विकास या विकास की गति को शब्दों में, किसी सपनीली दुनिया की तरह, अपनी कल्पनाओं की उड़ान से भी एक कदम आगे के स्वरूप का वर्णन कर लें किन्तु यथार्थ के धरातल पर तमाम विकास के दावे और वादे कितना मूर्त रूप ले पाए हैं यह सवाल अभी भी पूरी जटिलताओं के साथ हमारे सामने है | आधुनिकता की बातें करते हुए क्या हमें शर्मिन्दा नहीं होना चाहिए जब हमारी पहचान के सांस्कृतिक नगर एवं वहाँ का जन जीवन वर्तमान में भी सदियों पीछे दिखाई देता है ऐसे ही कुछ सवालों से दो चार कराता ‘पद्मनाभ गौतम‘ का रोचक अंदाज़ में लिखा गया यात्रा वृत्तांत महत्वपूर्ण है ….| (दो भागों में लिखे गए इस यात्रा वृत्तांत का दूसरा भाग तीन दिन बाद आपके सामने होगा ) – संपादक
वाया बनारस अर्थात् फिसल पड़े तो हर गंगे
(भाग-1)
कटनी-बिलासपुर रेलमार्ग पर पड़ने वाले जंकशन अनूपपुर से निकलने वाले अम्बिकापुर शाखा मार्ग पर कोई सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बैकुण्ठपुर। किंतु इस छोटे से वनांचलीय नगर की यात्रा का प्रश्न किलोमीटरों की गणना तथा आवागमन के वर्तमान साधनों की औसत गति के अंकगणित से हल करना सार्थक नहींं होगा। जिस प्रकार पहुँच मार्ग विहीन पर्वतीय ग्रामों की भौगोलिक स्थिति का वर्णन भौगोलिक दूरी के स्थान पर गंतव्य तक पहुँचने में लगने वाले घण्टों से किया जाता है, कुछ वैसी ही स्थिति बैकुण्ठपुर की भी है। वस्तुतः छत्तीसगढ़ के उत्तरी पठारी क्षेत्र में स्थित इस नगर की भौगोलिक स्थिति की तुलना एक वृत्त के केन्द्र से की जा सकती है, जहाँ आवागमन की समस्त उत्तम सुविधाएँ वृत्त की परिधि पर ही उपलब्ध हैं। मुख्य रेल तथा सड़क मार्गों के सभी महत्वपूर्ण पड़ाव इस नगर से न्यूनतम दो से चार सौ किलोमीटर की यात्रा करने के पश्चात् ही उपलब्ध हैं तथा इस यात्रा के लिए आवागमन के साधन अत्यंत सीमित हैं। एक समय ऐसा था जब दिल्ली से चलने वाली उत्कल एक्सप्रेस से उतरने वाले यात्री प्रातः आठ बजे अनूपपुर पहुँचकर दिन भर प्रतीक्षा करते तथा अपराह्न छूटने वाली विश्रामपुर पैसेंजर पकड़ कर सायंकाल सात-आठ बजे तक बैकुण्ठपुर पहुँचते। इसके मध्य न तो कोई बस थी, न ही कोई अन्य रेलगाड़ी। यदि किसी स्थान पर गाड़ी के भाप-इंजन में किसी प्रकार की तकनीकी खराबी आ गई, जैसा कि सामान्यतः हुआ करता था, तब कोढ़ में खाज अतिरिक्त। विडम्बना तो यह है कि आज भी उत्कल एक्सप्रेस से प्रातःकाल आने वाले यात्री सूर्यास्त के पश्चात् ही बैकुण्ठपुर पहुँचते हैंं, अर्थात् कोई पच्चीस वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी सवा सौ किलोमीटर की इस यात्रा की अवधि में मात्र दो-तीन घण्टों का ही अंतर आया है। कथनसार यह कि समस्त मुख्य