रचनात्मक हस्तक्षेप का ‘जुटान’: रिपोर्ट (मज्कूर आलम)
रचनात्मक हस्तक्षेप का ‘जुटान’
मज्कूर आलम
25 अप्रैल को नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में साहित्यिक संस्था ‘जुटान’ का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में देशभर के आंदोलनकर्मी और साहित्यकारों ने शिरकत की। इस मौके पर लगभग तमाम साहित्यकारों और आंदोलनकर्मियों ने इस बात की आवश्यकता जताई कि साहित्य में प्रतिरोध का स्वर बुलंद होना चाहिए। कुछ वक्ताओं ने तो यहां तक कहा कि साहित्य का अर्थ ही होता है प्रतिरोध का स्वर। साहित्य कभी सत्ता के साथ खड़ा नहीं होता। वह हमेशा जनपक्षधर होता है और हाशिए के लोगों की बात करता है। बातचीत की शुरुआत ‘जुटान’ के संयोजक और कार्यक्रम के मंच संचालक रंजीत वर्मा के इस वक्तव्य से हुई कि आज देशभर में बिखरे हुए प्रतिरोधी स्वरों को जोडऩे की जरूरत है, ताकि सत्ता निरंकुश न हो।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में साहित्यकार इब्बार रब्बी ने कहा कि यह एक ऐसा दौर है, जब फासीवादी ताकतें ज्यादा सक्रिय हो गई हैं और वह मध्यकाल की वापसी चाहती हैं। तब के राजा खुद को ईश्वर का प्रतिनिधि बताया करते थे यानी राजा ने जो कहा वही धर्म है। वह ईश्वर का प्रतिनिधि होता है, इसलिए उसकी कही किसी बात का विरोध नहीं हो सकता। उसका विरोध करना अधर्म है। अगर कोई सच बोलता है तो उस पर हमले हो सकते थे, यहां तक की जान भी ली जा सकती है। कुछ-कुछ ऐसा ही दौर आज भी दिख रहा है, लेकिन हमें इस सच को देखना-समझना होगा और इससे बाहर आने का रास्ता खोजना होगा। इन तमाम बातों पर उन्होंने इतिहास के उद्धरणों के माध्यम से विस्तार से रोशनी डाली।
अध्यक्ष मंडल में शामिल लखनऊ से आए वरिष्ठ साहित्यकार वीरेंद्र यादव ने कहा कि हमें याद होगा कि हाल-फिलहाल में नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे, कलबुर्गी जैसे कई समाजसेवियों पर हमले हुए। लेकिन यह उन पर व्यक्तिगत हमला नहीं था, बल्कि यह ज्ञान पर हमला था, क्योंकि फासीवाद हमेशा अंधविश्वास पर ही पनपता है। इसलिए उनके लिए यह बेहद जरूरी है कि वह ऐसे लोगों के साथ शिक्षा के संस्थानों को ध्वस्त कर दें, जो समाज से अंधविश्वास मिटा रहे हैं। यही वजह है कि न सिर्फ जेएनयू पर, बल्कि हैदराबाद, जाधवपुर जैसे तमाम शिक्षा केंद्रों पर हमले किए गए और किए जा रहे हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि इनका विरोध भी उन्हीं कैम्पसों में हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि आजादी के बाद हमने यह सोचकर पॉलिटिकल डेमोक्रेसी को अपनाया था कि बाद में यह विकसित कर सोशल और और एकोनॉमिकल डेमोक्रेसी में बदल जाएगा, लेकिन हुआ क्या? वह इसके उलट फासीवाद में बदलता चला गया। इसी तरह अंबेडकर और लोहिया जैसे नेताओं ने हाशिए के समाज को सामाजिक बदलाव के उद्देश्य से एकजुट किया था, लेकिन वह भी महज वोटबैंक में तब्दील होकर रह गया। वहीं मुख्य वक्ता सत्यव्रत चौधरी ने कहा कि हमें नए सिरे से सोचने की जरूरत है। साहित्य को वर्तमान समय के हिसाब से चलना होगा। यह सच है कि इस वक्त पूरी दुनिया में दक्षिणपंथ का वर्चस्व दिख रहा है, लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि कोई भी फासीवादी ताकत बहुत लंबे समय तक वर्चस्व बनाकर नहीं रख सकती। वह अंधविश्वासों पर जीती है। वह जब भी आती है, सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करती है। समाज से ज्ञान को खत्म करती है। लेकिन इससे लडऩे का उपाय भी इन्हीं रास्तों से जाता है। हमें ज्यादा से ज्यादा ज्ञान का प्रसार करना होगा।
