‘अनवर सुहैल‘ के उपन्यास “पहचान” पर ‘पाखी‘ ने किन्ही धर्मव्रत चौधरी की समीक्षा छापी थी..जिसमे उपन्यास की विषयवस्तु और लेखक के औचित्य पर सवाल उठाया गया था…उस समीक्षालेख के संदर्भ में “अनवर सुहैल” की प्रतिक्रिया जो अत्याधुनिक तकनीकी युक्त ग्लोवल समय में भी पुनः पुनः ठहर कर न केवल सोचने को विवश करती है बल्कि साहित्य की सरोकारी दृष्टि पर कई सामाजिक सवाल भी खड़े करती है …..| – संपादक
‘पहचान’ पर एक ख़त: (अनवर सुहैल)
अनवर सुहैल
अपने उपन्यास ‘पहचान’ का जि़क्र पाखी पत्रिका में देख मुझे लगा कि पहचान के जिस संकट से मेरा कथा-नायक यूनुस जूझ रहा था, उसे अभी जाने कब तक इस संकट से जूझना होगा। मेरे देश के लोगों की मानसिक स्थिति अभी भी वैसी की वैसी है। मेरी इस धारणा की पुष्टि हुई आलोचक धर्मव्रत चैधरी की समीक्षा दृष्टि देखकर।
पाखी में प्रकाशित समीक्षा में यही बात छन कर आई है कि धर्मव्रत चैधरी के भारत देश में मियां लोग चार शादियां करने का अपराध करते हैं, अकारण अपनी बीवियों को तलाक देते हैं, ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं, जिससे भारत के हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएंगे, मियां अशिक्षित रहते हैं, म्लेच्छ की तरह रहते हैं, मांस का सेवन करते हैं सो स्वभाव से तामसिक और दुराचारी होते हैं, गौवध करते हैं, गौमांस का भक्षण करते हैं, बहुत झगड़ालू होते हैं, हिन्दुओं को काफि़र कहते हैं, अपनी दुनिया में खोए रहते हैं, जिहादी और आतंकवादी होते हैं, विकास विरोधी होते हैं मियां और रहते हिन्दुस्तान में और गाते पाकिस्तान की हैं। पाकिस्तान ले लेने के बाद भी भारत माता का खून चूस रहे हैं ये मुसल्ले।
लगता है कि समीक्षक धर्मव्रत चैधरी ने उपन्यास पहचान पढ़ना इसी नियत से शुरू किया है कि अनवर सुहैल एक साम्प्रदायिक सोच का लेखक है और उसका नज़रिया संकीर्ण है। अनवर सुहैल कांग्रेस की मुस्लिम / अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति का समर्थक है।
पहचान : उपन्यास (२००९, राजकमल प्रकाशन)
अपने आलेख में अंत तक आते-आते धर्मव्रत चैधरी ने लेखक को यह समझााईश तक दे डाली है कि -‘‘ये समझना कठिन है कि वंदेमातरम् गीत गाने से अल्लाताला का सिंहासन डोल जाएगा। दूसरी तरफ संघ ये सिद्ध कर सकता है कि देश के सभी हिन्दु वंदेमातरम् गाते हैं।” जबकि इस देश में करोड़ों हिन्दू ऐसे भी मिल जाएंगे जिन्होने वन्देमातरम् सुना तक न होगा। इस तरह के अतिवादी मानसिकता के लोगों को ये समझना चाहिए कि बिना वन्देमातरम् गाए भी देश-भक्त हुआ जा सकता है। और मुसलमानों को वन्देमातरम् के शब्दार्थ के बजाए संदर्भ पर ध्यान देना चाहिए। और इसे एक बार गाकर देखना चाहिए कि इसे गाने से इस्लाम पर कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है।’’
मैं एक कवि-कथाकार हूं, उपन्यास लिखने का जोखिम क्योंकर उटाता भला! वह तो भला हो यूनुस का, सलीम का और भाई नरेन्द्र मोदी का, जिन्होंने मुझसे एक नावेल लिखवा लिया। मैं कथा में ऐसे डूबा कि बात बनती गई और नावेल तैयार हो गया।
मेरा ‘पहचान’ लिखने का सबसे बड़ा कारण ये है कि इस विधा का सहारा लेकर मैं मुसलिम समाज के युवकों को संदेश देना चाहता हूं कि वे हिन्दुस्तान की नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। दुनिया के हालात अब ऐसे नहीं रहे कि आदमी बिना ग्लोबल हुए रह जाए। विश्व-बिरादरी के अपने नियम-कानून हैं, संस्कार हैं, ज़रूरतें हैं और धर्म-आस्था-कर्मकाण्ड तथा रस्मोरिवाज़ के साथ भी मुसलिम युवक नए ज़माने के साथ क़दम से क़दम मिला कर चल सकते हैं।
वह ज़माना और था जब देश को बंटवारे का दंश झेलना पड़ा था और इंसानों के बीच ऐसी खाई खोद दी गई थी कि उसे पाटने में कई दशक गुज़र गए। अब दुनिया ऐसी नहीं रह गई कि किसी शुतुर्मुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़ कर जिया जाए।
