कश्मीर के ऐतिहासिक दस्तावेजों और संदर्भों से शोध-दृष्टि के साथ गुज़रते हुए “अशोक कुमार पाण्डेय” द्वारा लिखा गया ‘कश्मीर : एक संक्षिप्त इतिहास’ आलेख की तीसरी क़िस्त आज पढ़ते हैं | – संपादक
हिन्दू राजाओं के शासन काल में जिस तरह का पतन हुआ था जनता उससे त्रस्त थी. अंधाधुंध कर, मंहगाई, मंत्रियों और सामंती प्रभुओं का भ्रष्टाचार, कृषि क्षेत्र तथा व्यापार में भारी गिरावट और भयावह अस्थिरता ने राजाओं पर से जनता का विश्वास उठा दिया था, इसलिए जब रिंचन और उसके बाद के सुल्तानों के समय शान्ति और सुव्यवस्था क़ायम हुई तो जनता की ओर से धर्म के आधार पर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. इन राजाओं ने भी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और सभी धर्मों का सम्मान किया.
कश्मीर में इस्लाम
अशोक कुमार पांडेय
दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया. उसने लार के अपने किले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था. चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी. हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई. जनता की रक्षा के लिए वहां कोई नहीं था. उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया. रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया. पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाह मीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे धीरे महल के अन्दर भेज कर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320 को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी. रिंचन ने अपने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया.
जोनाराजा के अनुसार वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव धर्म में दीक्षित करने से इंकार कर दिया.[i]. ऐसे में निराश रिंचन को शाहमीर एक सूफ़ी संत बुलबुल शाह के पास ले गया. रिंचन उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने इस्लाम अपना लिया. लेकिन यूनेस्को द्वारा कराए गए शोध में एन ए बलूच और ए क्यू रफ़ीकी इसे जोनाराजा के दिमाग की उपज मानते हैं. उनके अनुसार एक राजा के रूप में यह उसके लिए कोई समस्या थी ही नहीं. वे उन इस्लामी विद्वानों[1] के तर्कों को भी खारिज़ करते हैं जिनके अनुसार रिंचन ने तीनो धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ के बाद इस्लाम को अपनाया या वह बुलबुल शाह[2] के यहाँ अध्यात्मिक शान्ति से प्रभावित हो मुसलमान बन गया था. उनकी मान्यता है कि रिंचन का इस्लाम अपनाना किसी नैतिक नहीं बल्कि उस राजनीतिक यथार्थ के चलते था जिसमें उसकी स्वीकृति सिर्फ़ इस्लाम मानने वालों में संभव थी जो अब अच्छी संख्या में कश्मीर में आ चुके थे.[ii]बौद्ध धर्म तब तक तमाम विकृतियों का शिकार हो हाशिये पर जा चुका था और हिन्दू राजाओं के वंशज अब भी कश्मीर में थे. ऐसे में शाह मीर की सलाह और प्रोत्साहन पर उसने इस्लाम अपनाया. कश्मीरी इतिहास के एक अध्येता अबू-फद्ल-अल्लामी भी रिंचन के इस्लाम स्वीकारने के पीछे शाह मीर की ही भूमिका मानते हैं. रिंचन के इस क़दम को दुनिया के अन्य देशों में इस्लाम के प्रभावी होने से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए.[iii]रिंचन के बाद कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम अपनाने वाला व्यक्ति था उसका साला रावणचन्द्र.[iv]
साभार google से
जोनाराजा ने उसके शासन काल को “स्वर्ण युग” कहा है, हालाँकि प्रोफ़ेसर के.एल.भान[v] उस युग को जबरिया धर्म परिवर्तन का युग बताते हैं. बहुत संभव है कि सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं हो. तथ्य बताते हैं कि सबसे पहले उसके उन बौद्ध अनुयायियों ने इस्लाम अपनाया जो लद्दाख से ही उसके साथ आये थे. ज़ाहिर है कश्मीर में इस्लाम तलवार के दम पर नहीं आया. हिन्दू राजाओं के शासन काल में जिस तरह का पतन हुआ था जनता उससे त्रस्त थी. अंधाधुंध कर, मंहगाई, मंत्रियों और सामंती प्रभुओं का भ्रष्टाचार, कृषि क्षेत्र तथा व्यापार में भारी गिरावट और भयावह अस्थिरता ने राजाओं पर से जनता का विश्वास उठा दिया था, इसलिए जब रिंचन और उसके बाद के सुल्तानों के समय शान्ति और सुव्यवस्था क़ायम हुई तो जनता की ओर से धर्म के आधार पर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. इन राजाओं ने भी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और सभी धर्मों का सम्मान किया.
