बहुत कम लोग यात्रा वृत्तांत को ज़रिया बनाकर किसी दुसरे और दूर के भूभाग वहाँ की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थितियां-परिस्थितियाँ बेहद पठनीय और रोचक अंदाज़ में लिख और बयाँ कर पाते हैं | वागर्थ के संपादक ‘एकांत श्रीवास्तव‘ ने २०१३ में लन्दन की यात्रा की और अपनी यात्रा को लन्दन की गुन-गुनी धुप के आनंद की तरह शब्दों में सहेज लिया, जिसे पढ़ते हुए अनायास ही खुद के लन्दन में होने घूमने का एहसास होने लगता है | ……. संपादक
“लंदन में सूर्योदय सुबह पाँच के आसपास होता है – प्रायः पूरे यूरोप के देशों में ही लगभग यही समय है और सूर्यास्त साढ़े नौ तक। इतनी लंबी शाम या शाम जैसी रात। रात कितनी छोटी। दिन कितना बड़ा। नींद के घंटे कम। काम के घंटे ज्यादा। यों कार्यालय समय आठ घंटों का ही है लेकिन यदि कोई स्वेच्छा से निजी कार्य अधिक करना चाहे तो दिन के घंटे उसे यह गुँजाइश देते है। अँधेरा घिरने से तो रात का एहसास तीव्र हो जाता है – थकान और नींद और सपने। अँधेरा हो जाने के बाद जगमगाते लंदन की सड़कों पर घूमते हुए सहसा निर्मल वर्मा की एक कहानी याद आती है – ‘लंदन की एक रात।‘ लंदन ही क्यों; पूरे यूरोप के नगरों में निर्मल वर्मा की कहानियों का प्रिय मौसम दिखाई देता है – बादल, बारिश, बर्फ, कोहरे, धुंध, कुहासा। निर्मल वर्मा की कहानियों में, उपन्यासों में एक रहस्य है; एक कुहासा। पाठकीय प्रज्ञा की धूप ही इस कुहासे को काटती है।”
“टॉवर ऑफ लंदन टेम्स ब्रिज के करीब एक किलेनुमा महल है। टॉवर का अर्थ यहाँ मीनार नहीं; बल्कि छोटा किला है। टेढ़े-मेढ़े पत्थरों की मोटी दीवारें, जंग लगे लोहे से जड़े काठ के बड़े-बड़े दरवाजे। भीतर सुरक्षाकर्मी सिपाही पारंपरिक वेशभूषा में रहते हैं। ये ‘यूमन वार्डर‘ कहलाते हैं। जब इंग्लैंड के राजा-रानी महल में रहते थे – किसी जमाने में – तब इन सिपाहियों का काम महल की सुरक्षा करना ही था। ये बाहर युद्ध में नहीं भेजे जाते थे। सिपाहियों की पारंपरिक वेशभूषा की परंपरा सन १४०० से चली आ रही है – ऊनी कोट, गहरे नीले रंग की पोशाकें, उस पर लाल पट्टियाँ, नीला हैट आदि।”
“इन सिपाहियों को बीफ इटर्स (गो मांस खाने वाले) भी कहा जाता है क्योंकि प्राचीनकाल में राजमहल में बनने वाले खाने की शुद्धता व सुरक्षा जाँच हेतु सबसे पहले ये उसे चखकर देखते थे। ये सिपाही उन्हीं सिपाहियों के वंशज हैं और अब गाइड का काम भी करते हैं। अब यह किला एक संग्रहालय के रूप में सुरक्षित है। इसका इतिहास एक हजार वर्ष पुराना है।”
नो हार्ड शोल्डर फॉर फोर हंड्रेड यार्ड्स
मेघाच्छादित आकाश। तेज बर्फानी हवाएँ – तन, मन और आत्मा तक में सिहरन-सी भरती हुईं। रह-रहकर होती हुई बारिश। धीमी और निशब्द। गीली हवाएँ छतरी को उलट देने के लिए आतुर। डगमगाती हुई दिन की नौका। भारत में चौमास और अगहन-पूस जैसा समय। किंतु यहाँ लंदन में यह मई का एक दिन है। आकाश की अलगनी में मेघों की भारी और गीली चादरें सूख रही हैं जिन्हें हटाकर सूर्य कभी-कभी नीचे झाँकता है और धूप नीचे धरती में ऐसे उतरती है – घड़ी भर के लिए – जैसे मायावी परी हो और सहसा छप्प (अदृश्य) हो जाती है। धूप यहाँ इतनी दुर्लभ और कीमती है जैसे सोना हो। धूप का सोना तो भारत में बरसता है – बदस्तूर। जब तक अ-भाव का सामना नहीं होता; तब तक भाव की संपदा का अनुभव नहीं होता।
पीला रंग तो मांगलिक है। वह गाढ़ी-पीली धूप जिसे देखते ही विशाखापटनम में मैं केजोरिना, काजू और नारियल के जंगलों से भरे लंबे और निर्जन समुद्र तटों की यात्रा के लिए अधीर हो उठता था। धूप सूर्य की मांगलिक चिट्ठी है – धरती के नाम लिखी हुई। धूप यात्रा का मंगलाचरण है। ‘मैं जब मरूँ बाल्कनी खुली छोड़ देना’ स्पेनी कवि लोर्का ने लिखा है – ‘एक बच्चा सेब खा रहा है / मैं उसे देखता रहूँ / सेब खाते हुए / मैं जब मरूँ / बाल्कनी खुली छोड़ देना।’ पता नहीं, किस मनःस्थिति में मजबूर होकर लोर्का ने यह कविता लिखी होगी। इसके पीछे तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक कारण रहे होंगे। साधारणतः जीने की इच्छा से भरे इस संसार में मृत्यु की कामना ही अनुचित है और ऐसी कोई कामना यदि करनी ही पड़े तो वह धूप से भरा कोई उजला दिन हो – आकाश साफ और नीला – नारियल और सुपाड़ी के पेड़ हवा में डोलते हुए और रजनीगंधा-जवा कुसुम के फूलों पर तितलियाँ मँडराती हुईं।
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और धूप ही क्यों; यहाँ कहीं धूल भी नहीं है – न लंदन (इंग्लैंड) में न पूरे यूरोप में – न पत्थर की बेंचों पर जमी हुई और न हवा में उड़ती हुई। और होगी भी कैसे! जब बारहों मास बादल छाए रहते हैं, बारिश होती रहती है, बर्फ गिरती और पिघलती रहती है – मई-जून और जुलाई में। ग्रीष्म की धूप में धरती कठोर होगी, वाहनों के पहियों से टूटकर बिखरेगी, महीन होगी, तब न धूल का जन्म होगा – हवा तो यहाँ हर समय आर्द्र, गीली और ठंडी है। ‘उड़ी धूल तन सारा भर गया’ निराला याद आते हैं। कवि प्रसाद भी – संभवतः अपने उपन्यास ‘कंकाल’ में ही कहीं लिखा है – ‘फागुन के दिन थे। सोने की धूल उड़ रही थी।’ ऐसी पंक्तियाँ लिखना यहाँ यूरोप में शायद किसी भी कवि – रचनाकार के लिए संभव ही नहीं। वह देश भी क्या जहाँ धूल न हो – मन में यह विचार आया और इसके प्रति वर्जना का कोई भाव नहीं आया। घूमते-टहलते हुए सड़क किनारे घड़ी भर सुस्ताने के लिए मैं पत्थर की बेंच को उँगली से छूकर देखता हूँ कि कहीं धूल तो नहीं है। फिर भी आदतन रूमाल बिछाकर बैठता हूँ। पर जब देखता हूँ कि धूल यहाँ है ही नहीं तो कुछ दिनों बाद न उँगली से बेंच को छूकर देखता हूँ न उस पर रूमाल ही बिछाता हूँ।
प्रथम कविता संग्रह ‘अन्न हैं मेरे शब्द’ में संकलित अपनी ही एक पुरानी कविता याद आ गई – पुराने रास्ते – जिसमें मैं बरसों बाद घर-गाँव लौटा हूँ। एक रास्ते पर चलता हुआ देखता हूँ कि किनारे के पेड़ वही हैं। बस थोड़े सयाने हो गए हैं। ब्याह करने लायक बच्चों की तरह। पहले से ज्यादा चुप है तपस्वी बरगद। हवा चलने पर सिर्फ उसकी जटाएँ लहराती हैं कभी-कभी। खम्हार के पके पत्तों सी धीरे-धीरे हिल रही है दोपहर। घर वही हैं लेकिन कुछ गिर गए हैं। कुछ बन गए हैं नए। वैसी ही महीन और मुलायम है रास्ते की धूल। पाँव पड़ते ही उठती है। जैसे चौंक कर पूछती हो – भैया! कहाँ रहे इतने दिन?