अब समय आ गया है कि प्रत्येक मुसलमान को शिक्षित होकर धर्म-कर्म की व्याख्या खुद करनी चाहिए, मुल्ला-मौलवियों द्वारा की गई व्याख्याएं मुसलमान को नए-नए खेमों में बांटती हैं और उन्हें प्रगतिशील, विकासमान होने से रोकती हैं। इस ज़बर्दस्त उपभोक्तावादी समय की ज़रूरतों का ध्यान में रखते हुए प्रत्येक मुसलमान और इंसान को अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों आदि से बचना चाहिए।
यह दौर टेक्नालाॅजी का है, मुसलिम युवकों को हुनरमंद होना चाहिए। स्वावलम्बी होकर देश की मुख्यधारा में आ जाना चाहिए। मुख्यधारा का मतलब संघ या विहिप का हिन्दुत्व नहीं बल्कि सेकुलर सोच के साथ स्वतंत्र भारत का जागरूक नागरिक बने।
यही कारण है कि उपन्यास का मुख्यपात्र यूनुस इधर-उधर भटकते हुए अंत में अपने अंदर इतनी सलाहियत पैदा कर लेता है कि स्वतंत्र भारत में इज्जत की दो रोटी स्वयं कमाने का हुनर सीख जाता है। यही तो चाहती हैं सरकारें, प्रजातंत्र का उद्देश्य भी तो यही है और यही हम भी चाहते हैं। क्यों 11 सितम्बर जैसे हादसे हों, क्यों बामियान के बुद्ध को ध्वंस किया जाए, क्यों इराक अफ़गान में कारपेट बम गिराए जाएं, क्यों कश्मीर के पंडित शरणार्थी बनें, क्यों कोई तसलीमा नसरीन की तरह शरण मांगती फिरे, क्यों गोधरा-गुजरात की घटनाएं हों…?
भाई धर्मव्रत जी, हम कहां चाहते हैं कि हमारे मुसलिम पात्र अलक़ायदा, सिमी या लश्कर के गुर्गे बनें।
भाई सलीम का दोष क्या था, यही न कि अपनी वेशभूषा और चाल-ढाल से वह एक परम्परागत मुसलमान दिखता था। यदि वह आम हिन्दू लड़कों की तरह रहता तो हो सकता है कि गुजरात के नरसंहार में बच जाता। सलीम का छोटा भाई यूनुस वह ग़लती दुहराना नहीं चाहता और बड़ी सफाई से अपनी पहचान छिपा ले जाता है। यह डर जो यूनुस के मन में आया, वह क्यों आया भाई धर्मव्रत जी। यदि दाढ़ी-टोपी और कुर्ता पाजामा पहने मुसलमान युवक, वन्देमातरम् गाता तो क्या नरेन्द्र मोदी के गुजरात में उस नरसंहार में उसकी जान बख्श दी जाती? आपने उपन्यास को हिन्दू बहुसंख्यक के नज़रिए से देखा है, अल्पसंख्यकों के मन में बैठे डर से आपको क्या हमदर्दी हो सकती है। पुत्रवती नारी, बांझ स्त्री के सामने किस तरह बात करती है और उसका दंश/डंक बांझ स्त्री को कब और कितना चुभता है ये वही बांझ स्त्री समझ सकती है। जबकि स्त्रियां दोनों हैं, बांझ भी और पुत्रवती भी।
धर्मव्रत जी, आप क्यों ऐसा सोचते हैं कि ये देश सिर्फ और सिर्फ आपका है। इस देश में सिर्फ और सिर्फ आपकी मान्यताओं का आदर होना चाहिए। आप ये बताएं कि कोई आदमी यदि गंगा किनारे पैदा न हुआ हो और गंगाजी के आशीर्वाद से वंचित रह गया हो तो उसमें उसका क्या दोष? क्या गंगा किनारे पैदा हुए आदमी ने अपनी इच्छा से गंगा किनारे जन्म पाया है?
धर्मव्रत चैधरी जी, मैंने मुसलिम परिवेश में जन्म लिया है। इसमें भला मेरा क्या दोष हो सकता है? मैंने अकबर-बाबर के ज़माने में जन्म पाया होता तब मुझे ‘पहचान’ लिखने का आईडिया नहीं आता। मैंने तो स्वतंत्र भारत में जन्म लिया है। अपने परिवेश का मुझे अच्छा संज्ञान है। अपने परिवेश का भला मुझसे अच्छा प्रवक्ता कोई और हो सकता है? मैंने इसी ‘प्रिविलेज’ को ध्यान में रखकर उपन्यास की रचना की। ऐसा नहीं कि मुझसे पहले के मुसलिम लेखकों ने या कि अन्य लेखकों ने इस विषय पर न लिखा हो, यह तो मैंने अपने नज़रिए को सुदृढ़ करने के लिए उपन्यास विधा का सहारा लिया और भारतीय मुसलिम समाज के अंतर्विरोधों और उनके प्रति बहुसंख्यकों के रवैयों का चित्रण किया है।
क्षमा करेंगे भाई धर्मव्रत चैधरी जी, आपने नावेल पहचान की चर्चा करते हुए अपने वजूद को इस तरह रेखांकित किया है आप इस मुल्क में मकान मालिक की हैसियत रखते हैं और मैं कोई अदना सा किराएदार हूं… और यह मानसिकता और दृष्टि साहित्यिक तो नहीं हो सकती …..|