जीवन के तमाम रंगों की ग़ज़ल : समीक्षा (प्रदीप कान्त)

कविता पुस्तक समीक्षा

प्रदीप्त कान्त 537 11/17/2018 12:00:00 AM

हिन्दी ग़ज़ल की वर्तमान पीढ़ी में जिन लोगों ने तेज़ी से अपनी अलग पहचान बनाई है उनमे एक ज़रूरी नाम प्रताप सोमवंशी का भी है| इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि यह कहा जाए कि समकालीन कविता की तरह प्रताप की ग़ज़ल भी समकालीन ग़ज़ल है| समकालीनता के बानगी के लिए कुछ शेर देखिये- घर में कमरे बढ़ गए लेकिन जगह सब खो गई बिल्डिंगें ऊँची हुई और प्यार छोटा पड़ गया लक्ष्मण-रेखा भी आख़िर क्या कर लेगी सारे रावण घर के अंदर निकलेंगे………..

जीवन के तमाम रंगों की ग़ज़ल

प्रदीप कान्त की ग़ज़लें

प्रदीप कान्त

इस में बच्चे का है गुनाह कहाँ
वो अगर तितलियाँ नहीं लिखता

प्रताप सोमवंशी का यह शेर हमारे समय की भयावह सच्चाई को बयान करता है| वह समय, जिसमे बच्चे तितली, फूल या गिल्ली डंडा की बात नहीं करते वरन स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने लगे हैं और वास्तविक दुनिया में खेल नहीं, वरन वर्चुअल वर्ल्ड में गेम खेलते हैं| शायद ४ या ५ साल पहले प्रताप सोमवंशी का नाम सुना और उनकी गज़लें खोज कर पढ़ी, जितनी भी मिली और जहाँ भी| अब सुखद यह है कि प्रताप का ग़ज़ल संग्रह ‘इतवार छोटा पड़ गया’ मेरे सिरहाने रखा है जो वाणी प्रकाशन से छापा है|

हिन्दी ग़ज़ल की वर्तमान पीढ़ी में जिन लोगों ने तेज़ी से अपनी अलग पहचान बनाई है उनमे एक ज़रूरी नाम प्रताप सोमवंशी का भी है| इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि यह कहा जाए कि समकालीन कविता की तरह प्रताप की ग़ज़ल भी समकालीन ग़ज़ल है| समकालीनता के बानगी के लिए कुछ शेर देखिये-

घर में कमरे बढ़ गए लेकिन जगह सब खो गई
बिल्डिंगें ऊँची हुई और प्यार छोटा पड़ गया

लक्ष्मण-रेखा भी आख़िर क्या कर लेगी
सारे रावण घर के अंदर निकलेंगे

किसी के साथ रहना और उससे बच के रह लेना
बताओ किस तरह से लोग ये रिश्ता निभाते हैं

थोड़ा और दहेज जुटा
बिटिया तेरी काली है

डरता है ‘परधान’ से वो
वोट करेगा ध्यान से वो

ये शेर पढ़ने के बाद पहली बात जो महसूस होती है वह यह कि प्रताप के ग़ज़लकार की तीक्ष्ण दृष्टि हमारे समय और समाज को बखूबी पकड़ती है| दूसरी बात जो पकड़ में आती है वह इन ग़ज़लों का लहज़ा है जो बातचीत की आम भाषा और मुहावरों में सामने आता है यानी प्रताप का ग़ज़लकार परम्परागत ग़ज़ल के प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि वह इसी समाज की भाषा और मुहावरे का इस्तेमाल करता है| और इसीलिए ये गज़लें कविता की तरह धीरे धीरे आपके ज़ेहन में उतरती हैं बजाय एकदम से चमत्कृत करने के| एक रचनाकार अपने समय से ही नहीं, स्वयं से भी लड़ता है, और प्रताप का ग़ज़लकार भी ख़ुद से लड़ता है-

शाम ढले ये टीस तो भीतर उठती है
मेरा ख़ुद से हर इक वादा झूठा था

कहने को यह निजी लग सकता है किंतु यह निज का नहीं, जग भर का अनुभव है और समाज को इसी टीस यानी आत्मालोचन की बेहद ज़रुरत है| और जब आत्मालोचन होता है तो रचनाकार ख़ुद को भी आँकता है| प्रताप का ग़ज़लकार भी स्वीकारता है-

लायक कुछ नालायक बच्चे होते हैं
शेर कहाँ ही सारे अच्छे होते हैं

बिल्कुल…, शायर को मालूम है कि सारे शेर कहाँ अच्छे होते हैं लेकिन इस बात को भी स्वीकार करने की हिम्मत होनी चाहिए कि शेर केवल अच्छे या बुरे के लिए नहीं कहे जाते हैं, वरन शेर भी उसी साहित्य का हिस्सा हैं जो समाज और काल को व्यक्त करता है| काल समकाल भी हो सकता है और अतीत की बात भी …| प्रताप का गज़लकार भी कहता है-

हज़ारों बार मुझ से मिल चुका है
ज़रूरत हो तभी पहचानता है

राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था
दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था