मार्गाें से यहाँ तक पहुँचने हेतु न्यूनतम दिन भर की यात्रा अपरिहार्य है। उस पर गाडि़यों की प्रतीक्षा का समय अतिरिक्त। यही व्यथा हवाई यातायात में भी है। समीप के समस्त विमान स्थल तीन से चार सौ किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित हैं। तब, जब कि हमारी सरकार हमें बुलेट रेलगाडि़याें के स्वप्न दिखा रही है, छत्तीसगढ़ के इस उत्तरी भू-भाग की जनता घिसट-घिसट कर चलने को बाध्य है। द्रुतगामी राजधानी और शताब्दी गाडि़यों के युग में भी दो-चार सौ किलो मीटर की दूरी तय करने के लिए दिन-दिन बाट जोहना, यह हमारे उन्नतिशील देश के चमकते दीपक के तले का अंधकार है जो बैकुण्ठपुर व इस जैसे अन्य वनांचलीय स्थलों को विरासत में मिला है।
वस्तुतः यह प्रलाप इस हेतु भी, क्यों कि मैं व मेरा परिवार इस कष्टप्रद यात्रा का निरंतर भुक्तभोगी रहा है। विगत एक दशक से अधिक समय से जल-विद्युत परियोजनाओं में कार्य करने के कारण हिमालय पर्वत के पश्चिम में स्थित लेह-कारगिल से लेकर सुदूर पूर्व के बर्मीज आर्क पर्वतमाला पर अरुणाचल प्रदेश के हवाई-वालुंग तक रहने का अवसर मिला। यद्यपि इन दूरस्थ पर्वतीय स्थानों पर पदस्थापना के कारण बिना व्यय के पर्यटन का आनंद तो खूब मिला, किंतु लंबी-लंबी यात्राओं के कारण मिलने वाला दुख भी कम नही रहा। जब खट-मर कर नौकरी करने के पश्चात् प्राप्त होने वाले मुटठी भर अवकाश में से छह-आठ दिन एक बार की यात्रा में ही व्यय हो जाएँ तब कष्ट होना स्वाभाविक है। इस कारण हमारा बुजुर्गो पर कुपित होना भी सहज है कि उन्हें बसने के लिए भिलाई-दुर्ग या जबलपुर-भोपाल जैसे नगर क्यों नहींं दिखे, कम से कम वहाँ पहँुचने में यात्रा का एक दिवस तो बचता। आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व जब बाबा यमुना प्रसाद जी अकालग्रस्त रीवा रियासत से रोजी-रोटी की खोज में निकले तो उन्होंने सीधे कोरिया रियासत अर्थात बैकुण्ठपुर की राह ली। सोचता हूँ कि तब ऐसा कौन सा गुरूत्वाकर्षण रहा होगा इस स्थान में, जिसने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया। किंतु फिर सोचता हूँ कि इसमें पुरखों का भी क्या दोष, अंततः हम भी तो रोजी-रोटी के लिए भटक रहे हैं अरूणाचल प्रदेश जैसी जगह में, द्विजत्व का समस्त वैभव त्याग कर निपाक अर्थात मैदानी आप्रवासी का अपमानजनक संबोधन ढोते हुए। जहाँ अपनी तथाकथित मनुवादी आनुवांशिक उत्कृष्टताओं के होते हुए भी हम ही निकृष्ट हैं। परंतु यह तो मन को शांत करने वाली बात है, इससे इस दुःखदायी यात्रा का दुःख कहीं से भी कम नहींं होता।