सुभाष गाताडे ने भी अपनी बात यहीं से शुरू करते हुए कहा कि ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में दक्षिणपंथ का उभार दिख रहा है, यह इस वक्त का वैश्विक मसला है। अमरीका, फ्रांस, फिलीपींस, जर्मनी हर जगह इन दिनों दक्षिणपंथ उभार पर है। इसलिए यह जरूरी है कि हम दक्षिणपंथ और उनके नेताओं के अतीत के बारे में लोगों को बताएं। इतिहास के माध्यम से उसका विश्लेषण कर उसे लोगों के बीच ले जाएं। लोगों को उन नेताओं के अतीत से जुड़ी बातें और बयान की भी याद दिलाएं, क्योंकि ऐसे तमाम दक्षिणपंथी नेताओं का दामन दागदार होता है। इससे हमें काफी मदद मिल सकती है। तो वहीं वरिष्ठ लेखक-विचारक पंकज विष्ट ने कहा कि वह हमारे मुद्दे लेकर लोगों के बीच जा रहे हैं और हम कहां हैं। हम कहीं नहीं हैं। अब भी एकांत में लिखने में व्यस्त हैं। कम से कम इन दिनों सिर्फ साहित्य से काम नहीं चलने वाला। यह वह स्थिति नहीं है कि हम सिर्फ लिखें और उम्मीद करें कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। सबकुछ बदल जाएगा। उन्होंने देश में खत्म होती नौकरियों की चर्चा करते हुए कहा कि पूंजीवाद की वजह से एक वक्त ऐसा आएगा कि नौकरियां न के बराबर होंगी। बेरोजगारों की फौज बढ़ जाएगी और अभी तक हम धर्म निरपेक्षता के नाम पर उन्हीं पूंजीवादी नीतियों और तौर-तरीकों का समर्थन करते आएं हैं। इसलिए यह समस्या भयावह हुई है।
अध्यक्ष मंडल में शामिल गोरखपुर से आई वरिष्ठ कवियित्री कात्यायिनी ने कहा कि जरूरत इस बात की है कि सच को सच की तरह कहा जाए। हमें अपना पक्ष चुनना होता है। हमें तय करना होगा कि हम कहां खड़े हैं। क्या एक लेखक पुरस्कारों का मोहताज होता है। अगर ऐसा है तो फिर आपका लेखन किस काम का। अगर आप यह सोच रहे हैं कि आप उनके टूल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं तो माफ कीजिएगा आप गलत हैं। सच तो यह है कि वह आपका इस्तेमाल कर रहे हैं। याद रखिए कि फासिज्म वित्तीय पूंजी की सेवा करता है। यह मध्यवर्ग की लालसाओं की देन है। आपको इनसे पार पाना होगा। आपको इनसे लडऩा होगा। लिखकर भी और सडक़ों पर उतरकर भी। अगर आप डर रहे हैं कि आप पर हमले हो सकते हैं तो डरते रहिए। यह सोचकर मस्त रहिए कि आप बच जाएंगे, लेकिन यह आप भूल रहे हैं कि वह सरकार है। वह हमारी तरह काम नहीं करती। सबकी रिपोर्ट है उसके पास। वह इस तरह काम नहीं करती कि आज मन है तो 9 बजे तक सो जाएंगे। वह अपना काम करती है, लगातार। आपकी रिपोर्ट भी है उसके पास। बस यह वक्त की बात है कि कब आप उनके राडार पर आते हैं। इसलिए विरोध कीजिए। डरिए मत।
