। भीष्म जी की संवादधर्मिता उन्हें महान लेखक बनाती है। जिस तरह प्रेमचंद्र व यशपाल पूंजीवाद का विरोध करते हुए दिखाई देते हैं उसी तरह भीष्म साहनी भी उनकी इस परंपरा को आगे ले जाते हैं। भीष्म साहनी जी संवाद के माध्यम से कहानियों में जान डाल देते थे। पुलिस अफसर ने मुझे इस नजर से देखा जैसे बाप अपने नहें से बेटे का बचकाना सवाल सुनकर उसे देखता है, “ आपसे खुद कहा था कि उसने चोरी की है..?”
“जी!”
“कोई गवाही है आपके पास
“मगर मैं जो कहा रहा हूँ कि उससे खुद मुझसे कहा है!”
“आप सच बोल रहे हैं मगर कोई गवाही है आपके पास..?
“पुलिस भी तो जानती है कि उसी ने गाडियां चुराई हैं, वरना आप मुझे उसके बाड़े में क्यों भेजते..?”
“फिर उसे पकड़ा क्यों नहीं गया..?”
“पकड़ा था लेकिन जमानत पर रिहा कर दिया गया है अब मुकदमा चलेगा।”
भीष्म साहनी का लेखन समकालीन समाज की विसंगतियों को दिखलाता है और बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरित करता है। पर सचमुच के प्रेमचंद्र से अलग और आगे के रचनाकार थे न केवल भाषा के स्तर का, बल्कि विषय शैली, दृष्टि में वे प्रेमचंद्र से काफी अलग थे। उनकी संवादधर्मिता पाठक पर गहरी चोट करती थी। भीष्म साहनी कभी भी कल्पना को नहीं गढ़ा हमेशा जमीनी यथार्थ की बात किए। इन दोनों कहानियों को पढ़कर 21वीं सदी की वास्तविक स्थिति का परिचय उनमें होता है।
संदर्भ :
- कहानी ‘फैसला कहानी’, भीष्म साहनी
- कहानी ‘लीला नंदलाल की’, भीष्म साहनी