सामाजिक परिवर्तन के अंतर्द्वंदऔर आधा गाँव: शोध आलेख

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मोहम्मद हुसैन डायर 602 11/17/2018 12:00:00 AM

सामाजिक परिवर्तन के अंतर्द्वंदऔर आधा गाँव 

सृष्टि में सृजन एवं ध्वंस की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया लोक में जीवंतता को दर्शाती है, क्योंकि ठहराव को अक्सर मृत्यु या अंत मान लिया जाता है। बदलाव की यह प्रक्रिया हर क्षेत्र में हर समय जारी रहती है, चाहे वह जड़ हो या चेतन। मानव सभ्यता का जो रूप आज हमारे सामने हैं, वह भी वक्त के कई थपेड़े खाने के बाद हमारे सामने आया है और हम यह भी जानते हैं कि मानव समाज का यह रूप हमेशा ऐसा नहीं रहेगा। यूरोप में हुए पुनर्जागरण एवं औद्योगिकीकरण से पूर्व मानव समाज में परिवर्तन की गति बहुत धीमी रही। 18वीं व 19वीं सदी में पुनर्जागरण की बयार विश्व के कई क्षेत्रों में पहुँच कर सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, प्राकृतिक, साहित्यिक व आर्थिक परिवेश के बदलाव में निर्णायक रूप से सहायक बनी। बदलते वैश्विक परिवेश से भारतीय उपमहाद्वीप जिसे पाश्चात्य जगत् घोर रूढ़ीवादी मानता रहा है, भी अछूता नहीं रहा।

आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन की बयार व्यापक रूप से विविधताओं एवं जटिलताओं के मध्य देखी जा सकती है। भारतीय समाज की आधुनिकता में पश्चिमी जगत् का व्यापक प्रभाव पड़ा है। पश्चिमी सभ्यता अंग्रेजों के साथ भारत आई। इस बारे में एम.एन. श्रीनिवास लिखते हैं, ‘‘उन्नीसवीं शताब्दी में अंगे्रजों ने धीरे -धीरे भूमि का सर्वेक्षण करके राजस्व निर्धारण किया, आधुनिक अधिकारी, तंत्र, सेना और पुलिस की स्थापना की, अदालतें स्थापित करके कानून की संहिताएँ बनाई, संचार-साधनों, रेलों, डाक और तार, सड़क नहरों का विकास किया, स्कूलों, कॉलेज की स्थापना की और इन सबके द्वारा एक आधुनिक राज्य की नींव डाली।‘’‘1 इस नींव को राजा राममोहन राय, देवेन्द्र ठाकुर, दयानन्द सरस्वती व भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जैसे कई विद्वानों ने मजबूत कर भारतीय समाज के लिए वैचारिकता के द्वार खोले।

परिणामस्वरूप बीसवीं सदी पूर्व की सदियों की तुलना में प्रखर बदलाव को स्थापित करती है। सामाजिक समानता, राजनीतिक चेतना व आर्थिक विकास की अवधारणाओं ने परम्परागत भारतीय समाज को झकझोर कर नींद से जगा दिया। पर परिवर्तन की इस बयार को कई वर्ग सहज रूप स्वीकार नहीं कर पाये। क्योंकि इस परिवर्तन ने उनके हितों की चुले हिला दी थी। इस अस्वीकार ने व्यापक रूप से वर्ग संघर्ष को उत्पन्न किया। इस वर्ग संघर्ष को समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने कई माध्यमों से समाज के सामने रखने का प्रयास किया जिनमें वैचारिक गोष्ठियाँ, प्रदर्शन एवं साहित्य जगत् के क्रिया-कलापों ने प्रमुख रूप से भूमिका निभाई।

