कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास: ‘छटवीं और अंतिम क़िस्त’ (अशोक कुमार पाण्डेय)

शोध आलेख कानून

अशोक 428 11/17/2018 12:00:00 AM

कश्मीर के ऐतिहासिक दस्तावेजों और संदर्भों से शोध-दृष्टि के साथ गुज़रते हुए “अशोक कुमार पाण्डेय” द्वारा लिखा गया ‘कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास’ आलेख की छटवीं और अंतिम क़िस्त आज पढ़ते हैं | – संपादक

कश्मीर में आन्दोलन तेज़ हो रहा था. 46 का साल आते-आते शेख कश्मीरी जनता के निर्विवाद नेता बन चुके थे. इस हैसियत से कश्मीर का भविष्य तय करने के लिए उन्होंने राजा हरि सिंह से बात करने के लिए बम्बई तक जाना मंज़ूर किया जहाँ राजा अक्सर रहा करते थे. पर हरि सिंह ने बात करने से इंकार कर दिया. अंततः उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा आन्दोलन शुरू किया – कश्मीर छोड़ो आन्दोलन और घोषणा की कि “कोई पवित्र विक्रय पत्र (इशारा अमृतसर समझौते की तरफ है) चार लाख लोगों की आज़ादी की आकांक्षा को दबा नहीं सकती.”

कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास 

अशोक कुमार पांडेय

असंतोष की आहटें और सन 31 का आन्दोलन

नौकरी के लिए मैट्रिक की पढ़ाई आवश्यक बना देने के कारण शिक्षा दीक्षा का वहां खूब विस्तार हुआ, लेकिन रोज़गार उस गति से नहीं बढ़े. ऊंचे पद कश्मीरी पंडितों, डोगराओं और सिखों के लिए आरक्षित थे, निचले स्तर पर रोज़गार बहुत कम थे. बेरोज़गारी, 95 फ़ीसद मुस्लिम आबादी के साथ इस कदर अन्याय कि टैक्स और दीगर परेशानियों के साथ-साथ अज़ान तक पर पाबंदी. हालाँकि राजा हरि सिंह ने मीरवायज़ सहित कुछ एलीट मुस्लिमों वाली अंजुमन-ए-नुसरत-उल-इस्लाम को संरक्षण दिया था[i], लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं थी. यह सारा गुस्सा फूटना ही था. वक़्त बदल रहा था. दुनिया भर में चल रहे मुक्ति आन्दोलन की आहट कश्मीर पहुँच रही थी. तीस का दशक आते आते पढ़े लिखे मुस्लिम लड़के मुस्लिम रीडिंग रूम में पढने और बहस करने लगे. उन्हीं में से एक थे मामूली गड़रिया परिवार से निकलकर जम्मू, लाहौर और फिर अलीगढ़ से विज्ञान में एम एस  सी करके लौटे शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह, जिन्हें मुस्लिम होने के कारण राज्य प्रशासन में जगह नहीं मिली और उस वक़्त एक हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे.  1931 में 21 जून को इन्हीं में से एक अब्दुल क़ादिर को जब शाह हमादान के ऐतिहासिक खानकाह पर राजा के ख़िलाफ़ भाषण देने के बाद गिरफ़्तार कर लिया गया तो यह गुस्सा सड़कों पर फूटा. हज़ारो नौजवान आन्दोलन की राह पर उतर पड़े. पंडितों के विशेषाधिकार पर दबा वर्षों का क्रोध उनके घरों और दुकानों पर हुए हमले के रूप में निकला तो आन्दोलन ने साम्प्रदायिक रूप ले लिया. हालात बिगड़े और दमन चक्र चला. एक सिपाही ने जेल में बंद आन्दोलनकारियों के सामने ही क़ुरान फाड़ डाली तो मामला एकदम बिगड़ गया. और अधिक दमन से आन्दोलन फौरी तौर पर दबा तो दिया गया लेकिन तब उठी मांग निष्पक्ष जांच की. राजा हरि सिंह ने शुरू में इंकार किया लेकिन फिर दबना पड़ा. जांच रिपोर्ट ने राजा की साम्प्रदायिक नीतियों पर सवाल उठाया और मज़बूरन उसे कुछ नीतियाँ बदलनी पड़ीं. लेकिन अब यह साफ था कि मेयो कॉलेज से पढ़े और अक्सर विदेशों में रहने वाले रंगीन मिजाज़ हरि सिंह के लिए अह आक्रोश संभालना आसान नहीं था और अँगरेज़ किसी मौके का फायदा उठाने से चूकने वालों में से नहीं थे.[ii]

इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का जन्म हुआ और शेख अब्दुल्लाह इसके पहले अध्यक्ष बने. जल्द ही इसे अपनी मुस्लिम पहचान खोकर समाजवादी विचार के क़रीब एक ऐसा संगठन बनना था जिसमें कश्मीरी पंडितों की भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी हुई और जो आने वाले समय में कश्मीर का सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन बना – नेशनल कॉन्फ्रेंस.

