साहित्यकार हरदान हर्ष से मोहम्मद हुसैन डायर व ममता नारायण की बातचीत के अंश ……..
“आंचलिक सांस्कृतिक पहचान है क्षेत्रीय भाषा”, हरदान हर्ष
मोहम्मद हुसैन डायर
संविधान की आठवीं सूची में राजस्थानी भाषा को शामिल किए जाने के संदर्भ में जो हलचल मची है, उसे लेकर कई तरह की आवाजें उठ रही हैं। जहां एक पक्ष क्षेत्रीय पहचान एवं मौलिकता को रेखांकित कर रहा है, वहीं दूसरा पक्ष इससे समाज को भाषायी वर्गों में बँटता हुआ देख रहा है। इन दोनों तर्कों के बीच में वास्तविकता क्या है, इसे जानने के लिए शोधार्थी मोहम्मद हुसैन डायर एवं ममता नारायण बलाई ने हिंदी और राजस्थानी के प्रसिद्ध साहित्यकार हरदान हर्ष से बातचीत की। यह वार्ता कुछ इस प्रकार रही-
प्रश्न – राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में दर्ज कराने की मांग से क्या हिंदी भाषा कमजोर नहीं होगी? जैसा कि संदेह जताया जा रहा हैं।
उत्तर – नहीं, यह मानना गलत है, बल्कि इस मांग से हिंदी का और भी ज्यादा विकास होगा। इस भाषा को मान्यता मिलने से इसके भाषी लोगों को रोजगार, अभिव्यक्ति में व्यापकता व स्पष्टता एवं जनसंपर्क में आसानी होगी। इसके अलावा शासन व जनता के बीच का संवाद भी स्पष्ट और प्रभावी होगा।
प्रश्न – क्या यह मांग मारवाड़ी भाषा एवं अन्य राजस्थानी भाषाओं के मध्य संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं करेगी?
उत्तर – यह भ्रम भी निर्मूल है, क्योंकि राजस्थानी भाषा का अगर हम बारीकी से अध्ययन करते हैं, तब पाएंगे कि प्रदेश में मुख्यतः पांच से छह प्रकार की भाषाएं बोली जाती है जो काफी हद तक समरूपता रखती है, काफी शब्द एक जैसे हैं। ऐसे में इनमें संघर्ष की स्थिति न होकर क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में सहायक सिद्ध होगी। संरक्षण की मांग भाषा की विशिष्टता में भी बढ़ोतरी करती है।
प्रश्न – जैसा कि आप बता रहे हैं, अलग-अलग क्षेत्रों में उठती अपनी-अपनी भाषाओं के संरक्षण की मांग आज के समय की विशेषता हैं। क्या यह मांगे समाज को भाषायी कट्टरवाद की ओर नहीं बढ़ा रही है?
उत्तर – अच्छा सवाल है, 21वीं सदी के इस दौर में जहां सूचना एवं प्रौद्योगिकी की सहयोग से दुनिया सीमित हो रही है, वहीं क्षेत्रीय अस्मिताओं पर संकट भी देखने को मिल रहा है। साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि अपनी पहचान को लेकर हाशिए का समाज मुखर भी हुआ हैं। ऐसे में आंचलिक मान्यताएं वैश्विक परिदृश्य से अलग नहीं रह सकती हैं। क्षेत्रीय भाषा व संस्कृति के सहयोग से वहां की जनता अपना मौलिक विकास कर वैश्विक जगत की मुख्यधारा में अपना रचनात्मक योगदान देती हैं। क्षेत्रीय बोलियां व्यापक जन स्वीकार्यता के माध्यम से भाषाएं बनती रहती हैं, जैसे – अवधी, ब्रज या अन्य क्षेत्रीय भाषाएं आरंभ में सीमित क्षेत्र तक ही सीमित थी, लेकिन बाद में बड़े जन समुदाय को प्रभावित किया। इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने दूसरी भाषाओं खत्म ही कर दिया।
ममता नारायण
प्रश्न – राजा रजवाड़ों के समय से लेकर अभी कुछ समय पहले तक राजस्थान भयंकर जाति व्यवस्था से पीड़ित रहा है, ऐसे में राजस्थानी साहित्य दलितों के प्रश्न को उठाने में कितना सफल रहा है ?
उत्तर – देखिए, दलित का जहां तक प्रश्न है, इसमें दलित संवेदना और दलित चेतना को ध्यान में रखना होगा। दलित चेतना में शिक्षित और जागरूक दलित वर्ग स्वयं के बहुपक्षीय विकास के साथ-साथ अपने समाज के विकास में भी योगदान दें। जहां तक संवेदना की बात है, दलित समाज के अतिरिक्त जो सवर्ण वर्ग है उसे चाहिए कि जिस तरह दूसरे देशों में दबे हुए वर्ग को उच्च वर्ग ने गले लगाया, उसी तरह से वे भी दलितों को गले लगाए। दलित लेखकों को मानवतावादी एवं जनवादी दृष्टिकोण में विस्तार करना होगा, इसके अतिरिक्त जो राजस्थानी में लिख रहे है, उन्हें भी पहले की अपेक्षा और मजबूती से इन प्रश्नों को उठाने की आवश्यकता हैं।
प्रश्न – अंग्रेजी के आतंक के सामने क्षेत्रीय भाषाओं की क्या स्थिति है? वे कितनी टिक पा रही है ?
उत्तर – यह चिंता सही है। आज का पढा – लिखा एवं सभ्रांत वर्ग अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति उदासीन हैं। अंग्रेजी की आसक्ति से वह मुक्त नहीं हो पा रहा हैं। ऐसे में वह अपने समाज, परंपरा, संस्कृति और लोक से कटता जा रहा है, पर यह संपन्न वर्ग भूल जाता है कि अपनी मूल भाषा से अलगाव उनके विचारों की मौलिकता को क्षीण करता हैं।
प्रश्न – राष्ट्रवादी विचारधारा के दौर में पृथक राजस्थानी भाषा की मांग कितनी उचित है ?
उत्तर – देखिए, मैं मानवतावादी रचनाकार हूं। इस दृष्टि से मेरे लिए हर तरह का बंधन अस्वीकार्य हैं। मानवतावादी विचारधारा बंधनों से परे हैं। मानवतावाद विश्व दृष्टि हैं जिसके गर्भ में वसुधैव कुटुंबकम की विचारधारा होती हैं। मैं ऐसी विचारधारा का समर्थक हूं। धर्म, जाति, राष्ट्र, भाषा आदि की कट्टरता को मैं अस्वीकार करता हूं। राजस्थानी की यह मांग भी इस विचारधारा को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगी।