जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो….
हनीफ मदार
हनीफ मदार
“हमारे युग की कला क्या है ? न्याय की घोषणा, समाज का विश्लेषण, परिमाणत: आलोचना, विचारतत्व अब कलातत्व तक में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्याप्त भावना से नि:सृत होती है, यदि वह पीड़ित ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल नहीं या किसी सवाल का जवाब नहीं तो वह निर्जीव है।” – बेलिंस्की ( 19वीं शताब्दी में रूस के जनवादी कवि)
जब तक मैं भूख ते मुक्त नाय है जाँगो….
हनीफ मदार
“हमारे युग की कला क्या है ? न्याय की घोषणा, समाज का विश्लेषण, परिमाणत: आलोचना, विचारतत्व अब कलातत्व तक में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्याप्त भावना से नि:सृत होती है, यदि वह पीड़ित ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल नहीं या किसी सवाल का जवाब नहीं तो वह निर्जीव है।” – बेलिंस्की ( 19वीं शताब्दी में रूस के जनवादी कवि)
पिछले दो दिन 13 व् 14 जून संकेत रंग टोली, कोवैलेंट ग्रुप, हमरंग डॉट कॉम और जन सिनेमा के साझा प्रयासों से आयोजित दो दिवसीय नाट्य मंचन से प्रत्यक्षा रूप से सीधे जुड़े रहने का अवसर मिला | प्रदेश के कई अन्य शहरों की तरह ही प्रेक्षाग्रह के अभाव से जूझते शहरों में शामिल मथुरा में यह दो दिवसीय मंचन मथुरा के रूरल क्षेत्र में स्थित हाइब्रिड पब्लिक स्कूल के मुक्ताकाशी मंच पर मौसम की तल्ख़ नज़रों और बेहद बेरुखे मिजाज़ के खिलाफ रंगकर्मियों के जूनून की हिमाकत के रूप में सम्पन्न हुआ | यह एक मज़े की बात थी कि मंचन के बीच में आई बारिश जहाँ कलाकारों का मनोवल तो नहीं ही डिगा सकी वहीँ दर्शकों में भी कोई विचलन पैदा नहीं कर सकी लगा जैसे उस पूरे परिसर में उपस्थित जन समूह वारिश की बूंदों से पूरी तरह से अनभिज्ञ हो | यह बात आयोजक संस्थाओं से जुडाव के चलते मेरी आत्ममुग्धता नहीं है और न ही यह कहने की कोशिश है कि मंच पर अभिनेताओं के अभिनय ने दर्शकों पर कोई जादू कर दिया था | दरअसल जहाँ यह नाट्य प्रस्तुति कि बड़ी सफलता थी वहीँ दर्शक के रूप में जनता का अपने जीवन की कहानी के ज़िंदा होने और उससे सीधे रूबरू होने का क्षण था | क्योंकि एक अवधारणा है कि कहानी जीवन को बयान तो करती है पर वो जीवन नहीं हो सकती’’वहीँ नाटक उसे एक मंच, एक जीवन देता है | उसके समानांतर एक प्रश्न व विचार प्रत्यक्षतः प्रस्तुत करता है।
वर्तमान कि बड़ी चुनौती और लगभग 70 वर्षीय भारतीय लोकतंत्र में तमाम आधुनिकताओं के बावजूद किसान कि आत्महत्या या भूख से दम तोड़ना एक अनसुलझे सवाल के रूप में मौजूद है | राजेश कुमार का नाटक “सुखिया मर गया भूख से” कोई साहित्यिक भाषा या शब्दों का जाल भर नहीं बल्कि वर्तमान राजनैतिक हालातों से जूझते किसान और आम जन कि व्यथा-कथा है | यही कारण है कि मंच पर जीवंत होती यह कहानी सुखिया के रूप में किसी एक किसान की न होकर किसी न किसी रूप में आम जन की भाँति हर दर्शक के सामने खुद के शोषण की कहानी परिलक्षित होने लगती है इसलिए दर्शक एकाग्र होकर खुद उस मंच का हिस्सा बन जाता है | कमोवेश ऐसा ही हुआ इन दो दिवसीय नाट्य मंचन में | तब यह कहने में गुरेज़ नहीं है कि राजेश कुमार ऐसे इकलौते हिंदी नाटककार हैं जो निरंतरता में ऐसे नाट्यालेखों को लिख