राही मासूम रज़ा

हिन्दी साहित्य ने प्रारम्भ से ही यथास्थितिवाद की प्रकृति को अस्वीकार किया है। ‘प्रगतिशीलता साहित्य की पहचान है’, इस अवधारणा का अनुसरण हिन्दी जगत् के लगभग सभी साहित्यकारों ने किया है। स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों के युग के रूप में जाने जानेवाला 20वीं सदीं का पूर्वार्द्ध देश में होते वैचारिक विस्फोट के बीच साम्प्रदायिक तनाव के दौर से भी गुजर रहा था। ऐसे दौर में साहित्य समाज को एक व्यवस्थित गतिशीलता देने के साथ सामाजिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता की ओर भी आग्रह करता हुआ दिखता है। आजादी के पूर्व व पश्चात् हिन्दी जगत् के कई साहित्यकारों ने समाज के इस द्वंद्व प्रधान संघर्ष का यथार्थ चित्रण किया है जिसमें प्रेमचन्द्र, अज्ञेय, जैनेन्द्र, यशपाल व राही मासूम रजा़ का नाम अग्रणी है।

प्रयोगधर्मी साहित्यकार राही मासूम रजा़ ने अपनी लेखनी द्वारा बदलते सामाजिक परिवेश को बहुत ही सूक्ष्मता से शब्दबद्ध किया है। आज से ठीक 50 वर्ष पूर्व सन् 1966 में लिखा गया ‘आधा गाँव’ उपन्यास राही की प्रतिनिधि रचना होने के साथ-साथ अपने समय की कहानी है। उपन्यास के प्रारम्भ में लेखक अपने पाठकों से कहानी के मूल को स्पष्ट करते हुए लिखता है, ‘‘यह कहानी न धार्मिक है, न राजनीतिक क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक और यह कहानी है समय ही की। यह गंगौली से गुजरने वाले समय की कहानी है। यह कहानी है उन खण्डहरों की जहाँ कभी मकान थे और यह कहानी है उन मकानों की जो खण्डहरों पर बनाये गए हैं।‘‘2 इस तरह कहानीकार समय की कहानी के साथ समाज में होते अनवरत परिवर्तन को इस कथा में व्यक्त करना चाहता है। यह उपन्यास अपने आप में कई विमर्शों को आत्मसाध किए हुए है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, भाषायी विमर्श, आर्थिक विमर्श, सामाजिक सद्भाव जैसे ज्वलंत मुद्दे इस रचना को बहुआयामी बनाते हैं, पर ये सभी मुद्दे भारत विभाजन के दर्दनाक पहलू के इर्द-गिर्द घूमते दिखते हैं। इसका केन्द्रीय विषय विभाजन को अप्रासंगिक व अनुचित घोषित करना है।

भारत विभाजन 20वीं सदी की एक महत्वपूर्ण घटना है जिसने भारतीय उपहाद्वीप में मौजूद सदियों पुरानी सामाजिक एकता को बिखेर दिया। पाकिस्तान की माँग छुट-पुट रूप से सन् 1935 के आसपास प्रारम्भ हुई। प्रस्तुत उपन्यास की कथा भी 20वीं सदी के तीसरे दशक से प्रारम्भ होकर 50 के दशक के मध्य तक फैली है। आजादी से पूर्व सामंतों के समान जीवन व्यापन करने वाला मुस्लिम वर्ग आजादी के बाद बदतर जीवन जीने हेतु बाध्य हुआ। कुछ वर्गों ने इस वर्ग पर यह आरोप लगाया कि विभाजन की पूरी जिम्मेदारी मुस्लिम वर्ग की है, क्योंकि इन्होंने ही इसके पक्ष में वोट दिया। परिणामस्वरूप स्वतंत्रता संग्राम में इस वर्ग के योगदान को योजनाबद्ध तरीके से हटाना प्रारम्भ किया। संकीर्णता से ग्रसित इतिहासकारों द्वारा किये गए इस घृणित कार्य पर बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान आकर्षित करते हुए अशोक कुमार पाण्डेय सवाल करते हैं, ‘‘सन्यासी विद्रोह (जिसमें स्पष्ट मुस्लिम विरोधी ध्वनि है) आजादी की लड़ाई का हिस्सा माना जाता है, लेकिन उसी के साथ चला ‘फकीर विद्रोह‘ नहीं, आर्य समाज का वेद आधारित समाज निर्मित करने के उद्देश्य वाला आंदोलन तो राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा माना जाता है, लेकिन वहाबी आंदोलन नहीं?’’3 विभाजन के बाद परिवर्तित परिवेश में ऐसे सवाल इस वर्ग के प्रति घृणा की नजर से देखनेवालों की सोच पर प्रहार करते हैं।

