“सरिता ने हाथ की रस्सी को झटक कर फेंका और घूरकर लखन को देखने लगी। वह इतनी कसकर हिचकी लेकर रो रही थी कि उससे कुछ बोला नहीं जा रहा था। सास ने लानत भरी आवाज में कहा, ‘’दुल्हिन ! तुम दुई कौड़ी की निकली। अरे, धीरे –धीरे आदमी बस में हो जाते हैं। तुम तो गज़ब किये हो ऐसे तो मरद भी नहीं करते ,थोडा सबर रखो।‘’ ये सुनते ही सरिता का सब्र टूट ही गया चीख पडी ‘’ क्या किया है हमने पांच महीने हो गए शादी के पत्नी का हक़ मांग रहें हैं। हम कब तक अकेले पड़े रहें यहाँ? हमें भी आश्रम ले जाएँ। हम भी जोगन बन जाते हैं। ले चलो हमको हम पूछेंगे सरकार से कि यही सिखाते हैं अपने शिष्यों को पत्नी फालतू सामान है। घर में पडी रहने दो। आखिर शादी करने की जरूरत क्या थी ? सरकार की चाकरी करते। हमारी ज़िन्दगी क्यों बरबाद कर दी।‘’ बस नाम भर की पत्नी होकर रह गएँ हैं।” पित्रसत्ता की क्रूर पुरुषवादी ग्रंथि को खोलती ‘अनीता मिश्रा’ की कहानी …….
ड्रामा क्वीन
अनीता मिश्रा
सर्द ठिठुरी हुई अमावस की काली रात थी। हाथ को हाथ नहीं सूझता था। पूरा परिवार अपने –अपने कमरों में रजाइयों के बीच दुबका पड़ा था। आधी रात को लछमी काकी ने कोई डरावना सपना देखा और ऐसा जी घबराया कि इस ठण्ड में भी लगा घड़ों पानी पी जाएँ। अरे! इ लखन की दुलहिन तो पानी रखना भूल गई अब खुद ही उठके आंगन तक जाना पड़ेगा।
आंगन तक पहुंच कर काकी चौंक गई, अजीब -अजीब आवाजें लखन के कमरे से आ रहीं थीं। थोडा और दरवाजे के पास तक गईं तो आवाज साफ़ सुनाई दी—साली …रंडी ..हरामजादी कितने यारों से मुहं काला करवा के आयी है। साथ में बहू सरिता की सिसकियाँ भी सुनाई दीं। काकी ने दरवाजे पर धक्का दिया कुंडी नहीं लगी थी दोनों पल्ले खुल गए। वो कमरे में आकर सपने से भी ज्यादा डरावना द्रश्य देखकर हैरान रह गईं थी।
लखन ने सरिता के हाथ -पाँव बांधकर छत की धन्नी से लटका दिया था और उस पर घूंसे बरसाए जा रहा था। उन्होंने बेटे को आदेश दिया ‘’लखन फौरन उतारो मर जायेगी तो सारा घर जेल जाऐगा। आखिर का कर रहे हो’’ ? वो खुद खोलने लगी सरिता को आगे बढ़कर। लखन डिबिया से सुरती- चूना निकाल कर चुनही बनाते हुए गुस्से से बोला ‘’ अम्मा पतुरिया है एकदम साली। भगवान् का नाम लो तो बिदक जाती है। पता नहीं रंडी ने कितने यार बनाये थे, आग लगी रहती है हर बखत कुतिया के बदन में। कमरे में तो रहना ही दूभर कर देती है।
सरिता ने हाथ की रस्सी को झटक कर फेंका और घूरकर लखन को देखने लगी। वह इतनी कसकर हिचकी लेकर रो रही थी कि उससे कुछ बोला नहीं जा रहा था। सास ने लानत भरी आवाज में कहा, ‘’दुल्हिन ! तुम दुई कौड़ी की निकली। अरे, धीरे –धीरे आदमी बस में हो जाते हैं। तुम तो गज़ब किये हो ऐसे तो मरद भी नहीं करते ,थोडा सबर रखो।‘’ ये सुनते ही सरिता का सब्र टूट ही गया चीख पडी ‘’ क्या किया है हमने पांच महीने हो गए शादी के पत्नी का हक़ मांग रहें हैं। हम कब तक अकेले पड़े रहें यहाँ? हमें भी आश्रम ले जाएँ। हम भी जोगन बन जाते हैं। ले चलो हमको हम पूछेंगे सरकार से कि यही सिखाते हैं अपने शिष्यों को पत्नी फालतू सामान है। घर में पडी रहने दो। आखिर शादी करने की जरूरत क्या थी ? सरकार की चाकरी करते। हमारी ज़िन्दगी क्यों बरबाद कर दी।‘’ बस नाम भर की पत्नी होकर रह गएँ हैं।
