“स्त्रियों की अंधेरी दुनियां में रोशनी के प्रवेश की, घर-परिवार की चारदीवारी के भीतर सामाजिक-धार्मिक बंधनों में जकड़ी स्त्री मुक्ति की कहानी लगभग अठारहवीं शताब्दी से ही शुरू हुई। विश्व के अलग-अलग देशों में यह बदलाब कहीं जल्दी तो कहीं और देर से शुरू हुआ। अलग-अलग क्षेत्राों और कालखंडों में हो रहे बदलाव तो एक जैसे थे लेकिन अनेक परिस्थितियाँ अलग थीं और रास्ते और स्वरूप भी अलग थे।”
‘डा० नमिता सिंह‘ के द्वारा, स्त्री आन्दोलन के इस विस्तृत विमर्श की ‘दूसरी क़िस्त‘…| – संपादक
पश्चिमी नारीवाद की अवधारणा और विभिन्न नारीवादी आंदोलन

डॉ० नमिता सिंह
स्त्रियों की अंधेरी दुनियां में रोशनी के प्रवेश की, घर-परिवार की चारदीवारी के भीतर सामाजिक-धार्मिक बंधनों में जकड़ी स्त्री मुक्ति की कहानी लगभग अठारहवीं शताब्दी से ही शुरू हुई। विश्व के अलग-अलग देशों में यह बदलाब कहीं जल्दी तो कहीं और देर से शुरू हुआ। अलग-अलग क्षेत्राों और कालखंडों में हो रहे बदलाव तो एक जैसे थे लेकिन अनेक परिस्थितियाँ अलग थीं और रास्ते और स्वरूप भी अलग थे।
योरोप में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में बदलाव की प्रक्रिया अठारहवीं शताब्दी से औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप निर्मित हो रहे परिवर्तनों के द्वारा शुरू हुई। भारतीय संदर्भों में यह परिवर्तन उन्नीसवीं शताब्दी के राजनैतिक-सामाजिक बदलाव और सुधारवादी आंदोलनों के परिणामस्वरूप था। दोनों की स्थितियों और प्रवृत्ति में भी अंतर था।
स्त्रीवाद या नारीवाद या नारी विमर्श (फेमिनिज़्म) की जब बात की जाती है तो इसका तात्पर्य स्त्रियों के लिये समान अधिकार तथा उनका कानूनी संरक्षण है। प्रारंभिक चरणों में यह संघर्ष समानता और सम्मानजनक जीवन यापन के लिये, मानवोचित अधिकारों के लिये था। सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया के प्रारंभिक चरण में आधारभूत स्थितियों के लिये ही संघर्ष होता है। फिर पैरों के नीचे जमीन आने के बाद संघर्ष में विविध आयाम जुड़ते हैं। स्त्री आंदोलन ने अपने लोकतांत्रिाक अधिकारों के लिये तथा राजनैतिक-सामाजिक और आर्थिक रूप से समानता के लिये बड़े समूहों को प्रभावित किया।
योरोप में स्त्रियों का घर से बाहर निकलना और काम करने का सिलसिला औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप शुरू हुआ। पश्चिमी योरोप में विशेष रूप से ब्रिटेन से शुरू हुई औद्योगिक क्रांति से आधुनिक पूंजीवादी समाज का निर्माण शुरू हुआ जिसने अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों से और तेजी पकड़ी। उत्पादन के साधन अब उन्नत हो गये थे। भाप और बिजली की ताकत के अन्वेषण के बाद उसे टेक्नोलोजी ने उत्पादन के लिये प्रयुक्त मशीनों को उन्नत कर उत्पादन क्षमता में अभूतपूर्व वृद्धि की। लोहे को गलाने के लिये अब कोयला भट्टी नहीं, ब्लास्ट फर्नेस थी और उससे पिटवां लोहा सहज उपलब्ध था। बाजार के विभिन्न उत्पादों की अब भरमार हो रही थी। इससे उद्योगों में श्रम का पूंजीकरण शुरू हुआ। पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के साथ उत्पादन अनिवार्य रूप से बाजार की मांग से जुड़े और राज्य व्यवस्था का उपनिवेशवादी विस्तार भी हुआ।
