भारतीय साहित्य का इतिहास विश्व भर में सर्वाधिक प्राचीन, प्रौढ़ और कालमय हैं। साहित्यिक आदान- प्रदान तथा राष्ट्रीय चेतना को विकास के लिए भी अनुवाद एक सशक्त उपादान है। आदान- प्रदान की प्रक्रिया जीवन के सभी क्षेत्रों में निरंतर होती है। इस प्रक्रिया से ही मनुष्य सुसंस्कृत, सुबुद्ध एवं समृद्ध हो सकता है।
वर्तमान समय में अनुवाद की उपादेयता
मुदस्सिर अहमद भट्ट
अनुवाद आधुनिक युग की मांग की उपज हैं । संसार में ज्ञान असीम है और उस असीम ज्ञान को अर्जित करने के लिए जीवन सीमित है । यह भी सत्य है कि संसार का समग्र ज्ञान- विज्ञान किसी एक भाषा में समाहित नहीं हैं । वह तो सैंकड़ों भाषों में फैला हुआ है। यह कहना भी असंगत नहीं होगा कि समय, श्रम, धन एवं प्रतिभा की सीमाओं के कारण मनुष्य को संसार की सभी भाषाओं को सीखना असंभव है । अतः वह संसार की समग्र भाषाओं में स्थित ज्ञान- विज्ञान तक कैसे पहुंचे ? अनुवाद का महत्व इसी प्रश्न के उत्तर में निहित है । एक पहलू यह भी है कि मानव जीवन के अभाव की पूर्ति एवं जिज्ञासाओं की प्राप्ति के प्रयास के रूप में अनुवाद का जन्म हुआ ।
अनुवाद की उपादेयता का प्रतिपादन करते हुए रामचंद्र वर्मा लिखते हैं – “आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य का आरम्भ ही वस्तुतः अनुवादों से हुआ था । ऐसा होना प्रायः अनिवार्य भी था और अनेक अंशों में उपयोगी तथा आवश्यक भी । आजकल किसी नई भाषा को अपने पैरों पर खड़ा होने के समय दूसरी भाषाओं का सहारा लेना ही पड़ता है और स्वतंत्र साहित्य की रचना का युग प्रायः अनुवाद युग के बाद ही आता है । पहले दूसरी भाषाओं के अच्छे- अच्छे अनुवाद प्रस्तुत होते है । उन अनुवादों की साहयता से पाठकों का ज्ञान बढ़ता और उनकी आँखें खुलती है…1 ” भारतीय साहित्य का इतिहास विश्व भर में सर्वाधिक प्राचीन, प्रौढ़ और कालमय हैं। साहित्यिक आदान- प्रदान तथा राष्ट्रीय चेतना को विकास के लिए भी अनुवाद एक सशक्त उपादान है। आदान- प्रदान की प्रक्रिया जीवन के सभी क्षेत्रों में निरंतर होती है। इस प्रक्रिया से ही मनुष्य सुसंस्कृत, सुबुद्ध एवं समृद्ध हो सकता है। भाषा के क्षेत्र में भी इस प्रक्रिया का महत्व कम नहीं है। इसी प्रवाह में भाषा की समृद्धि होती है। शब्द सम्पदा की अभिवृद्धि के साथ उसकी अभिव्यंजना क्षमता भी पुष्ट होती है। इस संदर्भ में रामचंद्र वर्मा ‘अच्छी हिंदी’ नामक पुस्तक में लिखते है- “जब भाषा पूर्ण रूप से पुष्ट तथा साहित्य परम उन्नत हो जाती है, तब भी अनुवादों की आवश्यकता बनी ही रहती है। अन्यान्य भाषाओं में जो अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ प्रकाशितं होते है, उनके अनुवाद भी लोगों को अपनी भाषा में प्रकाशित करने ही पड़ते हैं। यदि ऐसा न हो तो एक भाषा के पाठक दूसरी भाषाओं के अच्छे- अच्छे ग्रंथों और उनमें प्रतिपादित विचारों तथा सिद्धांतों के ज्ञान से वंचित ही रह जाएं। उस अवस्था में पहुँचने पर भाषा साहित्यों में परस्पर होड़ सी होने लगती है… ।”2
स्वयं को दूसरों के सामने प्रकट करना तथा दूसरों के बारे में कुछ तो जानने की जिज्ञासा रखना मनुष्य का स्थायी भाव होता है जिसके लिए उसे भाषा की आवश्यकता होती है। परन्तु स्थिति यह है कि दुनिया के सभी देश की भाषाएँ भिन्न- भिन्न मिलती है, जिससे संपर्क बनाये रखना कठिन होता है। अतः अनुवाद के माध्यम से ही संपर्क किया जा सकता है। वही दूसरी और अनुवाद ज्ञानात्मक तथा विज्ञानार्जन का मुख्य साधन है। सभी प्रकार की, देश- विदेश की ज्ञानात्मक सामग्री हमें अनुवाद के कारण ही उपलब्ध हो सकती है।