सच है; पुराने रास्ते नए रास्तों में भी लगातार हमारे साथ चलते रहते हैं।
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इसे संयोग ही कहा जाए कि जब लंदन में कविता पाठ और व्याख्यान का आमंत्रण मिला तब मैं अर्नेस्ट हेमिंग्वे का उपन्यास फेयरवेल टू आर्म्स (Farewell to Arms) पढ़ रहा था। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हेमिंग्वे ने आर्मी में स्वयंसेवी रूप में एंबुलेंस ड्राइवर के रूप में कार्य किया था। घायल सैनिकों को युद्धस्थल से अस्पताल पहुँचाना उनका काम था। इस जोखिम भरे कर्तव्य का पालन करते हुए वे स्वयं बुरी तरह घायल होकर सेना के अस्पताल में भर्ती हुए थे। यहीं एक नर्स से उन्हें प्रेम हो जाता है। स्वस्थ होने के बाद जब उन्हें ड्यूटी पर वापस लौटना पड़ता है तब उन्हें पता चलता है कि उनकी प्रेमिका (नर्स) जिसके साथ विवाह और पूरा जीवन साथ बिताना उन्होंने तय किया है; उनके बच्चे की माँ बनने वाली है। बरसते पानी में अश्रुपूर्ण विदाई। स्टेशन का दृश्य और ट्रेन का चल देना।
यह उपन्यास यहीं तक अधूरा छोड़कर मुझे यूरोप के लिए निकलना पड़ा। तारीखें किसी का इंतजार नहीं करतीं। हमें वे कोई मोहलत नहीं देतीं। इस बीतते हुए समय में हम जो कुछ कर सकते हैं, कर लें। अन्यथा दिनों को तो बीत ही जाना है। तय किया कि उपन्यास लौटकर जरूर पूरा करूँगा। पूरा उपन्यास युद्ध की विभीषिका और शांति की कामना से लबरेज है। सैनिकों, बैरकों, युद्ध, अस्पताल और उस दौर के नगरों का जीवंत वर्णन। हेमिंग्वे का उपर्युक्त अनुभव ही यह उपन्यास बनकर सामने आया। उपन्यास में फ्रांस, आस्ट्निया, जर्मनी, इटली, स्पेन, इंग्लैंड की चर्चा है बल्कि ये देश कथा-क्षेत्र हैं – युद्ध क्षेत्र होने के साथ-साथ। पढ़ना आरंभ करते समय सोचा न था कि उपन्यास पूरा होने से पहले ही मुझे इन्हीं देशों की यात्रा पर निकलना पड़ेगा। कुछ यात्राएँ एक लंबे सपने की तरह होती हैं जिन्हें हम खुली आँखों से देखते हैं। एक लंबी चलती फिल्म की तरह। फिल्म जिसे हम देखते भी हैं और अभिनीत भी करते है – जिसमें कथा, पटकथा, संवाद, निर्देशन, अभिनय – सब कुछ हमारा होता है।
हेमिंग्वे यों ‘एन ओल्ड मेन एंड सी’ के संदर्भ में अधिक जाने जाते हैं पर ‘फेयरवेल टू आर्म्स’ भी उनकी श्रेष्ठ कृति है। कहते हैं, इस पर अंग्रेजी में फिल्म भी बनी है। मैंने देखी नहीं। उपन्यास में युद्ध चित्रण तो वास्तविक है पर प्रेम-प्रसंग के संदर्भ में कोई दावा तो किया नहीं जा सकता। यह हेमिंग्वे का निजी अनुभव भी हो सकता है या कोई कल्पित प्रसंग – किसी अन्य चरित्र का संदर्भ। यों भी उपन्यास ‘इतिहास’ नहीं होता; ‘ऐतिहासिक’ होता है।
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कवितापाठ और व्याख्यान आश्चर्यजनक रूप से सफल रहा। खचाखच भरा सभागार। दिव्या माथुर, सत्येंद्र श्रीवास्तव और पद्मेश गुप्त का श्रम इस कार्यक्रम में लगा था। और भी कई साथी। मैं स्वयं को लेकर आशंकित था क्योंकि फ्लाइट में रातभर जागता आया था और दिनभर कोलकाता में भी विश्राम का कोई प्रश्न नहीं था। १९ मई २०१३ रविवार की सुबह भी एयरपोर्ट और कस्टम की औपचारिकताएँ गेटविक एयरपोर्ट में। फिर नाश्ते के बाद लंदन भ्रमण। बीच में ट्रेफलगर स्क्वायर में मैं उतर गया। इसी जगह मुझे श्रीमती चाँद चैज़ल (फिल्म मेकर, लेखिका और पत्रकार) लेने आने वाली थीं – कार्यक्रम के लिए। मुझे लिवाने की जिम्मेदारी उन्हीं की थी। उनके पास कार नहीं थी। उन्हें मेट्रो से आना था लेकिन रविवार होने के कारण बीच-बीच के स्टेशन मरम्मत कार्य और साफ-सफाई की वजह से बंद थे। उन्हें भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। वे बस बदल-बदल कर मुझ तक पहुँची – दो घंटे विलंब से। दिव्या माथुर फोन पर थोड़ी-थोड़ी देर में इस आसन्न संकट की सूचना देती हुईं; अफसोस प्रकट करती हुईं मुझे गाइड भी करती जा रही थीं कि मुझे अपने समय का सदुपयोग करते हुए अकेले ही कहाँ-कहाँ घूम लेना चाहिए – चाय, कॉफी, नाश्ता, मुझे कहाँ करना चाहिए, आदि-आदि। लंदन में एकदम अकेला और पहला ही दिन। मैं रोमांचित था। कोई डर-भय नहीं। लोगों से संक्षिप्त बातचीत करता मैं यहाँ-वहाँ घूमता रहा।
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ट्रेफलगर स्क्वायर लंदन का एक विख्यात चौक है जहाँ एक बड़ा-सा आँगन (Court Yard) है जहाँ बड़े-बड़े दो फव्वारे हैं। शेरों की चार विशाल काले रंग की मूर्तियाँ हैं। असंख्य कबूतरों का आवास भी यह कोर्ट यार्ड है। घूमने-फिरने बैठने की पर्याप्त जगह। इसके पीछे नेशनल आर्ट गैलरी, पीने के पानी की व्यवस्था, चाय-कॉफी नाश्ते का खुला कैंटीन, लकड़ी की बेंचें आदि हैं। एक सुंदर जगह। इस चौक में १४५ फीट के ऊँचे चबूतरे पर १८ फीट ऊँची एडमिरल नेलसन की कांस्य मूर्ति स्थापित है जो इंग्लैंड का एक बहादुर योद्धा था। सन १८०५ में नेपोलियन ने ब्रिटेन पर हमला किया था और इस चौक में ऐतिहासिक युद्ध हुआ था। एडमिरल नेलसन के रणकौशल के कारण नेपोलियन को हार का सामना करना पड़ा था। ब्रिटेन की विजय हुई किंतु घायल नेलसन की मृत्यु की कीमत पर। यह चौराहा उसी बहादुर योद्धा की स्मृति में बनाया गया है।