कमरे से निकलते हुए लखन फिर पलटा ‘’देखा अम्मा, इस चुड़ैल की गज भर लम्बी जबान। अब तो ये सरकार को भी गरियाती है।….शिव –शिव….इसने देवता स्वरुप सरकार को भी नहीं छोड़ा। हम जा रहें है, पता नहीं कब आयेंगे। इस पतुरिया की सकल देखने का मन नही करता हैं। अम्मा तुम्हारे लिए आ जातें हैं पर ये हरामजादी चाहती नहीं हम एक दिन भी घर पर रहें। आते ही इसका नंग नाच शुरू हो जाता है।‘’ कहकर लखन तेजी से निकल गया।
सरिता की सास जोर जोर से रोने लगी ‘’हाय दैया हमारे करम ही फूट गए बहुरिया हमरे बेटवा को भी खा गई। बिट्टो सही कहती थी भाभी बड़ी डीरामा कीन हैं उठा लो भगवान हमको।‘’
सरिता मार खाकर ,लड़ -झगड़कर, रोकर इतना थक गई थी कि उसे अब बेहद विरक्ति हो रही थी मन कर रहा था अभी भाग जाए यहाँ से।….पर कहाँ ? कौन है उसके दिल का हाल सुनने वाला उसको समझने वाला। रात भर सोचती रही ..सोच –सोच कर रोती रही। याद आते रहे बाबूजी जिन्होंने कभी ऊंची आवाज में उससे बात तक नहीं की थी और आज उसके पति ने उसको इस तरह पीट दिया …पर कौन था जिससे वो अपना दुःख कह पाती कि ….भेज भैया को बाबुल….लीजो बुलाय…माँ ..बाबूजी सब उसको छोड़ कर चले गए। उसको यहीं जीना था यहीं मरना…ताई ने चलते समय कहा था ‘’अब वही घर है भला लगे या बुरा वहीं रहना है। ..अब यही घर था सरिता का और वो इस घर में किसी बेकार सामान से भी ज्यादा महत्वहीन थी उसकी जरूरत किसी को नहीं थी।
रोते –रोते पस्त होकर सरिता जैसे किसी बेहोशी में चली गई थी और उसे वो दिन याद आने लगा जब तमाम अरमानो के साथ अपने ताऊ –ताई के घर उपेक्षित सरिता इस घर में आयी थी। बस पांच महीने पहले की तो बात है इसी आंगन में ढोलक की थाप पर गीत बज रहे थे।
‘’ बन्ना बुलाए, बन्नो न आए…..मैं कैसे आऊँ , बन्ना मेरी पायल बजती है…. बाबा तेरे बैठे …नाना तेरे बैठे …. मैं कैसे आऊँ…. बन्ना मेरी पायल बजती….नीचे निगाह डाल के…. लम्बा घूँघट काढ़ के, पायल उतार के… आजा मेरी बन्नो रे, अटरिया मेरी सूनी पड़ी। ‘’
जोर- शोर से खूब गाने गाये जा रहे थे। बीच –बीच में औरते उठती, नाचती ,एक दूसरे से चुहलबाजी करती और फिर गाना गाने लगती। उधर नई दुल्हन लंबा घूंघट डाले सिमटी हुयी बैठी थी मुह दिखाई भी चल रही थी। सुरसती चाची ने घूंघट उठाकर कहा ‘’वाह! लछमी भौजी बहुरिया तो बड़ी चौकस लाई हो।‘’ सुंदरी चाची भी बोल पड़ी ‘’ भौजी लखन से बीस है दुल्हिन। ‘’ अपने दुलारे बेटे को उनीस सुनते ही लक्ष्मी ने आंखे तरेरी और गुस्से से कहा ‘’ काहे सुंदरी हमरे लखन मा कौन अवगुन हैं? बचपन से देखे हो तुम तो, इस्कूल भले ना जाए लखनवा लेकिन मंदिर दुई बार जरूर जाए। हनुमान जी की पूजा अउर अखाड़े मा पहलवानी कौनो बुराई नहीं। ना बीडी, ना सराब, ना औरतों से हंसी मजाक बस दिन रात पूजा पाठ अउर अनोखे महाराज की सेवा। हमरे लखन जैसा देवता कौनो होगा ? नहीं तो यहाँ पूरे गाँव के लरिकन में ऐब भरे परे हैं एक से एक सराबी अउर लुच्चे ।‘’ ये बात सुंदरी काकी को सुनाई गई थी जिसमे साफ़ इशारा था अपने लोफर लड़के जोगेंदर सिंह को देखो पहले।