लेकिन रिंचन सिर्फ़ तीन वर्ष तक राज्य कर पाया. विद्रोहियों से युद्ध में घायल होकर जब उसकी मृत्यु हुई तो उसका पुत्र हैदर अभी शिशु ही था. शाह मीर और अन्य दरबारियों की सलाह से रानी ने डोल्चा के आक्रमण के बाद से ही स्वात घाटी में रह रहे राजा सहदेव के छोटे भाई उदयनदेव को राजा नियुक्त कराया तथा उससे विवाह कर रानी पद बरक़रार रखा. उदयनदेव एक कमज़ोर राजा था और राज्य का नियंत्रण कोटा देवी के हाथों में आ गया. इसी समय इतिहास ने खुद को दुहराया. एक तुर्क आक्रमणकारी अचल ने घाटी पर आक्रमण किया तो राजा लद्दाख भाग गया. कमान पूरी तरह से रानी और शाह मीर के हाथों में आ गई. उन्होंने चतुराई से चाल चली और अचल को समर्पण का सन्देश भेज दिया. इससे जब वह निश्चिन्त हो गया और उसने सेना का एक हिस्सा वापस भेज दिया तो रानी, उसके भाई रावणचन्द्र, भट्ट भीक्ष्ण और शाह मीर ने सेना एकत्र कर उस पर हमला किया और बुरी तरह परास्त कर गिरफ़्तार कर लिया. बीच चौराहे पर शाह मीर ने अचल का सर धड़ से अलग कर दिया. अब वे जनता के नज़र में नायक थे. लौटने पर उदयन देव को अपनी भाई की नियति तो नहीं मिली लेकिन वह नाममात्र का राजा रह गया. सत्ता का पूरा नियंत्रण रानी कोटा के हाथों में आ गया. 1338 में राजा की मृत्यु के बाद दोनों के बीच सत्ता के लेकर खींचतान शुरू हुई. रानी कोटा ने ख़ुद को साम्राज्ञी घोषित कर दिया और भट्ट भीक्ष्ण को अपना मंत्री घोषित कर राजधानी अंदरकोट में ले गईं. शाहमीर की महत्त्वाकांक्षाएं अब जाग चुकी थीं. उसने गंभीर रूप से बीमार होने का बहाना किया और जब रानी ने भट्ट भीक्ष्ण, अवत्र और अन्य मंत्रियों को उसे देखने भेजा तो उनकी हत्या कर दी. इसके बाद शाह मीर ने मानसबल झील के पास राजमहल को घेर लिया और रानी ने आत्मसमर्पण कर दिया. शाह मीर ने विवाह का प्रस्ताव दिया और रानी ने स्वीकार कर लिया. लोक में एक मान्यता है कि रानी ने उसी रात अपनी कटार पेट में भोंक कर आत्महत्या कर ली. लेकिन जोनाराजा ने बताया है कि एक रात रानी के साथ सोने के बाद शाह मीर ने उसे और उसके दोनों पुत्रों को गिरफ़्तार कर अपनी संभावित प्रतिद्वंद्वी को हमेशा के लिए राह से हटा दिया. रानी की मृत्यु 1339 में हुई और उसके बेटों का इतिहास में फिर कोई ज़िक्र नहीं आता. इस तरह कश्मीर में शाह मीर वंश की स्थापना हुई. इस समय तक दरबार में हिन्दू दरबारियों का बाहुल्य था. धर्म परिवर्तन की कोई बड़ी घटना भी इतिहास में नहीं मिलती. ज़्यादातर सुल्तानों की पत्नियाँ हिन्दू राजाओं या दरबारियों की बेटियाँ थीं और दोनों धर्मों के रहन सहन में कोई ख़ास अंतर न था.