रहे हैं जो यथा स्थिति ही बयान नहीं करते बल्कि वे एक चेतना भी पैदा करते हैं और प्रतिरोध भी और चूँकि राजेश खुद सक्रिय रंगकर्म से जुड़े हैं तो उन दुश्वारियों को भी भले से समझते हैं जो हिन्दी नाटक कर रहे नाट्य दलों को हर दिन परेशान करती हैं | कथानक के दृष्टिगत नाटक रंग विलाप न होकर ताज़ा हालातों पर व्यंग्यात्मक राजनैतिक सटायर है | यह विशेष ख्याल रखा गया है कि 1 घंटा १५ मिनट कि नाट्य प्रस्तुति में दर्शक खुद को बोझिल महसूस न करने लगे और यह चुनौती नाटककार के अलावा निर्देशक सनीफ मदार के सामने भी रही |
नाटक की शुरूआत ही सुखिया के मृत शरीर पर रोते विलखते परिजनों से होती है वहीँ सुखिया की आत्मा लाश से निकल कर उठ खड़ी होती है | शुरू से लगभग अंत तक सुखिया का चरित्र एक पात्र के रूप में लगभग नाटक के हर दृश्य में मौजूद है यहाँ निर्देशक के लिए भी यह एक चुनौती की भांति ही था कि बिना दर्शकों को बताये मानसिक रूप से उन्हें यह समझा पाना कि दर्शक मंच पर कई अन्य पात्रों के बीच संवाद करते सुखिया को मृतात्मा या किसी अदृश्य चरित्र के रूप में ही स्वीकारें | और निर्देशक इस प्रयास में पूरी तरह सफल ही नहीं रहा बल्कि कई
दृश्य काफी मजेदार भी बन पड़े जिन पर दर्शकों के भी खूब ठहाके मिलते रहे |
एक ऐसा किसान जिसके पास न राशन कार्ड है न ही किसी बैंक में कोई खाता ही है, सरकारी कर्जे के चलते अपना खेत खलिहान सब कुछ गंवा चुका किसान भूख से दम तोड़ता है इस जीवंत सच को तथ्यों और प्रमाणों के साथ झूठ करार देने कि सरकारी साजिशों की बेहद मनोरंजक तरीके से गाँठ खोलते हैं नाटक के कई दृश्य | जब सुखिया के भूख से मरने की खबर सूबे के ‘सी एम’ तक पहुँच जाती है | और आनन् फानन में रातों रात सुखिया का बैंक में न केवल खाता खुल जाता है बल्कि उसमे 20 हजार रूपये भी जमा हो जाते हैं बी पी एल कार्ड से लेकर किसान क्रेडिट कार्ड, इंदिरा आवास भी उसके नाम आवंटित हो जाता है | और तो और रातों-रात उसके घर में गेंहूं, चावल, दाल आदि की बोरियां तक रखवा दी जातीं हैं और इस सब को सहजता से अंजाम दिए जाने में पुलिस की नकारात्मक भूमिका भी सपष्ट होती है | निरीक्षण के समय इतने सारे तथ्यों के साथ मीडिया के माध्यम से यह साफ़ कर दिया जाना आसान था कि सुखिया भूख से नहीं बल्कि खाता पीता मरा है |
काफिया के साथ कहे गये संवादों के साथ नाटक का एक दृश्य बेहद प्रभाव छोड़ता नज़र आया | इस पूरे दृश्य को काफिया में परिवर्तित करने वाले अश्विनी आश्विन टोली के साथ एक ऐसे कवी हैं जो किसी भी नाटक के दृश्य और परिस्थितियों पर इंस्टैंट कविता और गीत लिखने कि क्षमता रखते हैं | प्रस्तुति में प्रयुक्त बेहद सराहनीय जनगीत “हम जंग करिंगे अब भय्या …..|” आपकी कलम से निकला गीत है | काफिया में परिवर्तित यह दृश्य नाटकीय कथानक के अनुसार भी महत्वपूर्ण है जहाँ सुखिया की आत्मा से अपने साथियों के साथ संवाद करते यमराज वर्तमान व्यवस्था के प्रतिरूप में दिखाई देने लगते हैं |
जनवादी चेतना, लोक क्रांति या प्रतिरोधात्मक वर्ग संघर्ष की बुलंद आवाज़ के साथ यथार्थ के धरातल पर ही नाटक का अंत नाटक को बेहद प्रभावशाली बनाता है | सुखिया की पत्नी और दोनों बच्चों का फांसी लगा लेना दर्शकों के मन मष्तिष्क में अपने तंत्र पर एक सवाल के रूप में छप जाता है | ….