राही ने आजादी के बाद के दर्द को जमीनी स्तर पर देखा था। अपने इस दर्द की स्वानुभूति पूर्ण अभिव्यक्ति उपन्यास के दबंग पात्र ‘फुन्नन मियाँ‘ के दर्द के रूप में व्यक्त की है। ‘फुन्नन मियाँ‘ का बड़ा बेटा इम्तियाज द्वितीय विश्व में युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ता हुआ मारा जाता है। वहीं दूसरा बेटा ‘मुमताज भारत छोड़ो आंदोलन की हलचल के दौरान एक थाने पर धावा बोलते वक्त मारा जाता है। अंग्रेजों ने बडे़ बेटे की शहादत के बदले उन्हें सरकारी दमन द्वारा पीसा, वहीं आजादी के बाद थाने पर हमला करने वाले को जब क्रांतिकारी घोषित कर उनकी शहीदी के तराने गाए जा रहे थे तब उन शहीदों की सूची में ‘फुन्नन मियाँ‘ के मुमताज का नाम कहीं नहीं था। जब ‘फुन्नन मियाँ’ अपनी आवाज द्वारा नेता का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं तो उनकी आवाज को अनसुना कर दिया गया। ‘फुन्नन मियाँ’ की अनसुनी अकेली आवाज आजादी के बाद हाशिये पर धकेली गई अल्पसंख्यक वर्ग की आवाज के रूप में समझा जा सकता है।

स्वतंत्रता से पूर्व व पश्चात् एक ऐसी विचारधारा देश में रही है जिसने अल्पसंख्यक समाज की देश-भक्ति को शक की दृष्टि से देखा है। विभाजन से पूर्व गुरु गोलवलकर के विचार जो उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफांइड’ (1939) में निहित हैं, उन्हें सिद्धार्थ वरदराजन कुछ इस तरह सांझा करते हैं,‘‘ गोलवलकर का कहना था कि मुसलमान, ईसाई और दूसरे गैर हिन्दू भारतीय सही अर्थों में भारतीय नहीं हैं। और जिनका संबंध हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा से नहीं है, स्वाभाविक रूप से असली राष्ट्रीय जीवन की सीमाओं से बाहर हैं।‘‘4 ऐसे पूर्वाग्रह विभाजन के कारण माने जाते हैं। विभाजन के पश्चात् अल्पसंख्यकों को कदम-कदम पर देश-भक्ति साबित करनी पड़ती रही है। बात-बेबात पर उन्हें पाकिस्तानी घोषित किया जाता रहा है। इन सभी हमलों से त्रस्त उपन्यास का लेखक उपन्यास के लगभग उतरार्द्ध में भूमिका लिखने के बहाने कहानी के बीच में आकर पाठकों से बात करता हुआ दिखता है, लेखक कहता है, ‘‘जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं है। मेरी क्या मजाल की मैं उसे झुठलाऊँ। मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर का हूँ। गंगौली से मेरा संबंध अटूट है। वह एक गाँव ही नहीं वह मेरा घर भी है…. और मैं किसी को यह हक नहीं देता कि वह मुझसे यह कहे कि ‘‘राही तुम गंगौली के नहीं हो।’’5 राही की यह पीड़ा जहाँ उनके वतन के प्रति जुड़ाव को दिखाती है, वहीं साम्प्रदायिक ताकतों के जहरीले इरादों को भी स्पष्ट करती है।