साभार google से

भारत-पाकिस्तान-कश्मीर

सैंतालीस जैसे जैसे क़रीब आ रहा था भारतीय उपमहाद्वीप में हलचलें और बेचैनियाँ बढ़ती जा रही थीं. जिस अंग्रेज़ी छत्रछाया में राजे-रजवाड़े डेढ़ सौ साल से अय्याशी कर रहे थे वह अब हटने वाली थी, हिन्दुस्तान का दो हिस्सों में बंटना लगभग तय था. रजवाड़े येन केन प्रकारेण अपना राज बचाए रखना चाहते थे लेकिन इतिहास अब उस दौर को पीछे छोड़ने ही वाला था. हरि सिंह बाक़ी राजाओं से अलग कैसे हो सकता था.

शेख अब्दुल्लाह इकतीस के आन्दोलन के बाद कश्मीर में अवाम के सबसे बड़े नेता बनकर उभरने लगे थे. अब वह सिर्फ़ मुसलमानों की बात नहीं कर रहे थे. 1932 में उन्होंने कहा – हमारे देश (कश्मीर) की प्रगति तब तक असंभव है जब तक हम यहाँ के विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित न कर लें.” यह कश्मीरियत की तरफ़ बढ़ा हुआ क़दम था – कश्मीरियत यानी धार्मिक अभिमान से ऊपर क्षेत्रीय स्वाभिमान. भारत में चले सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन की आग वहां पहुँची और राजा को “प्रजा सभा” बनानी पड़ी जिसके 75 सदस्यों में से तैंतीस को चुना हुआ होना था, मिन्टो-मार्ले के आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व के फ़ार्मूले से इसमें 21 मुसलमान, दस हिन्दू और दो सिख सदस्य चुने जाने थे. औरतें और अनपढ़ तो वोट देने के अधिकार से वंचित रखे ही गए 400 रुपये सालाना से कम आय वालों को भी वोट देने का अधिकार नहीं दिया गया. अधिकार सारे राजा के पास. शेख अब्दुल्लाह ने ऐसी असेम्बली को मान्यता देने से इंकार कर दिया. अब वह राज्य की सारी मेहनतकश अवाम का नेतृत्व कर रहे थे. 1937 में जब मज़दूरों का आन्दोलन हुआ तो धर्म पीछे छूट गया. अंततः 11 जून 1939 को पार्टी के नाम से मुस्लिम हटाकर उसे “नेशनल कॉन्फ्रेंस” बनाया गया और जब 28 जून को उसमें हिन्दुओं सहित सभी धर्मों/जातीयों के प्रवेश का प्रस्ताव रखा गया तो रात भर चली बहस के बाद 179 सदस्यों की कार्यसमिति में से बस तीन ने इसका विरोध किया. इसके साथ ही यह पार्टी भारत की आज़ादी में सामंतवाद और उपनिवेशवाद के दोहरे जुए को उतार फेंकने के लिए लड़ रही पार्टियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई, अब वह कांग्रेस की सहयोगी पार्टी थी. जवाहर लाल नेहरू और शेख की दोस्ती दो स्वप्नदर्शियों की दोस्ती थी. शेख की पार्टी ने आल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बनना मंज़ूर किया और शेख 46 में इसके अध्यक्ष बनाये गए. नेहरु ने कहा कि कश्मीरी लोग भारत की वृहत्तर आज़ादी में अपनी आज़ादी हासिल करेंगे. शेख ने साथ दिया और भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कांग्रेस का साथ दिया. मुस्लिम कट्टरपंथी धड़ा जिन्ना के साथ था. 1941 में ग़ुलाम अब्बास के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की सहायता से मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को फिर से जीवित किया गया. 44 में जिन्ना जब कश्मीर आये तो शेख से मिले तो लेकिन अगले ही दिन मुसलमानों से एक कलमा और एक ख़ुदा का हवाला देकर कश्मीर की आज़ादी को एक मुस्लिम काज़ बताया और मुस्लिम कांफ्रेंस में शामिल होने की अपील की. शेर ए कश्मीर ने जवाब देने में देर नहीं की – इस धरती की मुश्किलात केवल हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों को साथ लेकर दूर की जा सकती है.

