हिंदी-उर्दू द्वंद्व और टोपी शुक्ला: आलेख (मोहम्मद हुसैन डायर)

बहुरंग साक्षात्कार

मोहम्मद हुसैन डायर 984 11/17/2018 12:00:00 AM

राही मासूम रज़ा की कृतियों के पात्र भाषायी द्वंद्व से जूझते देखे जा सकते हैं। आधा गांव जहां उर्दू और आंचलिक भाषा में उलझा हुआ है, वहीं टोपी शुक्ला हिंदी उर्दू विवाद पर लंबी बहस कर पाठकों को झकझोर देने वाले संवाद प्रस्तुत करता है। वैसे यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि इस उपन्यास (टोपी शुक्ला ) का केंद्रीय विषय सांप्रदायिक समस्या से जूझते सेकुलरिज्म की आत्महत्या है। इस उपन्यास की भाषा बहुत ही साफ सुथरी है, पर इसके हर संवाद किसी गाली से कम नहीं है। इसकी भूमिका में राही लिखते हैं, “आधा गांव में बेशुमार गालियां थी। मौलाना टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है। परंतु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है। और मैं यह गाली डंके की चोट पर बक रहा हूं। यह उपन्यास अश्लील है, जीवन की तरह।

हिंदी-उर्दू द्वंद्व और टोपी शुक्ला 

मोहम्मद हुसैन डायर

पृथ्वी पर विद्यमान प्राणी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अभिव्यक्ति के लिए भाषाई संचार का सहारा लेते आए हैं। हर जीव अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अपनी भाषा का प्रयोग करता है, पर मनुष्य अन्य जीवों से भिन्न है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के बल पर अपनी भावनाओं को लिपिबद्ध करने में सफल रहा है। अपनी भाषा को लिपिबद्ध कर पाना मानव की अब तक की सबसे बड़ी विजय मानी जाती है जिसके माध्यम से वह अपने ज्ञान को लंबे समय तक सहेज कर रख सकता है। साथ ही वैश्विक स्तर पर संवाद कायम कर अपने ज्ञान का प्रसार भी करने में सक्षम हुआ है।

      भाषा की विकास यात्रा मानव जाति जितनी ही पुरानी है। आड़ी- टैढी रेखाओं से विचारों को सहेजने की शुरुआत करने के साथ आज के डिजिटल युग में नए रुप में मानव अपनी भाषा को लिपिबद्ध कर रहा है। यह भाषा मानव बस्तियों के भौगोलिक एवं सांस्कृतिक फैलाव के साथ-साथ अलग रूप में सामने आई है। आज विश्व में कुल 13 मानक भाषा परिवार हैं जिन पर अपने क्षेत्रों की विविधता की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। साथ ही इन भाषाओं में भी कई क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के रूप अपनी पहचान बनाए हुए हैं जैसा कि भारतीय भाषाओं में देखने को मिलता है, यहां संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश व खड़ी बोली के साहित्य का खजाना भरा पड़ा है।