दुनिया भर के प्रगतिशील चिंतकों ने आधुनिक शिक्षा की महत्ता का व्यापक गुणगान किया है। 19वीं सदीं से शिक्षा का ग्राफ क्रांतिकारी रूप से बढ़ता जा रहा है। साथ ही हम देखते हैं कि इसी कालावधि में मनुष्य अधिक हिंसक हुआ है। 19वीं सदी के शिक्षित और विकसित राष्ट्रों ने हिंसक साम्राज्यवाद का अनुसरण किया था जिसकी परिणिती 20वीं सदीं में दो महायुद्धों व लम्बे शीतयुद्ध के पश्चात् 21वीं सदी में अब तक बढ़ती कट्टर सांप्रदायिकता के रूप में हुई। समाजशास्त्रियों का मानना है कि होना इसका उल्टा चाहिए था, यानी कट्टरता की बजाय शिक्षा से समरसता का प्रसार होना चाहिए था, मगर यह मूल्यविहीन शिक्षित समाज ऐसी दिशा की ओर समाज को ले जा रहा जिसका दुष्परिणाम हमारी आने वाली नस्लें भुगतेंगी।

शिक्षित समाज और परम्परागत समाज के मध्य बढ़ते असामंजस्य को आलोच्य उपन्यास में बहुत निर्भीकता से व्यक्त किया है। उपन्यास का अनपढ़ पात्र ‘छिकुरिया‘ एक दिन शिक्षित समाज के बारे में जानने के लिए शहर जाता है तो वहाँ स्कूल का मास्टर उसे मुसलमानों के खिलाफ भड़काना चाहता है, मगर लाख कोशिश करने के बावजूद वह छिकुरिया को गुमराह नहीं कर पाता है। घर लौटते वक्त ‘छिकुरिया’ निराश होकर सोचता है कि अगर पढ़ाई लिखाई से इंसान-इंसान भेद करना सीखता है तो मैं अपने बच्चों को कभी भी स्कूल नहीं भेजूँगा। इसी तरह का दूसरा उदाहरण उस समय पाठकों के सामने आता है जब अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र गंगौली के ही ‘कम्मो’ से पाकिस्तान बनाने के लिए समर्थन माँगने आते हैं। कम्मों को हिन्दुओं के खिलाफ भड़काते हुए वे कहते हैं, ‘‘जब हिन्दू आपकी माँ-बहन को निकाल ले जाएं तो हमसे फर्याद न कीजिएगा।‘‘6 इसके ऊपर में ‘कम्मो’ उन पर गुस्सा हो जाता है। पास ही से गुजरने वाला चमार गुस्से का कारण जानकर दंग रह जाता है। वह चमार अलीगढ़ वालों से कहता हैं, ’’आप लोगत लिक्खल पढ़तल बुझाताड़ी। तनी सोची कि हमनी के जीयत कोउ मियाँ लोगन की बहन-मतारी की तरफ देख सकेला?’’7 इन उदाहरणों में तथाकथित शिक्षित समाज जो अपने अधिकारों तक सीमित रहता है, के ऊपर देहाती समाज में विद्यमान समरसता को महत्व दिया गया है। यह समरसता किताबी ज्ञान की देन नहीं, बल्कि विभिन्न मतों के वर्गों के मध्य वर्षों तक साथ रहने से आई है।

पर यह समरसता धीरे-धीरे क्षीण हो रही है, क्योंकि बाहरी तत्व इसे कमजोर करने पर तुले हुए हैं। गंगौली के आसपास के लोगों में साम्प्रदायिकता का जहर बाहर से आए एक स्वामी जी कैसे फैला रहे हैं, इसका परिचय लेखक हमें इस प्रकरण से देता है, लेखक लिखता हैं, ‘‘धर्म संकट में है। गंगाजली उठाकर प्रतिज्ञा करो कि भारत की पवित्रभूमि को मुसलमानों के खून से धोना है।’’ स्वामी जी जोश में आ चुके थे।…… फिर मजमा खड़ा हो गया। स्वामीजी अंधेरे में दूसरे गाँव की तरफ चले गये। और जब वह चले गये तो मजबूर होकर भीड़ को खुद सोचना पड़ा। और उसने सोचा कि मुसलमान तो मुसलमान है।…. इसलिए ‘बजरंगबली की जय‘ बोलती हुई भीड़ बारिखपुर की तरफ चल पड़ी।’’8 उपन्यास में आये ये उदाहरण इस ओर इशारा करते है कि कितनी सुनियोजित योजना से भारतीय सामाजिक ताना-बाना तोड़ा जा रहा है।