साभार गूगल से
शाहमीर वंश के एक सुल्तान शहाबुद्दीन से जुड़े जोनाराजा द्वारा उद्धरित एक किस्से को उनके धार्मिक आचरण को समझ सकते हैं. उसका प्रेम रानी की सगी बहन की लड़की लास्या से हो गया. वह रानी की शिक़ायत करते रहती थी. एक बार उसने कहा कि मंत्री उदयश्री को अपने पक्ष में करके रानी उस पर जादू टोना करवा रही हैं. सुल्तान ने कहा कि उदयश्री तो ईश्वर को मानता ही नहीं है, इसलिए यह संभव नहीं कि वह जादू टोना करे. लास्या के न मानने पर राजा ने उदयश्री को बुलाया और उससे कहा कि खज़ाना ख़ाली हो चुका है इसलिए पीतल की बनी श्री जयेश्वरी की मूर्ति को पिघला कर सिक्के ढलवा दे. इस पर कोई एतराज़ न करते हुए मंत्री ने कहा कि “लेकिन मूर्ति बड़ी हलकी है, बेहतर होता कि बुद्ध की मूर्ति को पिघलाया जाता उससे अधिक सिक्के ढल जाते. अगले दिन जब मंत्री बुद्ध की मूर्ति तोड़ने के लिए तत्पर हुआ तो सुल्तान ने कहा कि “हमारे पुरखों ने प्रसिद्धि और पुण्य कमाने के लिए मूर्तियाँ बनवाई और तुम उन्हें तोड़ने की बात कर रहे हो. कुछ ने ईश्वरों की मूर्तियाँ बनवा कर यश प्राप्त किया, कुछ ने उनकी नियमित पूजा करके तो कुछ ने उनकी देख रेख करके. उन्हें तोड़ना कितना नृशंस कार्य होगा. सागर नदियाँ और समुद्र बनाकर प्रसिद्ध हुए, भागीरथ गंगा को ज़मीन पर लाकर, इंद्र की प्रतिद्वंद्विता में दुष्यंत विश्वविजय करके प्रसिद्ध हुआ, और राजा राम रावण को मार के. अब यह कहा जाएगा कि शहाबुद्दीन ने भगवान की मूर्तियाँ तुड़वाईं? और यम से भयावह यह तथ्य सुनकर लोग भविष्य में काँपेंगे.[vi]” हालाँकि कुछ फ़ारसी स्रोतों में उसे मूर्तिभंजक और हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाला कहा गया है लेकिन अबुल फज़ल या निज़ामुद्दीन के ब्यौरों में इसका कोई ज़िक्र नहीं मिलता, बल्कि इसके उलट सुलतान द्वारा जीर्ण मंदिरों के पुनरुद्धार और प्रशासन में बराबरी की घोषणा का ज़िक्र मिलता है.[vii] जोनाराजा का उल्लिखित विवरण भी इस बात की गवाही नहीं देता. जोनाराजा ने ही आगे बताया है कि सुलतान ने उन विद्रोही हिन्दुओं को माफ़ कर दिया जिन्होंने माफ़ी मांग कर उसकी सरपरस्ती स्वीकार कर ली लेकिन उन मुसलमानों को मरवा दिया जिन्होंने ऐसा नहीं किया.[viii]