     खड़ी बोली के दो रूप है, हिंदी और उर्दू। ‘तूति ए हिंद’ आमिर खुसरो द्वारा पल्लवित किया गया यह पौधा भक्तिकाल व रीतिकाल में अपना आकार लेता रहा है। भारतीय संस्कृति को भावात्मक अभिव्यक्ति देने में खड़ी बोली के यह दोनों रूप अपनी भूमिका निभाने में सफल रहे। पर ब्रिटिश शासन ने अपने साम्राज्यवादी नीति के तहत भारतीय समाज को धर्म के आधार पर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करना जरुरी समझा। इसके लिए खड़ी बोली के दोनों रूपों को धर्म के आधार पर चिन्हित करना शुरू किया। इस कार्य की शुरुआत सन् 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज में शुरू हुई। कानपुर दंगा जांच समिति की रिपोर्ट (1931) यह कहती है, “दोनों समुदायों में इस सब का विकास ब्रिटिश शासनकाल द्वारा पुराने सामाजिक संतुलन एवं आदर्शों को बिगाड़ने और भारतीय जीवन में पश्चिमी विचारों एवं शिक्षा के फैलाव के जरिए भारतीय राष्ट्रीय आदर्श के स्थान पर व्यवस्थित रुप से हुआ।”(1) शिक्षा के क्षेत्र में  भाषाई विवाद को  बढ़ावा देने का कार्य फोर्ट विलियम कॉलेज  में हुआ। ब्रिटिश सत्ता की भाषायी नीति पर राही मासूम रज़ा कटाक्ष करते हुए लिखते हैं, “पाकिस्तान की बुनियाद सच पूछिए तो 19वीं सदी के आरंभ में पड़ गई थी। कलकत्ते के फोर्ट विलियम कॉलेज में गिलक्राइस्ट नामक अंग्रेज ने पाकिस्तान की बुनियाद डाल दी थी।”(2) यहां यह ध्यान देने की बात है कि फोर्ट विलियम कॉलेज में खड़ी बोली के दोनों रूप (हिंदी और उर्दू) को अलग-अलग धर्म की भाषा बताकर सांप्रदायिकता के बीज बोए थे। इस तरह के विवाद को अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के बाद और भी ज्यादा हवा दी। ऐसे संगठन जो भाषायी एवं सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा सकते हैं, उनको सरकार द्वारा आश्रय मिला। वे संगठन जो हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानते थे, वे अंग्रेजों के पिछलग्गू बनकर रह गए। जिसकी परिणीति हम दयानंद सरस्वती के हिंदीवादी विचार एवं सर सैयद के उर्दू समर्थक नीति के रूप में देख सकते हैं। परिणामस्वरुप जहां एक ओर हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा सामने आता है, वहीं दूसरी ओर द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात सामने आती है।

      पर हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं पर चाहे कितनी भी राजनीति क्यों न हो, यह दोनों भाषाएं एक दूसरे के बिना अधूरी है। इस सच्चाई को देश के अग्रणी पंक्ति वाले नेता जिनमें महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे नेता आते हैं, वे इसके दोनों रूपों को स्वीकार करते हुए देखे जा सकते हैं। इस विषय पर साहित्यकारों ने भी गंभीर विमर्श किया है। प्रेमचंद, फिराक गोरखपुरी, मंटो, इस्मत चुगताई, रेणु, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, व राही मासूम रज़ा जैसे साहित्यकारों के नाम देख सकते हैं जिन्होंने अपने साहित्य द्वारा इस खाई को पाटने का भरपूर प्रयास किया। इन नेताओं और साहित्यकारों का जोर हिंदी-उर्दू के समन्वित और प्राचीन रूप जिसे अमीर खुसरो हिंदवी कहते थे, को पुनर्परिभाषित करने की ओर आग्रह देखा जा सकता है। ये सभी बुद्धिजीवी भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदुस्तानी को देखना चाहते थे।

 राही मासूम रज़ा की कृतियों के पात्र भाषायी द्वंद्व से जूझते देखे जा सकते हैं। आधा गांव जहां उर्दू और आंचलिक भाषा  में उलझा हुआ है, वहीं टोपी शुक्ला हिंदी उर्दू विवाद पर लंबी बहस कर पाठकों को झकझोर देने वाले संवाद प्रस्तुत करता है। वैसे यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि इस उपन्यास (टोपी शुक्ला ) का केंद्रीय विषय सांप्रदायिक समस्या से जूझते सेकुलरिज्म की आत्महत्या है। इस उपन्यास की भाषा बहुत ही साफ सुथरी है, पर इसके हर संवाद किसी गाली से कम नहीं है। इसकी भूमिका में राही लिखते हैं, “आधा गांव में बेशुमार गालियां थी। मौलाना टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है। परंतु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है। और मैं यह गाली डंके की चोट पर बक रहा हूं। यह उपन्यास अश्लील है, जीवन की तरह।”(3)

