‘नीलाम्बुज’ की ग़ज़लें: humrang
‘नीलाम्बुज’ की ग़ज़लें
नीलाम्बुज
1-
नगरी नगरी हम भटके हैं हो कर के बंजारे जी
जुगनू-सा कोई दीप जला के बस्ती में मतवारे जी।
आहिस्ता आहिस्ता हमने खुद को पढ़ना सीख लिया
अभी तलक तो दूजों पर ही किये थे कागद कारे जी।
जोग बियोग न जान सके हम और न जाना सिजदा ही
ईश्वर अल्ला की पंगत से हम तो गए निकारे जी।
कोई हमारा अपना ही साथी रात गए संग छोड़ गया
कुछ भी हम कर पाए नहीं तब इतने हुए किनारे जी।
वादा नील जी कर देते हैं मगर बड़ी कठिनाई है
मिजाज़ सूफी, हश्र मजाज़ी, इनको कौन सँभारे जी।
(इब्ने-इंशा और नज़ीर अकबराबादी के लिए)
2-
कंटकों में पुष्प का दर्शन हुआ
कुछ तो इन ऋतुओं में परिवर्तन हुआ
बीज बोये प्रेम के सूखी जगह
सो गए जब स्नेह का वर्षण हुआ
हमने जब इक दूसरे को खो दिया
तब हमारे बीच आकर्षण हुआ
आरसी में आज मैं दिखने लगा
आज झूठा क्यों मेरा दर्पण हुआ
बात ना की ,देख तो हमको लिया
नील का जीते ही जी तर्पण हुआ ।
(आरसी=दर्पण, शीशा, आईना)
3-
कमियाँ मेरी बताता रह
फोटो ‘ज़फर अंसारी’
बेहतर मुझे बनाता रह
कितने अपने दोष गिनूँ
तू भी हाथ बँटाता रह
जब जब मेरे पर निकलें
धरती मुझे दिखाता रह
रात बड़ी अंधियारी है
जुगनू कोई जगाता रह
हुस्न गया अब इश्क़ गया
तू बस शेर सुनाता रह
मैं रो कर बेज़ार हुआ
टुक पल मुझे हँसाता रह
नील अकल का कच्चा है
उसको बस समझाता रह ।