इस स्क्वायर से लगी हुई नेशनल आर्ट गैलरी है। एक विशाल भवन। पिछले लगभग पाँच सौ वर्षों के चित्रों का संग्रह यहाँ किया गया है। अनेक ज्ञात-अज्ञात और विख्यात चित्रकारों की पेटिंग यहाँ लगी हुई है। बहुत सी पेटिंगें ऐसी भी हैं जो कला प्रेमियों द्वारा भेंट की गई हैं। नेशनल आर्ट गैलरी के एक कक्ष में भारत के अनेक बहुमूल्य चित्रों को भी सजाकर रखा गया है। ये दुर्लभ चित्र हमारे राजा-महाराजाओं द्वारा अंग्रेजों को उपहारस्वरुप भेंट किए गए होंगे या खरीद कर लाए गए होंगे। बहरहाल, इन्हें लंदन में देखना एक प्रीतिकर अनुभव था।
आर्ट गैलरी से मैं बाहर निकला। मुझे प्यास लग रही थी। एक कैफे में जाकर पानी पिया और सामने की बेंच पर बैठ गया। यहाँ प्रायः खुले रेस्तराँ और कैफे देखने को मिलते हैं। अंदर कक्ष भी है और बाहर भी कुर्सियाँ-बेंचें लगी हुई हैं। लोग प्रायः बाहर बैठना पसंद करते हैं। जगह की कमी है नहीं। ट्रैफिक की भी कोई समस्या नहीं। विरल जनसंख्या। यों लंदन एक भीड़ भरा नगर है। मेरे पास यूरो (यूरोपियन मुद्रा) तो पर्याप्त थे, लेकिन ब्रिटिश मुद्रा पाउंड पचास ही थे। सुबह गेटविक एयरपोर्ट में मैंने चिल्हर करवा लिए थे – पचास की जगह दस-दस के पाँच नोट। एक पाउंड लगभग ८०-८५ भारतीय रुपयों के बराबर होता है, लेकिन मेरे पास सिक्के नहीं थे जिन्हें यहाँ पेन्स (Pence) कहा जाता है। हिसाब-किताब समझने में एक-दो दिन लगेंगे। आज पहला ही दिन था। कॉफी खरीदने कैफे में गया। सेल्फ सर्विस पूरे यूरोप में है, लेकिन कॉफी की तीखी गंध से बिदक कर बाहर आ गया। मुझे तो खूब दूध, कम पत्ती वाली मीठी चाय पसंद है। कौन जायका बिगाड़े।
इस बीच दिव्या माथुर और चाँद चैज़ल के फोन आते रहे। पुनः फोन की घंटी बजी। मैं इंतजार कर ही रहा था। यों समय व्यर्थ नहीं गया। फिर बाद में इस स्क्वायर और आर्ट गैलरी को देखने का वक्त नहीं था। इस बार चाँद चैज़ल थीं। वे आ गई थीं और शेर की प्रतिमा के पास मेरा इंतजार कर रही थीं। उनके दो-तीन छाया चित्र भारत में ही मुझे मेल का दिए गए थे ताकि मैं उन्हें पहचान सकूँ। मेरी फोटो उन्हें मेल कर दी गई थी। मैंने अपने कपड़ों का रंग बताया और पीठ पर काले शोल्डर बैग का हवाला दिया – पहचान के लिए। उन्होंने बताया कि वे काले लिबास में हैं। पर काला तो यहाँ सभी ने पहन रखा है। काला परिधान ब्रिटेन का प्रिय परिधान है – स्त्री हो या पुरुष। थोड़ी दिक्कतों और दो-चार फोन के बाद हम दोनों एक-दूसरे के सामने थे।
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लंदन का प्रमुख बाजार आक्सफोर्ड स्ट्रीट में है। यह लंदन की प्रसिद्ध सड़क है। यों बेंट क्रॉस, बौंड स्ट्रीट, साउथ हाल आदि भी अन्य प्रमुख बाजार हैं। आक्सफोर्ड स्ट्रीट का विश्व प्रसिद्ध बाजार लगभग ढाई किलोमीटर लंबा है। सड़क के दोनों ओर विशाल भवनों में डिपार्टमेंटल स्टोर हैं। करोड़ों का व्यवसाय यहाँ होता है। टेलीविजन स्क्रीन से ग्राहकों को देखा जाता है। सुंदर साफ और आवाजाही से भरपूर सड़क। लाल डबलडेकर बसें जब-तब सड़क से गुजरती हुईं।
एक युवक पत्थर की बेंच पर बैठकर टिफिन करता हुआ। उससे कुछ दूर एक उम्रदराज मगर तंदुरुस्त आदमी शहनाई जैसा वाद्य – बैगपाइपर (bagpiper) बजा रहा था। उसने काला लबादा गाउन पहन रखा था। कपड़े-जूते ठीक-ठाक पहन रखे थे। हैट भी लगा रखा था। उसके सामने जमीन पर काठ और कपड़ों का बना संदूकनुमा बाक्स था। बाक्स में कुछ सिक्के थे। वह खड़ा होकर वाद्य बजा रहा था। उसके गाल वाद्य बजाने के कारण फूल-फूल जा रहे थे जैसे हमारे यहाँ भी शहनाई बजाते समय या शंख फूँकते समय। लोग उसके सामने से अदब से गुजर रहे थे। एक-दो लोगों ने उसे अभिवादन भी किया। कुछ लोग करीब जाते और झुककर बाक्स में पेंस (सिक्के) डाल देते। दूर से फेंकता कोई नहीं था। वह एक भिखारी था लेकिन यहाँ उसे स्ट्रीट आर्टिस्ट (सड़क कलाकार) कहा जाता है। भिक्षा या दान भी यहाँ कला के माध्यम से लिया जाता है। कोई माँगता या गुहार नहीं लगाता। या तो चुप बैठा रहता है या संगीत कला या गायन के माध्यम से वह लोगों का ध्यान आकृष्ट करता है। यह दृश्य मुझे सुखद विस्मय से भर गया। मैं देर तक उसे वाद्य बजाते देखता-सुनता रहा। पास में पेन्स (सिक्के) न होने का अफसोस हुआ। भिक्षा के लिए यहाँ हाथ फैलाने की परंपरा नहीं है।
इसी बाजार में कुछ आगे जाने पर एक गरीब-सा फटेहाल आदमी दिखा – फटी जींस, मैली टी-शर्ट, उलझे बाल। नंगे पाँव वह था। एक चमकदार बाजार में जैसे कोई अँधेरा अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा हो। उस अँधेरे में भी झिलमिल तारे होंगे। पर उन्हें देखने के लिए एक अलग दृष्टि की जरूरत होगी।