सुंदरी काकी भी कहाँ हार मानने वाली थी मुस्कुरा कर बोल पडी ‘’ अरे भौजी पहलवानी से तो सारा गड़बड़ हुई गवा ..साईत लाला की जरूरी काम वाली नस दब गई तबही …’’ अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि लक्ष्मी चाची की छोटी बिटिया बिट्टो जिसकी शादी आठवीं पास करके कानपुर शहर में हो गई थी और जो गलत अंगरेजी पूरे गर्व के साथ बोलती थी। हाथ नचा कर बोली ‘’ बस करो चाची आप लोग। हमरे भोले –भले भईया का मजाक ना बनाओ । होंगी बड़ी बूटीफुल भाभी। हमरे लखन भईया बड़े इस्मारट हैं, सारा दिमाग ठिकाने लगा देंगे।’’ बिट्टो की बात पर सारी औरतें खी –खी करके हंस पडी।
परतापपुर के निगोहा गाँव में पक्षियों की चहचहाहट के साथ शाम उतर रही थी। पहले पेड़ों पर फिर मुडेरों पर। सूरज पांडव नदी में धीरे -धीरे उतर रहा था और नदी का गंदुमी पानी सूरज की किरणों से लाल हो रहा था। गाँव के मर्द खेतों से घर की तरफ लौट रहे थे। घरों में दिया- बाती शुरू हो गई थी। जिन गिने -चुने घरों में बिजली थी वहाँ पीले बल्बों की मद्धम रोशनी फैली हुयी थी।
लक्ष्मी काकी के यहाँ रौनक वाली शाम थी। आंगन में लालटेन के साथ पेट्रोमैक्स भी जल रहा था। औरतें दुल्हन को नेग देकर और बतासे लेकर विदा हो रहीं थी। सुबह से नई बहुरिया एक कोने में बैठी -बैठी निढाल हो चुकी थी और रह –रह कर पहलू बदल रही थी। लछमी काकी ने बिट्टो को आवाज देते हुए कहा ‘’ भाभी को खाना खिला के कमरा मा लइ जाओ बिट्टो और सबका खाना पीना का बंदोबस्त देखो। हमरे घुटना मा बड़ा दर्द है हम सोये जाती हैन ।
‘’ठीक है अम्मा तुम जाओ हम सब संभाल लेंगे बड़ी भौजी के साथ मिलकर।” बिट्टो ने अम्मा को आश्वस्त किया और नई भौजी को कमरे की तरफ ले जाने लगी।
‘’देखो भाभी यही है तुम्हारा कमरा।‘’ नई दुल्हिन ने घूंघट ऊपर करके चारो तरफ नज़र डाली बेहद अस्त व्यस्त कमरा ,सारा सामान बिखरा। दीवार पर बजरंगबली का कैलेंडर आले पर शालिग्राम, अगरबत्ती। आले के बगल में खूंटी पर लाल लंगोट टंगा था। बिट्टो नई भाभी को कमरे की इतनी गहरी पड़ताल करते देख समझ गई थी कि भाभी को कमरा जमा नहीं इसलिए बोल पडी ‘’अब लखन भैया तो यहाँ जादा रहते नहीं तो उनका कोई सामान ठीक से नहीं रखा है। भाभी अब तुम आ गई हो सब संभाल लेना अपने रूप से भईया को और गुन से कमरा को।‘’ फिर आँख मार कर बोली ‘’रात कैसी रही भाभी सबेरे पूछेंगे।‘’
लखन की नई नवेली दुल्हिन अब जाकर पीठ सीधी कर पायी थी। समझ नहीं पा रही थी कि उसको मानसिक थकान ज्यादा है या शारीरिक। कहाँ आना चाहती थी वो अपने कस्बे से इस बीहड़ गाँव में ,कितनी मिन्नतें की थी अपने ताऊ से कि इंटर के बाद पढ़ाई करने दें। लेकिन ताऊ ने साफ़ कह दिया था कि अब छोटके लाला की बिटिया पढ़ाते रहेंगे और ब्याहते रहेंगे तो अपने बच्चों पर ध्यान कब देंगे। उन्होंने उसकी पढाई बंद करवा दी थी और आनन- फानन में अनपढ़ आदमी से सरिता को ब्याह दिया।
घर में धीरे –धीरे सन्नाटा पसर रहा था। सब लोग सोने जा चुके थे। लालटेने बुझ चुकी थी। अक्तूबर की गुलाबी सर्द रात आधी बीत चुकी थी। खामोशी ऐसी कि कई लोगों के खर्राटे तक सुनाई दे रहे थे आँगन में चांदनी बिखरी थी और सरिता के कमरे में अँधेरा… लखन का अब तक कुछ पता ना था। सुहागरात बिना सुहाग के ढल रही थी। थकान से चूर सरिता की आँख कब लग गई उसे पता ही नहीं चला।