किंतु इस समस्या का एक लाभ भी है। हमारे लिए बैकुण्ठपुर आवागमन के मार्गों की बहुतायत है; जी चाहे तो रेल मार्ग से बनारस चले जाएँ, इलाहाबाद जाएँ अथवा कलकत्ते के रास्ते बिलासपुर जंकशन, बैकुण्ठपुर से दूरी का अंतर अधिक नहींं होता। हवाई मार्ग से रायपुर चले जाएँ अन्यथा रांची, वाराणसी अथवा जबलपुर, बैकुण्ठपुर से दूरी समान ही है। यदि प्रत्येक स्थान से दिन-डेढ़ दिन की यात्रा अनिवार्य है, तब तो कोई भी मार्ग स्वीकार्य है। यद्यपि मुझे अपने वर्तमान कार्य स्थल अलांग अर्थात् अरूणाचल प्रदेश के पश्चिमी सियांग जिले के मुख्यालय से घर जाने के लिए डिब्रूगढ़ से नई दिल्ली जाने वाली राजधानी गाड़ी पकड़कर इलाहाबाद तक यात्रा करना सुविधाजनक है, किंतु चूँकि इस बार परिवार को अप्रत्याशित रूप से घर पहुँचाना पड़ गया, अतः मुझे इस गाड़ी का टिकट नही मिल पाया। तत्काल श्रेणी के टिकट के लिए कतार में लगने पर ज्ञात हुआ कि प्रातः दस बजे खुलने वाली खिड़की पर तीन मिनट के भीतर ही समस्त तत्काल टिकटें समाप्त हो चुकी थीं। पीड़ा तो हुई परंतु अब मैंने दुखड़ा रोना छोड़ दिया है, यह मानकर कि अब तो यही हमारी नियति है। जब जनसंख्या के आंकड़े को एक अरब इक्कीस करोड़ तक पहुँचाने में मैंने भी दो अदद बच्चों का योगदान दिया है, तब अपने हिस्से का भोग भोगने में शिकायत कैसी। अंततः मुझे टिकट मिला गोहाटी राजधानी एक्सप्रेस का जो डिब्रूगढ़ से छूटकर बनारस, लखनऊ मार्ग से दिल्ली जाती हैं। दिल्ली तक की यात्रा अवधि कुछ अधिक होने के कारण इस गाड़ी के टिकटों की मांग दूसरे स्थान पर है। इस प्रकार पहले किले पर विजय प्राप्त कर हम निकल पड़े अपनी चार दिवसीय यात्रा पर, इस धन्यवाद के साथ कि कम से कम हमें ब्रहमपुत्र मेल से यात्रा नहींं करनी पड़ेगी, वह गाड़ी जिसमें टिकट सामान्यतः उपलब्ध ही होता है। अर्थ स्पष्ट है कि टिकटों की मारामारी के युग में जिस रेलगाड़ी का टिकट आसानी से उपलब्ध हो जाए, उसकी यात्रा कैसी होगी।
फोटो- अनीता चौधरी
इक्कीसवीं सदी में भी चार दिवस केवल यात्रा में व्यय होने का अर्थ है नवीन अनुभवों तथा रोमांच की पूर्ण संभावना। पहले तो प्रायः पूरा दिन लग जाता है ‘आलो’ अर्थात् अलांग से असम की सीमा पर स्थित कस्बे शिलापथार पहुँचने में। यदि आप अंतिम फेरी का समय रहते शिलापथार के कारेंगबील फेरी घाट पहुँच जाएँ तब उसी दिन ब्रहमपुत्र नदी के पार जा सकते हैं, अन्यथा रातभर शिलापथार में विश्राम करने की बाध्यता है। दूसरे दिन प्रातः फेरी से ब्रहमपुत्र पार करने पर दूसरा पड़ाव मिलता है डिब्रूगढ़। परंतु यहाँ तक समय पर पहुँचना तभी संभव है जब किसी अतिवादी अथवा लोकतांत्रिक संगठन ने असम या अरूणाचल बंद का आह्वान न किया हो। कभी-कभी दोनों प्रदेशों में विभिन्न कारणों व मांगों हेतु एक ही दिवस पर बंद का संयोग बन जाता