वापस लौटकर हम मैकडोनाल्ड कैफे में घुसे। शंभु बादल जी हमारे साथ हैं। एक कप कॉफी पीकर कुछ तरोताजा होकर हम बाहर निकले। शंभु जी चाय-कॉफी पीते नहीं। उन्होंने बस पानी पिया। सामने ही लंबा-चौड़ा हाइड पार्क था।
इंग्लैंड में पूरे वर्ष थोड़ी-थोड़ी बारिश होती रहती है। जलवायु ठंडी है। जाड़े में बर्फ गिरती है। लेकिन नदियों और समुद्र का कोई हिस्सा जमता नहीं। टेम्स यहाँ की प्रमुख नदी है जो नगर के बीचों-बीच बहती है। हंबर, मर्सी और टाइन नदियाँ भी हैं। ओक, रोवान, मैपल, पाइन, चेरी तथा पोपलर के पेड़ यहाँ बहुतायत में देखने को मिलते हैं। गेहूँ, जौ, आलू, चुकंदर को प्रमुख कृषि उपज कहा जा सकता है। यहाँ की मुख्य खनिज संपदा कोयला है। इसके अतिरिक्त अनेक उद्योग हैं।
हाइड पार्क लंदन के प्रमुख पर्यटन स्थल में सम्मिलित है। तीन सौ इकसठ एकड़ में फैला यह दुनिया का सबसे बड़ा पार्क है। इसके बीचों-बीच सरपेंटाइन झील है। पार्क में अनेक प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। लंदन में इसके अलावा केसिंगटन, सेंट जेम्स तथा रीजेंट पार्क भी हैं। लेकिन हाइड पार्क जैसा कोई नहीं। घुड़सवारी से संबंधित अनेक मूर्तियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं। हरी उजली घास के लंबे चौड़े मैदान, सफेद नन्हें फूलों से भरे। उनके किनारे और बीच में लंबे-चौड़े-पक्के फुटपाथ। लकड़ी और पत्थर की बेंचें। फूलों के पौधे, वृक्ष – मन मोह लेने वाले दृश्य। झील में नौका विहार की सुविधा भी है।
हाइड पार्क में एक ओर पशुओं की प्रतिमाएँ बनी हैं जिनमें प्रायः घोड़े हैं। ये प्रतिमाएँ उन पशुओं की स्मृति में बनी हैं जो युद्ध में मारे गए। एक बोर्ड लगा है -एनीमल्स इन वार (Animals in war) यह अनुभव नया था। पशुओं के प्रति ऐसा प्रेम और श्रद्धा भाव अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिला कि जहाँ उनकी मृत्यु के बाद भी उन्हें इस तरह याद किया गया हो।
हाइड पार्क कबूतरों से भरा है। एक युवा माँ – उसका नाम जूलियाना था – अपने दो वर्ष के बेटे को पैरंबुलेटर (Parambulator – बच्चा गाड़ी) में घुमाने लाई थी। बच्चा एक कबूतर के पीछे दौड़-दौड़कर उसे उड़ाने की चेष्टा कर रहा था और कबूतर भी उड़ नहीं रहा था, दौड़ रहा था। जब बच्चा नहीं उड़ रहा तो कबूतर क्यों उड़े! कबूतर भी जैसे खेल में शरीक। बच्चे से दूर न जाना चाहता हुआ। प्रकृति, हरियाली, फूल-पौधे, पक्षी-बच्चों की कल्पना को पंख देते हैं। उड़ान को देखे बिना उड़ने की कल्पना असंभव है।
एक युवक घास की ढलान पर बैठकर खाना खा रहा था। उसका नाम सलीम था। एक और कैरिबियन युवक से पार्क में मुलाकात हुई। दोनों से कुछ बातचीत हुई। एक युवक (शायद सैलानी) पार्क की हरी घास पर सफेद रजाई ओढ़ कर सोया हुआ था – शोल्डर बैग का तकिया बनाए। साथ में उसके ग्रुप के लड़के-लड़कियाँ बातचीत में मशगूल थे। दूर तक घास में नन्हें सफेद फूल खिले दिखाई दे रहे थे। क्या अभी वसंत है!
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एक जगह ११ स्ट्रैंड रोड देखकर ठिठक गया। कोलकाता में पिछले नौ वर्षों से हूँ। हुगली (गंगा) के किनारे स्ट्रैंड रोड है। कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट का पता १५ स्ट्रैंड रोड है। अँग्रेज लंबे समय तक कोलकाता में रहे। सड़कों के नाम और भवनों के स्थापत्य और खिड़की-दरवाजों की शैली में उनकी स्पष्ट छाप है।
लंदन में सूर्योदय सुबह पाँच के आसपास होता है – प्रायः पूरे यूरोप के देशों में ही लगभग यही समय है और सूर्यास्त साढ़े नौ तक। इतनी लंबी शाम या शाम जैसी रात। रात कितनी छोटी। दिन कितना बड़ा। नींद के घंटे कम। काम के घंटे ज्यादा। यों कार्यालय समय आठ घंटों का ही है लेकिन यदि कोई स्वेच्छा से निजी कार्य अधिक करना चाहे तो दिन के घंटे उसे यह गुँजाइश देते है। अँधेरा घिरने से तो रात का एहसास तीव्र हो जाता है – थकान और नींद और सपने। अँधेरा हो जाने के बाद जगमगाते लंदन की सड़कों पर घूमते हुए सहसा निर्मल वर्मा की एक कहानी याद आती है – ‘लंदन की एक रात।’ लंदन ही क्यों; पूरे यूरोप के नगरों में निर्मल वर्मा की कहानियों का प्रिय मौसम दिखाई देता है – बादल, बारिश, बर्फ, कोहरे, धुंध, कुहासा। निर्मल वर्मा की कहानियों में, उपन्यासों में एक रहस्य है; एक कुहासा। पाठकीय प्रज्ञा की धूप ही इस कुहासे को काटती है।
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टेम्स के किनारे टहलते हुए उषा प्रियम्वदा के किसी उपन्यास (शायद ‘शेष यात्रा’) में उद्धृत एक कविता की स्मृति कौंध जाती है –
नदी का नाम टेम्स हो या गोमती
तुम्हें छूकर
वह गंगा है।
पता नहीं; किसकी कविता है। स्वयं उषा प्रियम्वदा की तो नहीं?