भोर में जब बिट्टो ने आवाज दी ‘’भाभी उठो सबेरे के सब काम जल्दी निबटा लो ‘’। सरिता चौंक कर उठ गई थी। दिन में कमरा ज्यादा भयानक और मनहूस लगा। सरिता की आँखों में इतने प्रश्न थे कि बिट्टो सहज नहीं रह पायी और लड़खड़ाते हुए बोली ‘’कल महाराज के यहाँ कोनो बड़ी पूजा हती तो भैया रात में नाही आ पाए। संदेसा भेजा है कि आज आयेंगे फिर बाँध लेना भैया को अपने पल्लू से । कहीं ना जाने ना देना। सरिता ने हँसते हुए कहा ‘’ननद रानी हमको कुछ बांधना नहीं आता। ना हमें ऐसा कुछ पसंद है जो बाँध के और मांग के मिले।‘’
बिट्टो ने अब चौंक कर भाभी की तरफ देखा और खिसियाई हंसी हंसकर बोली ‘’ अरे भाभी तुम तो बहुत बड़ी -बड़ी बातें कर लेती हो बड़ी गुनिन मालूम देती हो लेकिन ध्यान रखना मर्दों को गुन से कुछ लेना – देना नहीं होता है। खैर तुम्हारे पास तो रूप और गुन दोनों हैं। कुछ तो काम आएगा।‘’। ‘
’वाह! नन्द रानी यानी कि रूप और गुण दोनों मर्दों को रिझाने के लिए होना जरूरी है।‘’ थोडा कटु स्वर में सरिता बोलकर बिट्टो के साथ चल दी।
बाहर आंगन में जेठ को देखकर सरिता ने जल्दी से घूंघट काढ लिया । सास जेठानी के बच्चे को गोद में लिए बैठी थी। सरिता ने सास और जिठानी के पैर छुए। सास ‘’सुहागिन रहो दुलहिन’’ कहकर बच्चे को दूध पिलाने लगी। सरिता ने सुना वो जेठजी से कह रहीं थी कि ‘’महाराज के आश्रम जाकर लखन को लिवा कर लाओ।‘’ सरिता ने अब तक लखन को ठीक से देखा तक नहीं था पर उसकी सहेलियां बता रहीं थी कि जीजा बड़े शर्मीले हैं।
सरिता को बिट्टो घर के पीछे की तरफ एक जगह ले गई जहाँ दो दीवारें एक टिन से ढकी थी। बिट्टो ने बताया कि वो नई बहू है तो उसकी शौच आदि का इंतजाम यहीं हैं वरना ज्यादातर औरतें अभी खेतों में ही जाती हैं। सरिता को बड़ी हैरानी हुई कि सारे देश में विकास की कौन सी गंगा बह रही है जो अब तक इस गावं में नहीं पहुची। उसे बड़ी कोफ़्त हुई ताऊ ने उसे कहाँ ब्याह दिया। कसबे से शहर की जगह ऐसे भद्दर देहात में जहाँ अब तक सीवर लाइन और बिजली भी नहीं है। उसका जी चाहा कि भाग जाये यहाँ से पर कहाँ ठिकाना था उसका ? कौन उसकी बाट जोह रहा है। उसे अब यहीं जीना –मरना था। सरिता को लगा उसके जैसी कितनी लड़कियां होंगी जो मन मार कर इसलिए वहां रहती हैं जहाँ वो नहीं रहना चाहती हैं।
सरिता ने अपने सारे काम जल्द निबटा लिए और तैयार होकर बैठ गई। गाँव की औरतें अभी भी मिलने – जुलने आ रहीं थी। सरिता अपनी तारीफ से भी उकता गई थी। ताई तो यही कहती थी कि ‘’जल्दी ब्याह दो इसको ज्ञान के बाबू इसका रूप किसी दिन मुसीबत में ना डाल दे हम लोगों को।‘’ बस ब्याह दिया ताऊ ने उसको और सारी मुसीबत से मुक्त हो गए। सरिता की सोच की कड़ियाँ बिखर गईं जब एक प्यारी सी लडकी ने चुटकी काट कर फुसफुसाते हुए पूछा ‘’ भाभी सुना है लखन भईया से अबहीं मुलाकात ना भई।‘’
शाम ढलने लगी थी। सरिता सारे दिन की थकान उतारने अपने कमरे में बैठ कर चाय पी रही थी कि उनके कान में बिट्टो की आवाज पडी ‘’अरे लखन भैया आ गए ‘’। साथ ही जेठ जी की भी तेज आवाज सुनाई दी ‘’लखन अब तुम्हारा ब्याह हो गया अपनी जिम्मेदारी समझो घर –बार देखो। हद है, सादी का घर है आउर तुम वहां आश्रम में पड़े हो ‘’। सरिता के मन में अजीब धुक-धुकी लगी थी जाने कैसे –कैसे ख्याल आ रहे थे उसके मन में। उसने सोचा कि अपने पति से नाराज हो जायेगी और उलाहना देगी कल ना आने का पर जल्द मान भी जायेगी। अपने ही ख्याल पर उसको मन ही मन में हंसी आ गई।