     भाषा कभी भी किसी धर्म की जागीर नहीं हुआ करती है, भाषा का निर्धारण व्यक्ति के परिवेश पर निर्भर करता है। कभी-कभी जब उसे परिवेश तो वैसा ही मिले, पर शाररिक एवं मानसिक दबाव के कारण व्यक्ति उस भाषा को अस्वीकृत कर उसके खिलाफ धारणा बना लेता है। कुछ ऐसी ही स्थिति प्रस्तुत उपन्यास के प्रमुख पात्र टोपी की है। टोपी को अपने पूरे परिवार में उपेक्षा का माहौल झेलना पड़ा। उसके पिताजी स्वयं अरबी, फारसी व उर्दू के जानकार हैं। पर वह उर्दू से नफरत करते हैं, क्योंकि उनके दिल में मुसलमानों के प्रति नफरत की भावना है और वह उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझते हैं। इसके अतिरिक्त टोपी की दादी भी पूर्णरूपेण उर्दू-फारसी की जानकार हैं और घर पर भी उसी भाषा का प्रयोग करती है। पर टोपी द्वारा कभी-कभी गलत शब्दों के उच्चारण के कारण वह उसे हमेशा डांटती थी जिसका परिणाम यह हुआ कि टोपी उर्दू से नफरत करने लगा और हर उर्दू भाषी व्यक्ति उसे दुश्मन नजर आने लगा। इस बारे में टोपी का बचपन का दोस्त इफ्फन अपनी पत्नी सकीना से परिचय करवाते हुए उससे कहता है, “इसकी जबान पर हंसना मत। …….. इसके घर में उर्दू बोली जाती है । यह दादी की जिद में गवार बन गया है।”(4) इफ्फन के वाक्य में जहां टोपी के परिवार के माहौल की जानकारी मिलती है, वही हिंदी को गंवारू भाषा कहना भाषायी खाई की ओर इशारा करता है।

        फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना से शुरू हुआ भाषायी विवाद सन् 1835-40 तक मुखर होने लगा। तब अपनी अपनी भाषा के समर्थकों ने दूसरी भाषा को कमतर बताने के लिए हिंदी को गंवारू भाषा एवं उर्दू को विदेशी भाषा के रूप में प्रचारित करना शुरु कर दिया। 20वीं सदी में हिंदी-उर्दू विवाद अपने चरम पर पहुंचा जिसके कारण बुद्धिजीवी वर्ग को इस ओर गंभीर विचार करना पड़ा । प्रेमचंद इस समस्या की गंभीरता को समझते थे। प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य हिंदुस्तानी भाषा में लिखा हुआ है। हिंदुस्तानी भाषा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए प्रेमचंद अपने कई भाषण में इस समस्या पर बहस करते देखे जा सकते हैं। देश की राष्ट्र भाषा विषय पर अपने विचार रखते हुए कथा सम्राट प्रेमचंद कहते हैं, “परंतु भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा न तो उर्दू है और न हिंदी। बल्कि वह हिंदुस्तानी है, जो सारे हिंदुस्तान में समझी जाती है और उसके बहुत बड़े भाग में बोली जाती हैं, लेकिन फिर भी लिखी कही नहीं जाती और यदि कोई लिखने का प्रयत्न करता है तो उर्दू और हिंदी के साहित्यज्ञ उसे टाट बाहर कर देते हैं।”(5)

भीष्म साहनी (google से )

कुछ ऐसी ही स्थिति राही के साथ भी हुई। राही जब उर्दू से हिंदी की ओर आए तो उनका विरोध हुआ। उर्दू के विद्वानों  ने उन पर कई तरह के आरोप लगाए। एक साक्षात्कार में वह कहते हैं, “ ………….बोले, मैं हिंदी वालों के हाथों बिक गया हूं। मोर्चा ने कहा राही मासूम रज़ा हिंदुओं के हाथों बिक गया है। अब वे क्या जाने कि देवनागरी के साथ मेरा क्या रिश्ता है। इस भावात्मक संबंध को समझने में उन्हें बरस लग जाएंगे।”(6) भाषाओं की इस बाड़बंदी का परिणाम दोनों भाषाओं को भुगतना पड़ा। बौद्धिक जगत भी भाषायी संकीर्णता से ग्रसित होकर विरोधी खेमे के साहित्य की उपेक्षा करने लगा जिसके कारण सामाजिक सरोकारों वाले साहित्य पर वह विमर्श नहीं हो पाया जो विमर्श होना चाहिए था। इसका सर्वाधिक दुष्परिणाम प्रगतिशील साहित्य को भुगतना पड़ा। राही मासूम रज़ा का साहित्य हर प्रकार की समस्याओं पर सीधा संवाद करता हुआ दिखता है, पर इस खेमा बंदी के परिणामस्वरूप आपके साहित्य पर भी आवश्यकता के अनुरूप विमर्श नहीं हुआ है।