साभार google से

कश्मीर में आन्दोलन तेज़ हो रहा था. 46 का साल आते-आते शेख कश्मीरी जनता के निर्विवाद नेता बन चुके थे. इस हैसियत से कश्मीर का भविष्य तय करने के लिए उन्होंने राजा हरि सिंह से बात करने के लिए बम्बई तक जाना मंज़ूर किया जहाँ राजा अक्सर रहा करते थे. पर हरि सिंह ने बात करने से इंकार कर दिया. अंततः उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा आन्दोलन शुरू किया – कश्मीर छोड़ो आन्दोलन और घोषणा की कि “कोई पवित्र विक्रय पत्र (इशारा अमृतसर समझौते की तरफ है) चार लाख लोगों की आज़ादी की आकांक्षा को दबा नहीं सकती.”

राजा ने दमन का सहारा लिया. शेख नेहरू से मिलने जाते समय गिरफ़्तार कर लिए गए. नया प्रधानमन्त्री रामचंद्र काक हर आदेश को बढ़ चढ़ कर पूरा करने वाला था. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं पर हर तरह के अत्याचार किये गए. नेहरु ने उनकी मदद के लिए कोष इकट्ठा करना शुरू किया. उन्हें कश्मीर में प्रवेश से रोका गया. मज़ेदार बात यह कि इस समय मुस्लिम कॉन्फ्रेंस राजा के साथ खड़ी थी. 47 के मई महीने में अखिल जम्मू और कश्मीर राज्य हिन्दू सभा (जो बाद में जनसंघ और फिर भाजपा की राज्य ईकाई में तब्दील हुई) घोषणा की कि वह हर हाल में राजा के साथ है. उनका फ़ैसला चाहे जो हो. मुस्लिम कॉन्फ्रेंस भी पीछे नहीं थी. चौधरी हमीदुल्लाह ने घोषणा की कि “राजा का जो निर्णय होगा मंज़ूर होगा. अगर पाकिस्तान कश्मीर पर हमला करेगा तो कश्मीर मुसलमान हथियार लिए उसके ख़िलाफ़ खड़े होंगे और ज़रूरी हुआ तो हिन्दुस्तान की मदद भी ली जा सकती है.”   बलराज पुरी जैसे भारत समर्थकों को गद्दार कहा गया. जम्मू से मुल्क राज सर्राफ के सम्पादन में निकलने वाले दैनिक अखबार रणबीर पर भारत समर्थक होने का आरोप लगाकर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.[iii]

राजा कशमकश में था. एक तरफ़ जिन्ना हर तरह का लालच दे रहे थे तो दूसरी तरफ़ कश्मीर में जनता का आन्दोलन बढ़ता जा रहा था. माउंटबेटन ने उससे मिलने की कोशिश की तो पेट दर्द का बहाना बनाकर दिल्ली से श्रीनगर आये वायसराय से वह नहीं मिले. वह किसी भी हाल में अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते थे तो शेख के समर्थन से आश्वस्त नेहरु हर हाल में मुस्लिम बहुल कश्मीर को सेकुलर भारत का हिस्सा बनाना चाहते थे, पटेल एक मुस्लिम बहुल सीमांत इलाक़े को भारत में मिलाने के लिए इस क़दर मुतमइन नहीं थे. उनके सचिव मेनन ने बाद में लिखा कि कश्मीर उस समय उनके दिमाग में था ही नहीं.

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इसी बीच जम्मू में साम्प्रदायिक तनाव फ़ैल गया. 19 जुलाई 47 को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने आज़ादी के समर्थन में प्रस्ताव पास किया और पाकिस्तान के साथ समझौता कर उसका स्वतंत्र उपनिवेश बन जाने की हिमायत की. अब हिन्दू सभा ने भी भारत से जुड़ने की बात धीमे शब्दों में कहनी शुरू की. 15 अगस्त 47 को पाकिस्तान ने राजा का स्टैंड स्टिल प्रस्ताव मान लिया जिसके तहत लाहौर सर्किल के तहत राज्य के केन्द्रीय विभाग पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में होने थे. राज्य भर के पोस्ट और टेलिकॉम विभागों में पकिस्तान का झंडा फहर गया. ऐसा प्रस्ताव राजा ने भारत को भी दिया था, लेकिन नेहरु ने उसे ठुकरा दिया. पहली मांग शेख को रिहा करने की थी. उस समय नेहरु ने गृह मंत्री पटेल को लिखे पत्र में कहा कि पाकिस्तान की रणनीति कश्मीर में घुसपैठ करके किसी बड़ी कार्यवाही को अंजाम देने की है. राजा के पास इकलौता रास्ता नेशनल कॉन्फ्रेंस से तालमेल कर भारत के साथ जुड़ने का है. यह पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर आधिकारिक या अनाधिकारिक हमला मुश्किल कर देगा.[iv] काश यह सलाह मान ली गई होती! पर पटेल ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और उस समय राजा पर दबाव बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं की.