कश्मीर में इस्लामीकरण की शुरुआत 1379 में कुतुबुद्दीन के शासनकाल में फ़ारसी संत और विद्वान सैयद अली हमदानी का अपने शिष्यों के साथ कश्मीर आगमन से मानी जाती है. सुल्तान ने उनका स्वागत किया श्रीनगर में झेलम के दक्षिणी किनारे पर उन्हें अपना खानकाह बनाने के लिए ज़मीन दी गई और इस तरह खानकाह-ए-मौला के नाम से कश्मीर में पहली खानकाह (सूफ़ी मठ) का निर्माण हुआ. हमदानी ने अपने शागिर्दों को पूरे कश्मीर में धर्म प्रचार के लिए भेजा. साथ ही उसने सुल्तान को शरिया की शिक्षा दी. सुल्तान पर उसके प्रभाव को इससे ही समझा जा सकता है कि उसने दोनों बहनों में से एक को तलाक़ देकर बड़ी बहन सूरा से फिर से निक़ाह किया. उसके ही प्रभाव में उसने मुस्लिम देशों में पहने जाने वाली वेशभूषा अपनाई और अपने मुकुट के नीचे उसकी दी हुई एक टोपी, क़ुल्लाह-ए-मुबारक़, पहनने लगा. यह परम्परा तब तक चली जब तक फतह शाह की आख़िरी इच्छा के अनुसार इस टोपी को उनके साथ दफ़ना नहीं दिया गया. सैयद हमदानी के समय तक बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के प्रमाण नहीं मिलते. उनका तरीक़ा आध्यात्मिक बहसों और चमत्कारों वाला था. हालाँकि रिज़वी चमत्कार की इन कथाओं को तवज्जो नहीं देते.[ix]वह बताते हैं कि सुलतान के प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होंने काली मंदिर को तुड़वा कर अपनी खानकाह का निर्माण करवाया था और उनके शिष्यों ने अन्य कई मंदिरों को ध्वस्त करने तथा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कराने के काम किये थे. उन्होंने एक सुलहनामा भी लिखा था जिसमें सुल्तान के राज्य में रह रहे हिन्दुओं के लिए नए मंदिरों के निर्माण पर रोक, क्षतिग्रस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण पर रोक, मुस्लिम व्यापारियों को रुकने के लिए अपने घर उपलब्ध कराना, मंदिरों में सूफ़ी संतों को रुकने की इजाज़त देना, घोड़े पर जीन-काठी सहित सवारी न करने, तलवार-तीर रखने पर पाबंदी, अपने धार्मिक रीति रिवाज़ सार्वजनिक रूप से न करना यहाँ तक कि मृतक का शोक भी ऊंचे स्वर में न मनाना और मुसलमान दास न ख़रीदने जैसी बातें थीं.[x] एम आई खान रिज़वी की बातों को खारिज़ तो करते हैं लेकिन सिवाय इस आरोप के कि उन्होंने उस समय के क्रोनिकल्स को जस का तस स्वीकार कर लिया, कोई और तर्क नहीं देते[xi]. परमू यह तो बताते हैं कि हमदानी ने अपनी खानकाह बनाने के लिए झेलम के दक्षिणी किनारे की वह जगह चुनी जहाँ काली मंदिर था, लेकिन मंदिर के ध्वंस का कोई ज़िक्र नहीं करते.[xii] कहते हैं उसके हस्तक्षेप से दरबार में हिन्दू दरबारियों के बीच असंतोष फैला तो सुल्तान ने उसकी सारी बातें मानने से इंकार कर दिया और उसे वापस जाना पड़ा. हालाँकि इस तथ्य को लेकर इतिहासकारों में आम सहमति नहीं है.