औद्योगिक समाज के निर्माण में फ्रांस जर्मनी आदि योरोपीय देश ब्रिटेन का अनुसरण कर रहे थे। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक संयुक्त राष्ट्र अमरीका भी औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में ब्रिटेन के बराबर आने लगा था। दरअसल ब्रिटेन की इस औद्योगिक क्रांति और उसके परिणाम स्वरूप सामाजिक संरचना में बदलाव की प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका रही। इससे पहले ब्रिटेन कृषि क्रांति के दौर से गुजर चुका था। ब्रिटिश सामंत जो विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग के थे, बड़े भूस्वामी थे और जिनमें ईसाई धार्मिक नेता-पुरोहित भी शामिल थे वे राज्य व्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाते थे। परस्पर हितों के टकराव के कारण उनका राज्य सत्ता से टकराव अनिवार्य हो चला था। 1688 के निर्णायक संघर्ष में अभिजात्य वर्ग के बड़े भूस्वामियों की शक्ति असीमित हो गयी और सिंहासन पर आसीन सम्राट शक्तिहीन हुआ। भूस्वामियों ने चारागाहों को कृषि भूमि में शामिल कर लिया और अपनी भूमि संपदा की बाड़बंदी शुरू कर उस पर अपने आधिपत्य को अधिक मजबूत किया। कृषि में नये उन्नत साधनों और तकनीक के प्रयोग से जहां कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई वहीं कृषि से जुड़े और आर्थिक दुरावस्था से घिरे ग्रामीण समाज का एक बड़ा हिस्सा जो निर्धनता की स्थितियों में था, वह काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगा। शहरों में उद्योगों के मालिकों के लिये श्रमिकों की यह खेप वरदान के रूप मे थी।
इन सारे परिवर्तनों के दौरान स्त्री समाज कहां था ? इन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन वाले कालखंड में स्त्री जीवन में भी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई। आर्थिक हालात से निपटने के लिये स्त्रियां घर से बाहर निकलीं और उन्होंने भी टैक्सटाइल फैैक्टरियों, कोयले की खानों के अलावा घरेलू सेविका के रूप में और दुकानों में श्रमिक के रूप में काम करना शुरू किया। विविध उत्पाद बाजार के साथ उपभोक्ता समाज का भी निर्माण कर रहे थे और मध्यवर्ग तेजी से उभर रहा था। श्रमिक महिलाओं की स्थिति दो स्तरों पर थी। एक ओर जीविका के लिये उन्हें घर से बाहर निकलने का अवसर मिला। इसमें विवाहित और अविवाहित लड़कियां दोनों ही थीं। अन्य श्रमिकों की तरह उनके श्रम का मूल्य था और पहले की भांति पति के अधीनस्थ रहने की जगह अब घर-परिवार के पोषण में उनकी सक्रिय भूमिका बन रही थी। इसने उन्हें आत्म विश्वास प्रदान किया जो समाज में उनके स्वतंत्रा अस्तित्व निर्माण की ओर पहला कदम था।
दूसरी ओर इस नयी भूमिका में पूंजीवादी व्यवस्था जो श्रम-शोषण आधारित मुनाफे की संस्कृति है, उसने श्रमिक स्त्रियों के लिये अनेक समस्यायें भी उपस्थित कीं। श्रमिक स्त्रियां अक्सर अस्वास्थ्यकारी वातावरण में काम करने के लिये मजबूर थीं। औरतों को फैक्टरियों में कठिन श्रम के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियां भी वहन करनी थीं। अक्सर उन्हें निम्न स्तर के काम सौंपे जाते और पुरुष श्रमिक निरीक्षण कार्य में लगाये जाते। महिला श्रमिकों को बहुधा पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन पर