पुस्तक मेले से लौटकर…
हनीफ मदार
हनीफ मदार
एक दिन कटता है तो लगता है एक साल कट गया | भले ही यह एक किम्बदंती ही सही लेकिन वर्तमान में सच साबित हो रही है | आधुनिकता के साथ समय जिस तेज गति से आगे बढ़ रहा है उस गति से आधुनिक वैचारिक रूप में सामाजिक और राजनैतिक बदलाब दृष्टिगोचर नहीं हो रहे बल्कि इसके बरअक्श यह कहना कहीं ज्यादा उचित होगा कि वैचारिक दृष्टि से हम अपने समय को कहीं पीछे और बहुत पीछे धकेल रहे हैं | निश्चित ही यह बात एक बड़ा विरोधाभाष पैदा करती है लेकिन वर्तमान के इस सच से आँखें भी नहीं चुराई जा सकतीं | एक लेखक के रूप में यह सोचते हुए लगातार परेशान हूँ कि आखिर इस समय में क्या लिखूं , किस समाज, व्यक्ति या विचार की कहानी जिससे किसी की भावनाओं और संभावनाओं को ठेस न पहुंचे | इन शंका आशंकाओं से घिरा सोचता हूँ कि क्या विरोध, विद्रोह जैसे शब्द अपनी लेखनी से बाहर निकाल फैंकने चाहिए …, फिर वह लेखन ही क्यों ….? खासकर रचना का संकट तब और बढ़ जाता है जब, आर्थिक संकटों के अलावा शोषण की पराकाष्ठा के साथ कॉरपोरेट लूट युवाशक्ति की हताशा के रूप में नजर आ रही है | फासीवादी शक्तियों का खेल अब खुले आम होने लगा है फलस्वरूप साम्प्रदायिकता वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित हुई है | इन तमाम साम्राज्यवादी कारकों के प्रभाव में भारतीय सांस्कृतिकता और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल हासिये पर हैं | फिर लेखक सोचने को विवश है कि, ऐसे में हमारी रचनात्मक उदासीनता साम्प्रदायिक शक्तियों को अपनी सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक जीवन को और अधिक विखंडित करने का मौक़ा देती है | अतः वर्तमान की इन ज्वलंत समस्याओं से मुक्ति पाने के रचनात्मक रास्ते खोजने की जरूरत है |
पुस्तक मेले से लौटकर…
हनीफ मदार
एक दिन कटता है तो लगता है एक साल कट गया | भले ही यह एक किम्बदंती ही सही लेकिन वर्तमान में सच साबित हो रही है | आधुनिकता के साथ समय जिस तेज गति से आगे बढ़ रहा है उस गति से आधुनिक वैचारिक रूप में सामाजिक और राजनैतिक बदलाब दृष्टिगोचर नहीं हो रहे बल्कि इसके बरअक्श यह कहना कहीं ज्यादा उचित होगा कि वैचारिक दृष्टि से हम अपने समय को कहीं पीछे और बहुत पीछे धकेल रहे हैं | निश्चित ही यह बात एक बड़ा विरोधाभाष पैदा करती है लेकिन वर्तमान के इस सच से आँखें भी नहीं चुराई जा सकतीं | एक लेखक के रूप में यह सोचते हुए लगातार परेशान हूँ कि आखिर इस समय में क्या लिखूं , किस समाज, व्यक्ति या विचार की कहानी जिससे किसी की भावनाओं और संभावनाओं को ठेस न पहुंचे | इन शंका आशंकाओं से घिरा सोचता हूँ कि क्या विरोध, विद्रोह जैसे शब्द अपनी लेखनी से बाहर निकाल फैंकने चाहिए …, फिर वह लेखन ही क्यों ….? खासकर रचना का संकट तब और बढ़ जाता है जब, आर्थिक संकटों के अलावा शोषण की पराकाष्ठा के साथ कॉरपोरेट लूट युवाशक्ति की हताशा के रूप में नजर आ रही है | फासीवादी शक्तियों का खेल अब खुले आम होने लगा है फलस्वरूप साम्प्रदायिकता वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित हुई है | इन तमाम साम्राज्यवादी कारकों के प्रभाव में भारतीय सांस्कृतिकता और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल हासिये पर हैं | फिर लेखक सोचने को विवश है कि, ऐसे में हमारी रचनात्मक उदासीनता साम्प्रदायिक शक्तियों को अपनी सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक जीवन को और अधिक विखंडित करने का मौक़ा देती है | अतः वर्तमान की इन ज्वलंत समस्याओं से मुक्ति पाने के रचनात्मक रास्ते खोजने की जरूरत है |