वहीं आर्थिक विश्लेषक और कथाकार मुशर्रफ अली ने कहा कि हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम उनके मुद्दों में फंस जा रहे हैं। वह जो मुद्दा उठाते हैं हम उसी पर बात करने लगते हैं। जैसे आतंकवाद की बात करें तो पिछले 30-40 सालों में कुछ हजार लोग मरे हैं, लेकिन इसी देश में कुपोषण का शिकार होकर दुनियाभर में 39 लाख से ज्यादा बच्चे मरे हैं, जिनमें से 12 लाख से ज्यादा बच्चे भारत में काल-कवलित हुए हैं। लेकिन हम इस पर बात नहीं कर रहे। इन मुद्दों पर सरकार को घेर नहीं रहे। नहीं पूछ रहे कि हमारे बच्चे कब कुपोषित नहीं रहेंगे। इनके बदले हम उनके मुद्दों पर बात करे रहें। याद रखिए हमें अपने मुद्दे तय करने होंगे। हमें उनके मुद्दों पर नहीं, बल्कि अपने मुद्दों पर बात करनी होगी और उसे लेकर उन पर दबाव बनाना होगा। कुपोषण, शिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी जैसे अनेक मुद्दे हैं, जिसे आंकड़ों के साथ सहज भाषा में लेकर हम जनता के बीच जा सकते हैं। उनसे इन मुद्दों पर संवाद कर सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसा हो नहीं रहा है।
दक्षिण भारत से आई गीता हरिहरन का पूरा जोर इस बात पर था कि प्रतिरोध के स्वर वाले सारे संगठनों के बीच एक सामंजस्य बनाया जाए और लोग एक-दूसरे के साथ मिल-बैठकर बातें करें। आंदोलन करें और जनता के बीच जाएं। अलग-अलग ग्रुप के लोगों को बिना इस बात की चिंता किए कि इसका क्रेडिट उन्हें मिलेगा या नहीं, वे एक-दूसरे के आंदोलनों कार्यक्रमों में शामिल हों और अपना प्रतिरोध जारी रखें। लेखन के माध्यम से भी और आंदोलन के माध्यम से भी।
कार्यक्रम में शिरकत करने लखनऊ से आए कवि कौशल किशोर ने कहा कि यह एक खास समय है। यह एक ऐसा समय है, जिसमें इतिहास को गर्क करने की कोशिश की जा रही है। यह प्रलोभन-दमन का समय है। ऐसे समय में महज लिखने और बौद्धिक संवाद से काम नहीं चलेगा। यह वक्त की मांग है कि जनसंवाद किया जाए और उम्मीद है कि ‘जुटान’ का यह पहल इस दिशा में सार्थक साबित होगा।
वरिष्ठ साहित्यकार और कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रह चुके विष्णु नागर का कहना था कि सबसे पहली जरूरत लोकतंत्र को बचाने की है। हम अब भी अपनी लड़ाई अलग-अलग लड़ रहे हैं। हम स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रहे। हमें एक होकर फासीवाद के खिलाफ यह लड़ाई लडऩी होगी। चाहे वह गांधीवादी हो, अंबेडकरवादी हो या फिर लोहियावादी, समाजवादी, लोकतंत्र को बचाने की सबको मिलकर लड़ाई लडऩी होगी। हमें यह समझना होगा कि आर्थिक उदारीकरण ने समूह को अलग-अलग व्यक्तियों में बदल दिया है। हमें संगठित होना होगा। आपने सुना है कि इन 70-71 सालों में किसी पूंजीपति के काले धन के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई। अब तो एक बिल लाकर यह कानून भी बना दिया गया है कि कॉरपोरेट्स राजनैतिक दलों को जितना चाहे उतना पैसा दे सकते हैं और इस बारे में उनसे कोई सवाल भी नहीं पूछा जाएगा। याद रखें साथी यह आवारा पूंजी का दौर है। यह स्थिति बेहद खतरनाक है। इससे निबटने के लिए हमें एक प्लेटफॉर्म पर आना ही होगा। नहीं तो वह वक्त भी आएगा कि हम विरोध की स्थिति में भी नहीं रहेंगे।