सनिफ मदार
भाषाएँ जो खुद हमारी लोक संस्कृतियों की अहमियत रखती हैं | रंगमंच, कला, संस्कृति और सांस्कृतिक वातावरण बनाए रखने के साथ उन्हीं विलुप्त होती क्षेत्रीय भाषाओं को भी संरक्षित कर रहा है | और यही कारण था कि ब्रिज एवं हिंदी भाषी क्षेत्र की आंचलिक भाषाओं के मिश्रण के साथ खेला गया नाटक “सुखिया मर गया भूख से” दर्शकों पर ख़ासा प्रभाव छोड़ने में सफल रहा | सुखिया के रूप में ‘अन्तरिक्ष शर्मा’ और ‘इमारती देवी’ के रूप में ‘बौबीना’ का प्रभावशाली अभिनय ब्रिज भाषा के इस्तेमाल से और सहज व् स्वाभाविक बन पडा | वहीँ दारोगा के चरित्र में ‘सूरज सिंह’ व् साथी सिपाहियों की भूमिका में ‘रवि कुमार’ व् ‘ज़फर अंसारी’ के संवादों में अवधि के साथ पूर्वांचली भाषा का प्रयोग जीवंत रूप में चरित्रों को उभारने के लिए निर्देशक का बेहतर फैसला साबित हुआ |
राजेश कुमार
नाट्य प्रस्तुती महज़ अच्छे अभिनय से खूबसूरत नहीं बन सकती उसके लिए एक जरूरत होती है सम्पूर्ण और विषयानुकूल सैट, प्रौपर्टी, मेकअप, संगीत और प्रकाश संयोजन की | इस लिहाज़ से भी सीमित संसाधनों में अयान मदार द्वारा तैयार किया गया बेहद रचनात्मक सैट, प्रौपर्टी के अलावा सनीफ मदार का संगीत संयोजन और हर दृश्य को प्रभाव प्रदान करती ‘हनीफ मदार’ की प्रकाश परिकल्पना से कुछ कलाकारों के सतही अभिनय के बावजूद भी प्रस्तुति कमजोर नहीं जान पड़ी | शौकिया रंगमंच, संसाधनों का अभाव ऊपर से एकदम नए बल्कि रंगमंचीय दृष्टि से अनुभवहीन साथियों को नाटक की भाषा, विषयवस्तु और अभिनय की बारीकियों के साथ थियेटर प्रौसैस को सिखाते समझाते हुए नाटक करना निश्चित ही आसान काम नहीं है | बावजूद इसके नाटक निर्देशक के अलावा संकेत रंग टोली की साथी और “भारतेंदु नाट्य अकादमी” लखनऊ से इसी वर्ष पास आउट ‘आशिया मदार’ एवं “मध्यप्रदेश स्कूल ऑफ़ ड्रामा” भोपाल से पासआउट ‘कलीम ज़फर’ और आर्यन मदार के विशेष निर्देशकीय सहयोग से सम्पूर्ण प्रस्तुति बेहद प्रभावशाली रही इसका अंदाजा ओपन मंच पर दर्शकों के बीच के पिनड्राप साइलेन्ट और नाटक के दृश्यों पर उनकी थमीं हुई साँसों से लगाया जा सकता था |