     फारसी लंबे समय तक राज्य भाषा होने एवं उर्दू फारसी के समीप होने के कारण आजादी से पूर्व इस भाषा को हर वर्ग समझना और सीखना चाहता था। और इस भाषा में रचे हुए साहित्य का अध्ययन कर वह अपनी संस्कृति से परिचित होने में गौरवान्वित महसूस करता था। भाषा जहां संस्कृति व इतिहास की परिचायक का माध्यम होती है, वही रोजगार का भी एक प्रमुख साधन होती है। एक बात यह भी हमें ध्यान में रखनी होगी कि उर्दू हिंदी की तरह ही आजादी से पूर्व जनता की रगों में बह रही थी, मगर भाषा के आधार पर शुरू हुए सांप्रदायिक तनाव की परिणति देश विभाजन के रूप में हुई जिस का परिणाम यह हुआ कि आजादी के बाद उर्दू भाषा को उपेक्षा को झेलनी पड़ी। इस पीड़ा को राही आलोच्य उपन्यास में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं, “उर्दू के मौलवी साहब ने अलबत्ता यह बात महसूस की कि उर्दू का क्लास छोटा हो गया है और अब कोई हिंदू लड़का उर्दू नहीं पड़ता।……..यह जानकर उन्हें और दुख हुआ कि हिंदी के पंडित जी का रजिस्टर अब भरपूर होता जा रहा है। नामों की रंगारंगई उसके रजिस्टर को छोड़कर पंडित जी के रजिस्टर में बसती जा रही है।”(7)यह उदाहरण जहां उर्दू के साथ होते भेदभाव की ओर इशारा करता है, वही भाषा से जुड़े व्यक्तिगत हितों की ओर भी पाठक वर्ग का ध्यान खींचता है।

 हिंदी-उर्दू विवाद के कारण इसका दुष्परिणाम झेलती आम जनता के दर्द को राही मासूम रज़ा ने कई रूप में व्यक्त किया है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख हो चुका है कि राही मासूम रज़ा को भी ऐसे भेदभाव से गुजरना पड़ा था, इस विवाद से दुखी होकर वे साहित्य के तथाकथित विद्वानों से अपनी राय व्यक्त करने के साथ कुछ सवाल पूछते हैं, वे लिखते हैं, “मैं तो ग़ालिब की तरह हिंदी का शायर और प्रेमचंद की तरह हिंदी का कथाकार हूं। उर्दू केवल एक लिपि है। और लिपि साहित्य का आधार नहीं होती। लिपि केवल वस्त्र है। भाषा भी मनुष्य की ही तरह कपड़े पहन कर पैदा नहीं होती है। चोचलों में मां बच्चों को फ्राक पहना दे तो बच्चे जात से अंग्रेज नहीं हो जाते है। पर यदि आप यह नहीं मानते और लिपि ही को सब कुछ मानते हैं तो मलिक मोहम्मद जायसी को उर्दू का शायर मानिए, क्योंकि पद्मावत फारसी लिपि में लिखी गई। कुतुबन, ताज और उस्मान से भी हाथ धो लीजिए कि यह लोग भी देवनागरी में नहीं लिखते थे। आत्महत्या के कई आसान तरीके भी हैं, तो हम गले में किसी लिपि का पत्थर बांधकर डूबने क्यों जाएं?”(8) राही के ये सवाल भाषायी संकीर्ण मानसिकता वाले विद्वानों को आईना दिखाने के अलावा सीधा संवाद करते हुए दिखते हैं।

मंटो (google से )