वो रात भी आ गई जिसकी ना जाने कितने सपनो और कल्पनाओं के साथ लड़कियां व्यग्रता से प्रतीक्षा करती हैं। स्त्री के लिए चाहे -अनचाहे समर्पण की रात ..पुरुष के लिए पौरुष परीक्षण की रात …सरिता ने जब कमरे में कदम रखा तो धूपबत्ती का धुवां कमरे में भरा था। लखन आँख बंद करके जमीन में बैठा कुछ बुदबुदा रहा था। स्वर इतना धीमा था कि सरिता कुछ समझ नहीं पायी। कुछ पल बाद ही लखन ने आँख खोल कर कहा ‘’अरे कब आ गई मुझे पता नहीं चला। हमारी आराधना ऐसी ही होती है जब लीन हो जातें हैं तब कुछ होस नहीं रहता। तुम पूजा –पाठ, बरत उपवास तो करती होगी? भई हम तो सारे नवरात और मंगलवार को भी बरत रखते हैं। जितने जरूरी उपवास हैं कोई हमसे नहीं छूटते। अपनी तरफ से प्रभु की कृपा में कौनो कसर नहीं छोड़ते बाकी होइए वही जो राम रचि राखा।‘’
सरिता हैरत से अपने पति की बात सुनती रही कुछ बोली नहीं। उसने कुछ पल पहले जो नाराजगी वाला दृश्य सोचा था उसका कहीं पता ना था। यहाँ तो लग ही नहीं रहा कि पति से मिलन की पहली रात है ऐसा महसूस होने लगा कि वो किसी मंदिर में आ गई और सामने कोई पुजारी है। सरिता को दम घुटता सा महसूस हुआ।
‘’अरे तुमसे कुछ पूछा है ,जवाब नहीं दिया ? लखन ने उसे टोका।‘’
सरिता चौंक गई। उसका ध्यान ही हट गया था लखन की धर्मिक बातों से वो तो किसी और दुनिया में गुम हो गई थी। ‘’ जी हम ज्यादा पूजा पाठ नहीं करते हैं आडंबर में विश्वास नहीं है हमारा ..जो सब जगह है उसको मूर्ती में क्या समेटे।‘’। लखन ने चौंक कर उसकी तरफ देखा और क्रोध से बोला ‘’ तो तुम्हे ये सब पाखंड लगता है, हम जो दिन -रात कर रहें हैं सब आडंबर है ? बड़ी मूर्ख स्त्री हो तुम। हम तो सुने थे कुछ पढी –लिखी हो ।’’
पढ़ –लिख कर ही ये समझ आया है कि इंसान से प्रेम करना बहुत जरुरी है, भगवान् से भी ज्यादा। प्रेम करने वाले दिल में ही भगवान् रहता है ।‘’ अब लखन का क्रोध बढ़ गया गुस्से से कांपते हुए बोला ‘’ज्यादा तिरिया चरित्तर अपनी बुद्धी के हमको ना दिखा जो हमरे भगवान् का नहीं वो हमारा भी नहीं। और हाँ चुड़ैल! ये ना समझ अपने रूप में हमको फंसा लेगी। हम बजरंगबली के भक्त हैं। लंगोट के पक्के ‘’। सरिता लखन के इस बदले रूप को देखकर हैरान थी समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्या कह दिया कि उसका पति इतना आगबबूला हो गया। अपने आंसू रोकते हुए बोली ‘’लंगोट की लाज रखनी थी तो आपने शादी काहे की ? मना कर देते।‘’
‘’बड़ी आग लगी है तेरी देह में….हमको ताने मार रही है। हम नहीं करना चाहते थे पर अम्मा और बड़के भईया नहीं माने तो करनी पडी। अब अम्मा की सेवा करो और चुप्पे चाप पडी रहो । हम तो आश्रम को सौंप चुके हैं खुद को। वहीं रहते हैं। दुई –तीन दिन के लिए आयेंगे। प्रेम से बोलना हो तो बोलो नहीं तो भाड़ में जाओ ..हमको जोरू का गुलाम ना समझना हम बस बजरंग बली और अनोखे सरकार के गुलाम हैं।‘’ कहकर लखन कमरे से बाहर निकल गया।