बिखरते सद्भाव के कारणों की ओर इशारा करते हुए राही बताते हैं कि हमारे पूर्वजों को उनके पूर्वजों से कुछ रवायतें मिली थीं। मगर आज की पीढ़ियों के पास सिर्फ सियासी नारे हैं जिनमें से समरसता गायब है। समरसता विहिन शिक्षा के दुष्परिणामों की व्यापक परिणिती 80 के दशक में आई सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ के रूप में हुई। जिसके कारण भारतीय संविधान एवं मानवीय मूल्यों को एक प्रकार से सांप्रदायिक ताकतों ने अस्वीकार कर दिया। इन बदले हालातों पर चिंता व्यक्त करते हुए कुलदीप नैय्यर लिखते हैं, ‘‘सच है कि भारत ने एक सेकुलर संविधान को अपनाया और इसकी प्रस्तावना में सेकुलरिज्म शब्द रखा गया है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और 1984 में हजारों सिख मारे गए। सेकुलरिज्म शब्द झूठा लगने लगा।‘‘9

भारतीय समाज एक वर्ण प्रधान समाज है। यहाँ जातिवाद पुरानी शराब के समान अपना स्थान बनाये हुए है। इस्लाम जातिवाद एवं गैर बराबरी को अस्वीकार करने वाले धर्म के रूप में जाना जाता है। मगर भारत में इसकी स्थिति काफी अलग है। यहाँ के मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग जातिवादी समाज से धर्मान्तरित होकर बना है। इसलिए भारतीय इस्लाम में जातिवाद का प्रभाव है। इस तथ्य को बी.बी.सी. की एक रिपोर्ट में पुष्टि प्रदान होती है, रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘इस विषय पर काम करने वाले राजनीति विज्ञानी डॉक्टर आफताब आलम कहते हैं, ‘‘भारत और दक्षिणी एशिया में रहने वाले मुसलमानों के लिए जाति और छुआछूत जीवन की एक सच्चाई है। अध्ययनों से पता चलता है कि ‘‘छुआछूत इस समुदाय का सबसे ज्यादा छुपाया गया रहस्य है। शुद्धता और अशुद्धता का विचार साफ और गंदी जातियाँ मुसलमानों के बीच मौजूद है।’’10

आलोच्य उपन्यास में गंगौली के शिया मुसलमानों की स्थिति पर ज्यादा प्रकाश डाला गया है जो सैय्यद है। समाजिक दर्जे में वे अपने आपको अन्य से उच्च मानते हैं। उपन्यास के वे पात्र जो बाहरी समुदाय व नई शिक्षा के प्रभाव को देख व समझ आए हैं, वे गाँव की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं। कुछ ऐसी स्थिति ‘अब्बास’ के साथ बनी हुई है। उसकी स्थिति पर लेखक लिखता है, ‘‘उसने सोचा कि मियाँ लोगों की गैर हाजिरी का फायदा उठाकर वह अनवारूल हसन राकी के लड़के फारूख से क्यों न मिल आये जो अलीगढ़ में ही पढ़ता था और उसका सीनियर था। और अखिल भारतीय मुस्लिम स्टूडेन्ट फेडरेशन का उपसभापति था। मियाँ लोगों के सामने तो वह राकियाने जा नहीं सकता था। बडे़ जूते पड़ते। ‘‘मियाँ अब्बू तुम इतने बडे़ हो गये और तुम्हें यह भी नहीं मालूम कि अशराफ राकियों-वाकियों के दरवाजे पर नहीं जाते।’’11 विभाजन के बाद जब शक्तिशाली शिक्षित व संपन्न वर्ग पाकिस्तान चला जाता है तो गंगौली के सैय्यदों की मान्यताएँ ढह जाती हैं। आर्थिक तंगी, बेटियों की बढ़ती उम्र व बदलते राजनीतिक समीकरणों ने इस वर्ग को समझौता करने के लिए मजबूर कर दिया। रिश्तों में हड्डी की शुद्धता को महत्व देने वाले ‘हुसैन अली मियाँ’ को बदले हालात से परिचय कराते हुए ‘फुन्नन मियाँ’ कहते हैं, ‘‘पगला गये हौ का ?…. ई सय्यदी बघारे का जमाना है ? अरे मियाँ जै दिन इज्जत आबरू से गुजर जाए गनीमम जानो।’’12 ‘फुन्नन मियाँ’ के शब्दों में समय की समझ देखी जा सकती है। सुधार आंदोलनों, शैक्षिक व आर्थिक बदलाव ने देश के परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन किया है। यह परिवर्तन सामंत वर्ग व उच्च वर्ग के सदियों पुराने स्वाभिमान के लिए त्रासदी के रूप में आया है। उपन्यास के उत्तरार्ध में कई सवर्ण पात्रों को दलितों के यहाँ नौकर के रूप में दिखाकर लेखक ने नये युग के प्रारम्भ की सूचना सार्वजनिक की है।