अनुवाद भाषा समृद्धि का साधन है। अनुवाद से स्रोत भाषा की विशेषताएं, उसकी अभिव्यंजना, शब्द शक्तियां, कहावतें, मुहावरें तथा शैली का भी बोध होता है। इस संदर्भ में डॉ. पी. जयरामन का कथन है- “भाषा तथा उसके साहित्य की प्रवृतियों से परचित होने का एकमात्र साधन अनुवाद है”।3 भाषिक समृद्धि के साथ- साथ अनुवाद से साहित्यिक समृद्धि भी होती है। आज अनुवाद के कारण ही मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलगु, मलयालम, बंगला तथा गुजराती जैसी अनेक भारतीय भाषों का साहित्य हिंदी में उपलब्ध है।
अध्ययन तथा अनुसंधान २०वीं शताब्दी के ज्ञानात्मक क्षेत्र की चरम उपलब्धियां हैं। अब संसार की अनेक भाषाओं के अध्ययन एवं अनुसंधान का लाभ एक दूसरे को हो रहा है। प्रत्येक देश एक दूसरे के ज्ञानात्मक तथा विज्ञानात्मक अध्ययन से और शोधकार्य से लाभान्वित हो रहा है। इसके साथ ही साहित्यिक, सामजिक और वैज्ञानिक आदि सामग्री के तुलनात्मक अध्ययन का एक नया आयाम खुल गया है। यह अनुवाद का ही चमत्कार है कि अंतर्राष्ट्रीय साहित्य का अध्ययन और अध्यापन भारतीय भाषाओँ में संभव हुआ है। इसके कारण ही हम तोल्स्तोय उपन्यासों और शेक्सपियर के नाटकों से परिचित हुए है। अनुवाद के माध्यम से कामू, सात्र और बैकेट से लेकर पाब्लो नेरुदा तक की रचनाओं से भारतीय पाठक लाभान्वित हैं। अनुवाद ने न केवल पाठकीय रूचि को अंतर्राष्ट्रीय आस्वाद प्रदान है बल्कि अध्ययन और अनुसंधान को नई दिशाएं भी दी हैं।
राष्ट्रीय एकता वर्तमान काल की अनिवार्य आवश्यकता है। भारत जैसे बहु- प्रांतीय राष्ट्र में अनेक भाषा भाषी बसे होने के कारण उनमें अनेकरूपता मिलना स्वाभाविक ही है। जाति, धर्म, वर्ग, व्यवसाय, भाषा तथा प्रदेश आदि भिन्न- भिन्न होते हुए भी राष्ट्रीय एकता को अनुवाद के द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है। एक प्रदेश के समाज, साहित्य एवं संस्कृति आदि को दूसरे प्रदेश के लोग अनुवाद के जरिए ही समझ सकते है। अनुवाद ही उन्हें एक दूसरे के करीब ला सकता है। अतः अनुवाद राष्ट्रीय एकता के संरक्षण एवं संवर्द्धन का एक महत्वपूर्ण साधन हैं।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने अनुवाद की महत्ता को स्पष्ट करते हुए हिंदी साहित्यकारों को उत्तमोत्तम ग्रंथों का अनुवाद हिंदी में करने के लिए अनुप्राणिक किया था। ‘सरस्वती’ पत्रिका में उनके विचार इस प्रकार हैं- “जैसे अंग्रेजों ने ग्रीक और लैटिन भाषा की सहायता से अंग्रेजी की उन्नति की और उन भाषाओं के उत्तमोत्तम ग्रंथों का अनुवाद करके अपने साहित्य की शोभा बढाई, वैसे ही हमको भी करना चाहिए”।4 द्विवेदी जी के कथन से एक विचार स्पष्ट है कि अनुवाद एक ऐसा सशक्त उपादान है जिसके माध्यम से नई विधाओं के पथ प्रशस्त हो जाते हैं और विद्यमान विधाओं को पोषण मिलता है। अनुवाद की यह उपादेयता विशेष स्मरणीय है।
सारांशतः कहा जा सकता है कि अनुवाद की उपादेयता बहुमुखी है। अनुवाद वर्तमान काल की अनिवार्य आवश्यकता है। भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय साहित्य के अध्ययन- अध्यापन में भी अनुवाद की उपादेयता असंदिग्ध है।
संदर्भ ग्रन्थ एवं सहायक ग्रन्थ
1 अच्छी हिंदी- रामचंद्र वर्मा, ‘अनुवाद की भूलें’ पृष्ठ २३४
2 अच्छी हिंदी- रामचंद्र वर्मा, ‘अनुवाद की भूलें’ पृष्ठ २३४
3 डॉ. पी. जयरामन – भाषा – त्रैमासिक, पृष्ठ १४
4 ‘सरस्वती’ पत्रिका भाग-४ (हिंदी भाषा और उसका साहित्य- ले. महावीर प्रसाद द्विवेदी, (पृष्ठ ९१) सं. फरवरी-मार्च, १९०३ )
5 अनुवाद प्रक्रिया, डॉ. रीतारानी पालीवाल, १९८२