सरिता कुछ समझ नहीं पा रही थी उसके साथ ये क्या हो रहा है। कहाँ ले आयी किस्मत? अब इसी आदमी के साथ उम्र भर रहना होगा। वह इस भयावह कल्पना से सिहर उठी थी। इस अजीब गाँव ,घर को वो सह लेती लेकिन इस अजीब पति का क्या करे। दुःख ,बेबसी ,लाचारी घुटन महसूस करके फूट –फूट कर रो पडी और रोते –रोते कब सो गई उसे होश नहीं रहा।
अगले दिन की सुबह सरिता को कुछ बदली हुई लगी। दरकी ,टूटी उमीदों की सुबह, चकनाचूर कल्पनाओं की सुबह ,उसके अपमानित स्त्रीत्व की सुबह। सरिता समझ गई कि इस घर में उसको शायद सब कुछ मिल जाये पर पति का सुख नहीं मिलेगा। उसकी सोच की कड़ी को उसकी सास ने तोड़ दिया ‘’दुल्हिन सुना है लखन रात में आश्रम चला गया। तुमने रोका काहे नहीं तुम तो सुन्दर हो, पढी लिखी हो कुछ समझाती।‘’
‘’हाँ पढी लिखी हूँ पर डाक्टर नहीं हूँ। सुन्दर हूँ पर जीते जागते इंसान के बजाय उनको मूरत ज्यादा पसंद है। अम्मा आपके बेटे को डाक्टर की जरूरत है। पत्नी की नहीं।‘’
सरिता की सास चारपाई पर माथे पर हाथ रखकर बैठते हुए बोली ‘’ वाह बहू, गजबे बात करती हो। हमार अच्छा भला बेटा तुमको बीमार लग रहा है। कौन बीमारी है भला। एतना सीधा जैसे रामचंदर जी।‘’
सरिता ने अम्मा के करीब आकर कहा ‘’ अम्मा ज्यादा रामचंदर होना ही समस्या है। सीता को रोना पड़ता है। ज्यादा भक्ति भी बीमारी है। अम्मा उनको कौनो मूरत दिला देती हमको काहे मूरत बना दिया सारी ज़िन्दगी के लिए ।‘’ सास कुछ देर तक सरिता की तरफ हैरानी से देखती रहीं फिर बोली ‘’ हे भगवान क्या बोल रही हो दुल्हिन। बड़ी कड़वी जबान है तुम्हारी लगता है हमरे लखन तुम्हारे बस के नहीं हैं। घर का काम काज संभालो, आदमी तुमसे न संभल पायी ।‘’ सरिता कट कर रह गई सास की इस बात पर बहुत कुछ कहना चाहती थी पर रोक लिया। कमजोर मायके वाली लड़कियां कुछ नहीं बोल सकती हैं बोल कर जायेंगी कहाँ ? सरिता जानती थी उसका कहीं ठिकाना नहीं है उसे इसी घर में रहना है। काम करते करते दिन काटना है ,रोते- रोते रात बितानी है।
रोज रात का यही सिलसिला बन गया था या तो लखन घर आता नहीं था आता भी तो सरिता को अपनी वाहवाही सुनाता कैसे उसने महाराज की दया से ब्रह्मचर्य साध लिया था। या सरिता को पूजा पाठ के उपदेश देता था। सरिता ऊब कर जवाब देती तो शुरू में नाराज होकर चला जाता था अब हाथ उठाने लगा था।
आज ऐसी ही एक रात थी जब लखन की क्रूरता चरम पर थी और उसकी सास कमरे में आ गईं थी। सरिता के प्रश्नों का जवाब लखन के लात घूंसे थे …अब यही सिलसिला बन गया था।
सरिता टूट गई थी बुरी तरह इन पांच महीनों में पर आज की रात ने जैसे उसे बदल दिया था। अब वो किसी मशीन की तरह सारा दिन काम करती थी। हर तरह के काम को हर वक़्त तैयार। सबकी आज्ञा मानती और एकदम खामोश रहती। बस लखन की बात कोई कर दे तो ऐसा जहर बुझा जवाब देती कि पूछने वाला खामोश रह जाता।