काम करना पड़ता। सबसे दुखद स्थिति यह थी कि महिलाओं (और बच्चों के भी) काम करने के घंटे बहुत अधिक थे। कभी-कभी यह 15-16 और इससे भी अधिक हो जाते थे। कार्ल मार्क्स ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक ‘पूंजी’ के प्रथम भाग में उस कालखंड की श्रमिक स्त्रियों और बच्चों के लंबे काम के घंटों का, उनके गिरते स्वास्थ्य और मालिकों की भीषण शोषणकारी नीतियों का विस्तार से वर्णन किया है। यह स्थिति कमोवेश फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि अन्य पश्चिमी देशों में भी ऐसी ही थी।
घर-परिवार के प्रति कर्त्तव्यों के अलावा सार्वजनिक जीवन में स्त्री की भूमिका पर फ्रांस की क्रांति के बाद फ्रांस में भी बहस की शुरूआत हुई। फ्रांस में निपट गरीबी से जूझ रही जनता 1789 की प्रसिद्ध क्रांति की संवाहक बनी जिसमें स्त्रियों की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। फ्रांस की क्रांति ने विश्व को स्वाधीनता-समानता-बंधुत्व जैसा संदेश दिया जिसने दुनियां के विभिन्न स्तरों पर मुक्ति आंदोलनों को प्रभावित किया। 19वीं सदी से मध्यवर्ग उभरने लगा। अब मध्यवर्गीय महिलाएँ बाजार और खरीदार के रूप में उपभोक्तावादी समाज का मुख्य हिस्सा थीं। जब उपभोक्ता वस्तुएं होंगी, नये-नये उत्पाद होंगे और बाज़ार होगा तो विज्ञापन भी होगा। विज्ञापन अब उद्योग का रूप लेने लगा जो उस समय भी अधिकतर स्त्री केंद्रित होता था। स्त्री अब नये बन रहे पूंजीवादी समाज में केन्द्रीय स्थान ग्रहण करने लगी थी। योरोप में मध्यवर्ग में आ रहे इन परिवर्तनों के फलस्वरूप स्त्रियां शिक्षा की ओर उन्मुख हुईं। नर्स, टीचर तथा आॅफिस सेक्रेटरी जैसे रोजगार उनके लिये उपयुक्त समझे गये। वह खेलों में और खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सेदारी करने लगी थीं। यह मध्यवर्गीय स्त्री के रूपांतरण और घर-परिवार से बाहर निकल कर स्वतंत्रा व्यक्तित्व निर्माण की ओर बढ़ता कदम था। सामाजिक-राजनैतिक मुद्दे उसे समझ आने लगे थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में योरोप और पश्चिम की मध्यवर्गीय स्त्रियों में यह परिवर्तन अब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा और सार्वजनिक जीवन में उनकी स्थिति सशक्तीकरण की दिशा इंगित कर रही थी।
मेरी वॉल्टसनक्राफ्ट की पुस्तक ‘स्त्री अधिकारों का आॅचित्य-साधन’ (अ विंडिकेशन आॅफ दी राइट्स आॅफ वीमन-1792) इस दिशा में पहला प्रयास था जब समाज के सामने स्त्री की क्षमताओं को नज़रअंदाज करके उसे घर परिवार के दायरों तक सीमित करने की पुरुषों की प्रवृत्ति पर सवाल खड़े किये गये थे। उसने परिवार को ऐसा ट्रेनिंग सेंटर माना जहां स्त्री को एक प्यारी दुलारी दासी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है।’’ (तरसेम गुजराल-समय संवाद और स्त्री प्रश्न-भूमिका) उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तकµस्त्री पराधीनता (सब्जेक्शन आॅफ वीमेन-1869) प्रकाशित हुई। जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपना अधिकांश समय ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अफसर के रूप में बिताया। वह ब्रिटिश संसद के सदस्य भी रहे। ब्रिटिश आॅफिसर होने के साथ एक बहुत बड़े चिंतक-लेखक भी थे।