भाषायी विवाद आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत ही घातक होता है, क्योंकि आने वाली नस्लें अपनी संस्कृति और साहित्य के बारे में पूर्ण ज्ञान नहीं रख पाती है। भारत जैसे बहु संस्कृति वाले देश में और जिसकी एक लंबी हिंदी-उर्दू परंपरा रही है ऐसे में किसी एक भाषा का अध्ययन न करवाना या उसके साथ उपेक्षा का व्यवहार करना देश के भविष्य रूपी बालकों को देश का अधूरा ज्ञान देने के समान है।

    अपनी भाषा के प्रति अनभिज्ञ होने के का दुष्परिणाम क्या होता है वह इस उदाहरण से सामने आता है। एक बार टोपी और सलीमा में बहस हो रही होती है। विषय भाषा से जुड़ा हुआ ही है, “सलीमा का मतलब कुछ इस प्रकार है, उसने हिंदी को हिंदू की भाषा कहा और नतीजा यह निकला कि हिंदुओं की भाषा राष्ट्रीय भाषा नहीं हो सकती। इसके उत्तर में टोपी  गुस्से में आकर उसे कहता है, “उर्दू किसी लेक्चरर की बीवी नहीं है कि कोई उसे फसा ले।”(9) कहना गलत नहीं होगा की टोपी और सलीमा दोनों ने अपने भाषायी इतिहास का पूर्णरूपेण अध्ययन नहीं किया है। ऐसी स्थिति सामाजिक समरसता के लिए बहुत ही घातक होती है। शायद इसी का परिणाम माना जाएगा कि आज जो सांस्कृतिक अंतराल हिंदू और मुसलमानों के मध्य पड़ गया है, इसमें बहुत कुछ भाषायी अनभिज्ञता भी है।

     “सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिंदी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहे, इसलिए बहुत से हिंदुस्तानियों को का इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है।”(10) भारत की भाषा के संदर्भ में कहे गए महात्मा गांधी के उक्त  विचार बहुत कुछ प्रेमचंद और राही मासूम रज़ा के विचारों की कड़ी से मिलते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में उन सभी बिंदुओं पर विचार किया गया है जो भाषायी विवाद के कारण किसी न किसी तरीके से हिंदी और उर्दू को प्रभावित कर रहे हैं और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस विवाद के कारण खड़ी बोली के इन दोनों रूपों को अपने पूर्ण रूप में प्रसारित होने में भयंकर बाधाएं झेलनी पड़ रही है। राही मासूम रज़ा ने प्रस्तुत कृति के माध्यम से इस विवाद को सामने लाकर भाषायी संकीर्णता से ग्रसित विचारकों को आईना दिखाने का काम किया है।

संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. दिवाकर (अनु.), सांप्रदायिक समस्या (मार्च 1931 के कानपुर दंगों की जांच के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कराची अधिवेशन 1931) द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, 2013, पृ. 16
  2. राही मासूम रज़ा, खुदा हाफिज कहने का मोड़, कुंवरपाल सिंह (संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 30
  3. राही मासूम रज़ा, टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1987, तेरहवां संस्करण 2016, पृष्ठ, भूमिका
  4. वही, पृ. 50
  5. प्रेमचंद, कुछ विचार, मलिक एंड कंपनी, जयपुर, 2015, पृ. 56
  6. फिरोज अहमद खान, संपा., राही मासूम रज़ा अंक, वांङ्मय, त्रैमासिक हिंदी पत्रिका, अलीगढ़ अप्रैल-सितंबर अंक, 2008, पृ. 158
  7. राही मासूम रज़ा, टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1987, तेरहवां संस्करण 2016, पृ. 39
  8. राही मासूम रज़ा, लगता है बेकार गए हम, कुंवरपाल सिंह (संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999, आवृत्ति 2013, पृ.
  9. राही मासूम रज़ा, टोपी शुक्ला, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1987, तेरहवां संस्करण 2016, पृ. 80
  10. महात्मा गांधी, हिंद स्वराज्य, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृ. 116

मोहम्मद हुसैन डायर द्वारा लिखित

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