साभार google से
इसी दौर में प्रसिद्ध शैव योगिनी लल द्यद का प्रभाव भी बढ़ा. वह हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों, मूर्ति पूजा, आडम्बर और जाति प्रथा का विरोध करती थीं. उनकी लिखी कविताओं को वाख (वाक्य) कहा जाता है और कश्मीरी भाषा में लिखे गए ये वाख अब तक कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं. तमाम ब्राह्मणवादी कुरीतिओं पर यह हमला वहाँ के हमदानी के साथ आये सूफ़ी आन्दोलन और इस्लामीकरण के लिए पूर्वपीठिका बना. इसे समझने के लिए उस दौर के धर्म परिवर्तनों को हमें एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. धर्म का परिवर्तन वस्तुतः सांस्कृतिक श्रेष्ठता की स्थापना और वर्चस्व का सवाल था, एक नए धर्म के रूप में इस्लाम के माननेवालों में एक मिशनरी जज़्बा तो था ही अधिक से अधिक लोगों को मुसलमान बना लेने का साथ ही अपने तांत्रिक तरीक़ों और ब्राह्मणवादी आचारों से हिन्दू धर्म उस समय ऐसी स्थिति में पहुँच चुका था कि डी एच लारेंस ने लिखा है “हिन्दू समाज भ्रष्ट हो गया था. पुरुष असहिष्णु, अय्याश और पतित थे और स्त्रियाँ उससे बेहतर नहीं थीं जैसा उन्होंने उन्हें बनाया था. जादू टोने और चमत्कारों की भरमार थी”. हमने पिछले अध्यायों में राजाओं के किस्सों में समाज के पतन की इन्तेहा देखी हैं. उस दौर में स्त्रियों की दशा बेहद ख़राब थी और वैश्यावृत्ति, नैतिक भ्रष्टाचार, देवदासी प्रथा और सती प्रथा जैसी व्यवस्थाएं उनके जीवन को नर्क बना रही थीं. कल्हण ने ऐसे तमाम हृदयविदारक किस्से राजतरंगिणी में बयान किये हैं. ऐसे में जब लल द्यद मूर्तिपूजा के खंडन, एकेश्वरवाद और योग के तीन सरल आधारों पर धर्म की स्थापना करती हैं तो यह सूफ़ी संतों के लिए बहुत सुविधाजनक हो जाता है. पहली दो चीज़ें तो थी हीं इस्लाम में, योग के समकक्ष था सूफ़ी समाज में प्रचलित “ज़िक्र” जो श्वास नियन्त्रण का अभ्यास है. इस तरह लल की शिक्षाएँ परोक्ष रूप से इस्लाम के लिए अनुकूल माहौल बनाने में सहायक हुईं. आम भाषा में मूर्तिपूजा और ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का उनका विरोध भ्रष्ट ब्राह्मण समाज को सुधारने की इस्लाम के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ.[xiii] यही वज़ह है कि आज भी उनकी रचनाएं कश्मीर के मुसलमानों की जुबान पर हैं और वे उन्हें उसी आदर और श्रद्धा के साथ लल आरिफ़ा और राबिया[3] सानी के नाम से याद करते हैं. ब्राह्मणवादी प्रपंचों से त्रस्त ग़ैर-सवर्ण हिन्दू समाज के लिए जाति-पांति का भेद न करने वाला इस्लाम मुक्तिदाता की तरह भी था. उसने धीरे धीरे लोगों को नैतिक और सामाजिक बल दिया. उनमें एक नए धर्म के साथ शक्ति का संचार हुआ जो साधारण था, बोधगम्य था और व्यवहारिक था. इसने सदियों पुराने विभाजनकारी सामाजिक ढांचों को ध्वस्त कर दिया. [xiv], जैसा कि रतन लाल हंगलू कहते हैं कि ऐसे माहौल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पीड़ितों ने किसी सीधे विरोध की जगह इस्लाम अपनाने को मूक अहिंसक विद्रोह की तरह लिया.[xv]
(क्रमशः……)
संदर्भ सूची –
[1] बहारिस्तान ए शाही –हसन बिन अली, तारीख़-ए-कश्मीर – हैदर मलिक, मजमुआदार अंसब माशिखी कश्मीर –बाबा नसीब आदि.