पंजाब से आए साहित्यकार राजविंदर मीर ने कहा कि वर्तमान में ज्ञान और तर्क पर हमले किए जा रहे हैं। अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमें इन्हें इन्हीं के अंदाज में जवाब देना होगा, तो पंजाब के ही लेखक बल्ली सिंह चीमा ने कहा कि जब तक हम लालच को नहीं ठुकराएंगे, तब तक बात नहीं बनेगी। जेएनयू से आई युवा छात्र नेत्री चिंटू कुमारी ने कहा कि शिक्षा के मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा है। जेएनयू को खत्म करने की साजिश है। बेहतर भविष्य और पढ़ाई का स्वप्र लेकर आई हम जैसी अनेकों लड़कियां वापस जा रही हैं। उसके बाद क्या होगा उनका। उनकी शादी कर दी जाएगी। वह घर-गृहस्थी में बंध जाएंगी और कुछ कर गुजरने का उनका स्वप्र टूट जाएगा। हैदर रिजवी ने कहा कि यह हमारी ही गलती है कि समय रहते हम उन्हें सचेत नहीं कर पाएं, जो इन नीतियों के शिकार हो रहे हैं। उनके बीच नहीं जा पाएं, जिनको सबसे ज्यादा जरूरत थी। हमें अपनी गलतियां सुधारनी होगी और ऐसे कार्यक्रमों को उनके बीच लेकर जाना होगा, जिनको सबसे ज्यादा जरूरत है।
कार्यक्रम में विचार व्यक्त करते हुए विचारक अनिल चमडिय़ा ने कहा कि हमें अपने बात करने का ढंग बदलना होगा और यह भी समझना होगा कि स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे तमाम मुद्दे राजनैतिक हैं। हम यह कह कर नहीं बच सकते कि इस पर क्या बात करें, यह मुद्दा तो राजनैतिक नहीं है और अपनी बात सहज भाषा में कहनी होगी। उसे ज्यादा गंभीर नहीं बनाना होगा। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात यह कही कि ऐसे कार्यक्रम दिल्ली में रोज होते हैं, लेकिन होता कुछ नहीं। इसलिए अहम यह है कि यहां से हम क्या लेकर जाते हैं। क्या निष्कर्ष निकालते हैं और उस पर किस तरह अमल करते हैं। अगर ऐसा करने में हम सफल रहें तो यह न सिर्फ कार्यक्रम की सफलता होगी, बल्कि इससे समाज का भी भला हो सकता है।
जहाँ कार्यक्रम की शुरुआत रामनगर उत्तराखंड से आए अजीत सहनी ने क्रांतिगीत से कार्यक्रम में जान डाल दी तो बीच-बीच में वह जनवादी गीत सुनाकर लोगों में जोश भरते रहे। वहीँ ‘जुटान’ का अन्तिम सत्र कवि गोष्ठी का था। इस सत्र में करीब डेढ़ दर्जन कवियों ने कविता पाठ किया। इसमें दिल्ली, पंजाब, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश व झारखण्ड से आये कवि शामिल थे। कवियों ने कविता के माध्यम से अपने समय की पहचान कराई। चर्चित कवयित्री कात्यायनी ने तीन कविताएं सुनाई। ‘नये रामराज का फरमान’ के द्वारा उन्होंने इस कथित रामराज से परिचित कराया तो वहीं वे ‘आस्था के प्रश्न’ में कहती हैं ‘तर्क नहीं होता आस्था के पास/आंखें नहीं होतीं’। लखनऊ से आए जाने माने कवि भगवान स्वरूप् कटियार ने दो कविताएं सुनाईं। ‘तानाशाह’ कविता में वे इस यथार्थ को सामने लाते हैं कि किस तरह आज संविधान व लोकतंत्र पर खतरा बढ़ता जा रहा है। तानाशाह सब कुछ नष्ट करने में लगा है। वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने नई अर्थ संवेदना से पूर्ण ‘मधु’ शीर्षक से कविता सुनाई। कैसी है न्याय व्यवस्था ? इसकी सच्चाई का उदघाटन करती कविता ‘न्यायपालिका’ का पाठ किया रंजीत वर्मा ने।