है। खेती-किसानी का मौसम न हो तो बंद की संभावना और अधिक हो जाती है। अधिकतर बंद सुनियोजित ढंग से सप्ताहांतों अथवा राजकीय अवकाशों के साथ प्रत्यय या उपसर्ग के रूप में आयोजित किये जाते हैं, जिससे सरकारी कर्मचारी भी बंद का हृदय से समर्थन करते हैंं। किंतु इस बंद महोत्सव के कारण सबसे अधिक कष्ट उठाना पड़ता है दूरदराज की यात्रा करने वाले यात्रियों को। अपने दो वर्षों से अधिक के उत्तर-पूर्व प्रवास में मुझे कितनी ही बार या तो अपना यात्रा कार्यक्रम परिवर्तित करना पड़ा है अन्यथा अपरिहार्य होने की स्थिति में खतरा मोल लेते हुए लुक-छिप कर यात्रा करनी पड़ी है। सौभाग्य से इस बार हमें इन बाधाओं का सामना नहींं करना पड़ा तथा हम दूसरे दिन सकुशल डिब्रूगढ़ पहुँच गए। डिब्रूगढ़ पहुँच कर मैदानी आप्रवासी निश्चिंतता की पहली श्वांस लेते हैं। दूसरी गहरी श्वांस मिलती हैै दीमापुर पार होने के पश्चात् और फिर कोकराझार के बाद तो जैसे सभी के चेहरे दमक उठते हैं। यह अनुभव प्रत्येक वर्ग के आप्रवासी के लिए समान है, चाहे वह एक श्रमिक हो अथवा अधिकारी तथा हम भी इससे अछूते नहींं हैं। इस बार हम समय पर स्टेशन पहुँचने के कारण प्रसन्न थे तथा गाड़ी भी ठीक समय पर प्लेटफार्म पर पहुँच गई। सायं सात बजे यात्रा प्रारंभ करने के पश्चात् दीमापुर, लमडिंग, गुवाहाटी, न्यू-जलपाईगुड़ी, कोच बिहार, अलीपुरद्वार के मार्ग से कटिहार में संवदिया को याद करते हुए जब हम रात के डेढ़ बजे बनारस पहुँचे तब रेलवे के समय के अनुसार तीसरा दिवस आरंभ हो चुका था। वैसे इस पूरी यात्रा में लगभग तीस घंटे लगते हैं। रिटायरिंग रूम जैसा कि अपेक्षित था, खाली नहीं था, अतः पत्नी व बच्चों को प्रतीक्षालय में छोड़कर मैं स्टेशन के बाहर किसी गेस्ट-हाउस अथवा होटल की खोज करने लगा। भोर के तीन बजे थे, परंतु प्रायः प्रत्येक गेस्ट-हाउस व होटल के सामने कोई न कोई बिचौलिया उपस्थित था जो अपने बताए स्थान पर ले जाने को व्यग्र था। यद्यपि इच्छा के अनुरूप स्थान न मिलने पर मैं पुनः स्टेशन आ गया था तथा मन में विचार कर रहा था कि रेणुकूट की बस पकड़ कर आगे की यात्रा प्रारंभ कर दँू, किंतु तभी मुझे एक आॅटो-रिक्शे वाले ने पकड़ लिया। पहले तो मैंने उससे पीछा छु़़ड़ाने की कोशिश की, परंतु उसकी बातों में ऐसी व्यावसायिक कुशलता थी कि अंततः मैं उसके साथ उसके बताए होटल में जाने के लिए सहमत हो गया। यद्यपि अभी अंधेरा गहरा ही था तथा ऐसे में किसी अपरिचित व्यक्ति की बातों पर भरोसा कर उसके साथ किसी अज्ञात स्थान के लिए चल पड़ना बुद्धिमत्तापूर्ण नहींं था, किंतु कई बार अविश्वास करने की समस्त परिस्थितियाँ होने पर भी आश्वासन देने वाले की वाणी में एक विशष्ट आवृत्ति