मेरे पीछे बैठे दो लड़कों में से किसी की आवाज आयी ‘बहुत सही’ । शायद उसके हिसाब जो औरत जो पति की मार का विरोध कर रही है मार खाने लायक है । परदे पर एक सामंती चरित्र का साथ देता वो आदमी जो हाल में मौजूद था ‘बहुत सही’ कहकर शायद वो हम सबको जवाब दे रहा था कि खुलकर जीने का हक़ तुम लोगों को नहीं है सोचोगी तो मार खाओगी और बहुत लोग होंगे जो इस बात पर ‘बहुत सही’ भी कहेंगे ।
पोखर से नदी बनने की यात्रा है …..’पार्च्ड’
अनीता मिश्रा
“पुरुष के स्पर्श से औरत या तो नदी होती है या पोखर ..औरत जब नदी होती है तब कोई भी पुरुष उस पर एक पाल वाली नाव की तरह तैर सकता है …किसी भी दिशा में कितनी ही देर ..पर जब पोखर होती है तब उसके अन्दर केकड़े की तरह भी नहीं उतर सकता औरत कब नदी होगी और कब पोखर यह वह स्वयं नहीं जानती …पर उसे कुछ ना कुछ होना पड़ता है …पुरुष के स्पर्श से नदी होना औरत के लिए बड़ा सुख है ..पोखर होना भयानक यातना।’’ ( प्रियंवद )
‘पार्च्ड’ फिल्म देखते हुए मुझे ऊपर लिखी प्रियंवद जी की ये पक्तियां याद आती रही। इस फिल्म में तीन स्त्रियाँ है जिनकी ज़िन्दगी पोखर बन चुकी है पर ये नदी बनने की यात्रा साहस के साथ करती हैं।
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मैं फिल्म देखते वक़्त सिहर गई थी जब अपने पति से बाँझ होने का ताना सहती, मार खाती लाजो के पति को पता चलता है कि वो किसी और आदमी से माँ बनने वाली है तो वो उसको बुरी तरह मारता है । शायद उसका पुरुष ईगो खुद को अक्षम मानने से इनकार कर रहा था । मेरे पीछे बैठे दो लड़कों में से किसी की आवाज आयी ‘बहुत सही’ । शायद उसके हिसाब जो औरत जो पति की मार का विरोध कर रही है मार खाने लायक है । परदे पर एक सामंती चरित्र का साथ देता वो आदमी जो हाल में मौजूद था ‘बहुत सही’ कहकर शायद वो हम सबको जवाब दे रहा था कि खुलकर जीने का हक़ तुम लोगों को नहीं है सोचोगी तो मार खाओगी और बहुत लोग होंगे जो इस बात पर ‘बहुत सही’ भी कहेंगे ।
‘पार्च्ड’ फिल्म में गाँव में रहने वाली इन स्त्रियों की समस्या स्कर्ट की लम्बाई नहीं है ना इनकी ज़िन्दगी में जींस पर कोई डिबेट है। इनकी समस्या तो अपनी ही कमाई से ही सुकून से जीकर दो वक़्त का खाना खा लेना है । कठिन रेगिस्तानी झुलसन के बीच प्यार की नदी बनने को बेचैन तीन स्त्रियाँ हैं । ये औरते आत्मनिर्भर हैं लेकिन अपनी जिन्दगी के आदमियों के लिए पैर की जूती या उनकी देह की भूख मिटाने का साधन भर हैं । सदियों से पितृसत्ता वाली मानसिकता के ये आदमी इन औरतों के सपनों और ख्वाहिशों से डरते हैं ।
जानकी ,लाजो ,बिजली सब अपने सपनो की आग में झुलस रही स्त्रियाँ हैं। प्यार और सम्मान को तरसती ये औरते एक दूसरे का सहारा बनती हैं । एक दूसरे को संभालती हैं ,एक दूसरे के घाव पर मरहम लगाती हैं ।
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सबसे दिलचस्प कैरेक्टर है बिजली का जो समाज के नज़रिए से बुरी औरत कही जाती है। और ये बुरी औरत ही बाकी सबको खुल कर जीना सिखाती है। फिल्म में एक चरित्र है जानकी जो बालिका वधू है जिसके पति की उम्र भी सोलह -सत्रह साल है । लेकिन उसके अन्दर भी वही सदियों पुराना आदिम पुरुष है जिसने इस कम उम्र में भी विरासत में यही सीखा है स्त्री घर में पड़ा फालतू सामान है। जिसे वो जब चाहे जैसे चाहे रौंद सकता है ।
इस फिल्म में थोड़ी बहुत खामियां बेशक हैं । लेकिन ये फिल्म सिर्फ इसलिए बहुत बड़ी हो जाती है कि औरतों को एक दूसरे का सहारा बनने का सन्देश देती है । यहाँ कोई इंतज़ार नही है कि कोई आये और उनका हाथ थाम कर उनको इस आग से पार कराये । अपनी पोखर जैसी ज़िन्दगी से निजात पाकर नदी बन चुकी ये औरते खुद एक दूसरे का हाथ थाम कर एक दूसरे को पार लगाती हैं ।
अभिनय इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है । लाजो ,बिजली ,जानकी के चरित्र को निभाने वाली तीनो अभिनेत्रीयों ने बहुत सशक्त अभिनय किया है। जानकी का अभिनय करने वाली लहर खान बहुत छोटी हैं लेकिन एक परिपक्व एक्ट्रेस की तरह उन्होंने चेहरे पर यातना के भाव दिए है ।
पार्च्ड पितृसत्ता की मानसिकता से बनी गालियों से लेकर उनके नियमों को धता बताकर अपने मर्जी का जीवन जीने चल पड़ती तीन नदियों की यात्रा है । जिसमें वो एक दूसरे की राह में आने वाले सारे कंकड़ –पत्थर हटाकर एक दूसरे को बहने में मदद करती हैं और उन्मुक्त होकर खुद भी बहती हैं ।