इस कश-म-कश में बीते हफ्ते दिल्ली में पुस्तक मेले में घूमना एक ऐसे नगर में होने के एहसास से भर रहा था जहाँ विभिन्न मतों और विचारों के घर एक दूसरे से सटे हुए, आमने-सामने मुस्कराते हुए एक दूसरे से गपिया रहे हों | बीच से गुजरते रास्तों पर, आँखें फाड़े इधर- उधर विचरते हम इंसानों को वे घर परोक्ष रूप से जैसे कोई सबक दे रहे थे | सबक इसलिए भी कि यह घर महज़ घरों या दीवारों तक ही सीमित नहीं थे बल्कि उन घरों में भी विभिन्न और एकदम अलग-अलग मत, विचार, दर्शन और दृष्टि को खुद में समेटे हुए असंख्य किताबें एक दूसरे से सटी एक दूसरे पर गिरी-पड़ी और लगभग चढ़ी हुईं आपस में बतिया और खिलखिला रहीं थीं जो बिना कुछ कहे, बोले और पढ़े ही, विभिन्न मत-मतान्तरों और गहरे आपसी मतभेदों के साथ भी, एक सुखद और रचनात्मक संवाद कायम करते हुए, दुनिया के वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य के समक्ष एक सकारत्मक सामाजिक परिपाटी की रचना की तरह थीं |
आधुनिक बाजारी रूप में प्रस्तुत इस लेखकीय कुम्भ में जहाँ एक तरफ देश दुनिया के लेखक साथियों, मित्रों और साहित्यिक शुभचिंतकों से मिलना उनके साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, साम्प्रदायिकता, सामाजिक, राजनैतिक सांस्कृतिकता पर सतही-गहरी और निठल्ली चर्चा परिचर्चाओं के बीच, चाय के प्याले से किसी कलाकार की कल्पना के रूप में अंगडाई लेती हुयी स्त्री आकृति सी, उठती गर्म भाप और चाय की चुस्कियों की आवाज़ की संगत, पुरसुकून एहसास से भर रही थी | वहीँ एक दो नहीं बल्कि कई-कई खरीदी गईं किताबों का गठ्ठर हाथ में लिए हुए इधर-उधर घूमते बतियाते युवाओं के वे दृश्य कहीं न कहीं गहरे तक हम सब को ही आश्वस्त भी कर रहे थे कि वर्तमान युवा किताबों से विमुख नहीं है | यह माना जा रहा था कि बीते वर्ष से इस वर्ष किताबें ज्यादा बिकीं तब भी यह सोच लेना एक सुखद अनुभूति थी कि सामाजिक या राजनैतिक रूप से भटकाव की कोशिशों के वक़्त में, सही दिशा पाने के लिए युवाओं का किताबों की ओर रुख करना अनकहे रूप में एक संदेश की तरह था कि अब हम सुन कर नहीं, पढ़, समझ और देखकर, खुद अपने विवेक से रास्ता तय करेंगे |
मानव सभ्यता अपने जन्म से चलकर सदियाँ पार करते हुए आज अत्याधुनिक तकनीकी और निरंतर डिजीटल होते वक़्त तक पहुँच गई | जो बन्दर से मानवीय परिमार्ज़न की संघर्ष गाथा, विचार, साहित्य और इतिहास की विशाल थाती के रूप में हमारा अतीत बनकर किताबों में सिमटी है | इन्ही किताबों में पहिये से लेकर चाँद पर पहुँचने तक के वैज्ञानिक आविष्कार, तकनीकी, संचार और इंसानी रूप में रोबोट तक आने की यात्रा, जरूरतों से जूझते हुए रास्ता खोज लेने की इंसानी जीवटता कहानियों के रूप में मौजूद हैं | यह किताबें विभिन्न सामाजिक विचारकों की दर्शन, सामाजिक, राजनैतिक चिंतन दृष्टि, एवं इंसानी अंतस चेतना के रचनात्मक हस्तक्षेप को भी खुद में समेटे हैं | इस सभ्यताई सफ़र में विचार, दर्शन, राजनैतिक चिंतन धारा एवं विभिन्न मत मतान्तरों और मत-भेदों के साथ हम जंगली जीव से इंसानी शक्ल में इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक काल में पहुँचने पर गर्व महसूस कर सकते हैं |