होती है जो मनुष्य को समस्त शंकाओं के प्रति आश्वस्त कर देती है। ऐसी ही कुछ बात उस आॅटो चालक बद्री प्रसाद में भी थी। उसने हमें स्पष्ट बता दिया था कि ग्राहक को होटल तक पहुँचाने के बदले में उसे क्या रकम मिलती है और यदि मैं अपनी ओर से पैसे न देना चाहूँ तो कोई बात नहीं। उसने हमें विश्वनाथ मंदिर से थोड़ी दूर पर लक्सा रोड पर स्थित होटल राजमहल पहुँचा दिया। होटल में अपनी इच्छानुकूल कमरा लेने के पश्चात् मैंने उसे विदा करते हुए पचास रूपए अतिरिक्त पकड़ाए तब वह विनम्रता से और भी झुक गया। फिर हमने कमरे में अपने-अपने बिस्तर पकड़े तथा निद्रालीन हो गए।
जब हमारी निद्रा टूटी उस समय प्रातःकाल के आठ बज रहे थे। चूँकि बनारस से बैकुण्ठपुर जाने वाली बस सायं छह बजे निकलनी थी अतः हमारे पास इतना समय था कि बनारस के कुछ स्थानों का भ्रमण कर सकते थे। स्नानादि से निवृत्त होकर हमने यह निर्धारित किया कि काशी विश्वनाथ मंदिर घूमने चला जाए। वैसे मैं स्वतःस्फूर्त तीर्थयात्रा इत्यादि नहींं करता, किंतु यदि फिसल पड़े तो फिर हर गंगे कहने में भी मुझे कोई दोष नहींं दिखता, पुण्य नहींं तो पाप भी नहींंंं। यद्यपि मेरा परिवार मुझे सामान्यतः नास्तिक ही कहता है, किंतु मेरी तुलना उस मछली से की जा सकती है, जो धर्म के कल्पित क्षीरसागर से निकल कर अनुभूति की धरती पर विचरना चाहती है। इस क्रम में वह हिम्मत कर धरती पर तो आती है, परंतु उन्मुक्त श्वसन का अभ्यास न होने के कारण जल में लौट जाती है। कह सकते हैं कि आस्तिकता से नास्तिकता तक के मानसिक अंतरण का एक पड़ाव है यह। हजारों वर्षों से रक्त में निरंतर प्रवाहित किए गए धार्मिक संस्कारों को जागृत मस्तिष्क तो प्रश्नवाचक दृष्टि से ही देखता है, किंतु पितरों के द्वारा सौंपे गए आनुवांशिक गुणसूत्र यथास्थित ही चाहते हैं। अतः मंदिरों में जाकर दर्शन करना हो तो परिवार को रोकता नहींं हूँ, किंतु वैसी कोई व्यग्रता भी नही होती मन में, न तो पाप का भय तथा न ही पुण्य का लोभ भी।
जब हम होटल से मंदिर के लिए निकले तो सर्वप्रथम यह निर्धारित हुआ कि कुछ जलपान कर लिया जाए। किसी भी प्रसिद्ध मंदिर के लिए निकलते समय, स्नानादि के पश्चात् पहला कार्य जो कि प्रत्येक दशनार्थी को अवश्य कर लेना चाहिए वह है भरपेट जलपान का, भले ही यह धार्मिक सिद्धांतों के विरुद्ध हो। साथ में बच्चे हों तो यह नितांत आवश्यक है। यह ज्ञान हमें अपनी कामाख्या यात्रा में मिला था जब हम बच्चों के साथ एक संकरे गलियारे में छह घण्टों तक भूखे-प्यासे फंसे रह गए थे। वस्तुतः भूखे पेट दर्शन करने का सिद्धांत अब व्यर्थ हो चुका है, कारण कि किसी भी ऐतिहासिक महत्व के तीर्थ स्थान पर सामान्यतः चार-छह