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google से साभार
मैडम टूसोज म्यूजियम (वैक्स म्यूजियम) में मोम के पुतले या मूर्तियाँ हैं – जीवित और बोलती हुईं-सी। लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व मैडम टूसोज ने मोम की मूर्तियाँ बनाना आरंभ की थी। बाद में उन्होंने अपनी अभिरुचि को म्यूजियम में बदल दिया। एक वेटर रेलिंग के पास झुका खड़ा है। उसके हाथ में ट्रे है, जिसमें बोतल और गिलास रखे हुए हैं। वह पूरा मोम का बना था वास्तविक दिखता था। महापुरुषों, राजनीतिज्ञों, खिलाड़ियों, अभिनेता-अभिनेत्रियों की अनेक मूर्तियाँ। मैडम टूसोज का जन्म स्वीटजरलैंड में १७६१ ई. में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मारी ग्रोसेर्ज था। सन १८०२ में वे इंग्लैंड में आकर बस गईं। फ्रांसीसी क्रांति के समय बहुत से ख्यात, ज्ञात-अज्ञात लोगों के सिर बतौर सजा सार्वजनिक रूप से गिलोटिन से काट दिए जाते थे। मैडम टूसोज इन्हीं कटे हुए सिरों को देखकर अपने मॉडल तैयार किया करती थीं। सन १८५० में उनकी मृत्यु के बाद भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोगों की मोम की मूर्तियाँ बनाने का काम अन्य कलाकारों के द्वारा जारी है।
टॉवर ऑफ लंदन टेम्स ब्रिज के करीब एक किलेनुमा महल है। टॉवर का अर्थ यहाँ मीनार नहीं; बल्कि छोटा किला है। टेढ़े-मेढ़े पत्थरों की मोटी दीवारें, जंग लगे लोहे से जड़े काठ के बड़े-बड़े दरवाजे। भीतर सुरक्षाकर्मी सिपाही पारंपरिक वेशभूषा में रहते हैं। ये ‘यूमन वार्डर’ कहलाते हैं। जब इंग्लैंड के राजा-रानी महल में रहते थे – किसी जमाने में – तब इन सिपाहियों का काम महल की सुरक्षा करना ही था। ये बाहर युद्ध में नहीं भेजे जाते थे। सिपाहियों की पारंपरिक वेशभूषा की परंपरा सन १४०० से चली आ रही है – ऊनी कोट, गहरे नीले रंग की पोशाकें, उस पर लाल पट्टियाँ, नीला हैट आदि।
इन सिपाहियों को बीफ इटर्स (गो मांस खाने वाले) भी कहा जाता है क्योंकि प्राचीनकाल में राजमहल में बनने वाले खाने की शुद्धता व सुरक्षा जाँच हेतु सबसे पहले ये उसे चखकर देखते थे। ये सिपाही उन्हीं सिपाहियों के वंशज हैं और अब गाइड का काम भी करते हैं। अब यह किला एक संग्रहालय के रूप में सुरक्षित है। इसका इतिहास एक हजार वर्ष पुराना है।
किसी जमाने में किले के चारों तरफ बनी खाई में सुरक्षा की दृष्टि से टेम्स नदी का पानी सीधे लाया जाता था। किले की दीवार में बने लोहे के गेट को खोलकर छोटी नावों में कैदियों को लाया जाता था। इस गेट को ‘ट्रेटर्स गेट’ (देश-द्रोहियों को लाने वाला रास्ता) भी कहते हैं। अधिकांश अपराधियों की सजा मृत्युदंड होती थी। उनका सिर गिलोटिन से काट दिया जाता था। अनेक राजकुमार-राजकुमारियों को कैदकर उनकी गुप्त हत्या भी कर दी जाती थी। इस किले को यातना शिविर भी कहा जा सकता है। पति के साथ बेवफाई करने वाली रानियाँ भी यहाँ मार डाली जाती थीं। इस टॉवर में ज्वेल हाउस भी है। भारत का कोहिनूर हीरा यहाँ सुशोभित है। टॉवर ऑफ लंदन में कव्वे बहुतायत में हैं। इन्हें शुभ पक्षी माना जाता है और खिलाया-पिलाया जाता है। दूर जाने से रोकने के लिए इनके पंख कतर दिए जाते हैं। किंवदंती है कि प्राचीनकाल में राजा को किसी भविष्यवक्ता ने बताया था कि जब तक कव्वे हैं; तभी तक टॉवर सुरक्षित रहेगा।
लंदन में देखने-घूमने लायक अनेक जगहें हैं – टेम्स नदी, बकिंघम पैलेस, नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम (डायनासारस के कंकाल यहाँ रखे हैं), ब्रिटिश म्यूजियम (शेक्सपियर की एक कृति यहाँ रखी है), विक्टोरिया अल्बर्ट म्यूजियम, लंदन संग्रहालय, नेशनल आर्ट गैलरी, ट्रेफलगर स्क्वायर, मेट्रो (भूमिगत रेल), प्राचीन इमारतें, नगर, बाजार, पार्क, रेस्तराँ, आक्सफोर्ड स्ट्रीट, गिनीज वर्ल्ड ऑफ रिकार्ड म्यूजियम, लंदन ट्रांसपोर्ट म्यूजियम, साइंस म्यूजियम आदि-आदि। घूमने के लिए जगहें और छूने के लिए ऊँचाइयाँ संसार में कभी खत्म नहीं होतीं।
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साभार google से
चाँद चैज़ल के पास खुले पैसे अर्थात पेन्स नहीं थे। मेट्रो (भूमिगत रेल) स्टेशन में कंप्यूटराइज्ड मशीन में मेरी टिकट के लिए उन्हें सिक्के डालने थे। वे परेशान हो रही थीं। मैंने दस का पाउंड बढ़ाया लेकिन पाउंड उनके पास भी थे। पेन्स ही चाहिए थे। मेरे रुपए उन्होंने नहीं लिए। मैं अतिथि जो ठहरा। मेट्रो ट्रेन को यहाँ ट्यूब कहते हैं। मेट्रो की मंथली टिकट कोलकाता की तरह स्मार्ट कार्ड न कहलाकर ओयस्टर (Oyster) कहलाती है। शायद एक ही ओयस्टर में दो या अधिक लोग यात्रा कर सकते हैं लेकिन रविवार की व्यस्तता और हड़बड़ी में घर से निकलने के कारण वे ओयस्टर रखना भूल गई थीं जो कि आज की विधिवत यात्रा की योजना का एक हिस्सा था। सर्वप्रथम तो बीच-बीच में मेट्रो स्टेशन का साफ-सफाई और मरम्मत आदि कारणों से बंद होने के कारण वे बस बदल-बदलकर दो घंटे विलंब से मुझे लेने ट्रेफलगर स्क्वायर पहुँच पाई थीं, और अब यहाँ टिकट के लिए चिल्हर की परेशानी। जाड़ों जैसे मौसम में भी उनके गोरे मुखड़े पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आई थीं। ट्रेफलगर स्क्वायर में मुलाकात और औपचारिक