छोटी जगहों में बातों के पंख लगे होते हैं। असली बात बड़ी तेजी से उड़कर अपने पंखों में तमाम धूल- गंदगी के साथ एक जगह से दूसरी जगह पहुचती है। जिसके पास बात आती है वो आदमी अपनी तरफ से कुछ और लपेटकर उसे दूसरे को देता है। सरिता के बारे में भी तमाम कहानियां पूरे निगोहा गाँव में फैल गई थीं। जिसमें मुख्य यही थी ….भाभी लखन भैया के आते ही कपडे उतार के टूट पड़ती हैं। भैया बड़ी मुसकिल से लंगोट बचाकर आश्रम भागते हैं। भाभी के अंदर दस पुरुषों का बल है। भैया के आने पर बड़ा नाटक फैलाती हैं। एकदम डिरामा कीन हैं। सब अजीब तरह की बातें सरिता तक पहुचती तो वह कुढ़कर रह जाती। राह चलते लोग उससे बेहूदे मजाक करते। अभी परसों किसी काम से जा रही थी, रस्ते में सुंदरी काकी के बेटे जोगेंदर ठाकुर मिल गए बोले ‘’ पायं लागी भौजी काले रंग की साड़ी में बड़ा जम रही हो। अरे भौजी! इस रूप की कदर लखन भैया ने नहीं की। उनके बस का कुछ नहीं है । हमको मिली होती तो तुम्हारी सारी तमन्ना पूरी हो जाती’’।
सरिता को मजाक बिलकुल अच्छा नहीं लगा चिढ़कर बोली ‘’ ठाकुर तुम अपनी दुल्हिन की साड़ी का रंग याद रखा करो और उसकी तमन्ना पूरी करो हमारी चिंता ना करो ।‘’ रसिक ठाकुर कहाँ मानने वाला था सरिता जैसी सुन्दर और उपेक्षित उसका शिकार थी दांत निपोरते हुए बोला ‘’ अरे भौजी! हमको भी कभी आजमाओ, सेवा का मौका तो दो। हमारा दम भी देखो।‘’ सरिता को जोगेंदर की लंपटता और उसकी नीयत पर बहुत गुस्सा आया। उसने गुस्से से ठाकुर को घूरते हुए कहा ‘’अरे ठाकुर तुम्हरी पिचकारी में कित्ता दम है हमको सब मालूम है दुल्हिन सब बता रही थी। जाओ –जाओ पहिले अपने दम से उसका मन शांत करो तब गाँव की और औरतों से दम दिखाना। जाओ अपने रस्ते नहीं तो ऐसी हालत करेंगे कि किसी के आगे दम खोल के नहीं दिखा पाओगे‘’। ठाकुर जोगेंदर सिंह को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी खिसिया गया। और खिसियाहट मिटाने के लिए बोला ‘’सही कहते हैं सब लोग भौजी, हो बड़ी जबर तुम, एकदम डिरामा कीन।‘’ फिर चुचाप वहां से निकल लेने में उसने भलाई समझी।
सरिता के लिए नयी बात न थी आये दिन ऐसी बातें सुनती थी। सब उसे ही चोट पहुचाते जैसे उसका कोई कसूर हो। उसकी समझ में नहीं आता था ये कैसा समाज है जहाँ पीड़ित भी वही थी और अपराधी भी वही थी। उसका सब्र टूटता था सबको जहर बुझे कडुए जवाब देती। जितना जवाब देती और बुरी बनती जाती। सरिता जितना सहती ,उतना टूटती जितना टूटती उतना धीरज खोती जाती थी। सबके उपहास का पात्र बनकर बेहद अपमान महसूस करती थी इसलिए सरिता ने तय कर लिया कि अब वो भी सरकार के आश्रम चली जायेगी। आखिर वहां तमाम काम करने वाली स्त्रियाँ है जैसे वो यहाँ काम करती है, वहां कर लेगी। इस उपहास और अपमान से तो दूर रहेगी। सरिता ने अपना फैसला सबको सुना दिया। सरिता के जहर बुझे तीर का सामना करने की हिम्मत किसी में नहीं थी और सब निश्चिंत थे कि वहां इसका गुजर नहीं होगा वापस आयेगी। इसलिए किसी ने उसे नहीं रोका।
आश्रम में लखन सरिता को देखकर हैरान रह गया। ‘’ तुम यहाँ किससे पूछकर आयी हो? जाओ यहाँ से नहीं तो इतना कूटेंगे कि चार आदमी उठाकर तुमको ले जायेंगे ‘’। सरिता लखन की ऐसी बातों के लिए तैयार होकर आयी थी इसलिए उसने भी छूटते कहा ‘’अब चार आदमी ही लेकर जायेंगे हम तो जाने से रहे। और नहीं सहा जाता हमसे। हम अब यही रहेंगे और सरकार को आज फैसला करना पड़ेगा’’। उनका झगडा इतना बढ़ गया कि आश्रम के तमाम लोग आस -पास आ गए। बात सरकार तक पहुच गई थी। और उन्होंने दोनों को बुला भेजा था। सरिता भी अपने जीवन में आग लगाने वाले से मिलने को बेहद उत्सुक थी। लखन ने कहा ‘’चल अब सरकार के पास वो भी देख लें कैसी नागिन है जो डस रही है। परिवार की नाक तो कटा ही दी अब मेरा तमाशा सबके सामने बना’’।