‘आधा गाँव’ के संदर्भ में कई विद्वानों का मानना है कि उपन्यास की कहानी केवल गंगौली की न होकर सम्पूर्ण भारत की है। उपन्यास के बारे में यह धारणा ऐसे ही नहीं बनी। इसके पीछे राही ने समाज की विद्रुपता को पहचानते हुए उसकी आँखों में आँखें डालकर आम जनता के दर्द को इस कथा द्वारा साझा करना रहा है। इस उपन्यास पर कई तरह के आरोप लगे। इस संदर्भ में राही एक जगह लिखते हैं, ‘‘इस कहानी के पीछे मैंने मुहर्रम का पर्दा जान-बूझकर टाँगा है। मुहर्रम का परदा अपने आप को ढाढस बँधाने के लिए है कि सच बोलने के लिए सिर पर कफन बाँधना ही पड़ता है। चुनाचें जब राजस्थान के कुछ पढे़ लिखों ने ‘आधा गाँव’ पर यह इल्जाम लगाया कि उपन्यास ‘हिन्दू-दुश्मन’ और ‘पाकिस्तानी’ है तो मैंने बुरा नहीं माना। जब साहित्य अकादमी ने इस उपन्यास पर यह आरोप लगाया कि इसकी भाषा गंदी है तो मैं हँस दिया क्योंकि यह बात साहित्य अकादमी को नहीं मालूम पर मुझे मालूम है कि भाषा कभी गंदी नहीं होती।’’13 राही के इस वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि यह कृति समाज में होते सामाजिक, शैक्षिक व राजनीतिक परिवर्तन के बीच साम्प्रदायिकता के विविध पहलुओं को उद्घाटित करती है। रचनाकार ने इसमें अपनी सफल प्रस्तुति दी है।

संदर्भ –
1. एम.एन. श्रीनिवास, आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ. 55
2. राही मासूम रजा़, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989, पृ. 3
3. शान्तिमय रे, आजादी का आंदोलन और भारतीय मुसलमान, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, नई दिल्ली, 2013, पृ. 18
4. सिद्धार्थ वरदराजन (सं.) गुजरात हादसे की हकीकत (अनु. मोहम्मद वकास व जितेन्द्र कुमार), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ. 29
5. राही मासूम रजा़, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989, पृ. 297-98
6. वही, पृ. 245
7. वही, पृ. 245
8. वही, पृ. 281
9. कुलदीप नैय्यर, दैनिक नवज्योति, उदयपुर, 16/12/2015 पृ. 8
10. सौतिक बिस्वान, दलित मुसलमानों के घर न जाते हैं, न खाते हैं, इबब बवण् नाध्ीपदकपए 10 मई 2016
11. राही मासूम रजा़, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1989, पृ. 56
12. वही, पृ. 344
13. भीष्म साहनी (सं.), आधुनिक हिन्दी उपन्यास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 451

मोहम्मद हुसैन डायर द्वारा लिखित

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