लेकिन एक सवाल सहज उठ खड़ा होता है कि बीती सदियों में होती रहीं हत्याओं या आत्महत्याओं का काल कौन सा था….? यदि उसे पिछड़ा और दकियानूस या सामंती काल कहें तो फिर आज को क्या नाम दें ..? अतीत में होती रहीं इन घटनाओं की सामाजिक, राजनैतिक, वैचारिक समानता के रूप में आज भी युवा आत्महत्या को विवश होता है, क्या तब भी इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक डिज़िटल समय में जीने का हमारा गर्व बचा रह पता है ..? क्या नहीं लगता कि मानव सभ्यता अपना घेरा पूरा करके वहीँ पहुँच रही है जहाँ से हमने चलना शुरू किया था | हमारे सामने कला, साहित्य और संस्कृति की वैचारिक थाती जिसे पुस्तक मेले में किताबों के रूप में देख रहे थे उसकी सार्थकता निरुद्देश्य नहीं हो जाती …? या कहें वर्तमान में साहित्य, कला, संस्कृति एवं प्रतिरोधी वैचारिकता को गैर जरूरी साबित करने की कबायद जोरों पर है ……! यदि नहीं, तो वे कौन लोग हैं जो इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक युग में जीते हुए भी सदियों पुरानी सामंती मानसिकता को न केवल सहेज रहे हैं बल्कि उसके साथ जीने और उसे समाज पर थोपने की जिद पर अड़े हैं ? फिर सदियों पुराने इतिहास में दर्ज ऐसी घटनाओं के साथ भगत सिंह, सफ़दर हासमी, नरेंद्र दाभोलकर, कलुबुर्गी ….. जैसी हत्याएं और सुकरात, चंद्रशेखर आज़ाद, गोरख पाण्डेय आदि जैसे चरित्रों की आत्महत्याएं को, क्या दो अलग बातों के रूप में देखा जा सकता है ? क्योंकि जब भीतरी और बाहरी समाज का परोक्ष या प्रत्यक्ष फैसला मृत्यु दण्ड का ही हो तो हत्या या आत्महत्या में फर्क कहाँ रह जाता है | यहाँ मार्टिन लूथर किंग का उदाहरण हमारे सामने है | उन्हें चुनने को कहा गया था कि या तो आप आत्महत्या कर लें नहीं तो हम खुद मार देंगे और उन्हें गोली से मारा गया | सुकरात को ज़हर पीने या माफ़ी मांगने में से एक को चुनने को कहा गया | फिर क्या कारण रहे कि यह लोग जीने के अधिकार को त्याग कर मौत को चुनते रहे |
यहाँ गिरिराज किशोर के उपन्यास ‘परिशिष्ट’ का नायक रामउजागर याद आता है | दलित वर्ग से आया रामउजागर किसी दबंगई या रियायत से नहीं बल्कि प्रतियोगी रास्ते से चुनकर आया हुआ बेहद मेधावी छात्र है | उसी के वर्ग के मोहन ने आत्महत्या की है | तब रामउजागर प्रतिशोध से खौल उठता है | इतना ही नहीं वह समाज के ऊंचे और बड़े लोगों को उन्हीं के स्तर पर चुनौती देता है ….. बस यहीं से वह उन नियमों के चंगुल में फंसता जाता है जो ऊंचे सम्पन्न और ताकतवर लोगों ने बनाए हैं | “वैसे भी अभिजात, सम्पन्न एवं प्रभावशाली लोगों के आई आई टी संस्थान में रामउजागर जैसों की औकात ही क्या है | भले ही वह लाख मेहनती, होशियार, या बौद्धिक क्षमता में सभी से आगे हो तो क्या हुआ आखिर है तो ……… ही |” और यही सामाजिक अपमान, तिरिष्कार और वर्गीय भेद-भाव का दम घोट देने वाला वातावरण का ज़हर धीरे धीरे रामउजागर को आत्महत्या के फैसले तक पहुंचा देता है | यहाँ रामउजागर को जला कर या गोली से नहीं मारा गया बल्कि आत्महत्या तक पहुंचाकर मारा गया | अब यहाँ मार्टिन लूथर किंग और रामउजागर की हत्या और आत्महत्या में कहाँ फर्क रह जाता है |
हालांकि ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसी घटनाएं कोई नई नहीं हैं किन्तु यह वर्तमान में भी तो कोई पहली घटना नहीं है | तब निश्चित ही यहाँ महज़ विचलन भर नहीं खुद पर एक शर्मिंदगी भी है कि इक्कीसवीं सदी में जीते हुए भी हम मानसिक रूप से अभी भी सदियों पीछे खड़े हैं | यह अलग बात है कि हम क्या देखते हैं और क्या करते और लिखते हैं लेकिन राह चलते हम ऐसे दृश्यों और बिम्बों से भी रूबरू होते जाते हैं जिन्हें शायद हम देखना या लिखना नहीं चाह्ते | किन्तु साहित्य और कला एवं वैचारिकी की विशाल थाती से गुजरते हुए अभी भी उम्मीद है कि हम न केवल शरीर से बल्कि मानसिकता के साथ भी इक्कीसवीं सदी में होंगे