इस मौके पर कई युवा कवियों ने भी अपनी कविताएं सुनाईं। रांची, झारखण्ड से आई जसिंता करकटा का कहना था ‘शक्तियां खत्म कर देना चाहती है स्त्रियों को’। रामजी यादव ने अपनी कविता ‘दिल्ली’ के माध्यम से विस्थापन की पीड़ा को व्यक्त किया। मजकूर आलम ने रोहित वेमुला के उस पत्र का अत्यन्त संवेदित कर देने वाला काव्य रूपान्तरण प्रस्तुत किया। प्रेम पर बढ़ रहे संकट को बनारस से आए कवि विनोद षंकर कुछ यूं बयां करते हैं ‘मैं रोमियो हूं/जूलियट से प्यार करता हूं/प्यार के लिए पहले भी लड़ा हूं/ अब भी लड़ूंगा’। उत्तराखण्ड से आए अजीत साहनी ने अवतार सिंह पाश की मशहूर कविता ‘युद्ध और शांति’ का पाठ किया। पंजाबी कवि राजविन्दर सिंह मीर, जितेन्द्र जितांशु, इंदर बेलाग, ललित पुलास, कमलेश आदि ने भी कविताएं सुनाईं।
कवि गोष्ठी का संचालन नित्यानन्द गायेन ने किया। उन्होंने ‘हमसे गाया नहीं जायेगा कोई जयगान राजा के प़क्ष में…..’ कविता भी सुनाई। गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कौषल किशोर ने कहा कि कविता अपने समय को रचती है, वह लोगों को बदलाव के लिए तैयार करती है। ‘कविता 16 मई के बाद’ अभियान ने कविता में प्रतिरोध की जिस आवाज को ऊंचा किया ‘जुटान’ उसे साहित्य व समाज में विस्तारित किया है। मुक्तिबोध कहते हैं कि कविता कभी खत्म नहीं होती। मतलब साफ है कि कविता निराशा को खत्म करती है, संकट में आगे बढ़ने का रास्ता देती है। इस मौके पर कौशल किशोर ने ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ कविता का पाठ भी किया।
वहीं पटना से आए पत्रकार संजय झा ने अपने जोशपूर्ण भाषण से कार्यक्रम में उपस्थित लोगों में उत्साह का संचार कर दिया। उन्होंने जुटान को संबोधित कर यह कहा कि वह इस कार्यक्रम को बिहार-झारखंड में भी लेकर जाएंगे, बस आप तारीख तय कर दीजिए। इनके अलावा राजविंदर मीर पंजाब में, अजीत सहनी उत्तराखंड में और विनोद शंकर बनारस में जुटान का कार्यक्रम आयोजित करवाने जा रहे हैं।
इन प्रमुख वक्ताओं के अलावा बनारस से आए विनोद शंकर, देहरादून से आए जितेंद्र भारती, रांची से आई जसिंता करकेट्टा, छत्तीसगढ़ से आई अपर्णा समेत देशभर के आठ राज्यों से आए साहित्यकारों-आंदोलनकर्मियों ने भी अपने अहम विचार व्यक्त किए। अंत में सभी साहित्कारों-आंदोलनकर्मियों का आभार व्यक्त करते हुए रंजीत वर्मा ने कहा कि यह कारवां रुकेगा नहीं। इसे हम देश के अलग-अलग राज्यों और गांवों में लेकर जाएंगे। हमारा अगला कार्यक्रम अगले महीने की 25 तारीख को बिहार के गया शहर में होगा।
इसके अलावा कार्यक्रम में कई साहित्यकार और आंदोलनकर्मी जैसे उद्भावना के संपादक अजेय कुमार, देवेंद्र गौतम, तेज प्रताप सिंह, रामजी यादव, नित्यानंद गायेन, सुयश सुप्रभ, राधेश्याम मंगोलपुरी, चंद्रिका, आशीष मिश्र, अनुपम सिंह, मुकुल सरल, अरुण प्रधान, राजेंद्र प्रसाद सिंह, अजय मोदक, हिमांशी जोशी, सुरेन्द्र ग्रोवर, प्रगति आर्य, सुमित, अम्बरीष राय, भगवानस्वरूप कटियार, राजीव कार्तिकेय, इंदर बेलाग, ललित फुलारा आदि शामिल थे।
कार्यक्रम के अंतिम सत्र में कवि सम्मेलन भी आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि कौशल किशोर ने की तो मंच संचालन कवि नित्यानंद गायेन ने किया।