ज़रा सोचिये, शायर कितनी आसानी से समाज में बढ़ती हुई धूर्तता को पकड़ रहा है जबकि सरलता से किसी बात को कहना जटिल है| यह गज़लकार जीवन के तमाम रंगों को लिखता है – वह जानता है कि तल्खियों से कुछ होना नहीं –

पेज़ सादा ही छोड़ देता हूँ
मैं कभी तल्ख़ियाँ नहीं लिखता

तल्खियों को नकारने वाला प्रताप का गज़लकार यह जानता है कि सियासत क्या कर रही है–

सरासर झूठ बोले जा रहा है
औ’ हुंकारा अलग भरवा रहा है

तुम्हारे हौसले बढ़ने लगे हैं
तुम्हारा नाम छाँटा जा रहा है

प्रताप का यह ग़ज़ल संसार बच्चे, अम्मा, चिड़िया आदि से भी भरपूर है तो रिश्तों के अलग अलग रंगों को भी रचता है-

मेरे बच्चे फ़ुटपाथों से अदला-बदली कर आए हैं
चंद खिलौने दे आए हैं ढेरों ख़ुशियाँ घर लाए हैं

तू अगर बेटियाँ नहीं लिखता
तो समझ खिड़कियाँ नहीं लिखता

जमूरा सिर खुजाता है, मदारी हाथ मलता है
तमाशा देख कर बदमाश बच्चे भाग जाते हैं

अम्मा भी अखबार के जैसी रोज सुबह
पन्ना-पन्ना घर भर में बंट जाती हैं

कुछ दिन इस घर, कुछ दिन उस घर रहने की मजबूरी में
अम्मा-बाबू भी बच्चों में दो हिस्से हो जाते हैं

अपने परों से ढांक के बच्चे बारिश से वो जूझ रही है
पेड़ पे बैठी एक चिड़िया से रिश्ते जीना सीख रहा हूँ

दिक़्क़तें अक्सर वो मेरी बाँटती है इस तरह
अपने बक्से से निकालेगी अभी दो चार सौ

भाभी बेमतलब रहे हम सबसे नाराज
उसको हर पल ये लगे मांग न लें कुछ आज

फर्राटे से स्कूटर ही क्या, बाइक चलाती लड़कियाँ, सडकों पर दौड़ती महंगी गाड़ियाँ, बाज़ार के चमचमाते मॉल वगैरह वगैरह देख कर लगता है कि हालात पहले से बेहतर हुए हैं पर गज़लकार पकड़ ही लेता है-

ये जो इक लड़की पे हैं तैनात पहरे-दार सौ
देखती हैं उस की आँखें भेड़िये ख़ूँ-ख़्वार सौ

महंगे कपड़े, लम्बी गाड़ी
आँख मगर उजड़ी उजड़ी है

थोड़ी अच्छी खराब है साहेब,
जिन्दगी एक किताब है साहेब

प्रताप एक महानगर के निवासी हैं तो महानगरीय संवेदना से अछूते नहीं रह सकते, इसलिए उनके यहाँ से फ्लैट वासियों पर एक अच्छा शेर आता है-

फ्लैट वालों का मिलना होता है
लिफ्ट में या रेस्तरानो में

प्रताप के ग़ज़लकार का एक अलग सलीक़ा है जो चकित करता है, क्या शेर ऐसे भी हो सकते हैं-

ज़िन्दगी में सूकून जब आया
जब वसीयत में सादगी कर ली

मैंने उस एक्वेरियम की घुटती साँसे देख ली
कैसे कह देता मुझे वो मछलियाँ अच्छी लगी

यहाँ थाली से चिड़ियों के लिए हिस्सा निकलता है
हुआ ज़ाहिर कि पुरखों की प्रथाएँ जीत जाती हैं

छिपाए जाते हैं पन्ने उन्ही में सुख-दुख के
हमारे सीने में अलमारियाँ भी मिलती हैं

इक दीवार जो बँटवारे की दोनों घर के बीच उठी
ठीक उसी के ऊपर चिड़िया रोज़ फुदकती रहती है

सूरज को गाली देना फैशन है
छाँव की खातिर पेड़ लगाना पड़ता है

शहर वो साहूकार है जिसको कोस रहा है हर कोई
ये सच भी मालूम है सबको, दाना पानी उसके पास

काम मुश्किल है बहुत ख़ुद पर हुकूमत करना
पाँव चादर में सिकुड़ने से मना करता है

दर्जनों क़िस्से-कहानी ख़ुद ही चल कर आ गए
उस से जब भी मैं मिला इतवार छोटा पड़ गया

इक भरोसा ही मिरा मुझ से सदा लड़ता रहा
हाँ ये सच है उस से मैं हर बार छोटा पड़ गया

उम्मीदों के पंछी के पर निकलेंगे
मेरे बच्चे मुझ से बेहतर निकलेंगे

और भी कई शेर हैं लेकिन लिखा कितना जाए? कुल मिलाकर ये गज़लें सरोकारों और उम्मीदों की गज़लें हैं| बहरहाल, बिना किसी शोर शराबे और सादगी से ग़ज़ल कहने वाले प्रताप भाई के इस शेर से बात खत्म करता हूँ

बहुत अच्छा है फल आये हैं लेकिन
दुआ ये भी करो आँधी न आये

प्रदीप्त कान्त द्वारा लिखित

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