बातचीत के बाद वे तुरंत मुझे स्क्वायर के करीब ही सड़क पार करके चेयरिंग क्रॉस मेट्रो स्टेशन ले आई थीं। हमें वाटर लू स्टेशन के लिए ट्रेन पकड़नी थी। फिर वाटर लू (जो कि जंक्शन जैसा स्टेशन था) से मेट्रो बदलकर डॉलिस हिल (Dollis Hill) जाना था – दिव्या माथुर जी के घर – उनके फ्लैट में – योजना यह थी कि पहले उनके घर में मैं हाथ-मुँह धोकर, थोड़ा सुस्ताकर, कपड़े बदलकर (यदि मैं चाहूँ) और खाना खाकर (जो वह मेरे लिए बनाकर रख गई थीं) कार्यक्रम स्थल के लिए रवाना होऊँ। अभी दोपहर थी। कार्यक्रम शाम को था। लेकिन वे मेरे इंतजार में घर में अधिक नहीं रुक सकती थीं क्योंकि उन्हें कार्यक्रम स्थल में जाकर तैयारियाँ करनी थीं। व्यवस्थागत और मेट्रोगत विलंब के कारण खेद प्रकट करके वे कार्यक्रम स्थल के लिए निकल गई थीं। फ्लैट की सीढ़ियों के नीचे डोर मेट (Door mat) था और उसके नीचे वह फ्लैट की चाबी गोपनीय तरीके से छुपाकर रख गई थीं। चाँद चैज़ल को यह राज मालूम था। मैंने दिव्या जी को निश्चिंत होकर कार्यक्रम स्थल में जाने के लिए कह दिया था कि वे मेरी चिंता न करें।
अंततः ढूँढ़-ढाँढ़ कर अपने पर्स से चाँद चैज़ल ने साढ़े चार पाउंड निकाले अर्थात भारतीय रुपयों में लगभग ४०५ रुपए। एक पाउंड लगभग ८४-८५ रुपए और एक यूरो लगभग ७२ रुपये के बराबर होता है। जबकि अमेरिकी डॉलर ५६ रुपए के आस-पास पड़ता है।
ओयस्टर (मंथली या लंबी अवधि का टिकट) सस्ता पड़ता है। इस तरह एक टिकट बस या मेट्रो में लंदन में अत्यंत महँगा है। कोलकाता में दमदम से कवि नजरुल – प्रारंभ से अंतिम स्टेशन का कुल मेट्रो किराया १३ रुपए मात्र है। उसकी तुलना में ४०५ रुपए का यहाँ एक टिकट था। इतना तो कोलकाता से रायपुर (छत्तीसगढ़) के आरक्षित टिकट का मूल्य नहीं है – स्लीपर क्लास में। जबकि कोलकाता से रायपुर ८३६ कि.मी. है – चौदह घंटे का रास्ता।
सो मैंने दाँतों तले उँगली दबाई। रास्ते में यात्रा के दौरान (सुसज्जित मेट्रो ट्रेन में जिसमें गिनती के मुसाफिर थे) चाँद चैज़ल ने बताया कि उन्हें यहाँ रहते चालीस वर्ष हो गए हैं। वे भारत में चंडीगढ़ की हैं लेकिन अब गोवा में बसना चाहती हैं क्योंकि लंदन तो बहुत महँगा है। मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा – चंडीगढ़ की होने के बावजूद गोवा में बसने का फैसला क्यों? तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से उत्तर दिया ‘क्योंकि चंडीगढ़ में गर्मी बहुत है। पिछली बार वे गई थीं तो उन्हें दिन में चार बार नहाना पड़ता था।’
यह सुनते ही सारे शिष्टाचार भूलकर मैं जोर से ठहाका लगाकर हँस पड़ा – ‘तब तो आपको लंदन में ही रहना चाहिए।’ मेट्रो में बैठे अँग्रेज चौंक कर मेरी तरफ देखने लगे। चाँद चैज़ल झेंप गईं।
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डॉलिस हिल मेट्रो स्टेशन से दिव्या जी (माथुर) का घर अधिक दूर नहीं था – वाकिंग डिस्टेंस – पैदल भर की दूरी। हम धीरे-धीरे आगे बढ़े। इंग्लैंड और पूरे यूरोप का ट्रैफिक नियम भारत से ठीक विपरीत है। हमें सड़क पर बाएँ चलना पड़ता है, यूरोप में दाएँ। बस आदि वाहनों में भी ड्राइवर की सीट दाएँ न होकर बाएँ स्थित होती है। चाँद चैज़ल ट्रैफिक नियम के विपरीत बाएँ चल रही थीं – सड़क पर – यद्यपि सड़क खाली थी – फिर भी लोग ट्रैफिक नियमों का कठोरता से पालन करते हैं। मैंने जिज्ञासावश पूछा – ‘क्या दिव्या जी का घर सड़क की बाईं ओर है?’ (जिधर हम लोग चल रहे हैं?)
‘नहीं।’ उन्होंने कहा – ‘दाईं ओर’
‘फिर?’ मैंने नियम भंग का कारण जानना चाहा।
‘अभी धूप निकली है न’ – उन्होंने मुस्कुरा कर कहा।
तब मैंने ध्यान दिया। धूप निकल आई थी। दुर्लभ धूप। सोना धूप। परी धूप। मायावी धूप। भारत में यत्र-तत्र सर्वत्र यह सोना फैला है। कभी-कभी जिससे बचने के लिए लोग छतरी तान लेते हैं या छायादार पेड़ के नीचे खड़े हो जाते हैं। दाईं तरफ डबल स्टोरी बिल्डिंगों की छाया थी। सड़क की बाईं ओर फुटपाथ पर धूप पड़ रही थी। याद आया कि धूप से विटामिन डी बढ़ता है। इसकी कमी से शरीर में सफेद चकत्ते पड़ते हैं। ओह! तो अब समझ में आया (चूँकि इंग्लैंड में हूँ इसलिए; आई सी I see) कि सन बाथ (सूर्य स्नान या धूप स्नान) की परंपरा इंग्लैंड और यूरोप से ही आरंभ हुई होगी। हिंदी फिल्मों में जब-तब इसकी फूहड़ नकल देखी जा सकती है। हमारे यहाँ इसकी आवश्यकता ही नहीं। काम करते हुए ही कई-कई बार सन बाथ हो जाता है और उसके बाद या साथ पसीना स्नान (Sweat Bath) होता है सो अलग। क्या बढ़िया! पहले धूप की हल्दी का उबटन। फिर स्वेद-जल से स्नान। सन बाथ यहीं के निवासियों को मुबारक हो।
चाँद चैज़ल ने डोरमेट से चाबी निकालकर फ्लैट खोला। थोड़ी ही देर में पद्मेश गुप्त और शोभा माथुर (दिव्या माथुर की बड़ी बहन; जो भारत में ही रहती हैं। अभी दो माह के लिए आई हुई हैं) आने वाले हैं। दिव्या जी का फ्लैट सुंदर और साफ है। करीने से सजा हुआ। डबल बेड रूम। फर्स्ट फ्लोर। एक जैसे भवन सड़क की दोनों ओर। ग्राउंड फ्लोर में एक फ्लैट और फर्स्ट फ्लोर (हिंदी में दूसरी मंजिल) में एक फ्लैट। बस। खिड़की के शीशे से भीतर धूप अभी भी आ रही है। बाहर अनेक वृक्ष सफेद फूलों से भरे लहरा रहे हैं। अभी वसंत है। पुनः याद आया। पुनः लोर्का भी – ‘मैं जब मरूँ बालकनी खुली छोड़ देना।’