जम्मू से लेकर गिलगिट तक साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बिगडती जा रही थी. पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि राजा की सेनायें मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हमला कर रही हैं तो नए प्रधानमन्त्री मेहर चंद महाजन ने जांच का प्रस्ताव दिया. पकिस्तान के गवर्नर जनरल ने इसका स्वागत करते हुए उन्हें कराची में डिनर पर चर्चा का न्यौता दे डाला. महाजन इंडिपेंडेस एक्ट का हवाला देकर आज़ाद कश्मीर को स्विट्जरलैंड बनाने के सपने देख रहे थे. पकिस्तान ने मेजर ए एस बी शाह के हाथों विलय का ख़ाली प्रपत्र भिजवाकर राजा से अपनी मर्ज़ी की शर्तें भर लेने को कहा. 21 अक्टूबर को हरि सिंह ने पंजाब हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को राज्य का नया संविधान बनाने को कहा.[v] शेख अब भी जेल में थे और नेहरु कश्मीर को अपने साथ लेकर चलने के लिए मुतमईन, पटेल बाक़ी रियासतों को हिन्दुस्तान से जोड़ने में मसरूफ़. आखिर निज़ाम और कश्मीर ही नहीं जोधपुर जैसी हिन्दू बहुल रियासतों के राजा भी अपना फ़ायदा देखते हुए पाकिस्तान से जुड़ने की इच्छा जता रहे थे!

इस हाई वोल्टेज ड्रामे के बीच वह हुआ जिसने कश्मीर की क़िस्मत तय कर दी. कश्मीर को अपनी जेब में देखने को बेक़रार जिन्ना ने कबायलियों के भेस में पाकिस्तानी सेना भेज दी. यह एकदम अविश्वसनीय था. राजा और उसका नया प्रधानमंत्री अब भी पाकिस्तान से बात कर रहे थे. किसी तरह की कोई ऐसी कार्यवाही नहीं हुई थी, लेकिन पाकिस्तान शायद जल्दबाजी में था. कश्मीर में अफरातफरी मच गई. खूंखार आक्रमणकारियों ने किसी को नहीं छोड़ा. राजा की कमज़ोर सेना उनका मुक़ाबला करने में नाक़ामयाब हुई और सेना श्रीनगर के दरवाज़े पर पहुँच आई तो राजा के पास हिन्दुस्तान से सहायता माँगने के अलावा कोई चारा नहीं था. नेहरु की शर्त साफ थी. शेख की रिहाई और भारत में विलय के शर्तनामे पर दस्तख़त. अंततः यह सब हुआ. कश्मीरियों के आत्मसम्मान और आज़ादी के जज़्बे की इज्ज़त करते हुए इसे विशेष दर्ज़ा देकर हिन्दुस्तान में शामिल किया गया.[vi] हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहाँ भी जनमत संग्रह की मांग स्वीकार की गई और 361 वर्षों बाद एक कश्मीरी फिर कश्मीर का प्रशासक बना – शेख अब्दुल्ला.

इतिहास के तथ्य अपनी जगह रह जाते हैं, भविष्य उनके सही-ग़लत की पहचान करता है. इसके बाद का कश्मीर का क़िस्सा इतिहास की क़ैद में उलझे भविष्य का क़िस्सा है. वह फिर कहीं, फिर कभी.

(अशोक इन दिनों “कश्मीरनामा: इतिहास की क़ैद में भविष्य” शीर्षक से किताब लिख रहे हैं.)

संदर्भ- 

[i] देखें, पेज़ 236, हिन्दू रूलर्स-मुस्लिम सब्जेक्ट, मृदु राय, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2004

[ii] देखें, पेज़ 67-71, कश्मीर बिहाइंड द वेल, एम् जे अकबर, रोली बुक्स, दिल्ली 2002

[iii] देखें, पेज़ 5-6, कश्मीर इंसरजेंसी एंड आफ्टर, बलराज पुरी, तीसरा संस्करण, ओरियेंट लॉन्गमैन, 2008

[iv] देखें, पेज़ 7, वही

[v] देखें, पेज़ 9, वही

[vi] देखें, पेज़ 13, वही

अशोक द्वारा लिखित

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