[2] बुलबुल शाह का असली नाम सैयद शरफ़ अल दीन था. वह सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सूफी संत थे जो सहदेव के समय तुर्किस्तान से कश्मीर आ गए थे.
[3] राबिया बसरा की अत्यंत प्रतिष्ठित सूफ़ी संत थीं.
[i] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र दत्त), पेज़ 20-21, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा, ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[ii] 1- इस संदर्भ में कल्हण ने हर्ष के समय तुर्की लोगों की कश्मीर में उपस्थिति का ज़िक्र किया है. ये मुस्लिम व्यापारी मुख्यतः व्यपारियों और भाड़े के सैनिकों के रूप में कश्मीर में आये और यहाँ बस गए.
2- ए क्यू रफ़ीकी का पूर्वोद्धृत पुस्तक में यह मानना है कि बहुत संभावना है कि गज़नी के कुछ सैनिक लौटने की जगह कश्मीर में ही बस गए हों.
3- तेरहवीं सदी के अंत तक कश्मीर में कश्मीर में मुस्लिम बस्तियों के होने के प्रमाण मार्को पोलो के यात्रा वृत्तांत में मिलते हैं जहाँ वह लिखता है कि कश्मीर के लोग न जानवरों को मारते थे न ही खून फैलाते थे. जब उन्हें मांसाहार का मन होता था तो वे वहां रहने वाले साराकेन लोगों को बुला लेते थे. ( यूल एंड कार्डियर, ए क्यू साराकेन उस समय तक मुसलमानों के संदर्भ में ही प्रयोग किया जाता था. रफ़ीकी द्वारा हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 311, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997 पर उद्धरित)
[iii] देखें, हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन ऑफ़ सेन्ट्रल एशिया, सम्पादक :एम एस आसिमोव तथा सी ई बोज्वर्थ, पेज़ 308, खंड 4, भाग 1, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, 1997
[iv] देखें, पेज़ 40, कश्मीर अंडर सुल्तान्स, मोहिबुल हसन, प्रकाशक : ईरान सोसायटी,159-बी, धर्मतल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता, 1959
[v] देखें, पेज़ 5, सेवेन एक्जोडस ऑफ़ कश्मीरी पंडित्स, प्रोफ़ेसर के एल भान (ऑनलाइन संस्करण)
[vi] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र दत्त), पेज़ 44, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[vii] देखें, पेज 97, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[viii] देखें, किंग्स ऑफ़ कश्मीर (अनुवादक : जोगेश चन्द्र दत्त), पेज़ 47, पुस्तक 1, खंड 3, जोनाराजा , ई एल एम प्रेस, कलकत्ता, 1898
[ix] देखें, पेज़ 291-294, अ हिस्ट्री ऑफ़ सूफीज्म इन इंडिया, खंड 1, सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, मुंशीलाल मनोहर लाल पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड,1978
[x] देखें, वही, पेज़ 305
[xi] देखें, पेज़ 26, कश्मीर्स ट्रांजीशन टू इस्लाम, प्मोहम्मद इशाक़ खान, मनोहर पब्लिशर्स, दिल्ली, 1994
[xii] देखें, पेज 103, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[xiii] देखें, पेज़ 12, पर्सपेक्टिव ऑन कश्मीर, मोहम्मद इशाक खान, गुलशन पब्लिशर्स, श्रीनगर, कश्मीर, 1983
[xiv] देखें, पेज़ 432, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1969
[xv] देखें, पेज़ 60 , रतन लाल हंगलू,द स्टेट इन मेडिवेल कश्मीर, मनोहर लाल पब्लिकेशन, दिल्ली-2000