घण्टों से पहले तो दर्शन मिलते ही नहींं। यदि किसी के पास अधिक दान देकर अथवा महंगा दर्शन टिकट खरीदकर आमजन हेतु वर्जित दर्शन द्वारों से दर्शन की सुविधा प्राप्त करने की क्षमता है, तब भूखे पेट दर्शन करने जाने तथा अधिकाधिक पुण्यार्जन में कोई आपत्ति नहींं। चूँकि अपरिहार्य न होने की स्थिति में हम यह दूसरा मार्ग स्वीकार नहींं करते, अतः हमने जलपान कर लेने का निश्चय किया। लक्सा रोड पर कोई जलपान-गृह नहींं दिखा तथा होटल के सामिष भोजनालय में खाना हमारे संस्कारों के विपरीत था, अतः हमने ’स्ट्रीट फूड‘ से ही काम चलाने की सोची। परिवार के सभी सदस्यों ने पहले तो नाक-भौं सिकोड़े परंतु पूरियों के कुछ कौर निगलकर तथा जलेबियोंं का स्वाद चखते ही सभी ने मुझसे पहले एक स्वर में घोषित कर दिया कि इससे अच्छा नाश्ता अन्यत्र कहीं नहींं मिलेगा। अंत में गुणवत्ता के हिसाब से नियत हुआ कि गुवाहाटी के रेस्टोरेंट में इसी स्तर की तीन पूरियाँ और सब्जी पूरे सत्तर रूपयों की मिलती हैं तथा बनारस में वैसी ही या उससे कहीं अधिक उत्तम चार पूरियाँ और सब्जी मात्र दस रूपए की। अंतर है तो स्थान का, अंतर है सामान्य और विशिष्ट का। चूँकि हम मध्यमवर्गीय हैं, अतः हमें यह विशेष सुविधा प्राप्त है कि अपने से उच्च वर्ग हेतु हम जनसामान्य बन जाते हैं तथा निम्न वर्ग हेतु विशिष्ट। हम सत्तर रूपए में तीन पूरियाँ खाकर भी गर्वित हो सकते हैं तथा दस रूपए की चार पूरियाँ भी छक सकते हैं। यह हम मध्यमवर्गीय इच्छाधारी मनुष्यों की ’रेंज’ है।
फोटो- अनीता चौधरी
भरपेट नाश्ता करने तथा दुकानदार से गप्पें मारने के पश्चात् हमने मंदिर को प्रस्थान किया। रिक्शे पर कोई एक किलोमीटर चलने के बाद हमें एक संकरी सी गली के भीतर घुसना था। इस गली की चौड़ाई अधिक से अधिक आठ हाथों की रही होगी। ’तो इसी गली के अंदर है बाबा विश्वनाथ का मंदिर’- हमने सोचा। जिस समय भारतवर्ष की जनसंख्या एक-आध करोड़ रही होगी तब यह विचार सर्वथा निरर्थक था, किंतु आज जब स्वयं वाराणसी नगर की जनसंख्या ही तीस लाख हो गई है, तब यह प्रश्न सामने आने वाली समस्या का स्पष्ट संकेत है। गली में घुसते ही पंडों ने चारा फेंक कर हमें अपने जाल में फांसना चाहा कि यदि हम उनसे ठेका बांधेंगे तो हमें सहजता से दर्शन मिल सकेंगे। पंडों से पीछा छुड़ाकर हम उस संकरी सी गली में आगे बढ़े। वहाँ पीछे से आने वाले दर्शनार्थी हमें धक्के मार रहे थे, वहीं सामने से दर्शन प्राप्त कर आते दर्शनार्थी अलग से पीसे डाल रहे थे। गली में दूकानों की भरमार थी, विशेष रूप से मनिहारी और चिकन के कपड़ों की दूकानें। दुकानदार सभी को बहुत प्यार से बुला रहे थे, किंतु किसी से कोई गड़बड़ होने पर उतनी ही