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दिव्याजी खाना बना गई हैं। दाल (शायद मूँग और राजमा को मिलाकर बनाई गई थी), भात (चावल) और जरी (छत्तीसगढ़ी में, बाँग्ला में डाटा; चौलाई शाक जैसे पत्ते; अर्ध आदमकद पौधे। इस पौधे का तना, जड़ें भी खाई जाती हैं) डाल कर बनाई गई मिश्रित सब्जी। जरी न हो तो भी वैसा ही स्वाद था। रोटी भी थी। मगर वह खरीदी हुई थी – चैज़ल ने बताया। रोटी मोटी थी और गोल नहीं थी – कुछ अंडाकार-सौंफ-सुपाड़ी की तश्तरी की तरह गोल और लंबवत थी। खाना बहुत स्वादिष्ट था। चैज़ल जी ने गर्म किया था। वे स्वयं भी साथ में खा रही थीं। मैं भूखा भी था। दोपहर के साढ़े तीन बज रहे थे। चार बजे निकलना था। पाँच से कार्यक्रम। एक घंटे का रास्ता। समय बिल्कुल नहीं था। एक बिस्कुट जैसा लेकिन आकार में बड़ा; गोल; छोटी रोटी जैसा व्यंजन भी दिया गया जो बाहर से हल्का मीठा और भीतर अधिक मीठा था। उसमें कत्थई मीठा मसाला भरा हुआ था। नाम मैं भूल गया। बाद में कार्यक्रम से लौटते हुए मैंने दिव्या जी से खाने की तारीफ की तो उन्होंने कहा – परसों ही बनाकर रख दिया था कि आप आने वाले हैं। मैं अवाक। एक ओर मेहमानों को ताजा और गरम खाना खिलाने वाला भारतवर्ष और दूसरी ओर…! मगर आदमी क्या करे? मजबूरी है। वे अप-डाउन करती हैं। प्रत्येक शुक्रवार को। सोम सुबह आती हैं। लंदन से बाहर दूर वे रहती हैं। केवल चार रातें लंदन में रहती हैं। मैं रविवार पहुँचा था। वे मेरे कारण ही लंदन आई थीं। पद्मेश गुप्त और शोभा माथुर आ गए थे। औपचारिक मुलाकात, अभिवादन के बाद हम जल्द घुलमिल गए। मैं जल्दी तैयार हो कर आ गया। सब साथ निकले। रास्ते भर बातचीत चलती रही। कार्यक्रम स्थल में दिव्या जी से पहली मुलाकात। भद्र महिला। (बेहतरीन कथाकार तो हैं ही) कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा – कविता पाठ और व्याख्यान। खचाखच भरा सभागार। इतने लोगों को देख आश्चर्य हुआ। हमारे यहाँ दुनियावी व्यस्तताओं के चलते कार्यक्रमों में उपस्थिति प्रायः इतनी नहीं होती। लौटते में शोभा जी से कारण जानना चाहा कि क्या लोग यहाँ बहुत सामाजिक हैं?
‘सामाजिक नहीं होंगे तो क्या करेंगे’ – शोभा जी ने बताया – ‘लोग यहाँ प्रायः अकेले रहते हैं। कोई कितना टी.वी. देखेगा। ऐसे कार्यक्रमों में अकेलेपन से मुक्त होने भी लोग आते हैं।’
मैं पुनः अवाक। ऐसे उत्तर की अपेक्षा न थी।
बहरहाल कार्यक्रम में हिंदी कवि मोहन राणा से पहली बार मिला। कथाकार उषा राजे सक्सेना, कवयित्री कविता वाचक्कनवी से मुलाकात हुई। सत्येंद्र श्रीवास्तव (जो अब कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत्त हो गए हैं) से पहली मुलाकात हुई। कितने वर्षों से उन्हें पढ़ता रहा हूँ। डॉ. नंदाकुमार (संस्कृत कवि), हिलाल फरीद (उर्दू कवि), युट्टा ऑस्टिन (जर्मन कवयित्री), इंडिया रसेल (अँग्रेजी कवयित्री), नटराज (मलयालम कवि), श्रीमती शैल अग्रवाल और शिखा (हिंदी कवयित्रियाँ) आदि। और भी कई साथी। क्या भूलूँ! क्या याद करूँ। मेरी कविताओं के अँग्रेजी अनुवाद का पाठ चाँद चैज़ल ने प्रस्तुत किया। इन कविताओं का हिंदी से अँग्रेजी अनुवाद भारत की वरिष्ठ हिंदी कवयित्री सुनीता जैन ने किया था। कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन डॉ. पद्मेश गुप्त ने किया। इति कार्यक्रम नामा।
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कार्यक्रम के बाद एक भारतीय रेस्तराँ में रात्रि-भोज का आयोजन था। होटल का नाम दिलचस्प था – इंडिया जिला। अपने देश को याद करने के बहुसंख्य तरीके हो सकते हैं। सरलीकरण ही सही पर अच्छा लगा।
खाना समाप्त होने के बाद बचे हुए भोजन को (विशेषकर सब्जियाँ – जो जूठी नहीं थीं और खाने की प्लेट से बाहर थीं) घर ले जाने के लिए पैक करवा लिया गया। यह कुछ नया लगा। शायद अत्यधिक महँगाई के कारण ऐसा हो।
खाना खाते हुए दिव्या जी की बातचीत का एक संदर्भ मन को छू गया। उन्होंने बताया कि अब घर (भारत) जाना अच्छा तो लगता है लेकिन घर में अब वह बात नहीं रही जो माँ के रहने से थी। यद्यपि भाई-भाभी सभी बड़े प्रेम से मिलते हैं और ध्यान रखते हैं पर माँ की अनुपस्थिति से घर का अर्थ जैसे खो गया है।
स्त्री हो या पुरुष – प्रत्येक के जीवन में माँ एक धुरी होती है – मैं सोचने लगा – जीवन और संसार की धरती जिस पर घूमती है।
रात्रि भोज के बाद मुझे होटल छोड़ने का दायित्व डॉ. पद्मेश गुप्त का था। मेरा होटल क्राउन प्लाजा हीत्रो में था। हीत्रो एक एरिया का नाम था जहाँ एयरपोर्ट भी था – हीत्रो एयरपोर्ट। यद्यपि हम गेटविक (Gatvick) एयरपोर्ट में उतरे थे – भारत से जब लंदन आए थे। लंदन में तीन-चार एयरपोर्ट हैं।
डॉ. पद्मेश ऑक्सफोर्ड में रहते हैं और वहीं एक कॉलेज (महाविद्यालय) चलाते हैं। (अर्थात उसके मालिक हैं) ऑक्सफोर्ड लंदन से लगभग 80 मील (Miles) की दूरी पर है। यहाँ पूरे यूरोप में माइल्स (मील) चलता है; किलोमीटर नहीं। लगभग १.५ कि.मी. का एक मील होता है। यह आँकड़ा कुछ कम बढ़ भी हो सकता है। हीत्रो में होटल क्राउन प्लाजा आक्सफोर्ड के रास्ते में पड़ता है। अतः मुझे होटल छोड़ने की जिम्मेवारी पद्मेश जी ने ले ली थी। मैं रातभर फ्लाइट में और कोलकाता में दिनभर जागता आया था। आज भी दौड़ भाग।