सरिता बरामदे तक ही पहुच कर हैरान रह गई जैसे सारा विकास सिर्फ आश्रम तक हुआ था। गाँव तक पंहुचा ही नहीं था और सरकार के कमरे में जाकर हैरान रह गई।, इस गाँव से थोड़ी दूर, इतना भव्य कमरा उसकी कल्पना से परे था। और सरकार को भी अपनी कल्पना में वो कोई बहुत बूढा ,खूसट समझ रही थी लेकिन ये भी उसकी कल्पना से अलग ही थे। बलिष्ठ बदन दगदग करता सुर्ख चेहरा। सिंहासन जैसी कुर्सी पर बैठे गोर- चिट्टे करीब पचास-पचपन वर्ष के लेकिन अपनी उम्र से कम मालूम पड़ते सरकार ने उन दोनों को देखकर लखन से कहा ‘’ इस तरह का शोर -शराबा आश्रम में उचित नहीं है क्या तुम्हे इतना भी ज्ञान नहीं है।‘’
लखन के कुछ बोलने से पहले ही सरिता बोल पडी ‘’ सरकार जब दुनिया उजड़ रही हो और दुःख से मन बोझिल हो तब उचित- अनुचित का ध्यान कहाँ रहता है। ये सब तो सुखी लोग सोचें। अब मैं तय करके आयी हूँ मैं यहीं रहूंगी अपने पति के पास चाहे जो हो जाए ।‘’ लखन सरिता को इतनी हिम्मत से बोलता देखकर घबरा गया। कुछ बोलने वाला था लेकिन इसके पहले सरकार ने उसे शांत रहने का इशारा किया और खुद सरिता की तरफ देखकर बोले ‘’ हम्म ..समझदार मालूम पड़ती हो। अगर यहाँ रहना चाहती हो रहो। परन्तु आश्रम में काम करना होगा और बिना लड़ाई -झगडे के रहना होगा। यहाँ की शांति नहीं भंग होनी चाहिए। लोग दूर –दूर से यहाँ शांति की तलाश में आते हैं।
लखन को बड़ी राहत हुई कि सरकार नाराज नहीं हुए लेकिन तनाव भी हुआ कि इस तेज तर्रार औरत को कैसे झेलेगा। पर अब सरकार की आज्ञा थी कोई चारा ना था। सरिता ने सोच लिया था अब जैसा भी हो जीवन यहीं बीतेगा।
आश्रम में वाकई कोई जादू था यहाँ आकर सबका मन शांत हो जाता था। लखन और सरिता के झगड़े भी शांत थे। लखन की पूजा –पाठ से सरिता को कोई दिक्कत नहीं थी वो ज्यादातर पूजा पाठ और आश्रम के काम में लगा रहता। उसे सरिता की दिनचर्या से कोई मतलब नहीं था। उसे पहले भी कब मतलब रहा था सरिता से।
सावन शुरू हो चुका था। आश्रम में रुद्राभिषेक था। उसकी जोरदार तैयारी चल रही थी। सोमवार को लखन मुहं अँधेरे ही उठ गया था। आश्रम के मंदिर का सारा काम कर चुका तो उसको याद आया कि नए शालिग्राम, जो दक्षिण से कोई भक्त लाया था ,सरकार के कमरे में हैं। आज मंदिर में उनकी स्थापना होनी थी। अभी अँधेरा ही था लेकिन लखन ने टार्च और गंगाजल का लोटा लिया और सरकार के कमरे की तरफ शालिग्राम लेने चल पड़ा।
अभी कमरे के बाहर बरामदे तक पंहुचा ही था कि लखन ने देखा कोई घूंघट डाले सरकार के कमरे से तेजी से निकल रहा था …सावन की तेज ,सीली हवा ने उस चेहरे से घूंघट उड़ा दिया …….जैसे कोई बिजली सी गिरी लखन के वजूद पर….अरे सरिता !…….उसके हाथ से लोटा छूट गया….. गंगाजल बहकर सरकार के कमरे की तरफ जा रहा था। …लखन ने दिखावा किया जैसे उसने सरिता को नहीं देखा …उसके मन में घुमड़ रहे बादलों को चीरकर उम्मीद का एक सूरज कौंधा । …….अगर वो पिता बन गया तो माथे पर लगा नामर्दगी का सारा कलंक मिट जाएगा। …….हर ..हर महादेव कहकर उसने महाराज के दरवाजे पर दस्तक दी ।