अभद्रता से गालियाँ भी दे रहे थे। अंततः हम मंदिर के समीप पहुँचे। वहाँ हमें एक प्रसाद विक्रेता रस्तोगीजी ने घेर लिया। हाथ में एक कार्ड पकड़ाया तथा झांसा दिया कि यदि आगे से जाओगे तो छः घण्टों में दर्शन होंगे, गेट नंबर एक से जाकर हमारा कार्ड दिखाओगे तो तत्काल दर्शन मिलेंगे। इतना कहकर उसने हमें सोचने का मौका दिए बिना चप्पलें उतरवाईं और हस्तप्रक्षालन करवा कर सैकड़ों रूपए का प्रसाद थमाने लगा। उसके थमाए बर्फी के डिब्बे को खोला तो देखा कि उसमें बर्फी के छः-आठ टुकड़ों से ज्यादा न रहे होंगे, उसमें भी कीड़े रेंग रहे थे। उसके मन का प्रसाद न खरीदने पर उसने हमें डपटा कि हमारी मर्जी से प्रसाद नहींं मिलेगा। तब हम क्रोध में उसकी दूकान छोड़कर आगे चल पड़े। कुछ और आगे चल कर देखा कि एक गली में एक वृद्ध हलवाई प्रसाद बेच रहा था। उसने हमारी इच्छा के अनुरूप प्रसाद दिया तथा हम दर्शन हेतु कतारबद्ध हो गए। आरती का समय था, अतः लगभग आधे घंटे की प्रतीक्षा के पश्चात् मंदिर के पट खुले। कोई पंद्रह मिनटों पश्चात् कई स्थानों पर कपड़ों की तलाशी देते हुए हम अंततः गर्भगृह पहुँचे। भीतर पहुँचते ही एक पुलिसवाले ने मुझे बाहर की ओर धकियाना प्रारंभ कर दिया। धक्का-मुक्की के मध्य मुझे पीतल की छड़ों के घेरे में एक छोटा सा शिवलिंग भर दृष्टिगोचर हुआ। अभी मैं दृष्टिपात कर ही पाया था कि पुलिसवाले ने मुझे धकेल कर बाहर कर दिया। बाहर निकलते हुए मैंने प्रसाद की टोकरी को शीघ्रता से शिवलिंग पर उलट दिया। पीछे देखा तो पत्नी तथा बच्चे भी बाहर आ रहे थे। किसी सहृदय दक्षिण भारतीय महिला ने उन्हें वहीं से उठा कर चंदन का तिलक लगा दिया था, जिससे वे दर्शन में प्राप्त अतिरिक्त सफलता पर मुग्ध थे, तथा मैं प्रसन्न हो रहा था एक कोने में लगे पंखे की वायु में बैठकर। चँूकि जिस बरामदे में मैं बैठा था वह पंडितों के पूजा कराने का स्थान था, अतः कोई कर्मकाण्ड न कराने के कारण हम वहाँ से भी उठा दिए गए। हमने बाहर आकर प्रसाद विक्रेता के पैसे चुकाए तथा वापस चल पड़े। रास्ते में देखा तो प्रसाद विक्रेता रस्तोगी अब किसी दक्षिण भारतीय परिवार को बरगला रहा था। मैं ठहर कर उसे बताना चाह रहा था कि हमें दर्शन में छह नही वरन् केवल पौन घंटे लगे, परंतु मुझे रूकता देख कर पत्नी ने धक्का दिया और इतना समय ही नहींं दिया कि मैं उसे मुँह चिढ़ा पाता। वैसे भी मेरे चिढ़ाने से उसे कोई अंतर भी नहींं पड़ना था। रास्ते में पत्नी ने श्रृंगार के सामानाें की खरीददारी कर ही ली। मेरे मन में यह प्रश्न घुमड़ रहा था कि केवल एक सेकण्ड के चौथाई हिस्से का दृष्टिपात करने के लिए इतनी मुसीबतें व इतने धूर्तों को झेलना, वस्तुतः इसका औचित्य क्या