‘सुबह हो गई है’ – मैंने कुछ चिंतित स्वर में कहा।
‘सुबह कहाँ?’- पद्मेश जी ने कहा – ‘रात के साढ़े ग्यारह ही बजे हैं।’
भारत लंदन से लगभग पाँच-साढ़े पाँच घंटे आगे है। लंदन में रात साढ़े ग्यारह का मतलब भारत में सुबह के लगभग पाँच।
‘इस तरह सोचेंगे तो पैनिक (Panic) होते रहेंगे’ – डॉ. पद्मेश ने मुस्कुराकर कहा – ‘यहाँ हैं तो यहीं के समय को ध्यान में रखिए।’
मेरी बाईं कलाई में एक नई घड़ी बँधी थी जिसमें भारत का समय था। यहाँ आते समय घर से एक पुरानी घड़ी भी लेता आया था, जिसे मैंने (शिष्टाचार की परवाह न करके) दाईं कलाई में बाँध रखा था। इस पुरानी घड़ी में इंग्लैंड का समय था। निर्मल वर्मा की एक कहानी पुनः याद आई – ‘जिंदगी यहाँ और वहाँ’ – दो देशों का समय मेरी दोनों कलाइयों में धड़क रहा था। दो देशों के बीच हृदय भी पेंडुलम की तरह दो देशों और इनके समयों को छूता हुआ झूल रहा था। दिल भी टिक-टिक करता हुआ धड़क रहा था।
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कल लंदन छोड़ देना था। हार्विच पोर्ट से। हार्विच पोर्ट यू.के. बार्डर है। अभी रात और नींद के नशे में डूबी हुई सड़क सामने है। पद्मेश जी सावधानी से मगर तेज ड्राइव कर रहे हैं। रास्ते के किनारे कुछ किलामीटर के बाद जगह-जगह लिखा हुआ है – नो हार्ड शोल्डर फॉर फोर हंड्रेड यार्ड्स। (No Hard Shoulder For 400 Yards) अर्थात अधीर न हों और गाड़ी धीरे चलाएँ ताकि दुर्घटना आदि से बचा जा सके। भारत में जो स्पीड थ्रिल्स बट किल्स (Speed thrills but kills) या ‘कभी न पहुँचने से देर से पहुँचना अच्छा है’ ट्रैफिक सुरक्षा बोर्ड की चेतावनी देती पंक्तियाँ हैं; वही अर्थ। पर भाषा बदल जाने से वही बात अलग से ध्यान आकृष्ट करती है। कविता और कला में भी यही है। चिर परिचित अनुभव। किंतु नई भाषा में अभिव्यक्ति नई हो जाती है। रचना की मौलिकता भाषा की मौलिकता है।
सूनी, सुंदर और साफ सड़क। कहीं कोई कागज का टुकड़ा भी उड़ता हुआ नहीं। नियोन बल्ब का प्रकाश। दोनों तरफ हरे-भरे पेड़ रात की स्याही में डूबे हुए से। अब उन्हें पहचान पाना कठिन। भोपाल के एक युवा शायर (जिनकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी) की गजल याद आई। शायर का नाम यदि भूल नहीं रहा तो शमीम फरहत –
ये भीगी हुईं सड़कें, ये रात का सन्नाटा
बर्दाश्त नहीं होता, जज्बात का सन्नाटा
है जाम मेरे आगे, साकी भी मेरे आगे
पीछे से बुलाता है हालात का सन्नाटा
‘नया विकल्प’ के प्रवेशांक में छपी थी यह गजल अन्य गजलों के साथ। शायर को श्रद्धांजलि देते हुए। संपादक शलभ श्रीराम सिंह और विजय बहादुर सिंह। जलेस की यह पत्रिका तब विदिशा (भोपाल) से निकलती थी। दिल्ली यह बाद में गई।
हीत्रो जाने वाली लंदन की यह सड़क जैसे भारत के किसी सुंदर स्वच्छ नगर की ही सड़क हो – एकबारगी ऐसा लगा।
‘क्या यह सड़क भारत की नहीं हो सकती? देखने से ऐसा लगता है।’ मैंने पद्मेश जी से पूछा।
‘नहीं’ – वे मुस्कुराए।
‘क्यों?’ – मेरी स्वाभाविक जिज्ञासा थी।
‘भारत में आपको सड़कों पर आवारा पशु (गाय-बैल, भैंस, कुत्ते-बिल्लियाँ आदि) मिल जाएँगे – किनारे या बीचोंबीच डेरा डाले। ठेला गाड़ियाँ। पैदल चलते, रास्ता पार करते लोग। भीड़भाड़। किनारे पान की दुकानें। बतकही करते लोग। झुग्गी-झोपड़ियाँ। लॉरी, ऑटो, टेंपो, रिक्शा आदि-आदि।’
Green Park, London, England, United Kingdom. (साभार google से )
– मैं चुप हो गया। शायद यह ठीक है। सड़कें भी समाज और लोगों की तरह भारत में जिंदा दिल दिखाई देती हैं। यहाँ की तरह साफ सुंदर चाहे न हों। जनसंख्या ही यहाँ इतनी कम है तो चहल-पहल होगी कैसे! सड़कों पर दिखेगा कौन! स्वीटजरलैंड में प्रति व्यक्ति के पीछे नौ गायें हैं। एक व्यक्ति एक गाय का दूध भी दिनभर में खत्म नहीं कर सकता। लगभग कमोबेश पूरे यूरोप के देशों की यही स्थिति है। खानेवाले कम होंगे तो अनाज और धन बचेगा ही। समृद्धि बढ़ेगी ही। तो क्या यूरोप अपनी सुंदरता और ऐश्वर्य के चलते एक स्वर्ग है? मैंने स्वयं से पूछा। तुरंत स्पेनी कवि फेडेरिको गार्सिया लोर्का की एक कविता याद आई – बैक फ्रॉम अ वाक (Back from a walk) कभी किसी पत्रिका के लिए लोर्का की कुछ कविताओं का अँग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया था। उसकी एक पंक्ति है – I will let my hair grow long मैं अपने बालों को बढ़ने दूँगा। मैंने इस कविता को आधार बनाकर एक छोटा सा लेख लिखा था – सभ्य समाज में असभ्य कवि। लोर्का ने यह वाक्य कोष्ठक में दिया था। जैसे ये समाज द्वारा निर्धारित ब्रेकेट्स (कोष्ठक) हों जिनके बाहर आप निकल नहीं सकते। जिन्हें आप तोड़ नहीं सकते। पर एक कवि इन्हें तोड़ता है। इन ब्रेकटों को, नियमों को, जिन्हें तथाकथित सभ्य समाज ने बना रखा है। वह आजाद हवा में साँस लेना चाहता है। लंबे बाल असभ्यता के प्रतीक हैं तो रहें पर ‘मैं अपने बालों को बढ़ने दूँगा।’
इसी कविता की एक और पंक्ति है जो बहुत अर्थगर्भा है – अभी जिसका संदर्भ है – ‘स्वर्ग में मारा गया मैं…’
यूरोप अपने सौंदर्य और ऐश्वर्य में स्वर्ग है। पर इस स्वर्ग में मनुष्य की परिणति ही यदि मृत्यु हो! तब?