है। फिर मैंने अपने मन की एक अदृश्य डायरी के पन्ने पर सही का चिह्न लगाया, जिसके आगे लिखा था- ‘काशी विश्वनाथ’। संभवतः आज के युग में तीर्थ यात्राओं के पीछे श्रद्धा से अधिक परंपरा निर्वहन का भाव रह गया है अर्थात् पुरखों की सौंपी सूची पर एक सही का चिह्न और। इधर धूप तेज हो चली थी तथा हम बच्चों के साथ अन्यत्र कहीं जाने का विचार त्याग कर वापस होटल को चल पड़े।
वापस जाते हुए हमने रास्ते के एक भोजनालय में भोजन किया, मध्यमवर्गीय संस्कारों के अनुरूप उसके सस्ते व अच्छे होने की प्रशंसा की, टिप के विचार को मन से झटका तथा फिर हम होटल पहुँच कर सो गए। शाम साढ़े छः बजे वाराणसी कैंट के समीप से मनेंद्रगढ़ जाने वाली बस पकड़ी जो व्हाया रेणुकूट, अंबिकापुर होकर मनेंद्रगढ़ पहँुचती है। इसी मार्ग पर मनेंद्रगढ़ से कोई पचास किलोमीटर पहले पड़ता है बैकुण्ठपुर, जो हमारे भ्रमण वृत्त के साथ-साथ हमारे जीवन-वृत्त का भी केन्द्र है। रात का भोजन राबर्ट्सगंज के ढाबे में करने के पश्चात् पत्नी व बच्चे तो ऊपर के स्लीपर में घुस कर सो गए पर मैं रात भर सीट पर बैठा ऊँघता रहा। रात्रि के दो बजे यात्रियों के चाय पीने के लिए बस छत्तीसगढ़ की सीमा में रेवटी नामक जगह पर रुकी। चाय पीते हुए काफी समय तक सोचता रहा कि यह स्थान कुछ जाना-पहचाना है, परंतु कुछ याद नहींं आ रहा था। बाद में घर पहुँच कर पुराना अलबम देखते हुए मुझे याद आया कि यह तो वह स्थान था जहाँ मैं सन् सत्तानबे में अपने तीन सहपाठियों के साथ एम.टेक. उपाधि पाठ्यक्रम के लघु शोधप्रबंध के कार्य हेतु आया था तथा हमने तीन सप्ताह तक इस वाड्रफनगर के क्षेत्र में घूमते हुए यहाँ का भूगर्भशास्त्रीय नक्शा बनाया था। याद आया कि इसी रेवटी-बसंतपुर के अपने अनुभवों के आधार पर मैंने अपनी कविता ‘नक्सलाइट बेल्ट में‘ लिखी थी जो ‘अक्षरपर्व‘ के सन् 2004 के किसी अंक में छपी थी तथा काफी चर्चित हुई थी।
रात भर की यात्रा के पश्चात् हमारी बस प्रातः छह बजे बैकुण्ठपुर पहँुच गई। इस प्रकार बनारस से घर तक की यात्रा में कुल ग्यारह घंटे लगे। प्रतीत होता है कि आजकल राजमार्गों की स्थिति अपेक्षाकृत सुधरी हैै। आज से पंद्रह वर्ष पूर्व जब हम अंबिकापुर होकर वाड्रफनगर गए थे तब हमें यात्रा में आठ घंटे लगे थे, वह भी निजी वाहन से। पंद्रह वर्ष उपरांत यदि हम दस-बारह घंटो में बनारस पहुँच रहे हैं, तब निश्चय ही प्रगति के कुछ सोपान तो हमने चढ़े ही हैं, भले ही राष्ट्रीय प्रगति के अनुपात में यह नगण्य ही हो। घर पहुँचकर बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था तथा अलांग से आने वाले घरेलू सामान को व्यवस्थित करने के पश्चात् मुझे नौकरी पर वापस जाना था।
(क्रमशः……)